20 फ़रवरी 2024

Krantikari Jaydev Kapoor | अमर क्रांतिकारी | जयदेव_कपूर | (24 अक्टूबर, 1908 - 19 सितंबर, 1994)

 


#Krantikari #Jaydev_Kapoor #अमर क्रांतिकारी #जयदेव_कपूर (24 अक्टूबर, 1908 - 19 सितंबर, 1994)

🇮🇳 #जयदेव का जन्म 1908 में दीवाली की पूर्व संध्या पर हरदोई, उत्तर प्रदेश में हुआ था। उनके पिता शालिग्राम कपूर आर्य समाज के सदस्य थे। जयदेव ने छोटे महाराज और ठाकुर राम सिंह के संरक्षण में कुश्ती सीखी

🇮🇳 #अंडमान की कुख्यात #कालापानी जेल में नंगे बदन पर रोज कोड़ों की मार झेलते रहे हरदोई के लाल जयदेव, पर कभी उफ्फ तक नहीं की 🇮🇳

🇮🇳 देश की आजादी में कई ऐसे क्रांतिकारियों का योगदान रहा है जिन्होंने इस राष्ट्र को स्वाधीनता के प्रकाश में लाने के लिए अपना पूरा जीवन अंधकार से भरी जेल की तंग कालकोठरियों में गुजार दिया, बावजूद इसके उनकी शहादत इस स्वाधीन राष्ट्र जो उनके पुण्य बलिदानों का प्रतिफल है, में उचित सम्मान पाने के लिए आज संघर्ष कर रही है.  

🇮🇳 #माँ_भारती के पैरों में पड़ी परतंत्रता की बेड़ियों को तोड़ने के उद्देश्य से संघर्ष करने वाले ऐसे ही एक क्रांतिकारी #जयदेव_कपूर जी को हम आज याद कर रहे हैं. जयदेव कपूर उत्तरप्रदेश के #हरदोई के रहने वाले थे. #कानपुर के डीएवी हॉस्टल में रहते हुए वह क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आए और जल्द ही उनकी एक टोली में शामिल हो गए. इस दौरान वे #चन्द्रशेखर_आजाद और फिर शहीद-ए-आजम #भगतसिंह के संपर्क में आए.

🇮🇳 8 अप्रैल 1929 को जब सेंट्रल असेम्बली में बम फेंकने की योजना बनी तो जयदेव कपूर और #शिव_वर्मा ने भगत सिंह और #बटुकेश्वर_दत्त के एंट्री पास का इंतजाम कर उनको असेम्बली में दाखिल करवाया, जिसके बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने बम फेंका था. सेंट्रल असेम्बली में बम विस्फोट कांड में षडयंत्रकर्ता के तौर पर पकड़े जाने के बाद जयदेव कपूर को #अंडमान की कुख्यात #कालापानी जेल भेज दिया गया. वहाँ सजा काटने के दौरान जयदेव ने देखा कि जेलर भारतीयों को गाली दे रहा है तो उन्होंने उसे ऐसा घूँसा मारा कि उसके दाँत टूट गए.

🇮🇳 इसका नतीजा ये हुआ कि सजा के तौर पर उन्हें प्रतिदिन नंगे बदन पर 30 कोड़े लगाने का फरमान सुनाया गया. इस कठिन सजा को आजादी के इस परवाने ने हँसते हुए झेल लिया. कोड़े को पानी में भिगोकर इतनी जोर से मारा जाता था कि वह जिस जगह पर पड़ता वहाँ की चमड़ी साथ उधेड़ लाता, लेकिन मजाल कि माँ भारती के इस सच्चे सपूत ने दर्द से उफ्फ तक भी की हो. जयदेव कपूर की ये सहनशीलता देख अंग्रेजी अफसर भी दंग रह जाते. अंडमान जेल की सजा के दौरान बदन पर पड़े कोड़ों  के निशान जयदेव जी के शरीर पर ताउम्र बने रहे. 

🇮🇳 जयदेव कपूर भगतसिंह के करीबी मित्रों में से एक थे.  8 अप्रैल 1829 को असेंबली हाल में बम फेंकने से पहले शहीद भगतसिंह ने जयदेव को अपने जूते भेंट किए थे. साथ ही उन्होंने एक पॉकेट घड़ी भी उन्हें दी थी जो महान क्रांतिकारी #शचीन्द्रनाथ_सान्याल ने उन्हें भेंट की थी.  इन्हें देते हुए भगतसिंह से जयदेव  से आजादी की मशाल को जलाए रखने का वचन लिया था. जयदेव कपूर स्वतंत्रता के बाद भी लगभग 2 वर्ष तक जेल में रहे. सन 1949 में जेल से रिहा होकर उन्होंने शादी कर ली. उसके बाद सन 1949 से  एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में वे वंचितों और शोषितों की आवाज बुलंद करते रहे. 19 सितंबर 1994 को 86 वर्ष की आयु में जयदेव कपूर का निधन हो गया। 

साभार: zeenews.india.com

सेंट्रल असेम्बली में बम फेंकने की योजना के अन्तर्गत सुप्रसिद्ध क्रांतिकारियों भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को एंट्री पास दिलाने की व्यवस्था करने वाले अमर क्रांतिकारी #जयदेव_कपूर जी को शत् शत् नमन !

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था

#Krantikari_Jaydev_Kapoor #freedomfighter  #inspirational_personality

Swami Shivanand | स्वामी शिवानन्द | जन्म- 16 दिसंबर, 1854; मृत्यु- 20 फ़रवरी, 1934




#Swami_Shivanand (16 December, 1854 -20 February, 1934)

🇮🇳 स्वामी शिवानन्द (जन्म- 16 दिसंबर, 1854; मृत्यु- 20 फ़रवरी, 1934) #रामकृष्ण_मिशन के दूसरे संघाध्यक्ष थे। उनका पूर्व नाम '#तारकनाथ_घोषाल' था। उनके शिष्य उन्हें 'महापुरुष महाराज' के नाम से पुकारते थे। स्वामी शिवानन्द हिन्दू आध्यात्मिक नेता और रामकृष्ण परमहंस के प्रत्यक्ष शिष्य थे।

