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30 मई 2024

हिंदी पत्रकारिता दिवस | 30 मई, 1826 | Hindi Patrakarita Divas

 



🇮🇳✍️ #हिंदी_पत्रकारिता_दिवस  #Hindi_Journalism_Day है. आज से 198 साल पहले 30 मई, 1826 को कलकत्ता(कोलकाता) में #उदंत_मार्तण्ड नामक साप्ताहिक अखबार की शुरुआत हुई. #कानपुर से कलकत्ता में सक्रिय वकील #पंडित_जुगल_किशोर_शुक्ल ने इस अखबार की नींव रखी. वो हिंदुस्तानियों के हित में उनकी भाषा में अखबार निकालना चाहते थे.

🇮🇳✍️ उदंत मार्तण्ड का अर्थ होता है उगता सूरज. हिंदी पत्रकारिता का सूरज पहली बार #कलकत्ता के बड़ा बाजार के करीब 37, अमर तल्ला लेन, #कोलूटोला में उदित हुआ था. यह अखबार पाठकों तक हर मंगलवार पहुँचता था. इसकी शुरुआत 500 प्रतियों के साथ हुई थी.

🇮🇳✍️ उदंत मार्तण्ड खड़ी बोली और ब्रज भाषा के मिले-जुले रूप में छपता था और इसकी लिपि देवनागरी थी. लेकिन इसकी उम्र ज्यादा लंबी नहीं हो सकी. इसके केवल 79 अंक ही प्रकाशित हो सके.

🇮🇳✍️ प्रकाशन की शुरुआत के लगभग एक साल बाद ही हिंदी पत्रकारिता का पहला सूरज आर्थिक तंगी का शिकार होकर ओझल हो गया. 19 दिसंबर 1827 को उदन्त मार्तण्ड का आखिरी अंक प्रकाशित हुआ था.

🇮🇳✍️ अखबार के आखिरी अंक में संपादक और प्रकाशक जुगल किशोर शुक्ल ने अखबार के बंद होने की सूचना पाठकों बेहद मार्मिक अपील के साथ दी थी.

◆ उन्होंने लिखा, 'आज दिवस लौ उग चुक्यों मार्तण्ड उदंत. अस्ताचल को जाता है दिनकर दिन अब अंत.(अर्थात-यह सूर्य आज तक निकल चुका है. अब इसका अंत आ गया है और यह सूर्यास्त की ओर बढ़ चला है.) ◆

🇮🇳✍️ उदन्त मार्तण्ड से पहले भारत में अंग्रेजी, उर्दू, फारसी और बांग्ला आदि भाषाओं के अखबार प्रकाशित होने लगे थे. अखबार के पहले अंक में ही संपादक शुक्ल ने अखबार का उद्देश्य स्पष्ट कर दिया था कि यह हिंदुस्तानियों के लिए उनकी भाषा में उनके हित का अखबार है.

🇮🇳✍️ उन्होंने लिखा, "यह उदन्त मार्तण्ड अब पहले पहल हिंदुस्तानियों के हेत जो, आज तक किसी ने नहीं चलाया पर अंग्रेजी ओ पारसी और बंगाल में जो समाचार का कागज छपता है उनका उन बोलियों को जानने और समझने वालों को ही होता है.

और सब लोग पराए सुख सुखी होती हैं. जैसे पराए धन धनी होना और अपनी रहते पराई ऑंख देखना वैसे ही जिस गुण में उसकी पैठ न हो उसको उसके रस का मिलना कठिन ही है और हिंदुस्तानियों में बहुतेरे ऐसे हैं."

🇮🇳✍️ उदंत मार्तण्ड ने अपने छोटे से प्रकाशन काल में हमेशा ही समाज के विरोधाभाषों पर तीखे हमले किये और गंभीर सवाल उठाये. इसके साथ ही आम जन की आवाज को बुलंद करने का भी काम भी इस अखबार ने बखूबी किया. 19 दिसंबर,1827 को कुछ कानूनी कारणों और ग्राहकों का सहयोग न मिल पाने के कारण इसे बंद करना पड़ा.

🇮🇳✍️ हिंदी भाषी पट्टी से दूर रहने और मौजूदा सरकार द्वारा इसे उत्तर भारत के शहरों में भेजने के लिए डाक टिकट में छूट नहीं देना इसके बंद होने की अहम वजह रहा. बंगाल से प्रकाशित होने के कारण उसके लिए स्थानीय स्तर पर ग्राहक या पाठक मिलना अंग्रेजी, उर्दू, फारसी और बांग्ला अखबारों की तुलना में मुश्किल था. अगर पाठक मिल भी जाता तो उसतक अखबार को पहुंचा पाना बेहद कठिन काम था. सरकार के किसी भी विभाग को उदंत मार्तण्ड की एक भी प्रति खरीदना मंजूर नहीं था.

साभार: zeenews.india.com

🇮🇳 सभी राष्ट्रवादी पत्रकार बंधुओं को #हिंदी_पत्रकारिता_दिवस की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ !

🇮🇳🌹🙏

#Hindi_speaking, #governmen, #Hindi_Paper, #Udant_Martand, #publication


साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. 

10 मार्च 2024

PM Narendra Modi unveiled the 'Statue of Valour' of Lachit Borphukan, in Jorhat, Assam on March 09 | अहोम जनरल वीर लाचित बोरफुकन की 125 फुट ऊँची कांस्य प्रतिमा का अनावरण

 



PM Narendra Modi unveiled the 'Statue of Valour' of Lachit Borphukan, in Jorhat, Assam on March 09 | प्रधानमंत्री मोदी ने 'वीर योद्धा' अहोम जनरल' लाचित बोरफुकन की 125 फुट ऊंची कांस्य प्रतिमा का अनावरण किया। 



वन्दे मातरम् 🇮🇳

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने #असम के #जोरहाट के #लहदोईगढ़ में अहोम जनरल वीर लाचित बोरफुकन की 125 फुट ऊँची कांस्य प्रतिमा का अनावरण किया। प्रतिमा, जिसे 'स्टैच्यू ऑफ वेलोर' कहा जाता है, का अनावरण लाचित बरफुकन मैदाम विकास परियोजना में किया गया था। मोदी ने एक अहोम अनुष्ठान में भाग लिया और उनके साथ मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा भी थे। 

मुगल सेना के विरुद्ध वर्ष 1671 में #सरायघाट_की_लड़ाई के नेतृत्वकर्ता #वीर_लाचित_बोरफुकन जी को शत् शत् नमन !


Vande Mataram 🇮🇳

Prime Minister Narendra Modi unveiled a 125-feet tall bronze statue of Ahom General Veer Lachit Borphukan at #Ladhoigarh in #Jorhat, #Assam. The statue, called the 'Statue of Valour', was unveiled at the Lachit Barphukan Maidam Development Project. Modi participated in an Ahom ritual and was accompanied by Chief Minister Himanta Biswa Sarma.

Salutes to the brave Lachit Borphukan ji who led the battle of Saraighat against the Mughal army in the year 1671!


#inspirational_personality


🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व 

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 



सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

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09 मार्च 2024

Mewar ki Rani Karnavati | मेवाड़ की रानी वीरांगना कर्णावती

 



रानी कर्णावती  ने  8 मार्च 1535 को जौहर कर लिया था।  यह मेवाड़ का दूसरा जौहर माना जाता है। 

#रानी_कर्णावती #Mewar ki #Rani_Karnavati  को रानी #कर्मावती के नाम से भी जाना जाता है (मृत्यु 8 मार्च 1534), #भारत के #बूंदी की एक राजकुमारी और अस्थायी शासक थीं । उनका विवाह #मेवाड़ के #राणा_सांगा (लगभग 1508-1528) से हुआ था । वह अगले दो राणाओं, राणा विक्रमादित्य और राणा उदय सिंह की माँ और महाराणा प्रताप की दादी थीं । उन्होंने 1527 से 1533 तक अपने बेटे के अल्पवयस्क होने के दौरान संरक्षिका के रूप में कार्य किया। वह अपने पति की तरह ही उग्र थीं और उन्होंने सैनिकों की एक छोटी सी टुकड़ी के साथ चित्तौड़ की रक्षा की जब तक कि वह गुजरात  की सेना जिसका नेतृत्व गुजरात के बहादुर शाह ने किया था के हाथों नहीं घिर गई, रानी कर्णावती ने  भागने से इनकार कर दिया और अपने सम्मान की रक्षा के लिए जौहर कर लिया।

🇮🇳 #रानी कर्णावती #Rani Karnavati अपने बलिदान के लिए जानी जाने वाली उन बहादुर रानियों में से एक है। जो अपनी जान तो दे दी लेकिन दुश्मन के सामने अपने घुटने नहीं टेके। कर्णावती चित्तौड़ के राजा राणा सांगा की पत्नी थी। आपको बता दें कि 1526 में मुगल बादशाह बाबर ने दिल्ली पर अपना कब्जा कर लिया था। जिसके चलते मेवाड़ के राजा राणा सांगा ने बाबर के खिलाफ राजपूत शासकों का एक दल चलाया था। जिसके बाद खानुआ की लड़ाई में राणा सांगा की पराजय हो गई थी इस युद्ध में इन्हें काफी गहरे घाव लगे थे जिसकी वजह से इनकी कुछ दिनों में मृत्यु हो गई थी।

🇮🇳 रानी कर्णावती के दो बेटे थे जिनका नाम राणा उदय सिंह और राणा विक्रमादित्य था। राजा राणा सांगा की मृत्यु के बाद रानी ने अपने बड़े विक्रमादित्य को राज गद्दी पर बैठाया लेकिन पूरा राज्यभार संभालने के लिए इस राजा की उम्र काफी छोटी थी। इसी बीच गुजरात के बहादुरशाह ने दूसरी बार मेवाड़ पर हमला कर दिया। इस युद्ध में राजा विक्रमादित्य की हार देखने को मिली। जिसके बाद रानी कर्णावती ने राज्य के सम्मान की रक्षा करने के लिए अन्य राजपूत राजाओं से अपील की।

🇮🇳 रानी कर्णावती से राजपूत शासकों ने एक शर्त रखी। उन्होंने कहा कि विक्रमादित्य और उदय सिंह को युद्ध के दौरान बूंदी जाने की अपील की। रानी ने इस शर्त को स्वीकार कर लिया। जिसके बाद उन्होंने अपनी भरोसेमंद दासी पन्ना के साथ अपने दोनों बेटों को बूंदी भेज दिया। आपको बता दें कि पन्ना ने इस जवाबदेही को ईमानदारी से स्वीकार भी किया।

🇮🇳 हर #रक्षाबंधन पर रानी कर्णावती को याद किया जाता है। इस रानी ने अपने राज्य की सुरक्षा के लिए 1534 में हुमायूं को राखी भेजी थी। बताया जाता है कि रानी कर्णावती की राखी को स्वीकार कर हुमायूं ने इस राखी की लाज बचाई थी। #हुमायूं ने रानी कर्णावती को अपनी बहन का दर्जा दिया था उम्रभर रक्षा करने का वचन दिया था। इस भाई - बहन के प्यार को आज भी याद किया जाता है। कहा जाता है कि राखी मिलते ही राजा ने ढेरों उपहार भेजे और मेवाड़ की सुरक्षा के लिए आगे आए।

🇮🇳 हुमायूं राखी मिलने के बाद चित्तौड़ के लिए रवाना हुआ लेकिन वह समय से पहुंचने पर नाकाम साबित हुआ। जिसके चलते बहादुरशाह ने चितौड़ पर प्रवेश कर लिया। यह देखते हुए रानी कर्णावती को अपनी हार दिखने लगी जिसके बाद 8 मार्च के दिन अन्य महिलाओं के साथ रानी कर्णावती ने जौहर कर लिया। कहा जाता है यह #मेवाड़ का दूसरा दिल दहलाने वाला जौहर माना जाता है। हुमायूं ने #बहादुरशाह को युद्ध में पराजित किया। #कर्णावती के बड़े बेटे को राजगद्दी से बहाल कर दिया था।

साभार: newstrack.com

🇮🇳 अपने राज्य की मान मर्यादा के लिए आजीवन संघर्ष करने वाली, अपनी अस्मत की रक्षा के लिए जौहर करने वाली, मेवाड़ की #वीरांगना #रानी_कर्णावती जी को उनके #आत्मबलिदान_दिवस पर कोटि-कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व 

#आजादी_का_अमृतकाल


साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

#Karnavati, #queen, #kingdom, #Jauhar,  #Mewar, #history,  #Rani_Karnavati,


सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. 

