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24 मार्च 2024

| पंडित हरिभाऊ उपाध्याय | साहित्यकार तथा स्वतंत्रता आंदोलन के राष्ट्रसेवी | 24 मार्च, 1892 - 25 अगस्त, 1972

 


हरिभाऊ उपाध्याय का जन्म 24 मार्च, 1892 को मध्य प्रदेश में #उज्जैन ज़िले के #भौंरोसा नामक गाँव में हुआ था। विद्यार्थी जीवन से ही उनके मन में साहित्य के प्रति चेतना जाग्रत हो गई थी। संस्कृत के नाटकों तथा अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध उपन्यासों के अध्ययन के बाद वे उपन्यास लेखन की  और अग्रसर हुए।

🇮🇳 हरिभाऊ उपाध्याय ने हिन्दी सेवा से सार्वजनिक जीवन शुरू किया और  सबसे पहले  ‘औदुम्बर’ मासिक पत्र के प्रकाशन द्वारा हिन्दी पत्रकारिता जगत में पर्दापण किया। सबसे पहले  1911 में वे ‘औदुम्बर’ के सम्पादक बने। पढ़ते-पढ़ते ही इन्होंने इसके सम्पादन का कार्य भी आरम्भ किया। ‘औदुम्बर’ में कई विद्वानों के विविध विषयों से सम्बद्ध पहली बार लेखमाला निकली, जिससे हिन्दी भाषा की स्वाभाविक प्रगति हुई। इसका श्रेय हरिभाऊ के उत्साह और लगन को ही जाता है। 1915  में हरिभाऊ उपाध्याय #महावीर_प्रसाद_द्विवेदी के सान्निध्य में आये। हरिभाऊ जी खुद लिखते हैं कि- “औदुम्बर की सेवाओं ने मुझे आचार्य द्विवेदी जी की सेवा में पहुँचाया।” द्विवेदी जी के साथ ‘सरस्वती’ में कार्य करने के बाद हरिभाऊ उपाध्याय ने ‘प्रताप’, ‘हिन्दी नवजीवन’ और ‘प्रभा’ के सम्पादन में योगदान दिया और स्वयं ‘मालव मयूर’ नामक पत्र निकालने की योजना बनायी। लेकिन यह पत्र अधिक दिन नहीं चल सका।

🇮🇳 हरिभाऊ उपाध्याय की हिन्दी साहित्य को विशेष देन उनके द्वारा बहुमूल्य पुस्तकों का रूपांतरण है। कई मौलिक रचनाओं के अलावा उन्होंने जवाहरलाल नेहरू की ‘मेरी कहानी’ और पट्टाभि सीतारमैया द्वारा लिखित ‘कांग्रेस का इतिहास’ का हिन्दी में अनुवाद किया। हरिभाऊ जी का प्रयास हमें भारतेन्दु काल की याद दिलाता है, जब प्राय: सभी हिन्दी लेखक बंगला से हिन्दी में अनुवाद करके साहित्य की अभिवृद्धि करते थे। अनुवाद करने में भी उन्होंने इस बात का सदा ध्यान रखा कि पुस्तक की भाषा लेखक की भाषा और उसके व्यक्तित्व के अनुरूप हो। अनुवाद पढ़ने से यह अनुभव नहीं होता कि अनुवाद पढ़ रहे हैं। यही अनुभव होता है कि मानो स्वयं मूल लेखक की ही वाणी और विचारधारा अविरल रूप से उसी मूल स्त्रोत से बह रही है। इस प्रकार हरिभाऊ जी ने अपने साथी जननायकों के ग्रंथों का अनुवाद करके हिन्दी साहित्य को व्यापकता प्रदान की।

🇮🇳 हरिभाऊ उपाध्याय की अनेक पुस्तकें आज हिन्दी साहित्य जगत को प्राप्त हो चुकी हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-

• ‘बापू के आश्रम में’

• ‘स्वतंत्रता की ओर’

• ‘सर्वोदय की बुनियाद’

• ‘श्रेयार्थी जमनालाल जी’

• ‘साधना के पथ पर’

• ‘भागवत धर्म’

• ‘मनन’

• ‘विश्व की विभूतियाँ’