🇮🇳 स्वामी शिवानन्द का जन्म #पश्चिम_बंगाल के #बरसात नामक ग्राम में हुआ था।

🇮🇳 वह #हिन्दू आध्यात्मिक नेता और रामकृष्ण के प्रत्यक्ष शिष्य थे, जो रामकृष्ण मिशन के दूसरे अध्यक्ष बने।

🇮🇳 उनके भक्त उन्हें महापुरुष महाराज (महान आत्मा) के रूप में संदर्भित करते हैं।

🇮🇳 स्वामी शिवानन्द और सुबोधानंद रामकृष्ण के एकमात्र प्रत्यक्ष शिष्य थे। वह एक ब्रह्मज्ञानी थे।

🇮🇳 शिवानन्द जी को #बेलूर_मठ में श्री रामकृष्ण मंदिर की आधारशिला रखने के लिए जाना जाता था, जिसे विजयानंद ने डिजाइन किया था।

साभार: bharatdiscovery.org

🇮🇳 #रामकृष्ण_परमहंस के प्रत्यक्ष शिष्य, #रामकृष्ण_मिशन के दूसरे संघाध्यक्ष #स्वामी_शिवानन्द जी को उनकी पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था

Sarat Chandra Bose | शरत चन्द्र बोस | जन्म: 6 सितंबर 1889- मृत्यु 20 फरवरी 1950




Sarat Chandra Bose (Born: 6 September 1889- Died 20 February 1950)

🇮🇳 शरत चन्द्र बोस (जन्म: 6 सितंबर 1889- मृत्यु 20 फरवरी 1950)

उनके पिता का #जानकी_नाथ_बोस तथा उनकी माता का नाम #प्रभावती था। 

🇮🇳 नेताजी बोस इतना बड़ा व्यक्तित्व बन गए कि लोग उनके #मेज_दादा की चर्चा ही नहीं करते, जिनकी वजह से नेताजी बोस कैरियर और राष्ट्रीय आंदोलन में इस ऊँचाई तक पहुँच पाए, जिनकी मदद से सुभाष बाबू अपनी जिंदगी की तमाम बाधाओं पर पार पाते रहे. उन शरत चंद्र बोस के बारे में आम युवा से पूछेंगे तो शायद यही बता पाए कि उनके भाई थे, इससे ज्यादा नहीं. आज उनकी पुण्यतिथि है, इस मौके पर #सुभाष_चंद्र_बोस के 'ट्रबल शूटर' शरत चंद्र बोस के बारे में जानिए:  

🇮🇳 शरत चंद्र बोस अपने माता पिता की चौथी संतान और दूसरे बेटे थे, जबकि सुभाष चंद्र बोस उनसे 8 साल छोटे थे. शरत चंद्र बोस पर बंग भंग आंदोलन का काफी प्रभाव पड़ा, 18 साल की उम्र में वो कांग्रेस से जुड़ गए. अपने कॉलेज के ऐसे प्रखर वक्ता बन गया, जिनसे पार पाना मुश्किल था. 1911 से 1914 तक इंगलैंड में पढ़ाई करके लौटे तो कोलकाता हाईकोर्ट में बैरिस्टर बन गए. उस दौर में क्रांतिकारी और राजनीतिक कार्यकर्ता आसानी से जेल जाने के तैयार रहते थे क्योंकि उन्हें पता था कि उनको जल्द शरत बाबू छुड़ा लेंगे और उनके परिवार का ख्याल भी रखेंगे.

🇮🇳 उनका घर 1, वुडबर्न पार्क राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया, जब भी #गाँधीजी या #नेहरू जैसे नेता #कोलकाता आते तो उनके घर ही ठहरते. ऐसे में उनके छोटे भाई सुभाष बाबू को ये माहौल और शरत बाबू जैसा संरक्षक मिला तो उनको देश की दशा और राजनीति को करीब से समझने का मौका मिला और भरपूर आत्मविश्वास भी. जब भी कोई मुश्किल सुभाष बाबू के सामने आती, वो फौरन अपने मेज दादा की शरण में आते और चुटकियों में वो मुश्किल हल हो जाती.

🇮🇳 जब सुभाष चंद्र बोस को प्रेसीडेंसी कॉलेज में एक घटना के बाद प्रिंसिपल ने निष्कासित कर दिया, तो शरत बाबू ने अपने सम्पर्कों से उनका एडमीशन स्कॉटिश चर्च कॉलेज में करवाया और वो कैसे सुभाष बाबू की आर्थिक देखभाल करते थे, उसके बारे में आप सुभाष बाबू के एक पत्र से बखूबी समझते हैं. ये पत्र सुभाष चंद्र बोस ने शरद चंद्र बोस को तब लिखा था, जब वो 1921 में आईसीएस (सिविल सर्विस) की परीक्षा पास करने के बाद इस्तीफा दे रहे थे, इस पत्र में सुभाष बाबू ने लिखा था, "जब मैं आपसे अपने इस्तीफे के विषय में आग्रह कर रहा हूँ तो यहाँ मैं अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए कुछ नहीं माँग रहा, बल्कि अपने भाग्यहीन देश के लिए माँग रहा हूँ. मुझे पर खर्च किए गए धन को आपको माँ पर किए गए खर्च के रूप में देखना होगा, बिना प्रतिलाभ की आशा किए हुए." 

🇮🇳 जिस कांग्रेस को बंगाल में खड़ा करने के लिए शरत बाबू ने अपना सबकुछ दाँव पर लगा दिया, इतना समय दिया, अंग्रेजों से झगड़ा मोल लिया, इतना पैसा दिया, उसी कांग्रेस के नेताओं ने जब साजिश करके सुभाष चंद्र बोस को लगातार दूसरी बार कांग्रेस अध्यक्ष बनने देने की राह में रोड़े अटकाए, 1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस ने गाँधीजी के प्रिय #पट्टाभि_सीतारमैया को हराकर अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया, तो कोई भी उनके साथ नहीं खड़ा था, केवल शरत बाबू खड़े थे.