05 मार्च 2024

Sardar Nanak Singh | अमर बलिदानी सरदार नानक सिंह जी | 11 सितंबर 1903-4 मार्च 1947



भारत की विविधता इंद्रधनुष के रंगों की तरह है। यदि इनमें से एक को भी हटा दिया जाए तो इसका आकर्षण और सुंदरता कम हो जाएगी। 🇮🇳

~ अमर बलिदानी सरदार नानक सिंह जी

🇮🇳 जब उन्हें #सरगोधा, जो अब पाकिस्तान में है, में निहत्थे शांतिपूर्ण स्वतंत्रता प्रेमियों पर गोली चलाने का आदेश दिया गया तो उन्होंने अपना शानदार पुलिस कैरियर त्याग दिया। 🇮🇳

🇮🇳 अमर बलिदानी सरदार नानक सिंह का जन्म 11 सितंबर 1903 को #रावलपिंडी, जो अब पाकिस्तान में है, में हुआ था। उनका जन्म #डॉ_वज़ीर_सिंह और उनकी पत्नी #जीवन_कौर के यहाँ हुआ था। अमर बलिदानी नानक सिंह, बीएससी (ऑनर्स) एलएलबी, पश्चिम पंजाब के एक प्रमुख सिख नेता, बार एसोसिएशन के उपाध्यक्ष, अकाली जत्था, मुल्तान के महासचिव, पोस्ट एंड टेलीग्राफ यूनियन, मुल्तान के अध्यक्ष, सांप्रदायिक सद्भाव संस्था के उपाध्यक्ष थे।

🇮🇳 उन्होंने अपना अंतिम सार्वजनिक भाषण 4 मार्च 1947 को #मुल्तान शहर के #कूप_मंडी में #पंजाब के राष्ट्रपति #डॉ_सैफुद्दीन_किचलू के साथ दिया और एकजुट भारत के रूप में स्वतंत्रता प्राप्त करने की आवश्यकता पर बल दिया। अगले दिन, मुल्तान के डीएवी कॉलेज के 600 छात्रों को बचाते हुए वह 43 साल की उम्र में बलिदान हो गए। 

🇮🇳 छात्रों ने भारत के विभाजन के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण जुलूस निकाला था लेकिन वे सांप्रदायिक दंगों में फँस गये। वह छात्रों को बचाने में कामयाब रहे लेकिन भारत में हिंदू मुस्लिम एकता के लिए उन्होंने अपनी जान गँवा दी। वह अपने पीछे 35 साल की एक युवा विधवा सरदारनी #हरबंस_कौर और आठ छोटे बच्चे छोड़ गए, जिनमें सबसे बड़ी उम्र केवल 14 साल थी।

🇮🇳 अमर बलिदानी नानक सिंह पश्चिमी पंजाब, जो अब पाकिस्तान में है, के एक प्रसिद्ध व्यक्ति थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन भारत की स्वतंत्रता, सांप्रदायिक सद्भाव और एकता के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने धर्म के आधार पर भारत के विभाजन का विरोध किया क्योंकि वे धार्मिक असामंजस्य के परिणामों की भविष्यवाणी कर सकते थे। उन्होंने तत्कालीन मुस्लिम नेताओं को चेतावनी दी कि वे ब्रिटिश 'फूट डालो और राज करो' की नीति, जो फूट डालो और भागो में बदल गई थी, के झाँसे में न आएं। उन्होंने मुस्लिम नेताओं से अनुरोध किया कि स्वतंत्रता के बाद, भारत एक व्यक्ति, एक वोट वाला एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश होगा और परिणामस्वरूप, हम एक साथ मिलकर अपना भाग्य बनाएंगे। उन्होंने चेतावनी दी कि यदि हम अपने-अपने रास्ते अलग हो गए, तो हमारे बीच कुछ भी समान नहीं होगा और हम प्रतिद्वंद्वी बन जाएंगे और परिणामस्वरूप, क्षेत्र में कभी भी शांति का अनुभव नहीं होगा।

🇮🇳 अमर बलिदानी नानक सिंह ब्रिटिश पुलिस में एक तेजतर्रार पुलिस इंस्पेक्टर थे और अपने उत्कृष्ट कर्तव्य निर्वहन के लिए उन्हें 29 गोल्ड कमेंडेशन सर्टिफिकेट प्राप्त हुए थे। जब उन्हें #सरगोधा, जो अब पाकिस्तान में है, में निहत्थे शांतिपूर्ण स्वतंत्रता प्रेमियों पर गोली चलाने का आदेश दिया गया तो उन्होंने अपना शानदार पुलिस कैरियर त्याग दिया। उन्होंने अपने वरिष्ठ के अनैतिक आदेशों का पालन करने से इनकार कर दिया क्योंकि उन्होंने #जलियांवाला_बाग के समान एक अन्य घटना का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया था।

 

🇮🇳 सज़ा के रूप में, उन्हें उत्तर-पश्चिम सीमा पर एक आदिवासी क्षेत्र #डेरा_गाज़ी_खान में तैनात किया गया था। ब्रिटिश अधिकारियों से मोहभंग होने के बाद, उन्होंने पुलिस बल से इस्तीफा दे दिया और मुल्तान में कानूनी प्रैक्टिस शुरू कर दी। वह क्षेत्र के एक सफल और प्रतिष्ठित वकील थे। उन्होंने #नेताजी_सुभाष_चंद्र_बोस और #जनरल_मोहन_सिंह द्वारा शुरू की गई भारतीय राष्ट्रीय सेना (#आजाद_हिंद_फौज) के कैदियों की रक्षा के लिए मामले उठाए। ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा प्रतिशोध के डर से कोई अन्य वकील ऐसे मामलों को लेने की हिम्मत नहीं करेगा।

🇮🇳 अमर बलिदानी नानक सिंह ने अपना पूरा जीवन भारत की शांति, अखंडता और एकता के लिए समर्पित कर दिया और उन्हीं सिद्धांतों के लिए उन्होंने अपना जीवन बलिदान कर दिया। उनका चित्र अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में भी लगा हुआ है। पंजाब सरकार ने उनके नाम पर एक सड़क का नाम रखा है और सड़क पर उनकी प्रतिमा स्थापित की है।

जय हिन्द।

साभार: shaheednanaksinghfoundation.com

🇮🇳 भारत की एकता और अखंडता की रक्षा के संकल्प के साथ भारत विभाजन रोकने के आंदोलन में डीएवी कॉलेज के 600 छात्रों को बचाते हुए अपने प्राणों की आहुति देने वाले देशप्रेमी अमर बलिदानी #सरदार_नानक_सिंह जी को उनके #बलिदान_दिवस पर विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 



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Baba Prithvi Singh Azad | बाबा पृथ्वीसिंह आजाद | 15 सितंबर 1892 - 05 मार्च 1989



14 दिनों तक रोज सामने मौत की बाल्टी देख कर भी डरे नहीं #Baba_Prithvi_Singh_Azad  #पृथ्वीसिंह आजाद 🇮🇳

🇮🇳 भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले कुछ ऐसे क्रांतिकारी भी रहे, जिन्हें आजादी मिलने के बाद भुला दिया गया। या तो उन्हें जानबूझकर भुलाया गया या फिर उनके बारे में कहीं कोई जानकारी दर्ज थी ही नहीं, इसलिए देश उन्हें भूल गया। ऐसे ही क्रांतिवीर थे पृथ्वीसिंह आजाद, जिनके बारे में छुटपुट जानकारी ही देश के सामने आ सकी। बाबा पृथ्वीसिंह आजाद ऐसे क्रांतिवीर थे, जिनके जीवन का प्रत्येक क्षण देश की स्वतंत्रता के लिए अर्पित था। 

🇮🇳 15 सितंबर 1892 को #पंजाब के #सर्कपुर_टावर, जिला #अम्बाला में जन्मे पृथ्वीसिंह आजाद कुछ कमाने के लिए कई देशों की यात्रा करते हुए अमेरिका पहुँचे थे। वहाँ वे भारत की आजादी के लिए लड़ रही 'गदर पार्टी' में शामिल हो गए।

🇮🇳 गदर पार्टी के आह्वान पर वे अपने साथियों के साथ वापस भारत लौटे और अम्बाला की सैनिक छावनियों में भारतीय सैनिकों को अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने की प्रेरणा देने लगे। दुर्भाग्य से 8 दिसम्बर 1914 को उन्हें बंदी बनाकर #लाहौर की सेंट्रल जेल भेज दिया गया। उन्हें लाहौर षड्‌यंत्र केस में अन्य कई क्रांतिकारियों के साथ अभियुक्त बनाया गया।

🇮🇳 न्यायालय ने उक्त केस में 24 क्रांतिकारियों को फाँसी का दंड घोषित किया। उन क्रांतिकारियों में बाबा पृथ्वीसिंह आजाद भी थे। उस समय जेल में फाँसी देने के बाद शवों को नहलाया नहीं जाता था। जेल परिसर में जेल के ही कर्मचारियों द्वारा शव को जला दिया जाता था। अतः राजबंदियों की माँग थी कि जिस दिन हमें फाँसी दें, उसके पहले स्नान करने की व्यवस्था करें। मगर क्रूर अंग्रेजी शासक क्रांतिकारियों को मानसिक प्रताड़ना देने का कोई मौका छोड़ना नहीं चाहते थे।

🇮🇳 जेल में बाबा पृथ्वीसिंह आजाद की कोठरी के सामने रोज एक बाल्टी पानी रख दिया जाता था। क्रांतिकारियों को लगता था कि आज उन्हें फाँसी दी जाएगी। ऐसी मानसिक क्रूरता लगातार 14 दिनों तक की गई। किंतु इससे न तो बाबा पृथ्वीसिंह आजाद डिगे, न ही कोई अन्य क्रांतिकारी।

साभार: naidunia.com

🇮🇳 #पद्मभूषण से सम्मानित; संयुक्त राज्य अमेरिका में #ग़दर_पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक और #लाहौर, #कलकत्ता, #मद्रास तथा #सेलुलर जेल समेत विभिन्न जेलों में यातनापूर्ण 10 साल बिताने वाले महान #क्रांतिकारी #बाबा_पृथ्वीसिंह_आजाद जी को उनकी पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 



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Revolutionary Sushila Didi | भगत सिंह की 'दीदी' क्रांतिकारी सुशीला दीदी

 




भारत के #स्वतंत्रता संग्राम के #क्रांतिकारी वीरों के बलिदान से हम ज़्यादातर भारतीय परिचित हैं। शहीद- ए- आजम #भगत_सिंह की कुर्बानी की गाथाएं हर गली-मोहल्ले में सुनाई जाती हैं। लेकिन उनका साथ देने वाली महिला क्रांतिकारियों के बारे में लोगों को बहुत ही कम जानकारी है। आज हम आपको उनकी टोली की एक और महिला क्रांतिकारी, सुशीला मोहन यानी कि भगत सिंह की #सुशीला_दीदी #Sushila_Didiके बारे में बता रहे हैं।