• ‘पुण्य स्मरण’

• 'प्रियदर्शी अशोक’

• ‘हिंसा का मुकाबला कैसे करें’

• ‘दूर्वादल’ (कविता संग्रह)

• ‘स्वामी जी का बलिदान’

• ‘हमारा कर्त्तव्य और युगधर्म’

🇮🇳 ☝️इन सभी रचनाओं से हिन्दी साहित्य निश्चित ही समृद्ध हुआ है। हरिभाऊ जी की रचनाएँ भाव, भाषा और शैली की दृष्टि से बड़ी आकर्षक हैं। इनमें रस है, मधुरता और उज्ज्वलता है। इनमें सत्य और अहिंसा की शुभ्रता है, धर्म की समंवयबुद्धि है और लेखनी की सतत साधना और प्रेरणा है।

🇮🇳 #महात्मा_गाँधी से प्रभावित होकर हरिभाऊ उपाध्याय ‘भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन’ में कूद पड़े थे। पुरानी अजमेर रियासत में इन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वे अजमेर के मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए थे। हरिभाऊ जी हृदय से ये अत्यंत कोमल थे, लेकिन सिद्धांतों के साथ कोई समझौता नहीं करते थे। राजस्थान की सब रियासतों को मिलाकर राजस्थान राज्य बना और इसके कई वर्षों बाद मोहनलाल सुखाड़िया मुख्यमंत्री बने थे। उन्होंने अत्यंत आग्रहपूर्वक हरिभाऊ उपाध्याय को पहले वित्त फिर शिक्षामंत्री बनाया था। बहुत दिनों तक वे इस पद पर रहे, लेकिन स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण त्यागपत्र दे दिया। हरिभाऊ उपाध्याय कई वर्षों तक राजस्थान की ‘शासकीय साहित्य अकादमी’ के अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने ‘महिला शिक्षा सदन’, हटूँडी (अजमेर) और ‘सस्ता साहित्य मंडल’ की स्थापना की थी।

🇮🇳 हरिभाऊ उपाध्याय  25 अगस्त, 1972 को मृत्यु हो गई ।

🇮🇳 #भारत के प्रसिद्ध #साहित्यकार तथा #स्वतंत्रता आंदोलन के राष्ट्रसेवी #पंडित_हरिभाऊ_उपाध्याय जी को उनकी जयंती पर हार्दिक श्रद्धांजलि !

#Pandit_Haribhau_Upadhyay ji

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल


साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. 


Radhikaraman Prasad Singh | राधिकारमण प्रसाद सिंह | पद्मभूषण तथा साहित्य वाचस्पति की उपाधि से अलंकृत साहित्यकार |




 जब वक्त्त गुजर जाता है तो याद बनती है. किसी बाग की खुशबू निकल जाए तो फूल खिलने की फरियाद आती है. इसी तरह आज साहित्य नगरी #सूर्यपुरा का स्वर्णिम अतीत सिर्फ यादों में सिमटकर रह गया है. साहित्याकाश के दीप्तिमान नक्षत्र राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह का किला आज भले ही रख रखाव के अभाव में खंडहर में तब्दील होने लगा हो परंतु लाहौरी ईट से बना यह किला आज भी राजा साहब की याद को ताजा करता है.

🇮🇳🔰 राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह का जन्म 10 सितम्बर 1890 को तत्कालीन #शाहाबाद जिला के #बिक्रमगंज के #सूर्यपुरा ग्राम के एक कायस्थ परिवार में हुआ था. बड़े जमींदार होने की वजह से अपने नाम के साथ सिंह लगाते थे. इनके पिता #राज_राजेश्वरी_प्रसाद_सिंह हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, बंग्ला, फ़ारसी तथा पश्तो के विद्वान होने के साथ ब्रज भाषा के एक बड़े कवि भी थे. राधिका रमण प्रसाद के पितामह #दीवान_राम_कुमार_सिंह साहित्यक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे और कुमार उपनाम से ब्रज भाषा मे कविताएं लिखा करते थे. ये कहना गलत नही होगा कि राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह को साहित्य विरासत में मिला था.