🇮🇳 तब शरत बाबू ने गाँधीजी को गुस्से में एक #पत्र भी लिख डाला था, "त्रिपुरी में जिन 7 दिनों में मैंने रहकर जो कुछ भी देखा, सुना वह मेरी आँखें खोल देने वाला था. जिन लोगों को जनता खुद आपके द्वारा चुने गए शिष्यों, प्रतिनिधियों के रूप में देखती है, उनमें सत्य और अहिंसा का जो दृश्य मैंने देखा, उसने खुद आपके ही शब्दों में मेरी नासिका में दुर्गन्ध भर दी है. राष्ट्रपति (कांग्रेस अध्यक्ष) के विरुद्ध जो प्रचार उन्होंने किया, वह पूरी तरह से निकृष्ट, दुर्भावना से पूर्ण और प्रतिशोधपूर्ण था, जिसमें सत्य और अहिंसा का पूर्णत: अभाव था. त्रिपुरी में जनता के सामने आपके नाम की कसमें खाने वालों ने अपने स्वार्थ सिद्धि करने के लिए और उसको पीड़ा का अधिकतम शर्मनाक लाभ अर्जित करने के लिए उसे गतिरोध के सिवा कुछ नहीं दिया’’.

🇮🇳 सुभाष बाबू भी उन्हें कम सम्मान नहीं देते थे, जब वियना में उनका एक मुश्किल ऑपरेशन होना था, डॉक्टर ने पूछा कोई संदेश देना चाहते हैं, तो वो मुस्कराए और लिखा, "मेरे देशवासियों के लिए मेरा प्यार और मेरे बड़े भाई के प्रति मेरा आभार." जब 1941 में सुभाष चंद्र बोस ने शरत बाबू की सलाह पर ही भारत छोड़ने का निर्णय लिया तो जापान से उन्हें एक पत्र भेजा और उन्हें आभार व स्नेह लिखा और साथ ही लिखा कि, "ऐसा ही स्नेह मेरी बेटी और पत्नी को भी मिले, जिन्हें पीछे छोड़कर जा रहा हूँ."

🇮🇳 ऐसे रिश्ते थे दोनों भाइयों के, ऐसे में #आजाद_हिंद_फौज के चलते सुभाष बाबू इतने बड़े सूर्य बन गए कि उनके सामने बाकी लोग दीपक लगते हैं. शरत बाबू को भी लोग इसीलिए कम जानते हैं, वरना शरत बाबू ही थे जो हर वो नींव तैयार करते रहे, जिस पर सुभाष चंद्र बोस ने सीढ़ियाँ बनाईं. शरत बाबू अलग-अलग केसों में आजादी की लड़ाई के लिए 8 साल तक जेल में रहे, बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष रहे, संविधान सभा में भी चुने गए. जब तक रहे देश और समाज के लिए काम करते रहे.

साभार: zeenews.india.com

🇮🇳 नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बड़े भाई एवं मार्गदर्शक, स्वतन्त्रता सेनानी #शरत_चन्द्र_बोस जी की पुण्यतिथि पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि !

वन्दे मातरम् 🇮🇳

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था

#Sarat_Chandra_Bose #freedomfighter  #inspirational_personality

19 फ़रवरी 2024

Freedom Fighter | Gokulbhai Bhatt | स्वतंत्रता_सेनानी | क्रांतिकारी गोकुलभाई भट्ट | 19 February 1898 – 6 October 1986




#स्वतंत्रता_सेनानी 

#Gokulbhai_Daulatram_Bhatt (19 #February 1898 – 6 #October 1986) was a #freedom_fighter and a #social_worker from #Rajasthan state in #India.

🇮🇳 भारत की आज़ादी के दौरान राजस्थान की देशी रियासतों के लोगों में #राष्ट्रीय_चेतना फैलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले क्रांतिकारी गोकुलभाई भट्ट की आज 19 फरवरी को जयंती है। गोकुलभाई को ‘राजस्थान का गाँधी’ के नाम से भी पुकारा जाता है। वह एक कुशल वक्ता, कवि, बहुभाषाविद, पत्रकार और लेखक थे। इसके अलावा गोकुलभाई एक सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। वह भारत की संविधान सभा के सदस्य थे और बॉम्बे राज्य का प्रतिनिधित्व करते थे। गोकुलभाई भट्ट कुछ समय तक सिरोही रियासत के मुख्यमंत्री भी बने थे। उन्होंने राज्य में जल संरक्षण पर काफी जोर दिया और लोगों को जागरूक भी बनाया। ऐसे में इस मौके पर जानते हैं उनके जीवन के बारे में कुछ अनसुनी बातें…


🇮🇳 गोकुलभाई भट्ट का जन्म 19 फरवरी, 1898 को राजस्थान की तत्कालीन #सिरोही रियासत के #हाथल गॉंव में एक साधारण ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका पूरा नाम गोकुलभाई दौलतराम भट्ट था। उनके पिता #दौलतराम तथा माता #चम्पाबाई सात्विक विचारों वाले थे। उनके पिता बंबई (मुंबई) के व्यवसायी के यहाँ नौकरी करते थे, इस कारण से उनका बचपन बंबई में बीता। उनकी आरंभिक शिक्षा बंबई में ही हुई थी। उन्होंने कृषि विज्ञान में आगे पढ़ाई के लिए यूएसए जाने का विचार किया, लेकिन बाद में वह #गाँधीजी के देश के प्रति समर्पण भाव को देखकर प्रभावित हुए। उन्होंने देश की आजादी और समाज सेवा में अपना जीवन लगा दिया।

🇮🇳 क्रांतिकारी गोकुलभाई भट्ट पर वर्ष 1920 में ‘#असहयोग_आंदोलन’ के दौरान #गॉंधीजी द्वारा की गई घोषणाओं का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने सरकारी शिक्षण संस्थाओं का बहिष्कार किया और आगे पढ़ने का विचार ही त्याग दिया। वह देश की आज़ादी में कूद पड़े। गोकुलभाई को पहली बार 6 अप्रैल, 1921 को बंबई सरकार ने गिरफ्तार किया। इसके बाद भी उन्होंने गॉंधीजी के हर आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया। वर्ष 1930 के ‘नमक सत्याग्रह’ के दौरान वह नमक कानून तोड़ने के सिलसिले में गिरफ्तार हुए। गोकुलभाई भट्ट जेल से रिहा होने के बाद भूमिगत रहे और आंदोलन में संलग्न रहे, जिसके कारण उन्हें पुन: गिरफ्तार कर लिया गया था। उन्होंने वर्ष 1942 में #भारत_छोड़ो_आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया और 8 अगस्त, 1944 को बंबई में गिरफ्तार हुए तथा 4 साल जेल में रहे।