🇮🇳 5 मार्च 1905 को पंजाब के #दत्तोचूहड़ (अब पाकिस्तान) में जन्मीं दीदी की शिक्षा जालंधर के आर्य कन्या महाविद्यालय में हुई। उनके पिता अंग्रेजी सेना में नौकरी करते थे। पढ़ाई के दौरान सुशीला क्रांतिकारी दलों से जुड़े छात्र-छात्राओं के संपर्क में आईं। उनका मन भी #देशभक्ति में रमने लगा और देखते ही देखते, वह खुद क्रांति का हिस्सा बन गईं। 

🇮🇳 लोगों को जुलूस के लिए इकट्ठा करना, गुप्त सूचनाएं पहुँचाना और क्रांति के लिए चंदा इकट्ठा करना उनका काम हुआ करता था। यहाँ पर उनका मिलना-जुलना भगत सिंह और उनके साथियों से भी हुआ। यहाँ पर उनकी मुलाक़ात #भगवती_चरण और उनकी पत्नी #दुर्गा_देवी_वोहरा से हुई।

🇮🇳 यह सुशीला दीदी ही थीं जिन्होंने दुर्गा देवी को #दुर्गा_भाभी बना दिया। उन्होंने ही सबसे पहले यह संबोधन उन्हें दिया और फिर हर कोई क्रांतिकारी उन्हें सम्मान से दुर्गा भाभी कहने लगा और सुशीला को सुशीला दीदी।

🇮🇳 कहते हैं कि भगत सिंह भी सुशीला दीदी को बड़ी बहन की तरह सम्मान करते थे। ब्रिटिश सरकार की बहुत सी योजनाओं के खिलाफ सुशीला दीदी ने उनकी मदद की थी।

🇮🇳 #काकोरी_क्रांति #Kakori_Krantiमें जब #राम_प्रसाद_बिस्मिल और उनके साथी पकड़े गए तो उन पर मुकदमा चला। मुकदमे की पैरवी को आगे बढ़ाने के लिए धन की ज़रूरत थी। ऐसे में, सुशीला दीदी ने दस तोला #सोना दिया। बताया जाता है कि यह सोना उनकी माँ ने उनकी शादी के लिए रखा था। पर इस वीरांगना ने इसे अपने देश की आज़ादी के लिए दे दिया क्योंकि उन्हें किसी भी दौलत से ज्यादा आज़ादी से प्यार था। लेकिन यह देश की बदकिस्मती थी कि काकोरी ट्रेन को लूटकर अंग्रेजों की नींद उड़ाने वाले क्रांतिकारियों में से 4 को फाँसी की सजा सुना दी गई।

🇮🇳 इस खबर ने सुशीला दीदी और उनके जैसे बहुत से स्वतंत्रता सेनानियों को झकझोर दिया था। पर उनके कदम नहीं डगमगाए बल्कि सुशीला दीदी तो अपने घरवालों के खिलाफ चली गईं। उनके पिता ने जब उन्हें राजनीति और क्रांति से दूर रहने के लिए समझाया तो उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि घर छूटे तो छूटे लेकिन उनके #कदम देश को आज़ादी दिलाये बिना नहीं रुकेंगे।

🇮🇳 पढ़ाई पूरी करने के बाद, सुशीला दीदी कोलकाता में शिक्षिका की नौकरी करने लगीं। यहाँ पर रहते हुए भी वह लगातार क्रांतिकारियों की मदद कर रही थीं। साल था 1928, जब साइमन कमीशन का विरोध करते समय #लाला_लाजपतराय पर लाठियाँ बरसाने वाले ब्रिटिश पुलिस अफसर सांडर्स को मारने के बाद भगतसिंह, दुर्गा भाभी के साथ छद्म वेश में कलकत्ता पहुँचे।

🇮🇳 उस समय भगवती चरण भी कलकत्ता में ही थे। लखनऊ स्टेशन से ही भगत सिंह ने भगवती और सुशीला दीदी को पत्र लिख दिया था। कलकत्ता स्टेशन पर सुशीला दीदी और भगवती उन्हें लेने के लिए पहुंचे।

🇮🇳 कलकत्ता में सुशीला दीदी ने भगत सिंह को वहीं ठहराया, जहाँ वह खुद रह रहीं थी ताकि ब्रिटिश सरकार को पता न चल सके। सुशीला दीदी की मदद से भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारी ने अपनी अगली योजना पर काम किया।

🇮🇳 8 अप्रैल 1929 को #भगतसिंह और #बटुकेश्वर_दत्त को केन्द्रीय असेम्बली में बम विस्फोट करने के लिए भेजना तय किया गया और उस समय #सुशीला_दीदी, #दुर्गा_भाभी और भगवती चरण के साथ लाहौर में ही थीं। अपने मिशन पर निकलने से पहले भगत सिंह उनसे मिलने भी आए थे।

🇮🇳 लेकिन जैसा कि हम सब जानते हैं कि इस हमले में भगत सिंह की गिरफ्तारी हो गई। भगतसिंह और उनके साथियों पर जब ‘लाहौर षड्यन्त्र केस’ चला तो दीदी भगतसिंह के बचाव के लिए चंदा जमा करने कलकत्ता पहुँचीं। भवानीपुर में सभा का आयोजन हुआ और जनता से ‘भगतसिंह डिफेन्स फंड’ के लिए धन देने की अपील की गई। कलकत्ता में दीदी ने अपने इस अभियान के लिए अपनी महिला टोली के साथ एक नाटक का मंचन करके भी 12 हजार रूपए जमा किए थे। यहाँ तक कि उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी और पूरा समय क्रांतिकारी दल को देने लगीं।

🇮🇳 अन्य क्रांतिकारियों के साथ-साथ सुशीला भी अंग्रेजों की नज़र में आने लगीं थीं। उनके खिलाफ गिरफ्तारी का आदेश जारी हो चुका था। लेकिन इसकी परवाह किए बिना भी उन्होंने #जतिंद्र_नाथ की मृत्यु के बाद, दुर्गा भाभी के साथ मिलकर भारी जुलूस निकाला। जन-जन के दिल में क्रांति की आग को भड़काया। उन्हें साल 1932 में गिरफ्तार भी किया गया। छह महीने की सजा के बाद उन्हें छोड़ा गया और उन्हें अपने घर पंजाब लौटने की हिदायत मिली।

🇮🇳 साल 1933 में उन्होंने अपने एक सहयोगी वकील #श्याम_मोहन से विवाह किया, जो खुद स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े हुए थे। साल 1942 के आंदोलन में दोनों पति-पत्नी जेल भी गए। श्याम मोहन को दिल्ली में रखा गया और दीदी को लाहौर में। इतनी यातनाएं सहने के बाद भी उनके मन से देश को आज़ाद कराने का जज्बा बिल्कुल भी कम नहीं हुआ। आखिरकार, महान वीर-वीरांगनाओं की मेहनत रंग लायी और साल 1947 में देश को आज़ादी मिली।

🇮🇳 आज़ादी के बाद की ज़िंदगी, सुशीला दीदी ने दिल्ली में #गुमनामी में ही गुजारी। उन्होंने कभी भी अपने बलिदानों के बदले सरकार से किसी भी तरह की मदद या इनाम की अपेक्षा नहीं रखी। 

🇮🇳 3 जनवरी 1963 को भारत की इस बेटी ने दुनिया को अलविदा कहा। दिल्ली के चाँदनी चौक में एक सड़क का नाम ’सुशीला मोहन मार्ग’ रखा गया था, पर शायद ही कोई इस नाम के पीछे की कहानी से परिचित हो।

🇮🇳 अक्सर यही होता आया है… हमारा इतिहास महिलाओं के बलिदान और उनकी बहादुरी को अक्सर भूल जाता है। बहुत सी ऐसी नायिकाएं हमेशा छिपी ही रह जाती हैं। सुशीला मोहन भी उन्हीं नायिकाओं में से एक हैं!

🇮🇳 देश की आज़ादी के लिए मर-मिटने वाली ऐसी वीरांगनाओं को कोटि कोटि प्रणाम!

~ निशा डागर 

साभार: thebetterindia.com

🇮🇳 भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना जीवन समर्पित करने वाली; त्याग, साहस और देशप्रेम की प्रतिमूर्ति अमर #वीरांगना #सुशीला_मोहन जी को उनकी जयंती पर कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से कोटि-कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

🇮🇳 जय मातृभूमि 🇮🇳

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

#Revolutionary  #Sushila_Didi #05March

सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. 

04 मार्च 2024

Thakur Jagmohan Singh | ठाकुर जगमोहन सिंह | प्रसिद्ध साहित्यकार | Famous Literature




Thakur Jagmohan Singh (born- 1857 AD, Madhya Pradesh; died- March 4, 1899 AD)

🇮🇳🔰 ठाकुर जगमोहन सिंह (जन्म- 1857 ई., मध्य प्रदेश; मृत्यु- 4 मार्च, 1899 ई.) प्रसिद्ध #साहित्यकार थे। इनका नाम 'भारतेन्दु युग' के सहृदय साहित्य सेवियों में आता है। ये मध्य प्रदेश स्थित विजयराघवगढ़ के राजकुमार और अपने समय के बहुत बड़े विद्यानुरागी थे। आप हिन्दी के अतिरिक्त #संस्कृत साहित्य के भी अच्छे ज्ञाता थे। इनके समस्त कृतित्व पर संस्कृत अध्ययन की व्यापक छाप है। जगमोहन सिंह ने ब्रजभाषा के कवित्त और सवैया छन्दों में कालिदास कृत 'मेघदूत' का बहुत सुन्दर अनुवाद भी किया है।

🇮🇳🔰 ठाकुर जगमोहन सिंह का जन्म श्रावण शुक्ल चतुर्दशी, संवत 1914 (1857 ई.) को हुआ था। वे #विजयराघवगढ़, मध्य प्रदेश के राजकुमार थे। अपनी शिक्षा के लिए काशी आने पर उनका परिचय #भारतेंदु_हरिश्चंद्र और उनकी मंडली से हुआ। हिन्दी के अतिरिक्त वे संस्कृत और अंग्रेज़ी साहित्य की भी अच्छी जानकारी रखते थे।

🇮🇳🔰 ठाकुर साहब मूलत: कवि ही थे। उन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा नई और पुरानी दोनों प्रकार की काव्य प्रवृत्तियों का पोषण किया। उन्होंने जो गद्य लिखा है, उस पर भी उनके कवि-व्यक्तित्व की स्पष्ट छाप है। जगमोहन सिंह उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के उन स्वनामधन्य कवियों में प्रमुख माने जाते हैं, "जिन्होंने एक ओर तो हिन्दी साहित्य की नवीन गति के प्रवर्त्तन में योग दिया, दूसरी ओर पुरानी परिपाठी की कविता के साथ भी अपना पूरा सम्बन्ध बनाये रखा।" इस सन्दर्भ में #आचार्य_रामचन्द्र_शुक्ल ने आपको एक प्रेम-पथिक कवि के रूप में स्मरण किया है।

🇮🇳🔰 जगमोहन सिंह की काव्य भाषा परिमार्जित #ब्रजभाषा थी। सरस श्रृंगारी भावभूमि को लेकर कवित्त-सवैया की रचना करने में आप बहुत निपुण थे। उनकी रचनाओं की एक बहुत बड़ी विशेषता इस बात में है कि वे प्रकृति के ताजा मनोहर चित्रों से अलंकृत हैं। उनमें #प्रकृति के विस्तृत सौन्दर्य के प्रति व्यापक अनुराग दृष्टि बिम्बित हुई है। छायावाद युग आरम्भ होने के कोई 25-30 वर्ष पूर्व ही जगमोहन सिंह की कृतियों में मानवीय सौन्दर्य को प्राकृतिक सौन्दर्य की तुलनामूलक पृष्ठभूमि में देखने-परखने का एक संकेत उपलब्ध होता है और उस दृष्टि से उनकी तत्कालीन रचनाएँ हिन्दी काव्य में एक नूतन विधान का आभास देती हैं।

● प्रेम सम्पत्ति लता (1885 ई.)