🇮🇳🔰 उनकी प्राम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई. घर पर ही उन्होंने संस्कृत हिन्दी और अंग्रेजी की प्राम्भिक शिक्षा पूर्ण की. 1903 ई. में पिता के अचानक स्वर्गवास होने पर इनकी रियासत कोर्ट ऑफ वांडर्स के अधीन हो गई. शाहाबाद के कलक्टर के अभिभाकत्व में उन्होंने आरा जिला स्कूल में दाखिला लिया. कुछ ही दिन बाद जिलाधिकारी ने उन्हे कलकत्ता भेज दिया. वही से उन्होने दसवीं की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की. उस समय तक उन्होंने ब्रजभाषा में कविता लिखना शुरू कर दिया था. #बंगभंग_आंदोलन से प्रभावित होने के कारण जिलाधिकारी ने आगरा कॉलेज, आगरा में उनका नाम लिखवा दिया. वहाँ से उन्होने एफ.ए. (इंटरमीडिएट)किया. 1912 ई. में प्रयाग विश्वविद्यालय से बीए का परीक्षा पास किए. उसी समय उनकी प्रथम कहानी कानों में कंगना इन्दु में प्रकाशित हुई. 1914 ई. में कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम.ए. (इतिहास) की परीक्षाएं पास कीं.

🇮🇳🔰 1917 ई. में जब वे बालिग हुए, तब रियासत ‘कोर्ट ऑव वार्ड्स’ के बंधन से मुक्त हुए और वे उसके स्वामी हो गए. सन् 1920 ई. के आसपास अंग्रेजी सरकार ने राधिकारमण प्रसाद सिंह को ‘राजा’ की उपाधि से विभूषित किया. इसी बीच उन्हें बिहार प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया. 1921 ई. में उन्हें शाहाबाद जिला परिषद के डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के प्रथम भारतीय चेयरमैन के रूप में निर्वाचित किया. 28 फरवरी 1927 को उन्होंने जिला बोर्ड के तत्वावधान में #महात्मा_गाँधी का अभिनन्दन किया. 1932 ई. में बिहार हरिजन सेवा संघ के अध्यक्ष बनाए गए. 1941 ई. में उन्हें अग्रेजी सरकार ने सी.आई.ई. की पदवी से विभूषित किया.

🇮🇳🔰 1947 ई. भारतीय स्वंतत्रता के बाद राजा साहब पटना में रहने लगे और साहित्य साधना में लग गए. हिन्दी साहित्य की उल्लेखनीय उपाधि और 1962 ई. में  भारत सरकार ने पद्म भूषण की उपाधि और 1969 ई. में मगध विश्वविद्यालय, बोध गया ने डॉक्टर ऑफ लिटरेचर (डी.लिट्) की मानक उपाधि से सम्मानित किया. 1970 ई में प्रयाग हिन्दी साहित्य सम्मेलन में साहित्यवाचस्पति की उपाधि से अलंकृत किया गया. 24 मार्च 1971 ई. को वो हिन्दी साहित्य की गोद में सदैव के लिए ध्यान मग्न हो गए.

🇮🇳🔰 उनकी रचनाएँ इस प्रकार हैं:-

🔰 नाटक:- (1) ‘नये रिफारमर’ या ‘नवीन सुधारक’ (सन् 1911 ई.), (2) ‘धर्म की धुरी’ (सन् 1952 ई.), (3) ‘अपना पराया’ (सन् 1953 ई.) और (4) ‘नजर बदली बदल गये नजारे’ (सन् 1961 ई.)।

🔰 कहानी संग्रह:- ‘कुसुमांजली’ (सन् 1912 ई.)। लघु उपन्यास:- (1) ‘नवजीवन’ (सन् 1912 ई), (2) ‘तरंग’ (सन् 1920 ई.), (3) ‘माया मिली न राम’ (सन् 1936 ई.), (4) ‘मॉडर्न कौन, सुंदर कौन’ (सन् 1964 ई.), और (5) ‘अपनी-अपनी नजर’, ‘अपनी-अपनी डगर’ (सन् 1966 ई.)।

🔰 उपन्यास:- (1) ‘राम-रहीम’ (सन् 1936 ई.), (2) ‘पुरुष और नारी’ (सन् 1939 ई.), (3) ‘सूरदास’ (सन् 1942 ई.), (4) ‘संस्कार’ (सन् 1944 ई.), (5) ‘पूरब और पश्चिम’ (सन् 1951 ई.), (6) ‘चुंबन और चाँटा’ (सन् 1957 ई.)