🇮🇳 समाज सेवक गोकुलभाई भट्ट ने मुख्यत: #खादी #ग्रामोद्योग, #शराबबंदी, #गोसेवा #प्राकृतिक_चिकित्सा, भूदान-ग्रामदान, ग्राम स्वराज का प्रचार-प्रसार किया। इसके अलावा उनका राजस्थान में #विनोबा_भावे के ‘#भूदान_आंदोलन’ को सफल बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

🇮🇳 गोकुलभाई भट्ट ने 22 जनवरी, 1939 को सिरोही प्रजामंडल की स्थापना की थी। देश की आजादी के बाद उन्होंने राजस्थान के एकीकरण के दौरान सिरोही जिले के विभाजन और माउंट आबू को गुजरात को सौंपने का जमकर विरोध किया। इसके परिणामस्वरूप माउंट आबू राजस्थान का हिस्सा बना। हालांकि, जिले का कुछ हिस्सा गुजरात में सम्मिलित किया गया। 

🇮🇳 गोकुलभाई भट्ट को वर्ष 1971 में भारत सरकार द्वारा देश के तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘पद्म भूषण’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 1982 को उन्हें ‘जमनालाल बजाज’ पुरस्कार से नवाजा गया। आज़ादी के बाद वर्ष 1952 में हुए पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें पाली संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवार बनाया था, लेकिन गोकुलभाई को इस चुनाव में हार का सामना करना पड़ा।

🇮🇳 राजस्थानियों में राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने वाले गोकुलभाई भट्ट का 6 अक्टूबर, 1986 को निधन हो गया।

साभार: chaltapurza.com

🇮🇳 #पद्मभूषण से सम्मानित; राजस्थान के प्रसिद्ध क्रांतिकारी, एक कुशल वक्ता, #कवि, बहुभाषाविद, #पत्रकार, #लेखक तथा #समाजसेवक #गोकुलभाई_भट्ट जी की जयंती पर उन्हें कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से कोटि-कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

वन्दे मातरम् 🇮🇳

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था

#Gokulbhai_Bhatt  #freedomfighter  #inspirational_personality

Gopal Krishna Gokhale | Freedom Fighter | गोपाल कृष्ण गोखले |स्वतंत्रता_सेनानी | 9 मई, 1866 - 19 फ़रवरी, 1915




#स्वतंत्रता_सेनानी Gopal Krishna Gokhale

🇮🇳 गोपाल कृष्ण गोखले (जन्म: 9 मई, 1866 ई., कोल्हापुर, महाराष्ट्र; मृत्यु: 19 फ़रवरी, 1915 ई.) अपने समय के अद्वितीय संसदविद और राष्ट्रसेवी थे। यह एक स्वतंत्रता सेनानी, समाजसेवी, विचारक एवं सुधारक भी थे। 1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम के नौ वर्ष बाद गोखले का जन्म हुआ था। यह वह समय था, जब स्वतंत्रता संग्राम असफल अवश्य हो गया था, किंतु भारत के अधिकांश देशवासियों के हृदय में स्वतंत्रता की आग धधकने लगी थी।

🇮🇳 गोपाल कृष्ण गोखले का जन्म 9 मई, 1866 ई. को #महाराष्ट्र में #कोल्हापुर नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता #कृष्णराव_श्रीधर_गोखले एक ग़रीब किंतु स्वाभिमानी ब्राह्मण थे। पिता के असामयिक निधन ने गोपाल कृष्ण को बचपन से ही सहिष्णु और कर्मठ बना दिया था। स्नातक की डिग्री प्राप्त कर गोखले #गोविन्द_रानाडे द्वारा स्थापित 'देक्कन एजुकेशन सोसायटी' के सदस्य बने। बाद में ये महाराष्ट्र के 'सुकरात' कहे जाने वाले गोविन्द रानाडे के शिष्य बन गये। शिक्षा पूरी करने पर गोपालकृष्ण कुछ दिन 'न्यू इंग्लिश हाई स्कूल' में अध्यापक रहे। बाद में पूना के प्रसिद्ध फर्ग्यूसन कॉलेज में इतिहास और अर्थशास्त्र के प्राध्यापक बन गए।

🇮🇳 गोपाल कृष्ण तब तीसरी कक्षा के छात्र थे। अध्यापक ने जब बच्चों के गृहकार्य की कॉपियाँ जाँची, तो गोपाल कृष्ण के अलावा किसी के जवाब सही नहीं थे। उन्होंने गोपाल कृष्ण को जब शाबाशी दी, तो गोपाल कृष्ण की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। सभी हैरान हो उठे। गृहकार्य उन्होंने अपने बड़े भाई से करवाया था। यह एक तरह से उस निष्ठा की शुरुआत थी, जिसके आधार पर गोखले ने आगे चलकर अपने चार सिद्धांतों की घोषणा की-

🔴 सत्य के प्रति अडिगता

🔴 अपनी भूल की सहज स्वीकृति

🔴 लक्ष्य के प्रति निष्ठा

🔴 नैतिक आदर्शों के प्रति आदरभाव

🇮🇳 #बाल_गंगाधर_तिलक से मिलने के बाद गोखले के जीवन को नई दिशा मिल गई। गोखले ने पहली बार कोल्हापुर में एक सार्वजनिक सभा को संबोधित किया। सन 1885 में गोखले का भाषण सुनकर श्रोता मंत्रमुग्ध हो गए थे, भाषण का विषय था-

अंग्रेजी हुकूमत के अधीन भारत।

🇮🇳 न्यायमूर्ति #महादेव_गोविन्द_रानाडे के संपर्क में आने से गोपाल कृष्ण सार्वजनिक कार्यों में रुचि लेने लगे। उन दिनों पूना की 'सार्वजनिक सभा' एक प्रमुख राजनीतिक संस्था थी। गोखले ने उसके मंत्री के रूप में कार्य किया। इससे उनके सार्वजनिक कार्यों का विस्तार हुआ। कांग्रेस की स्थापना के बाद वे उस संस्था से जुड़ गए। कांग्रेस का 1905 का बनारस अधिवेशन गोखले की ही अध्यक्षता में हुआ था। उन दिनों देश की राजनीति में दो विचारधाराओं का प्राधान्य था। लोकमान्य तिलक तथा #लाला_लाजपत_राय जैसे नेता गरम विचारों के थे। संवैधानिक रीति से देश को स्वशासन की ओर ले जाने में विश्वास रखने वाले गोखले नरम विचारों के माने जाते थे। आपका क्रांति में नहीं, सुधारों में विश्वास था।