● श्यामा लता (1885 ई.)

● श्यामा-सरोजिनी (1886 ई.)

🇮🇳🔰 ठाकुर जगमोहन सिंह हिन्दी के अतिरिक्त संस्कृत साहित्य के भी अच्छे ज्ञाता थे। उनके समस्त कृतित्व पर संस्कृत अध्ययन की व्यापक छाप है। ब्रजभाषा के कवित्त और सवैया छन्दों में #कालिदास कृत 'मेघदूत' का बहुत सुन्दर अनुवाद उन्होंने किया है। जगमोहन सिंह जी अपने समय के उत्कृष्ट गद्य लेखक भी रहे। हिन्दी निबन्ध के प्रथम उत्थान काल के निबन्धकारों में उनका स्थान महत्त्वपूर्ण है। वे ललित शैली के सरस लेखक थे। उनकी भाषा बड़ी परिमार्जित एवं संस्कृतगर्भित थी और शैली प्रवाह युक्त तथा गद्य काव्यात्मक। फिर भी हिन्दी के आरम्भिक गद्य में उपलब्ध होने वाले पूर्वी प्रयोगों और 'पण्डिताऊपन' की चिंत्य शैली से आप बच नहीं पाये हैं। 'धरे हैं', 'हम क्या करैं', 'चाहती हौ', 'जिसै दूँ' और 'ढोल पिटै' जैसे अशुद्ध प्रयोग उनकी रचनाओं में बहुत अधिक मात्रा में प्राप्त होते हैं।

🇮🇳🔰 जगमोहन सिंह ने आधुनिक युग के द्वार पर खड़े होकर शायद पहली बार प्रकृति को वास्तविक अनुराग-दृष्टि से देखा था। आपके कविरूप की यह एक विशेषता है। #निबन्धकार के रूप में आपने हिन्दी की आरम्भिक गद्यशैली को एक साहित्यिक व्यवस्था प्रदान की थी।

🇮🇳🔰 'श्यामा स्वप्न' जगमोहन सिंह की प्रमुख गद्य कृति है। इसका एक प्रामाणिक स्वरूप #श्रीकृष्णलाल द्वारा सम्पादित होकर काशी की 'नागरी प्रचारिणी सभा' से प्रकाशित हो चुका है। लेखक के समसामयिक युग के सुप्रसिद्ध साहित्यकार #अम्बिकादत्त_व्यास ने इस कृति को गद्य-काव्य कहा है। स्वयं लेखक ने इसे "गद्यप्रधान चार खण्डों में एक कल्पना" कहा है। यह वाक्यांश इस पुस्तक के मुख पृष्ठ पर अंकित है। इसमें गद्य और पद्य दोनों का प्रयोग किया गया है, किंतु गद्य की तुलना में पद्य की मात्रा बहुत कम है। यह कृति वस्तुत: एक भावप्रधान उपन्यास है। उसकी शैली वर्णनात्मक है और इसमें चरित्र-चित्रण की उपेक्षा करके प्रकृति तथा प्रेममय जीवन के सुन्दर चित्र अंकित किये गये हैं।

🇮🇳🔰 ठाकुर जगमोहन सिंह की मृत्यु 42 वर्ष की आयु में 4 मार्च, 1899 ई. में हुई।

साभार: shikshabhartinetwork.com

🇮🇳 हिन्दी के #भारतेन्दुयुगीन #कवि, #आलोचक और #उपन्यासकार #ठाकुर_जगमोहन_सिंह जी को उनकी पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि !

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

 #Thakur_Jagmohan_Singh #आजादी_का_अमृतकाल  #03March #प्रेरणादायी_व्यक्तित्व,  


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03 मार्च 2024

Ramakrishna Khatri | Freedom Fighter | क्रांतिकारी रामकृष्ण खत्री | 3 मार्च 1902 -18 अक्टूबर 1996




 

🇮🇳 आजादी के मतवालों की कहानियाँ सुनते ही खून दोगुनी रफ्तार से दौड़ने लगता है. क्रांतिकारियों की कहानी के किस्से इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं. आपको ऐसे क्रांतिकारी की कहानी बताएँगे, जिसने छोटी सी उम्र में देश की आजादी को ही अपनी जिंदगी का मिशन बना लिया था.

🇮🇳 क्रांतिकारी रामकृष्ण खत्री का जन्म #महाराष्ट्र प्रांत में #बुल्डाणा जिले के #चिखली ग्राम में हुआ था. पिता का नाम #शिवलाल_चोपड़ा और माता का नाम #कृष्णा_बाई था. उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा चिखली और चंद्रपुर नगर में ग्रहण की. बचपन से ही खत्री के हृदय में देश प्रेम का अंकुर फूटने लगा था. बताया जाता है, उन दिनों देश भर में 'लाल-बाल-पाल' की धूम मची थी.

🇮🇳 सन 1917 में #लोकमान्य_बाल_गंगाधर_तिलक अपने राष्ट्रव्यापी दौरे के बीच चिखली में पधारे थे. भला बालक राम कृष्ण यह अवसर कहाँ छोड़ने वाला थे. रामकृष्ण खत्री के बेटे #उदय_खत्री बताते हैं कि, अपने ऊपर निगरानी रख रहे परिजनों और स्कूल अध्यापकों की नजर बचाकर रामकृष्ण कुछ सहपाठियों के साथ #लोकमान्य_तिलक का भाषण सुनने जा पहुँचे. भाषण के बाद मौका पाकर रामकृष्ण लोकमान्य तिलक के पास पहुँचे और हाथ पकड़ कर बोले, मुझे भी अपने साथ ले चलिए. आप जैसा कहेंगे मैं वैसा करूँगा.

🇮🇳 इस पर लोकमान्य तिलक ने उन्हें समझाते हुए कहा था, अभी तुम लोग बहुत छोटे हो, पढ़ लिख कर थोड़ा और बड़े हो जाओ तब #मातृभूमि को आजाद कराने के लिए अपने आप को लगाना. इस बात को सुनकर रामकृष्ण खत्री रुआँसे हो गए. इसी पर रामकृष्ण खत्री ने देश को आजाद कराने की मन में ठान ली.

🇮🇳 बेटे उदय खत्री बताते हैं कि, चिखली की पढ़ाई खत्म होते ही पिता रामकृष्ण अपने बड़े भाई #मोहनलाल के पास महाराष्ट्र के ही चंद्रपुर चले आए और वहाँ हाईस्कूल में दाखिला ले लिया. 1920 के 1 अगस्त को लोकमान्य तिलक के निधन के बाद पूरे देश की निगाहें #गाँधीजी की ओर लग गई थीं. सितंबर 1920 में कोलकाता कांग्रेस अधिवेशन से पूर्व महात्मा गाँधी ने 14 सूत्रीय कार्यक्रम की घोषणा की. जिसमें वकीलों से वकालत छोड़ने का आह्वान, छात्र-छात्राओं से अंग्रेजी विद्यालयों की पढ़ाई छोड़ देने का आह्वान और प्रबुद्ध जनों से अंग्रेज सरकार द्वारा प्रदत्त उपाधियों-पदवियों का परित्याग कर देने का आह्वान किया.

🇮🇳 इस 14 सूत्री कार्यक्रमों के आह्वान पर कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने के लिए महात्मा गाँधी #वर्धा (महाराष्ट्र) पहुँचे. #सेठ_जमनालाल_बजाज के प्रांगण में एक विशाल सभा का आयोजन किया गया. इसी सभा में रामकृष्ण खत्री भी अपने कुछ छात्र मित्रों के साथ पहुँच गए. भाषण की समाप्ति के बाद जैसे ही गॉंधीजी ने समूह से कहा कि किसी को किसी प्रकार की शंका का समाधान करना हो तो मुझसे प्रश्न कर सकता है.

🇮🇳 इस पर करीब 18 वर्ष के राम कृष्ण अपने स्थान से उठे और गॉंधी जी से एक तीखा प्रश्न कर बैठे. रामकृष्ण ने गॉंधी जी से कहा, आप अंग्रेज सरकार द्वारा स्थापित विद्यालयों से पढ़ाई छोड़ देने के लिए हम विद्यार्थियों से कह रहे हैं, लेकिन लोकमान्य तिलक, #रविंद्र_नाथ_टैगोर और आप सभी नेताओं ने इन्हीं विद्यालय से शिक्षा ग्रहण की है. इस पर गाँधी जी ने बड़े शांत भाव से रामकृष्ण को उत्तर दिया. जिसके बाद रामकृष्ण खत्री व उपस्थित छात्रों ने विद्यालय छोड़ देने की घोषणा कर दी.

🇮🇳 उदय खत्री बताते हैं कि पिता रामकृष्ण खत्री ने अपने व्यक्तित्व से कांग्रेस में अपना स्थान बनाया. सन 1920 में ही कोलकाता और नागपुर के कांग्रेसी अधिवेशन में प्रतिनिधि के रुप में सम्मिलित हुए और उसी समय से सेवा दल के कार्यकर्ता के रूप में कार्यरत रहे. वे बताते हैं कि अगस्त 1921 में राष्ट्र को समर्पित करने के लिए वह गृह त्यागी हो गए. इसी समय वह #कनखल (हरिद्वार) जाकर नागपंचमी के दिन उन्होंने उदासीन अखाड़े में दीक्षा प्राप्त की और साधु हो गए.



🇮🇳 फरवरी 1922 में महात्मा गाँधी ने #चौरी_चौरा_कांड के कारण असहयोग आंदोलन स्थगित कर दिया था. इस निर्णय से दुखी होकर रामकृष्ण अमृतसर से बनारस चले गए. वहाँ उन्होंने उदासीन संस्कृत महाविद्यालय में प्रवेश ले लिया. उदय खत्री बताते हैं 1923 में बनारस में ही वह क्रांतिकारी #चंद्रशेखर_आजाद के संपर्क में आए. उसी के बाद रामकृष्ण एकमात्र ऐसे व्यक्ति से जिन्हें चंद्र शेखर आजाद ने 'हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन' का सक्रिय सदस्य बना लिया. फिर सारा जीवन देश के नाम समर्पित कर दिया.

🇮🇳 9 मार्च 1925 को #बिचपुरी गाँव में हुए एक्शन और उसके डेढ़ 2 माह बाद #प्रतापगढ़ के #द्वारिकापुर कस्बे में किए गए एक्शन में सक्रिय रूप से भाग लिया.

🇮🇳 6 अगस्त 1925 को क्रांतिकारी #रामप्रसाद_बिस्मिल के नेतृत्व में क्रांतिकारी साथियों द्वारा लखनऊ के निकट काकोरी ट्रेन डकैती कांड हुआ.

🇮🇳 18 अक्टूबर 1925 को रामकृष्ण खत्री काकोरी क्रांतिकारी षड्यंत्र कांड के अंतर्गत #पुणे से बंदी बनाकर लखनऊ लाए गए. काकोरी क्रांतिकारी षड्यंत्र केस के अंतर्गत लखनऊ में चले ऐतिहासिक मुकदमे में 19 क्रांतिकारियों को 4 वर्ष से लेकर फाँसी तक का दंड मिला. रामकृष्ण खत्री को इस केस में 10 वर्ष कठोर कारावास की सजा मिली.

🇮🇳 रामकृष्ण खत्री 10 वर्ष की सजा काटकर 1 अगस्त 1935 को लखनऊ सेंट्रल जेल से रिहा किए गए. जेल से छूट कर उन्होंने #डॉ_राजेंद्र_प्रसाद की अध्यक्षता में 'ऑल इंडिया पॉलीटिकल प्रिजनर्स रिलीफ कमिटी' की स्थापना की. इस संस्था के महामंत्री के रूप में बंदी जीवन काट रहे, अपने शेष क्रांतिकारी साथियों की रिहाई का प्रयास करते रहे.