🔰 कहानियाँ:- (1) ‘गाँधी टोपी’ (सन् 1938 ई.), (2) ‘सावनी समाँ’ (सन् 1938 ई.), (3) ‘नारी क्या एक पहेली? (सन् 1951 ई.), (4) ‘हवेली और झोपड़ी’ (सन् 1951 ई.), (5) ‘देव और दानव’ (सन् 1951 ई.), (6) ‘वे और हम’ (सन् 1956 ई.), (7) ‘धर्म और मर्म’ (सन् 1959 ई.) (😎 ‘तब और अब’ (सन् 1958 ई.), (9) ‘अबला क्या ऐसी सबला?’ (सन् 1962 ई.), (10) ‘बिखरे मोती’ (भाग-1) (सन् 1965 ई.)।

🔰 संस्मरण:- (1) ‘टूटा तारा’ (1941), (2) ‘बिखरे मोती’ (भाग-2, 3) (1966)।

रिपोर्ट- जयराम

साभार : rohtasdistrict.com

🇮🇳 #पद्मभूषण तथा साहित्य वाचस्पति की उपाधि से अलंकृत; हिंदी के सुप्रसिद्ध #साहित्यकार #राजा_राधिकारमण_प्रसाद_सिंह जी को उनकी पुण्यतिथि पर हार्दिक श्रद्धांजलि !

#Raja_Radhikaman_Prasad_Singh ji

#literateur

#padmabhushan


🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल


साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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23 मार्च 2024

Sardar Bhagat Singh | क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह | Sardar Kultar Singh | क्रांतिकारी सरदार कुलतार सिंह

 



वर्ष 1975 में अपने विद्यालय #गीता_विद्या_मंदिर, #सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) के #वार्षिकोत्सव में मुझे शहीद-ए-आज़म सरदार भगत सिंह के अनुज #सरदार_कुलतार_सिंह (जो समारोह के मुख्य अतिथि थे) का स्वागत करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था !

~ चन्द्र कांत 

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अपने छोटे भाई कुलतार के नाम सरदार भगत सिंह का अन्तिम पत्र :

सेंट्रल जेल, लाहौर,

3 मार्च, 1931

अजीज कुलतार,

आज तुम्हारी आँखों में आँसू देखकर बहुत दुख हुआ। आज तुम्हारी बातों में बहुत दर्द था, तुम्हारे आँसू मुझसे सहन नहीं होते।

बरखुर्दार, हिम्मत से शिक्षा प्राप्त करना और सेहत का ख्याल रखना। हौसला रखना और क्या कहूँ!

उसे यह फ़िक्र है हरदम नया तर्ज़े-ज़फा क्या है,

हमे यह शौक़ है देखें सितम की इन्तहा क्या है।

दहर से क्यों खफ़ा रहें, चर्ख़ का क्यों गिला करें,

सारा जहाँ अदू सही, आओ मुकाबला करें।

कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहले-महफ़िल,

चराग़े-सहर हूँ बुझा चाहता हूँ।

हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली,

ये मुश्ते-ख़ाक है फानी, रहे रहे न रहे।

अच्छा रुख़सत। खुश रहो अहले-वतन; हम तो सफ़र करते हैं। हिम्मत से रहना। नमस्ते।

तुम्हारा भाई,

भगतसिंह

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🇮🇳 भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर क्रांतिकारी #सरदार_भगत_सिंह जी और उनके अनुज क्रांतिकारी #सरदार_कुलतार_सिंह जी को भावभीनी श्रद्धांजलि !