🇮🇳 गोखले का राजनीति में पहली बार प्रवेश 1888 ई. में इलाहाबाद में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में हुआ। 1897 ई. में दक्षिण शिक्षा समिति के सदस्य के रूप में गोखले और वाचा को इंग्लैण्ड जाकर 'वेल्बी आयोग' के समक्ष गवाही देने को कहा गया। 1902 ई. में गोखले को 'इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउन्सिल' का सदस्य चुना गया। उन्होंने नमक कर, अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा एवं सरकारी नौकरियों में भारतीयों को अधिक स्थान देने के मुद्दे को काउन्सिल में उठाया। उग्रवादी दल ने उनकी संयम की गति की बड़ी आलोचना की। उन्हें प्रायः शिथिल उदारवादी बताया गया। सरकार ने उन्हें कई बार उग्रवादी विचारों वाले व्यक्ति तथा छद्म विद्रोही की संज्ञा दी।

🇮🇳 महादेव गोविंद रानाडे के शिष्य गोपाल कृष्ण गोखले को वित्तीय मामलों की अद्वितीय समझ और उस पर अधिकारपूर्वक बहस करने की क्षमता से उन्हें 'भारत का ग्लेडस्टोन' कहा जाता है। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सबसे प्रसिद्ध नरमपंथी थे।

🇮🇳 1905 में गोखले ने 'भारत सेवक समाज' (सरवेंट्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी) की स्थापना की, ताकि नौजवानों को सार्वजनिक जीवन के लिए प्रशिक्षित किया जा सके। उनका मानना था कि वैज्ञानिक और तकनीकी शिक्षा भारत की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। इसीलिए इन्होंने सबसे पहले प्राथमिक शिक्षा लागू करने के लिये सदन में विधेयक भी प्रस्तुत किया था। इसके सदस्यों में कई प्रमुख व्यक्ति थे। उन्हें नाम मात्र के वेतन पर जीवन-भर देश सेवा का व्रत लेना होता था। गोखले ने राजकीय तथा सार्वजनिक कार्यों के लिए 7 बार इंग्लैण्ड की यात्रा की।

🇮🇳 'केसरी' और 'मराठा' अख़बारों के माध्यम से लोकमान्य तिलक जहाँ अंग्रेज़ हुकूमत के विरुद्ध लड़ रहे थे, वहीं 'सुधारक' को गोखले ने अपनी लड़ाई का माध्यम बनाया हुआ था। 'केसरी' की अपेक्षा 'सुधारक' का रूप आक्रामक था। सैनिकों द्वारा बलात्कार का शिकार हुई दो महिलाओं ने जब आत्महत्या कर ली, तो 'सुधारक' ने भारतीयों को कड़ी भाषा में धिक्कारा था-

★ तुम्हें धिक्कार है, जो अपनी माता-बहनों पर होता हुआ अत्याचार चुप्पी साधकर देख रहे हो। इतने निष्क्रिय भाव से तो पशु भी अत्याचार सहन नहीं करते। ★

🇮🇳 इन शब्दों ने भारत में ही नहीं, इंग्लैंड के सभ्य समाज में भी खलबली मचा दी थी। 'सर्वेन्ट ऑफ़ सोसायटी' की स्थापना गोखले द्वारा किया गया महत्त्वपूर्ण कार्य था। इस तरह गोखले ने राजनीति को आध्यात्मिकता के ढाँचे में ढालने का अनूठा कार्य किया। इस सोसाइटी के सदस्यों को ये 7 शपथ ग्रहण करनी होती थीं-

🇮🇳1. वह अपने देश को सर्वोच्च समझेगा और उसकी सेवा में प्राण न्योछावर कर देगा।

🇮🇳2. देश सेवा में व्यक्तिगत लाभ को नहीं देखेगा।

🇮🇳3. प्रत्येक भारतवासी को अपना भाई मानेगा।

🇮🇳4. जाति समुदाय का भेद नहीं मानेगा।

🇮🇳5. सोसाइटी उसके और उसके परिवार के लिए जो धनराशि देगी, वह उससे संतुष्ट रहेगा तथा अधिक कमाने की ओर ध्यान नहीं देगा।

🇮🇳6. पवित्र जीवन बिताएगा। किसी से झगड़ा नहीं करेगा।

🇮🇳7. सोसाइटी का अधिकतम संरक्षण करेगा तथा  सोसाइटी  के उद्देश्यों पर पूरा ध्यान देगा।

साभार: bharatdiscovery.org

🇮🇳 प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी, समाजसेवी, विचारक एवं सुधारक #गोपाल_कृष्ण_गोखले जी की पुण्यतिथि पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि !

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वन्दे मातरम् 🇮🇳

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था

#Gopal_Krishna_Gokhale #freedomfighter  #inspirational_personality

Chhatrapati Shivaji Maharaj | छत्रपति शिवाजी महाराज | 19 फरवरी, 1630 - 3 अप्रैल, 1680




 🇮🇳🔶 19 फरवरी, 1630 को देश के महान शासकों में से एक और मुगलों की नाक में दम करने वाले महान #मराठा योद्धा छत्रपति शिवाजी का जन्म हुआ था। 6 जून, 1674 को छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक हुआ था। इसी दिन शिवाजी ने महाराष्ट्र में हिंदू राज्य की स्थापना की थी। राज्याभिषेक के बाद उनको छत्रपति की उपाधि मिली। आइए आज इस मौके पर हम शिवाजी के बारे में अनसुनी बातें जानते हैं...