🇮🇳 रामकृष्ण के प्रयास के चलते 1937 में कांग्रेस सरकार ने क्रांतिकारी बंदियों की रिहाई शुरू कर दी. वर्ष 1938 के मध्य तक सभी क्रांतिकारी रिहा भी कर दिए गए.

🇮🇳 दिसंबर 1937 में दिल्ली प्रवेश पर लगे प्रतिबंध का उल्लंघन करने पर 5 क्रांतिकारी साथियों के साथ बंदी बना लिए गए और 4 माह कैद की सजा काटी.



🇮🇳 रामकृष्ण खत्री 1938 के मध्य में #आचार्य_नरेंद्र_देव द्वारा गठित 'कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी' की लखनऊ इकाई के महामंत्री चुने गए.

🇮🇳 रामकृष्ण 1939 में क्रांतिकारी #सुभाष_चंद्र_बोस की अध्यक्षता में आयोजित ऐतिहासिक #त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन में सम्मिलित हुए.

🇮🇳 15 अगस्त 1939 को रामकृष्ण खत्री का कोलकाता में बंगाली 'दास अधिकारी' परिवार की कन्या के साथ विवाह हुआ.

🇮🇳 सन 1940 में उत्तर प्रदेश में सुभाष चंद्र बोस के ऐतिहासिक दौरे का सफल आयोजन किया. इससे पहले 1939 में #रामगढ़ कांग्रेस अधिवेशन के दौरान ही प्रथम अखिल भारतीय फॉरवर्ड ब्लॉक अधिवेशन में भी सम्मिलित हुए.

🇮🇳 1941 में सुभाष चंद्र बोस के देश छोड़ देने के बाद रामकृष्ण 1942 में कांग्रेस में सम्मिलित हो गए. 1966 के कांग्रेस विभाजन तक पार्टी में सक्रिय कार्य करते रहे.

🇮🇳 सितंबर 1976 में लखनऊ में संपन्न अमर शहीद #यतींद्र_नाथ_दास के 50वें बलिदान दिवस समारोह के वे सफल आयोजक रहे.

🇮🇳 दिसंबर 1983 में लखनऊ के निकट ऐतिहासिक काकोरी ट्रेन डकैती घटनास्थल पर भव्य स्मारक के निर्माण के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के द्वारा शिलान्यास समारोह में भी मुख्य रूप से रामकृष्ण खत्री मौजूद रहे.

🇮🇳 मई 1990 में लखनऊ में देश के स्वतंत्रता संग्राम में अपने प्राणों की आहुति देने वाले प्रमुख क्रांतिकारी के स्मृति दिवसों के निरंतर आयोजन के लिए 'शहीद स्मृति समारोह समिति' नामक संस्था की स्थापना की.

🇮🇳 देश की आजादी में अपना योगदान देने वाले क्रांतिवीर रामकृष्ण खत्री का निधन 95 वर्ष की उम्र में 18 अक्टूबर 1996 को लखनऊ में हुआ.

साभार: etvbharat.com

🇮🇳 भारत के स्वतंत्रता संग्राम में #काकोरी_क्रांति के लिए दण्ड के रूप में दस वर्ष के कारावास की सजा पाने वाले भारत के प्रमुख #क्रांतिकारी #रामकृष्ण_खत्री जी की जयंती पर उन्हें कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से कोटि-कोटि नमन एवं हार्दिक श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

 #Ramakrishna_Khatri   #आजादी_का_अमृतकाल  #03March #प्रेरणादायी_व्यक्तित्व,  #Freedom_Fighter


सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

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Dr. Balkrishna Shivram Munje | डॉ. बालकृष्ण शिवराम मुंजे | डॉ. बीएस मुंजे | 12 दिसम्बर 1872 – 3 मार्च 1948

 




Dr. Balkrishna Shivram Munje | डॉ. बालकृष्ण शिवराम मुंजे |  डॉ. बीएस मुंजे | 12 दिसम्बर 1872 – 3 मार्च 1948 

🇮🇳🔶 वो गुरुजी के गुरुजी थे: जिनकी वजह से डॉ. आंबेडकर की भी थी संघ से नजदीकी 🔶🇮🇳

🇮🇳🔶 जब सेना में बिना किसी भेदभाव के सभी को सम्मिलित होने के अधिकार की याद करें, तो डॉ. हेडगेवार के गुरूजी, डॉ. बालकृष्ण शिवराम मुंजे को भी याद कर लीजिएगा। 🔶🇮🇳

🇮🇳🔶 पूरी संभावना है कि आपने बालकृष्ण शिवराम मुंजे का नाम नहीं सुना होगा। अगर एक वाक्य में उनका योगदान बताना हो तो बता दें कि पहले फिरंगी जातियों के आधार पर सेना में भर्ती लेते थे और इस व्यवस्था को हटाकर सभी की भर्ती हो सके, ये व्यवस्था बीएस मुंजे के प्रयासों से हो पाई थी। #बिलासपुर के एक ब्राह्मण परिवार में 1872 में जन्मे मुंजे ने 1898 में मुंबई के ग्रांट मेडिकल कॉलेज से अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी की थी।

🇮🇳 ये वो दौर था जब कांग्रेस में नरम दल और गरम दल अलग-अलग होने लगे थे। गरम दल का नेतृत्व #लाला_लाजपत_राय, #बाल_गंगाधर_तिलक और #बिपिनचंद्र_पाल अर्थात लाल-बाल-पाल की तिकड़ी के हाथ में था। इस दौर तक दोनों कांग्रेसी धड़ों के बीच जूतेबाजी भी शुरू हो चुकी थी।

🇮🇳🔶 जब 1907 में #सूरत में कांग्रेस पार्टी का अधिवेशन हो रहा था तो दोनों हिस्सों के बीच तल्खियाँ बढ़ गईं। इस वक्त बीएस मुंजे ने खुलकर तिलक का समर्थन किया और यही वजह रही कि तिलक के वो भविष्य में भी काफी करीबी रहे। पार्टी के लिए चंदा इकठ्ठा करने के कार्यक्रमों में वो तिलक के आदेश पर पूरे केन्द्रीय भारत में भ्रमण करते रहे।

🇮🇳🔶 बाद में जब राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने के लिए लोकमान्य तिलक ने गणेश पूजा की शुरुआत की तो उसे भी मुंजे का पूरा समर्थन मिला। पंडाल लगाने, मूर्ति बैठाने और उसे विसर्जित करने तक के कार्यक्रम के जरिए लोकमान्य तिलक ने जो व्यवस्था महाराष्ट्र में शुरू की थी, उसी को वो बाद में कोलकाता भी ले गए। कोलकाता के इस अभियान में लोकमान्य तिलक के साथ बीएस मुंजे भी थे।

🇮🇳🔶 आज जो आप कोलकाता के दुर्गा पूजा में विशाल पंडालों, मूर्तियों इत्यादि का आयोजन देखते हैं वो 1900 के शुरुआती दशकों में रखी गई थी। जैसा कि हर सौ वर्षों में होता ही है, शताब्दी का दूसरा दशक उस समय भी हिन्दुओं के पुनःजागरण का काल था।

🇮🇳🔶 मोहनदास करमचंद गाँधी की ही तरह बोअर युद्ध के दौरान बीएस मुंजे भी 1899 में मेडिकल कॉर्प्स में थे। सायमन कमीशन के विरोध, रक्षा बजट का प्रावधान अलग करवाने और समाज सुधार के कार्यों में बीएस मुंजे लगातार काम करते रहे। जब लोकमान्य तिलक की मृत्यु हो गई तब वो 1920 में कॉन्ग्रेस से अलग हो गए थे।

🇮🇳🔶 उनकी मोहनदास करमचंद गाँधी की ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘अहिंसा’ जैसे विषयों पर घोर असहमति थी। आगे चलकर करीब 65 वर्ष की आयु में उन्होंने नासिक में भोंसला मिलिट्री अकादमी की स्थापना कर डाली। ये स्कूल आज भी जाने माने विद्यालयों में से एक है। उनके द्वारा स्थापित किए हुए कई संस्थान तो अब अपनी सौवीं वर्षगाँठ के आस-पास हैं और आश्चर्य की बात कि कोई भी बंद या सरकारी मदद माँगने वाली बुरी स्थिति में नहीं पहुँचा!

🇮🇳🔶 कांग्रेस से दूरी बढ़ाने के वक्त भी उनकी हिन्दू महासभा से नजदीकी कम नहीं हुई। वो डॉ. हेडगेवार के राजनैतिक गुरु थे। उनकी प्रेरणा से ही डॉ. हेडगेवार ने 1925 में आरएसएस की शुरुआत की थी। डॉ. बीएस मुंजे ने 1927 में हिन्दू महासभा के प्रमुख का पदभार सँभाल लिया था और उन्होंने 1937 में ये पद #विनायक_दामोदर_सावरकर को दिया।

🇮🇳🔶 सैन्य स्कूल स्थापित करने की प्रेरणा उन्हें अपनी इटली यात्रा से मिली थी, जहाँ 1931 में वो मुसोलनी से भी मिले थे। कांग्रेस के घनघोर विरोध के बाद भी वो दो बार लंदन में गोल मेज़ सभाओं में भी सम्मिलित हुए थे। अपने पूरे जीवन वो यात्राएँ ही करते रहे।



🇮🇳🔶 ऐसा भी नहीं है कि उनसे सलाह लेने और मानने वालों में केवल सावरकर और डॉ. हेडगेवार ही थे। जब #डॉ_भीमराव_राम_आंबेडकर को धर्मपरिवर्तन करना था तो उन्होंने भी डॉ. मुंजे से सलाह ली और मानी थी। डॉ. मुंजे ने उन्हें अब्रह्मिक मजहबों की तरफ जाने के बदले भारतीय धर्मों की ओर जाने की सलाह दी थी।

🇮🇳🔶 जब सिख होने और बौद्ध धर्म अपनाने के बीच चुनना था तो अंततः डॉ. आंबेडकर ने डॉ. बीएस मुंजे की सलाह मानते हुए बौद्ध धर्म अपनाया था। अगर आपने कभी सोचा हो कि अपने समय के हर संगठन (राजनैतिक या गैर-राजनैतिक) पर अपने विचार रखने वाले डॉ. आंबेडकर की संघ से क्यों नजदीकी थी, तो ऐसा मान सकते हैं कि डॉ. बीएस मुंजे उनके बीच की कड़ी थे।



🇮🇳🔶 आज डॉ. बीएस मुंजे (12 दिसम्बर 1872 – 3 मार्च 1948) की पुण्यतिथि है। जब सेना में बिना किसी भेदभाव के सभी को सम्मिलित होने के अधिकार की याद करें, तो डॉ. हेडगेवार के गुरूजी, डॉ. बालकृष्ण शिवराम मुंजे को भी याद कर लीजिएगा।

साभार: opindia.com

🇮🇳 #राष्ट्रीय_स्वयंसेवक_संघ के संस्थापक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार के अभिभावक, मार्गदर्शक तथा प्रेरणास्रोत, धर्मवीर, सच्चे राष्ट्रभक्त, वीर नायक #डॉ_बालकृष्ण_शिवराम_मुंजे जी को उनकी पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि !

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

 #Dr_Balkrishna_Shivram_Munje   #आजादी_का_अमृतकाल  #03March #प्रेरणादायी_व्यक्तित्व,  


सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. ,

02 मार्च 2024

Syed Ali | July 10, 1942-March 2, 2010 | Former Indian Hockey Player| सैयद अली | भारत के पूर्व हॉकी खिलाड़ी

 



Syed Ali | July 10, 1942-March 2, 2010) | Former Indian Hockey Player|  सैयद अली | भारत के पूर्व हॉकी खिलाड़ी ।

🇮🇳 पद्मश्री जमन लाल शर्मा के साथ सैयद अली ने बच्चों को #हॉकी सिखाना शुरू किया था। अधिकतर बच्चे गरीब घरों के थे। उनके पास हॉकी और जूते तक खरीदने की क्षमता नहीं थी। खेल के प्रति अपने जुनून के चलते सैयद अली ने बच्चों की जरुरतें पूरी करने लगे। 🇮🇳

🇮🇳 सैयद अली (जन्म- 10 जुलाई, 1942; मृत्यु- 2 मार्च, 2010) भारत के पूर्व हॉकी खिलाड़ी थे। वह पुरुषों की उस हॉकी टीम के सदस्य थे जिसने सन 1964 के टोक्यो ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीता था।

🇮🇳 नि:स्वार्थ सेवा--

लखनऊ के चंद्रभानु गुप्त मैदान में पूर्व ओलंपियन सैयद अली अपनी नर्सरी में खिलाड़ियों को इस मकसद से तराशते और निखारते हैं कि वे किसी दिन देश के लिए खेल सके और हॉकी के फिर से सुनहरे दिन ला सकें। सैयद अली की नर्सरी से कई खिलाड़ी देश के लिए खेल भी चुके हैं। 33 साल से अनवरत जारी उनका प्रयास देश की नि:स्वार्थ सेवा का अप्रतिम उदाहरण है। महान हॉकी खिलाड़ी के.डी. सिंह बाबू की धरती पर उनकी विरासत को आगे बढ़ा रहे सैयद अली की नजर में वह कुछ खास नहीं कर रहे। वह बस इतना ही कहते हैं, 'जो इस खेल से मिला है, बस वही लौटा रहा हूँ।'

🇮🇳 लखनऊ आगमन--

भारत के लिए कई अंतराराष्ट्रीय हॉकी मैच खेल चुके सैयद अली के लखनऊ आने की कहानी भी बड़ी रोचक है। नैनीताल में उनकी कपड़े की सिलाई की दुकान थी। वहीं पर #के_डी_सिंह_बाबू ने उन्हें स्थानीय प्रतियोगिता में खेलते देखा तो लखनऊ ले आए। के.डी. सिंह ओलंपिक में 1948 (लंदन) और 1952 (हेलसिंकी) में हॉकी में गोल्ड जीतने वाली टीम में सदस्य थे। 1952 में तो वह टीम के उपकप्तान भी थे। यह के.डी. सिंह की प्रतिभा परखने की नजर ही थी, जिसने प्रशिक्षण देकर सैयद अली को 1976 की मांट्रियल ओलंपिक टीम तक पहुँचाया। सैयद अली ने देश को कई यादगार क्षण दिए। आज भले ही वह खेल से रिटायर हो गए हैं, लेकिन वह पहले भी ज्यादा सक्रिय हैं। स्टेट बैंक में नौकरी कर रहे सैयद छुट्टी मिलते ही सीधे चंद्रभानु गुप्त मैदान पर पहुँच जाते हैं और हॉकी की प्रतिभाओं को तराशते हैं।

🇮🇳 प्रशिक्षित खिलाड़ी--

बिना सरकारी मदद के चलने वाली सैयद अली की नर्सरी में दाखिले के लिए शुल्क नहीं, हॉकी के लिए केवल जुनून की जरूरत होती है। इसी के सहारे इस नर्सरी से ललित उपाध्याय, आमिर, हरिकृपाल, राहुल शिल्पकार, सौरभ, विजय थापा, विवेकधर, अमित प्रभाकर, सिद्धार्थ शंकर, दीपक सिंह, शारदानंद तिवारी, कुमारी कमला रावत, कविता मौर्या और कमलेश जैसे खिलाड़ी इंडिया कैंप तक पहुँचे। कमल थापा, वीरबहादुर, अविनाश, मो. रफीक, कुमारी फरहा, अभिमन्यु, कवि यादव, विजय कुमार, प्रशांत कबीर, शुभम वर्मा, राहुल वर्मा, अंकित कुमार, आकाश यादव, सौरभ यादव, गौरव यादव राष्ट्रीय टीम के लिए खेल चुके हैं।

🇮🇳 सुजीत कुमार का योगदान--

पद्मश्री #जमन_लाल_शर्मा के साथ सैयद अली ने बच्चों को हॉकी सिखाना शुरू किया था। अधिकतर बच्चे गरीब घरों के थे। उनके पास हॉकी और जूते तक खरीदने की क्षमता नहीं थी। खेल के प्रति अपने जुनून के चलते सैयद अली ने बच्चों की जरुरतें पूरी करने लगे। सैयद अली के संघर्ष को देखकर कुछ साथियों ने हाथ बढ़ाया। इनमें से एक अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी #सुजीत_कुमार आज तक गरीब बच्चों का भविष्य सँवारने में मदद कर रहे हैं। सैयद अली सुजीत कुमार के सहयोग का जिक्र करने के साथ इसके लिए उनका आभार जताने से नहीं चूकते।

साभार: bharatdiscovery.org

🇮🇳 सन 1964 के टोक्यो #ओलम्पिक में स्वर्ण पदक विजेता टीम के सदस्य, पूर्व #हॉकी खिलाड़ी #सैयद_अली जी को उनकी पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि !

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

 #Syed_Ali   #आजादी_का_अमृतकाल  #02March #प्रेरणादायी_व्यक्तित्व,  


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Prof. Manoranjan Sahu | प्रो. मनोरंजन साहू | क्षारसूत्र चिकित्सा पद्धति के विशेषज्ञ

 



Prof. Manoranjan Sahu | प्रो. मनोरंजन साहू | क्षारसूत्र चिकित्सा पद्धति के विशेषज्ञ

🇮🇳 प्रो. मनोरंजन साहू बीएचयू आयुर्वेद संकाय के डीन रहे। उन्होंने अपने कार्यकाल में बीएचयू में वर्ष 2013 में देश का पहला क्षार सूत्र केंद्र बनवाया था। 🇮🇳

🇮🇳 मनोरंजन साहू (जन्म- 2 मार्च, 1953, मिदनापुर, पश्चिम बंगाल) बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के आयुर्वेद संकाय के पूर्व प्रमुख, शल्य चिकित्सा विभाग के पूर्व अध्यक्ष और क्षारसूत्र चिकित्सा पद्धति के विशेषज्ञ हैं। प्रो. मनोरंजन साहू को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने राष्ट्रपति भवन में पद्म श्री, 2023 से सम्मानित किया है। प्रो. मनोरंजन साहू शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में यह सम्मान पाने वाले पहले प्रोफेसर हैं।

🇮🇳 प्रोफेसर साहू का जन्म 2 मार्च, 1953 को #पश्चिम_बंगाल के #मिदनापुर जिले में हुआ था। सन 1977 में उन्होंने स्टेट आयुर्वेदिक कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। उसके बाद एमडी और पीएचडी की उपाधि काशी हिंदू विश्वविद्यालय से 1982 व 1986 में प्राप्त की। इसके बाद बी.एच.यू. में उन्होंने बतौर शिक्षक 34 वर्षों तक कार्य किया।

🇮🇳 प्रो. मनोरंजन साहू बीएचयू आयुर्वेद संकाय के डीन रहे। उन्होंने अपने कार्यकाल में बीएचयू में वर्ष 2013 में देश का पहला क्षार सूत्र केंद्र बनवाया था।

🇮🇳 वह सामाजिक संस्थाओं में भी बवासीर का मुफ्त इलाज किया करते थे।

🇮🇳 मूल रूप से पश्चिम बंगाल के मिदनापुर निवासी प्रो. मनोरंजन साहू ने कोलकाता के जेबी रॉय स्टेट आयुर्वेदिक कॉलेज से वर्ष 1977 में स्नातक किया ।

🇮🇳 सन 1982 और 1986 में बीएचयू में आयुर्वेद में एमडी और शोध करने के बाद काठमांडू चिकित्सा संस्थान में लेक्चरर नियुक्त हुए।

🇮🇳 वर्ष 1993 में बीएचयू आयुर्वेद फैकल्टी के शल्य तंत्र विभाग में रीडर नियुक्त हुए। इसके बाद वे 2003 में प्रोफेसर बने।

🇮🇳 प्रो. मनोरंजन साहू को आयुष विभाग, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा 2008 में सम्मान, 2014 में वैद्य सुंदरलाल जोशी मेमोरियल अवार्ड सहित अन्य पुरस्कार मिल चुका है।

🇮🇳 दो शोध का पेटेंट और 32 अंतरराष्ट्रीय प्रकाशन भी प्रो. साहू ने किया है।

🇮🇳 दुनिया के कई देशों में आयोजित मनोरंजन साहू आयुर्वेद सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके है।

साभार: bharatdiscovery.org

🇮🇳 #पद्मश्री और वैद्य सुंदरलाल जोशी मेमोरियल अवार्ड से सम्मानित; बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के #आयुर्वेद संकाय के पूर्व प्रमुख, #शल्य_चिकित्सा विभाग के पूर्व अध्यक्ष और #क्षारसूत्र_चिकित्सा_पद्धति के विशेषज्ञ #प्रोफेसर_मनोरंजन_साहू जी को जन्मदिन की ढेरों बधाई एवं शुभकामनाएँ !

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

 #Prof._Manoranjan_Sahu #आजादी_का_अमृतकाल  #02March #प्रेरणादायी_व्यक्तित्व,  


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Queen Talaash Kunwari | पूर्वांचल की लक्ष्मीबाई थीं रानी तलाश कुंवरि




🇮🇳 प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का नाम आते ही जेहन में मंगल पांडेय का नाम आता है। मगर उत्तर प्रदेश के #बस्ती जिले के #अमोढ़ा रियासत की रानी तलाश कुंवरि ने भी उस आंदोलन में न सिर्फ पूरी ताकत से अंग्रेजों के छक्के छुड़ाए, बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन को जनक्रांति का स्वरूप दे दिया। रानी की अगुवाई में ब्रितानिया हुकूमत के खिलाफ जंग में शामिल सैकड़ों क्रांतिकारियों को अंग्रेजों ने छावनी में पीपल के पेड़ पर लटका कर सरेआम फाँसी दी थी। यह पेड़ आज भी बस्ती के स्वतंत्रता आंदोलन के गौरवशाली इतिहास की गवाही देता है।

🇮🇳 महारानी तलाश कुंवरि बस्ती ही नहीं, #पूर्वांचल के लोगों के दिलों में आज भी जिंदा है। वह अमोढ़ा रियासत की अंतिम शासक थीं। एसआर डिग्री कॉलेज #दसिया के कार्यवाहक प्राचार्य व इतिहास विभाग के विभागाध्यक्ष #डॉ_वीरेंद्र_श्रीवास्तव बताते हैं कि सन 1852 में #महाराजा_जंगबहादुर_सिंह के निधन के बाद रानी तलाश कुंवरि को सत्ता की बागडोर सँभालनी पड़ी। उस समय अंग्रेज अपने राज्य विस्तार में पूरी ताकत झोंके हुए थे।

🇮🇳 ब्रिटिश हुकूमत की नजर एकाएक अमोढ़ा रियासत पर पड़ी। उसे हथियाने को कुचक्र रचना शुरू कर दिया। तब इर्द-गिर्द की मित्र रियासतों का संगठन बना, जिसमें अमोढ़ा भी शामिल हो गया। रियासतों ने अंतिम मुगल शासक बहादुरशाह जफर के नेतृत्व में यह लड़ाई शुरू की।