🇮🇳🔶 वह एक अच्छे सेनानायक के साथ एक अच्छे कूटनीतिज्ञ भी थे। कई जगहों पर उन्होंने सीधे युद्ध लड़ने की बजाय युद्ध से बच निकलने को प्राथमिकता दी थी। यही उनकी कूटनीति थी, जो हर बार बड़े से बड़े शत्रु को मात देने में उनका साथ देती रही।

🇮🇳🔶 शिवाजी एक समर्पित हिन्दू होने के साथ-साथ धार्मिक सहिष्णु भी थे। उनके साम्राज्य में मुसलमानों को पूरी तरह से धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। कई मस्जिदों के निर्माण के लिए शिवाजी ने अनुदान दिया। उनके मराठा साम्राज्य में हिन्दू पंडितों की तरह मुसलमान संतों और फकीरों को भी पूरा सम्मान प्राप्त था। उन्होंने मुस्लिमों के साथ शांतिपूर्ण संबंध बनाए रखा। उनकी सेना में 1,50,000 योद्धा थे जिनमें से करीब 66,000 मुस्लिम थे।

🇮🇳🔶 शिवाजी पहले हिंदुस्तानी शासक थे जिन्होंने नौसेना की अहमियत को पहचाना और अपनी मजबूत नौसेना का गठन किया। उन्होंने महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र की रक्षा के लिए तट पर कई किले बनाए जिनमें जयगढ़, विजयदुर्ग, सिंधुदुर्ग और अन्य स्थानों पर बने किले शामिल थे।

🇮🇳🔶 शिवाजी ने महिलाओं के प्रति किसी तरह की हिंसा या उत्पीड़न का पुरजोर विरोध किया। उन्होंने अपने सैनिकों को सख्ती से निर्देश दे रखा था कि किसी गांव या अन्य स्थान पर हमला करने की स्थिति में किसी भी महिला को नुकसान नहीं पहुँचाया जाए। महिलाओं को हमेशा सम्मान के साथ लौटा दिया जाता था। अगर उनका कोई सैनिक महिला अधिकारों का उल्लंघन करता पाया जाता था तो उसकी कड़ी सजा मिलती थी। एक बार उनका एक सैनिक एक मुगल सूबेदार की बहु को ले आया था। उसने सोचा था कि उसे शिवाजी को भेंट करूँगा तो वह खुश होंगे। लेकिन हुआ इसका उल्टा। शिवाजी ने उस सैनिक को खूब फटकारा और महिला को सम्मान के साथ उसके घर पहुँचा कर आने को कहा।

🇮🇳🔶 एक बार शिवाजी महाराज को सिद्दी जौहर की सेना ने घेर लिया था। उन्होंने वहाँ से बच निकलने के लिए एक योजना बनाई। उन्होंने दो पालकी का बंदोबस्त किया। एक पालकी में शिवाजी के जैसा दिखने वाला शिवा नाह्वी था। उसकी पालकी किले के सामने से निकली। दुश्मन ने उसे ही शिवाजी समझकर पीछा करना शुरू कर दिया। उधर दूसरे रास्ते से अपने 600 लोगों के साथ शिवाजी निकल गए।

🇮🇳🔶 शिवाजी को माउंटेन रैट भी कहकर पुकारा जाता था क्योंकि वह अपने क्षेत्र को बहुत अच्छी तरह से जानते थे और कहीं से कहीं निकल कर अचानक ही हमला कर देते थे और गायब हो जाते थे। उनको गुरिल्ला युद्ध का जनक माना जाता है। वह छिपकर दुश्मन पर हमला करते थे और उनको काफी नुकसान पहुंचाकर निकल जाते थे। गुरिल्ला युद्ध मराठों की रणनीतिक सफलता का एक अन्य अहम कारण था। इसमें वे छोटी टुकड़ी में छिपकर अचानक दुश्मनों पर आक्रमण करते और उसी तेजी से जंगलों और पहाड़ों में छिप जाते।

🇮🇳🔶 साल 1659 में आदिलशाह ने एक अनुभवी और दिग्गज सेनापति अफजल खान को शिवाजी को बंदी बनाने के लिए भेजा। वो दोनों प्रतापगढ़ किले की तलहटी पर एक झोपड़ी में मिले। दोनों के बीच यह समझौता हुआ था कि दोनों केवल एक तलवार लेकर आएँगे। शिवाजी को पता था कि अफजल खान उन पर हमला करने के इरादे से आया है। शिवाजी भी पूरी तैयारी के साथ गए थे। अफजल खाँ ने जैसे ही उन पर हमले के लिए कटार निकाली, शिवाजी ने अपना कवच आगे कर दिया। अफजल खाँ कुछ और समझ पाता, इससे पहले ही शिवाजी ने हमला कर दिया और उसका काम तमाम कर दिया।

🇮🇳🔶 शिवाजी से पहले उनके पिता और पूर्वज सूखे मौसम में आम नागरिकों और किसानों को लड़ाई के लिए भर्ती करते थे। उनलोगों ने कभी भी संगठित सेना का गठन नहीं किया। शिवाजी ने इस परंपरा को बदलकर समर्पित सेना का गठन किया जिनको साल भर प्रशिक्षण और वेतन मिलता था।

🇮🇳🔶 शिवाजी को औरंगजेब ने मुलाकात का न्योता दिया था। जब शिवाजी औरंगजेब से मिलने पहुँचे तो औरंगजेब ने उन्हें छल से बंदी बना लिया। औरंगजेब की योजना शिवाजी को जान से मारने या कहीं और भेजने की थी लेकिन शिवाजी उससे काफी होशियार निकले। वह वहाँ से मिठाई की टोकरियों में निकल गए।


🇮🇳🔶  ऐसा कहा जाता है की  शिवाजी महाराज की मृत्यु 50 वर्ष की आयु में,  3 अप्रैल 1680 को, हनुमान जयंती की पूर्व संध्या पर हुई। उनकी मृत्यु का कारण विवादित है। ब्रिटिश रिकॉर्ड बताते हैं कि 12 दिनों की बीमारी के बाद उनकी मृत्यु हो गई। पुर्तगाली भाषा के बिब्लियोटेका नैशनल डी लिस्बोआ के एक समकालीन दस्तावेज़ में मृत्यु का कारण एंथ्रेक्स बताया गया है। हालांकि, शिवाजी राजा की जीवनी, भसबद बखर के लेखक कृष्णाजी अनंत भसबद कहते हैं कि मौत का कारण बुखार था।निःसंतान और शिवाजी की जीवित पत्नियों में सबसे छोटी पुतलाबाई उनके अंतिम संस्कार में कूदकर सती हो गईं। दूसरी जीवित पत्नी सकवारबाई को सती होने की अनुमति नहीं थी क्योंकि उनकी एक छोटी बेटी थी। 

साभार: navbharattimes.indiatimes.com

🇮🇳 धर्म एवं संस्कृति की रक्षा के लिए जीवन समर्पित करने वाले, महानतम मराठा शासक और राष्ट्ररक्षा के लिए गुरिल्ला युद्ध के जन्म दाता शौर्य एवं पराक्रम के प्रतीक #छत्रपति_शिवाजी_महाराज जी को उनकी जयंती पर शत् शत् नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि !

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल 🇮🇳 भारत माता की जय 🇮🇳 #प्रेरणादायी_व्यक्तित्व   🇮🇳💐🙏 वन्दे मातरम् 

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था
#Chhatrapati_Shivaji_Maharaj #Social_Reformer  #inspirational_personality

Madhav Sadashiv Golwalkar | प्रखर राष्ट्रवादी श्री माधव सदाशिव गोलवलकर | 19 फरवरी 1906-5 जून 1973 | राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ |

 


🇮🇳🔶 माधव सदाशिव गोलवलकर का जन्म 19 फरवरी 1906 को #नागपुर के पास #रामटेक में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. वह नौ बच्चों में से एकमात्र जीवित पुत्र थे.

🇮🇳🔶 1927 में गोलवलकर ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से एमएससी की डिग्री हासिल की थी. वह राष्ट्रवादी नेता और विश्वविद्यालय के संस्थापक #मदन_मोहन_मालवीय से बहुत प्रभावित थे. बाद में उन्होंने बीएचयू में ‘जंतु शास्त्र’ पढ़ाया,

🇮🇳🔶 श्री माधवराव सदाशिव गोलवलकर, जिन्हें आदरपूर्वक और विनम्रता से 'श्री गुरुजी' कहा जाता था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के दूसरे सरसंघचालक थे, जिन्होंने 33 वर्षों (1940 से 1973) तक संगठन की सेवा और मार्गदर्शन किया।

🇮🇳🔶 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक #केशव_बलिराम_हेडगेवार या #डॉक्टरजी को बीएचयू के एक छात्र के माध्यम से गोलवलकर के बारे में पता चला. गोलवलकर ने 1932 में हेडगेवार से मुलाकात की और तभी उन्हें बीएचयू में संघचालक नियुक्त किया.

🇮🇳🔶 एक साल बाद गोलवलकर कानून की डिग्री हासिल करने के लिए नागपुर लौट आए. अध्यात्म की खोज में वह 1936 में बंगाल के #सरगाची के लिए रवाना हुए और रामकृष्ण मठ के #स्वामी_अखंडानंद की सेवा में दो साल बिताए.

🇮🇳🔶 उनकी वापसी पर हेडगेवार ने उन्हें अपना जीवन संघ को समर्पित करने के लिए राजी कर लिया. 1940 में जब आरएसएस प्रमुख का निधन हुआ, तो गोलवलकर ने 34 वर्ष की आयु में सरसंघचालक का पदभार सँभाला.

🇮🇳🔶 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लंबे इतिहास में सबसे विवादास्पद अध्याय महात्मा गॉंधी से मतभेद और बाद में उनकी हत्या था.

🇮🇳🔶 भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में गैर-भागीदारी को लेकर आरएसएस को लगातार आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है. 1942 में, गोलवलकर ने गाँधी के नेतृत्व वाले भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने से आरएसएस के स्वयंसेवकों को मना किया था. उन्होंने कहा कि अंग्रेजों के खिलाफ लड़ना आरएसएस के मिशन का हिस्सा नहीं था.

🇮🇳🔶 उन्होंने कहा, ‘हमें याद रखना चाहिए कि अपनी प्रतिज्ञा में हमने धर्म और संस्कृति की रक्षा के माध्यम से देश की आजादी की बात की है. यहाँ से अंग्रेजों के जाने का कोई जिक्र नहीं है.’

हालांकि, आरएसएस उन वर्षों में अपने संघर्ष के दौरान अपनी भूमिका निभाती रही थी.

🇮🇳🔶 सितंबर 1947 में भारत विभाजन के दौर से गुजर रहा था. #गाँधी ने गोलवलकर से मुलाकात की और उन्हें बताया कि वे इन दंगों में आरएसएस का हाथ होने के बारे में सुन रहे हैं. हालांकि, गोलवलकर ने उन्हें आश्वास्त करने की कोशिश करते हुए कहा था कि मुसलमानों की हत्या के पीछे आरएसएस नहीं  है. यह केवल हिंदुस्तान की रक्षा करना चाहता था. द इंडियन एक्सप्रेस के एक लेख के मुताबिक सरदार पटेल को लिखे पत्र में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने लिखा था कि गाँधी ने उन्हें बताया कि गोलवलकर बातों में विश्वस्त नहीं लगे.

🇮🇳🔶 महीनों बाद राष्ट्रपिता गाँधी की हत्या 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे द्वारा की गई थी. जो एक कट्टरपंथी हिंदू राष्ट्रवादी था. जिनके बारे में कहा जाता है कि वे आरएसएस के सदस्य थे. आरएसएस का कहना है कि उसने हत्या करने से पहले ही संस्था की सदस्यता छोड़ दी थी.

🇮🇳🔶 इस घटना के बाद, गोलवलकर और आरएसएस के सदस्यों को फरवरी 1948 में गिरफ्तार कर लिया गया था. गृहमंत्री पटेल ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया था.

🇮🇳🔶 गोलवलकर ने 9 दिसंबर 1948 को दिल्ली में शुरू किए गए सत्याग्रह के साथ आरएसएस पर प्रतिबंध को चुनौती देने का फैसला किया. जुलाई 1949 में आरएसएस के भारतीय संविधान के प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा लेने के बाद ही प्रतिबंध को अंततः रद्द कर दिया गया.

🇮🇳🔶 गोलवलकर का भारत का विचार

‘बंच ऑफ थॉट’, जो गोलवलकर का सबसे अधिक देखा जाने वाला कार्य बना. भारत में आरएसएस की शाखाओं में सबसे अधिक उनके द्वारा कहे गए व्याख्यान का एक संग्रह है.