🇮🇳 इधर, रानी की बढ़ती ताकत से तिलमिलाए अंग्रेजों ने विद्रोह को दबाने के लिए 1858 में कर्नल ह्यूज के नेतृत्व में ब्रिटिश फौज को आक्रमण के लिए भेजा। रानी और उनके सैनिक अंग्रेजों से वीरता से लड़े। अंग्रेज रानी को जिंदा पकड़ना चाहते थे, लेकिन रानी ने सौगंध ले रखी थी कि वह जीते जी अंग्रेजों के हाथ नहीं लगेंगी। इसी संकल्प को आत्मसात कर वह अंग्रेजों से युद्ध करते #पखेरवा कुंवर सम्मय माता के स्थान पर पहुँच गईं।

🇮🇳 सिपहसालारों को बुलाकर कहा कि अब प्राण बचाना मुश्किल है। यहीं पर उन्होंने दो मार्च 1858 को छाती में कटार घोंप कर आत्मबलिदान दे दिया। डॉ. वीरेंद्र श्रीवास्तव कहते हैं कि रानी ने देश में बस्ती का नाम स्वर्णाक्षरों में दर्ज कराया। उनकी वीरता किसी मायने में रानी लक्ष्मीबाई से कम नहीं है।

🇮🇳 रानी की शहादत के बाद उनके शव को सहयोगियों ने छिपा लिया। बाद में शव को अमोढ़ा राज्य की कुल देवी #सम्मय_माता_भवानी का चौरा के पास दफना दिया गया। यह जगह रानी चौरा के टीले के नाम से प्रसिद्ध है। जबकि पखेरवा में रानी के घोड़े को दफनाया गया है। इस जगह पर एक पीपल का पेड़ आज भी मौजूद है।

🇮🇳 रानी की शहादत के बाद भी क्षेत्र के लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष जारी रखा। लेकिन तब अंग्रेजों की सेना ने गाँव-गाँव जाकर रानी के सैनिकों और उनका सहयोग करने वालों को पकड़ा। मुकदमे का हवाला देते हुए अंग्रेजों ने डेढ़ सौ सैनिकों को छावनी में पीपल के पेड़ से लटका कर मौत के घाट उतार दिया। यह सिलसिला महीनों तक चलता रहा है।



🇮🇳 छावनी शहीद स्थल का निर्माण वर्ष 1972 में तत्कालीन प्रदेश सरकार ने कराया। यहाँ 1992 से मेला लगता आ रहा है। यहाँ शिलालेख पर महारानी का जीवन परिचय लिखा है तो दूसरी तरफ शहीदों का नाम अंकित है। हालांकि शिलालेख में सिर्फ 19 बलिदानियों का ही नाम अंकित है।

Photo: Chandra Prakash Chaudhary

साभार: amarujala.com

🇮🇳 ब्रिटिश हुकूमत को नाकों चने चबाने को विवश करने वाली, 1857 के प्रथम #स्वतंत्रता संग्राम की नायिका #वीरांगना #रानी_तलाश_कुंवरि जी को उनके #आत्मबलिदान_दिवस पर विनम्र श्रद्धांजलि !

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

 #Queen_Talaash_Kunwari #आजादी_का_अमृतकाल  #02March #प्रेरणादायी_व्यक्तित्व,  


सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

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29 फ़रवरी 2024

Prof. Conjeevaram Srirangachari Seshadri | Famous Mathematician | कांजिवरम श्रीरंगचारी शेषाद्रि | 29 फ़रवरी, 1932-17 जुलाई, 2020

 



Prof. Conjeevaram Srirangachari Seshadri | कांजिवरम श्रीरंगचारी शेषाद्रि | 29 फ़रवरी, 1932-17 जुलाई, 2020 

🇮🇳 #कांजिवरम #श्रीरंगचारी #शेषाद्रि (जन्म- 29 फ़रवरी, 1932; मृत्यु- 17 जुलाई, 2020, #चेन्नई) भारत के एक प्रसिद्ध गणितज्ञ थे। उन्हें सन 2009 में भारत सरकार द्वारा विज्ञान एवं अभियांत्रिकी के क्षेत्र में 'पद्म भूषण' से सम्मानित किया गया था। सी. एस. शेषाद्रि स्वातंत्र्योत्तर काल में भारतीय गणित के नेताओं में से एक थे। वह संगीत और कर्नाटक संगीत के एक कुशल गायक भी थे, जो बड़ी बारीकियों में सक्षम थे।

🇮🇳 #भारतीय #गणितज्ञ सी. एस. #शेषाद्रि का जन्म 29 फ़रवरी, 1932 को हुआ था। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में स्नातक छात्रों के पहले बैच के रूप में की थी। शानदार सहयोगियों के साथ-साथ एम.एस. नरसिम्हन, एस. रामकरण और एम.एस. रघुनाथन, उन्होंने टीआईएफआर में स्कूल ऑफ मैथमेटिक्स को दुनिया में गणित अनुसंधान के प्रमुख केंद्रों के रूप में स्थापित करने में मदद की।

🇮🇳 वह 1985 में गणितीय विज्ञान संस्थान में चेन्नई चले गए। 1989 में, उन्हें एसपीआईसी साइंस फाउंडेशन के हिस्से के रूप में स्कूल ऑफ मैथमेटिक्स शुरू करने का मौका मिला, जो चेन्नई गणित संस्थान में विकसित हुआ है।

🇮🇳 बीजगणितीय ज्यामिति क्षेत्र के नेता सी. एस. शेषाद्रि ने ऐसी सफलताओं को बनाया जो इस गहन अनुशासन की कई शाखाओं के आधार पर हैं। उनमें पूरे या पर्याप्त भाग में खोजे जा सकने वाले विषयों में बहुपद के छल्ले, ज्यामितीय अपरिवर्तनीय सिद्धांत, प्रतिरूप सिद्धांत, वक्रों पर वेक्टर बंडलों, नरसिम्हन-शेषाद्रि प्रमेय, परवलयिक बंडल, मानक मोनोमियल सिद्धांत और शुबर्ट किस्मों के ज्यामिति पर अनुमानित मॉड्यूल शामिल हैं। वह अंत तक सूक्ष्म गणित में लगे रहे, इसका अधिकांश हिस्सा युवा सहकर्मी वी. बालाजी के साथ लंबे समय से चल रहा था।

🇮🇳 सीएमआई भारत में एक अनूठी संस्था है जो अनुसंधान के साथ स्नातक शिक्षा को एकीकृत करने का प्रयास करती है। शेषाद्रि की दृष्टि में यह वृद्धि हुई कि उच्च शिक्षा केवल विषय में परास्नातक की उपस्थिति के बीच सक्रिय अनुसंधान के वातावरण में हो सकती है। अपने करीबी दोस्तों और शुभचिंतकों से भी असाधारण विरोध और संदेह के कारण यह एक बहादुर उद्यम था। शिक्षा के एक केंद्र का निर्माण करना उनका सपना था जो दुनिया के महान अनुसंधान विश्वविद्यालयों के साथ खुद की तुलना कर सकता है। यह भारत में एक अद्वितीय शैक्षणिक माहौल में सीखने के लिए प्रतिभाशाली छात्रों के लिए अवसरों को खोलता है और सक्रिय शोधकर्ताओं को इस प्रयोग में भाग लेने की संभावनाएं देता है, जो यह मानता है कि भारत में गणित के विकास पर हमेशा के लिए प्रभाव छोड़ देगा।

🇮🇳 यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि सीएमआई अब गणित और सैद्धांतिक कंप्यूटर विज्ञान में स्नातक अध्ययन के लिए दुनिया के सर्वश्रेष्ठ स्कूलों में से एक के रूप में आँका गया है।

🇮🇳 गणित में सी. एस. शेषाद्रि की उपलब्धियों को कई सम्मानों के माध्यम से मान्यता दी गई थी। उन्हें 1988 में रॉयल सोसाइटी का फेलो और 2010 में नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज, यू.एस. का एक विदेशी एसोसिएट चुना गया था। उन्हें 2009 में 'पद्म भूषण' से सम्मानित किया गया था।

🇮🇳 सी. एस. शेषाद्रि का निधन 17 जुलाई, 2020 को चेन्नई, तमिलनाडु में हुआ।

साभार: bharatdiscovery.org

🇮🇳 विज्ञान एवं अभियांत्रिकी के क्षेत्र में शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार और #पद्मभूषण से सम्मानित; सुप्रसिद्ध भारतीय #गणितज्ञ #कांजिवरम_श्रीरंगचारी_शेषाद्रि जी को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

 #आजादी_का_अमृतकाल  #29February #प्रेरणादायी_व्यक्तित्व,  #Prof_Conjeevaram_Srirangachari_Seshadri b#Kanjivaram_Srirangachari_Seshadri, #Famous_Mathematician  



सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

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28 फ़रवरी 2024

Veer Surendra Sai | क्राँतिकारी वीर सुरेन्द्र साय | जन्म- 23 जनवरी, 1809; मृत्यु- 28 फ़रवरी, 1884

 


🇮🇳 Veer Surendra Sai (born- 23 January, 1809; died- 28 February, 1884) क्राँतिकारी वीर सुरेन्द्र साय (साई) (जन्म- 23 जनवरी, 1809; मृत्यु- 28 फ़रवरी, 1884) भारतीय क्रांतिकारी थे। वह 16वीं शताब्दी में चौहान वंश के संबलपुर के महाराजा मधुकर साई के वंशज थे। वीर सुरेंद्र साई ने 1857 के विद्रोह से पहले ही विदेशी शासन के खिलाफ लड़ाई शुरू कर दी थी और विद्रोह के थम जाने के बाद भी उन्होंने इसे जारी रखा। उन्होंने संबलपुर में लगभग 1500 आदमियों की एक लड़ाकू सेना तैयार की थी। उन्होंने 1857 से 1862 तक अंग्रेज़ों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध जारी रखा। अंग्रेज़ों ने उन्‍हें पकड़ने के लिए हर हथकंडा अपनाया, किन्तु उन्‍हें रोक नहीं पाए।

🇮🇳 वीर सुरेंद्र साई का जन्म ग्राम #खिण्डा (#सम्बलपुर, #उड़ीसा) के चौहान राजवंश में 23 जनवरी, 1809 को हुआ था। इनका गाँव सम्बलपुर से 30 कि.मी. की दूरी पर था। युवावस्था में उनका विवाह हटीबाड़ी के जमींदार की पुत्री से हुआ, जो उस समय गंगापुर राज्य के प्रमुख थे। आगे चलकर सुरेन्द्र साई के घर में एक पुत्र मित्रभानु और एक पुत्री ने जन्म लिया।

🇮🇳 सन 1827 में सम्बलपुर के राजा का निःसन्तान अवस्था में देहान्त हो गया। राजवंश का होने के कारण राजगद्दी पर अब वीर सुरेंद्र साई का हक था; पर अंग्रेज़ जानते थे कि सुरेन्द्र साई उनका हस्तक बन कर नहीं रहेगा। इसलिए उन्होंने राजा की पत्नी #मोहन_कुमारी को ही राज्य का प्रशासक बना दिया। मोहन कुमारी बहुत सरल महिला थीं। उन्हें राजकाज की कुछ जानकारी नहीं थी। अतः अंग्रेज़ उन्हें कठपुतली की तरह अपनी उँगलियों पर नचाने लगे। लेकिन अंग्रेज़ों की इस धूर्तता से उस राज्य के सब जमींदार नाराज हो गये। उन्होंने मिलकर इसका सशस्त्र विरोध करने का निश्चय किया। इसके लिए उन्होंने वीर सुरेंद्र साई को नेता बनाया। धीरे-धीरे इनके संघर्ष एवं प्रतिरोध की गति बढ़ने लगी। इससे अंग्रेज अधिकारी परेशान हो गये।