🇮🇳🔶 1966 में बैंगलोर (अब बेंगलुरु) में प्रकाशित, पुस्तक को चार भागों में बाँटा गया है: द मिशन, द नेशन एंड इट्स प्रॉब्लम्स, द पाथ टू ग्लोरी एंड मोल्डिंग मैन.

🇮🇳🔶 गोलवलकर ने #मातृभूमि या पुण्यभूमि और उसके प्रमुख धर्म हिंदू धर्म की महिमा के बारे में लिखा. आरएसएस प्रमुख ने हिंदू समाज के बारे में लिखा, ‘जो मानव जाति के उद्धार के भव्य मिशन को पूरा कर सके.’ उन्होंने जाति व्यवस्था के बारे में भी लिखा, यह कहकर इसका बचाव किया कि इसने हिंदुओं को संगठित रखा और सदियों से एकजुट किया है.

🇮🇳🔶 इसके अलावा गोलवलकर ने राष्ट्रवाद और उनका राष्ट्र के बारे में क्या विचार थे के बारे में भी विस्तार से लिखा था. उन्होंने लिखा कि देश के भीतर शत्रुतापूर्ण तत्व बाहर से आक्रामकों की तुलना में राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अधिक खतरा पैदा करते हैं. उन्होंने भारत में तीन प्रमुख आंतरिक खतरे देखे: मुस्लिम, ईसाई और कम्युनिस्ट.

🇮🇳🔶 मुसलमानों और ईसाइयों के बारे में बात करते हुए उन्होंने लिखा कि वे इस भूमि पर पैदा हुए थे. लेकिन वे इसके प्रति ईमानदार नहीं थे और ‘उसकी सेवा’ करना अपना कर्तव्य नहीं समझते हैं.

🇮🇳🔶 इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने लिखा ‘मुसलमानों के प्रति उनका विरोध ऐसा था कि उन्होंने लिखा जो भी खुद को हिंदू मानता है वह मुस्लिम से पूरी तरह से घृणा करते हैं’.

🇮🇳🔶 गुहा ने द हिंदू के लिए लिखे एक लेख में गोलवलकर के हवाले से कहा ‘अगर हम (हिंदू) मंदिर में पूजा करते हैं, तो वह (मुस्लिम) इसे उजाड़ देगा. अगर हम भजन और कार उत्सव (रथयात्रा) करते हैं. तो इससे उन्हें चिढ़ होती है. अगर हम गाय की पूजा करते हैं, तो वह उसे खाना चाहता है. अगर हम महिला को पवित्र मातृत्व के प्रतीक के रूप में महिमा मंडित करते हैं, तो वह उससे छेड़छाड़ करना चाहेगा’.

🇮🇳🔶 ‘वह जीवन के सभी पहलुओं में हमारे तौर तरीके के विपरीत रहेंगे चाहे वह धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, पहलु हों. उन्होंने उस विरोध को मूल रूप से आत्मसात कर लिया था.’

🇮🇳🔶 गोलवलकर ने भी लोकतंत्र की अवधारणा को खारिज कर दिया क्योंकि इसने व्यक्ति को बहुत अधिक स्वतंत्रता दी और एक खतरे के रूप में साम्यवाद की निंदा की. उन्होंने लिखा है कि ‘हमारे वर्तमान संविधान के अनुयायी भी हमारे एकल सजातीय राष्ट्रों के दृढ़ विश्वास में दृढ़ नहीं थे’.

🇮🇳🔶 गुहा ने लिखा है कि ‘कोई भी व्यक्ति जो ‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ पढ़ता है, वह इस निष्कर्ष पर पहुँच सकता है कि उसका लेखक एक प्रतिक्रियावादी व्यक्ति था, जिसके विचारों और पूर्वाग्रहों का आधुनिक, उदार लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं है.

🇮🇳🔶 हालांकि, संघ परिवार ने तर्क दिया है कि गोलवलकर के ‘हिंदू राष्ट्र’ की अवधारणा का गलत अर्थ निकाला गया और अपमानित किया गया.

🇮🇳🔶 विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार ने कहा गोलवलकर का मानना था कि स्वतंत्रता के समय सरकार ने जिन मूल्यों को अपनाया था. वे रूस के समाजवाद के रूप में था और ब्रिटेन के भारत सरकार अधिनियम 1935 से लिया गया था और उनका मानना था कि भारत को अपनी संस्कृति और मूल्यों को अपनाना चाहिए. हिंदू राष्ट्र का एक व्यापक अर्थ था, जिसका उपयोग विश्वास के साथ-साथ भारतीय समाज को संदर्भित करने के लिए किया जा सकता है.

🇮🇳🔶 उनका मानना था कि भारत या भारत की जीवन शैली इसकी संस्कृति और धर्म हिंदू राष्ट्र के थे. #हिंदूराष्ट्र में प्रबुद्ध राष्ट्रवाद और विविधता की स्वीकृति और सहिष्णुता शामिल है.’

🇮🇳🔶 जैसे-जैसे उनकी सेहत बिगड़ने लगी गोलवलकर ने 1972-73 में देश भर में एक आखिरी दौरा किया था. यह दौरा बांग्लादेश लिबरेशन वार में पाकिस्तान पर भारत की जीत के ठीक बाद किया था, जिसके लिए गोलवलकर ने तत्कालीन पीएम #इंदिरा_गाँधी को बधाई दी थी.

🇮🇳🔶 मार्च 1973 में वह आखिरी बार नागपुर लौटे. तीन महीने बाद 5 जून को उनकी मृत्यु हो गई.

🇮🇳🔶 लेकिन तब तक गोलवलकर ने राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के साथ आरएसएस को सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन के रूप में स्थापित कर दिया था. इसकी प्रशाखा आज भारतीय जनता पार्टी, भारत की प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पार्टी है.

- रेवथी कृष्णन

साभार: hindi.theprint.in

🇮🇳 #राष्ट्रीय_स्वयंसेवक_संघ के द्वितीय #सरसंघचालक प्रखर राष्ट्रवादी #माधवराव_सदाशिवराव_गोलवलकर जी को उनकी जयंती पर कोटि-कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि !

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🇮🇳 भारत माता की जय 🇮🇳 #प्रेरणादायी_व्यक्तित्व   🇮🇳💐🙏 वन्दे मातरम् 

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था
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