🇮🇳 सन 1837 में वीर सुरेंद्र साई, #उदन्त_साय, #बलराम_सिंह तथा लखनपुर के जमींदार #बलभद्र_देव मिलकर डेब्रीगढ़ में कुछ विचार-विमर्श कर रहे थे कि अंग्रेज़ों ने वहाँ अचानक धावा बोल दिया। उन्होंने बलभद्र देव की वहीं निर्ममता से हत्या कर दी; पर शेष तीनों लोग बचने में सफल हो गये। इस हमले के बाद भी इनकी गतिविधियाँ चलती रहीं। अंग्रेज़ भी इनके पीछे लगे रहे। उन्होंने कुछ जासूस भी इनको पकड़ने के लिए लगा रखे थे। ऐसे ही देशद्रोहियों की सूचना पर 1840 में वीर सुरेंद्र साई, उदन्त साय तथा बलराम सिंह अंग्रेज़ों की गिरफ्त में आ गये। तीनों को आजन्म कारावास का दण्ड देकर #हजारीबाग जेल में डाल दिया गया। ये तीनों परस्पर रिश्तेदार भी थे।

🇮🇳 वीर सुरेंद्र साई के साथी शान्त नहीं बैठे। 30 जुलाई, 1857 को सैकड़ों क्रान्तिवीरों ने हजारीबाग जेल पर धावा बोला और वीर सुरेंद्र साई को 32 साथियों सहित छुड़ा कर ले गये। सुरेन्द्र साई ने सम्बलपुर पहुँचकर फिर से अपने राज्य को अंग्रेज़ों से मुक्त कराने के लिए सशस्त्र संग्राम शुरू कर दिया। अंग्रेज़ पुलिस और सुरेन्द्र साई के सैनिकों में परस्पर झड़प होती ही रहती थी। कभी एक का पलड़ा भारी रहता, तो कभी दूसरे का; पर सुरेन्द्र साई और उनके साथियों ने अंग्रेज़ों को चैन की नींद नहीं सोने दिया।

🇮🇳 23 जनवरी, 1864 को जब सुरेंद्र साई अपने परिवार के साथ सो रहे थे, तब अंग्रेज़ पुलिस ने छापा मारकर उन्हें पकड़ लिया। रात में ही उन्हें सपरिवार रायपुर ले जाया गया और फिर अगले दिन नागपुर की असीरगढ़ जेल में बन्द कर दिया। जेल में भरपूर शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न के बाद भी सुरेंद्र साई ने विदेशी शासन के आगे झुकना स्वीकार नहीं किया। अपने जीवन के 37 साल जेल में बिताने वाले वीर सुरेंद्र साई ने 28 फरवरी, 1884 को #असीरगढ़ किले की जेल में ही अन्तिम साँस ली।

साभार: bharatdiscovery.org

🇮🇳 1857 की क्रांति से पहले ही विदेशी शासन के खिलाफ लड़ाई शुरू करने वाले और अपने जीवन के 37 साल जेल में बिताने वाले अमर क्रांतिकारी #वीर_सुरेंद्र_साई जी को उनके #बलिदान_दिवस पर विनम्र श्रद्धांजलि !

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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Rana Udai Singh | मेवाड़ के राणा साँगा के पुत्र और महाराणा प्रताप के पिता राणा उदयसिंह जी | Born: August 4, 1522 AD - Death: February 28, 1572 AD


 

🇮🇳 राणा उदयसिंह (जन्म: 4 अगस्त, 1522 ई. - मृत्यु: 28 फ़रवरी, 1572 ई.) मेवाड़ के राणा साँगा के पुत्र और राणा प्रताप के पिता थे। इनका जन्म इनके पिता के मरने के बाद हुआ था और तभी गुजरात के बहादुरशाह ने चित्तौड़ नष्ट कर दिया था। इनकी माता कर्णवती द्वारा हुमायूँ को राखीबंद भाई बनाने की बात इतिहास प्रसिद्ध है। मेवाड़ की ख्यातों में इनकी रक्षा की अनेक अलौकिक कहानियाँ कही गई हैं। उदयसिंह को कर्त्तव्यपरायण धाय पन्ना के साथ बलबीर से रक्षा के लिए जगह-जगह शरण लेनी पड़ी थी। उदयसिंह 1537 ई. में मेवाड़ के राणा हुए और कुछ ही दिनों के बाद अकबर ने मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ पर चढ़ाई की। हज़ारों मेवाड़ियों की मृत्यु के बाद जब लगा कि चित्तौड़गढ़ अब न बचेगा तब जयमल और पत्ता आदि वीरा के हाथ में उसे छोड़ उदयसिंह अरावली के घने जंगलों में चले गए। वहाँ उन्होंने नदी की बाढ़ रोक उदयसागर नामक सरोवर का निर्माण किया था। वहीं उदयसिंह ने अपनी नई राजधानी उदयपुर बसाई। चित्तौड़ के विध्वंस के चार वर्ष बाद उदयसिंह का देहांत हो गया।

🇮🇳 राणा संग्राम सिंह उपनाम राणा सांगा एक बहुत ही वीर शासक थे। परिस्थितियों ने उनकी मृत्यु के उपरांत उनके पुत्र कुंवर उदय सिंह को वीरमाता पन्ना धाय के संरक्षण में रहने के लिए विवश कर दिया। माता पन्नाधाय ने अपने पुत्र चंदन का बलिदान देकर ‘मेवाड़ के अभिशाप’ बने बनवीर से मेवाड़ के भविष्य के राणा उदय सिंह की प्राण रक्षा की और उसे सुरक्षित रूप में किले से निकालकर बाहर ले गयी। तब चित्तौड़ से काफ़ी दूर राणा उदय सिंह का पालन पोषण आशाशाह नाम के एक वैश्य के घर में हुआ। इतिहासकारों ने बताया है कि माता पन्नाधाय के बलिदान की देर सवेर जब चित्तौड़ के राजदरबार के सरदारों को पता चली तो उन्होंने बनवीर जैसे दुष्ट शासक से सत्ता छीनकर राणा सांगा के पुत्र राणा उदय सिंह को सौंपने की रणनीति बनानी आरंभ कर दी। उसी रणनीति के अंतर्गत राणा उदय सिंह को चित्तौड़ लाया गया। राणा के आगमन की सूचना जैसे ही बनवीर को मिली तो वह राजदरबार से निकलकर सदा के लिए भाग गया। इससे राणा उदय सिंह ने निष्कंटक राज्य करना आरंभ किया। यह घटना 1542 की है। यही वर्ष अकबर का जन्म का वर्ष भी है।

🇮🇳 राणा उदय सिंह की मृत्यु 1572 में हुई थी। उस समय उनकी अवस्था 42 वर्ष थी और उनकी सात रानियों से उन्हें 24 लड़के थे। उनकी सबसे छोटी रानी का लड़का जगमल था, जिससे उन्हें असीम अनुराग था। मृत्यु के समय राणा उदय सिंह ने अपने इसी पुत्र को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। लेकिन राज्य दरबार के अधिकांश सरदार लोग यह नहीं चाहते थे कि राणा उदय सिंह का उत्तराधिकारी जगमल जैसा अयोग्य राजकुमार बने। राणा उदय सिंह के काल में पहली बार सन 1566 में चढ़ाई की थी, जिसमें वह असफल रहा। इसके बाद दूसरी चढ़ाई सन 1567 में की गयी थी और वह इस किले पर अधिकार करने में इस बार सफल भी हो गया था। इसलिए राणा उदय सिंह की मृत्यु के समय उनके उत्तराधिकारी की अनिवार्य योग्यता चित्तौड़गढ़ को वापस लेने और अकबर जैसे शासक से युद्घ करने की चुनौती को स्वीकार करना था। राणा उदय सिंह के पुत्र जगमल में ऐसी योग्यता नहीं थी इसलिए राज्य दरबारियों ने उसे अपना राजा मानने से इंकार कर दिया।

🇮🇳 1567 में जब चित्तौड़गढ़ को लेकर अकबर ने इस किले का दूसरी बार घेराव किया तो यहाँ राणा उदय सिंह की सूझबूझ काम आयी। अकबर की पहली चढ़ाई को राणा ने असफल कर दिया था। पर जब दूसरी बार चढ़ाई की गयी तो लगभग छह माह के इस घेरे में किले के भीतर के कुओं तक में पानी समाप्त होने लगा। किले के भीतर के लोगों की और सेना की स्थिति बड़ी ही दयनीय होने लगी। तब किले के रक्षकदल सेना के उच्च पदाधिकारियों और राज्य दरबारियों ने मिलकर राणा उदय सिंह से निवेदन किया कि राणा संग्राम सिंह के उत्तराधिकारी के रूप में आप ही हमारे पास हैं, इसलिए आपकी प्राण रक्षा इस समय आवश्यक है। अत: आप को किले से सुरक्षित निकालकर हम लोग शत्रु सेना पर अंतिम बलिदान के लिए निकल पड़ें। तब राणा उदय सिंह ने सारे राजकोष को सावधानी से निकाला और उसे साथ लेकर पीछे से अपने कुछ विश्वास आरक्षकों के साथ किले को छोड़कर निकल गये। अगले दिन अकबर की सेना के साथ भयंकर युद्घ करते हुए वीर राजपूतों ने अपना अंतिम बलिदान दिया। जब अनेकों वीरों की छाती पर पैर रखता हुआ अकबर किले में घुसा तो उसे शीघ्र ही पता चल गया कि वह युद्घ तो जीत गया है, लेकिन कूटनीति में हार गया है, किला उसका हो गया है परंतु किले का कोष राणा उदय सिंह लेकर चंपत हो गये हैं। अकबर झुंझलाकर रह गया। राणा उदय सिंह ने जिस प्रकार किले के बीजक को बाहर निकालने में सफलता प्राप्त की वह उनकी सूझबूझ और बहादुरी का ही प्रमाण है।

🇮🇳 फलस्वरूप राणा उदय सिंह की अंतिम क्रिया करने के पश्चात् राज्य दरबारियों ने राणा जगमल को राजगद्दी से उतारकर महाराणा प्रताप को उसके स्थान पर बैठा दिया। इस प्रकार एक मौन क्रांति हुई और मेवाड़ का शासक राणा उदय सिंह की इच्छा से न बनकर दरबारियों की इच्छा से महाराणा प्रताप बने। इस घटना को इसी रूप में अधिकांश इतिहासकारों ने उल्लेखित किया है। इसी घटना से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि महाराणा प्रताप और उनके पिता राणा उदय सिंह के बीच के संबंध अधिक सौहार्दपूर्ण नहीं थे। महाराणा प्रताप ने जब अपने पिता राणा उदय सिंह के द्वारा अपने छोटे भाई जगमल को अपना उत्तराधिकारी बनाते देखा तो कहा जाता है कि उस समय उन्होंने संन्यास लेने का मन बना लिया था। लेकिन राज्यदरबारियों की कृपा से उन्हें सत्ता मिल गयी और वह मेवाड़ाधिपति कहलाए। #महाराणा_प्रताप मेवाड़ के अधिपति बन गये तो उनके मानस को समझकर कई कवियों और लेखकों ने महाराणा संग्राम सिंह और महाराणा प्रताप के बीच खड़े राणा उदय सिंह की उपेक्षा करनी आरंभ कर दी। जिससे राणा उदय सिंह के साथ कई प्रकार के आरोप मढ़ दिये गये। जिससे इतिहास में उन्हें एक विलासी और कायर शासक के रूप में निरूपित किया गया है।

साभार: bharatdiscovery.org

मेवाड़ के राणा साँगा के पुत्र और महाराणा प्रताप के पिता #राणा_उदयसिंह जी को उनकी पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि !

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

 #आजादी_का_अमृतकाल  #28February #देशभक्त #प्रेरणादायी_व्यक्तित्व, #Rana_Udai_Singh  #महाराणा_प्रताप

Makar Sankranti मकर संक्रांति

  #मकर_संक्रांति, #Makar_Sankranti, #Importance_of_Makar_Sankranti मकर संक्रांति' का त्यौहार जनवरी यानि पौष के महीने में मनाया जाता है। ...