#Sardar_Bhagat_Singh ji and his younger brothers revolutionary #Sardar_Kultar_Singh ji

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व 

#आजादी_का_अमृतकाल


साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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22 मार्च 2024

Suryasen | सूर्यसेन | Revolutionary | द हीरो ऑफ चटगांव क्रांति | 22 मार्च, 1894 -12 जनवरी, 1934

 


फाँसी के ऐन वक्त पहले उनके हाथों के नाखून उखाड़ लिए गए। उनके दाँतों को तोड़ दिया गया, ताकि अपनी अंतिम साँस तक वे वंदेमातरम् का उद्घोष न कर सकें। 🇮🇳

🇮🇳 ब्रितानी हुकूमत की क्रूरता और अपमान की पराकाष्ठा यह थी कि उनकी मृत देह को भी धातु के बक्से में बंद करके बंगाल की खाड़ी में फेंक दिया गया। 🇮🇳

🇮🇳 मेरे लिए यह वह पल है, जब मैं मृत्यु को अपने परम मित्र के रूप में अंगीकार करूँ। इस सौभाग्यशील, पवित्र और निर्णायक पल में, मैं तुम सबके लिए क्या छोड़ कर जा रहा हूँ? सिर्फ एक चीज - मेरा स्वप्न, मेरा सुनहरा स्वप्न, #स्वतंत्र #भारत का स्वप्न। 🇮🇳

🇮🇳 हमारे देश को आजादी यों ही नसीब नहीं हुई है। भारत की स्वाधीनता की पृष्ठभूमि में कई महान क्रांतिकारियों ने अपने देश की आजादी की खातिर खून के कड़वे घूँट पीये हैं। ऐसे ही एक महान देशभक्त क्रांतिकारी थे सूर्यसेन। जिन्हें अंग्रेजों ने #मरते दम तक असहनीय यातनाएं दी थीं। अविभाजित बंगाल के #चटगॉंव (चिट्टागोंग, अब बांग्लादेश में) में स्वाधीनता आंदोलन के अमर नायक बने सूर्यसेन उर्फ सुरज्या सेन का जन्म 22 मार्च, 1894 को हुआ था। क्रांतिकारी एवं स्वतंत्रता सेनानी सूर्यसेन को द हीरो ऑफ चिट्टागोंग के नाम से भी जाना जाता है। 

🇮🇳 अंग्रेजी हुकूमत क्रांतिकारी सूर्य सेन से इतना खौफ खाती थी कि उन्हें बेहोशी की हालत में फाँसी पर चढ़ाया गया था। अंग्रेजों के जुल्म ही दास्तां सिर्फ इतनी ही नहीं है। ब्रितानी तानाशाही की अमानवीय बर्बरता और क्रूरता की हद तब देखी गई जब सूर्यसेन को फाँसी के फंदे पर लटकाया जा रहा था। फाँसी के ऐन वक्त पहले उनके हाथों के नाखून उखाड़ लिए गए। उनके दाँतों को तोड़ दिया गया, ताकि अपनी अंतिम साँस तक वे वंदेमातरम का उदघोष न कर सकें। सूर्यसेन के संघर्ष की बानगी पढ़कर ही रूह काँप उठती है। लेकिन उन्होंने यह सब #मातृभूमि के लिए हँसते हुए झेला था। 

🇮🇳 पेशे से शिक्षक रहे बंगाल के इस नायक को लोग सूर्यसेन कम मास्टर दा कहकर ज्यादा पुकारते थे। 1930 की चटगाँव आर्मरी रेड के नायक मास्टर सूर्यसेन ने अंग्रेज सरकार को सीधी चुनौती दी थी। उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर चटगॉंव को अंग्रेजी हुकूमत के शासन के दायरे से बाहर कर लिया था और भारतीय ध्वज को फहराया था। उन्होंने न केवल क्षेत्र में ब्रिटिश हुकूमत की संचार सुविधा ठप कीं बल्कि रेलवे, डाक और टेलीग्राफ सब संचार एवं सूचना माध्यमों को ध्वस्त करते हुए चटगाँव से अंग्रेज सरकार के संपर्क तंत्र को ही खत्म कर दिया था। 

🇮🇳 सूर्यसेन की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा चटगांव में ही हुई। उनके पिता #रामनिरंजन भी चटगाँव के ही #नोआपारा इलाके में एक शिक्षक थे। 22 वर्षीय सूर्यसेन जब इंटरमीडिएट के विद्यार्थी थे, तभी अपने एक शिक्षक की प्रेरणा से वह बंगाल की प्रमुख क्रांतिकारी संस्था #अनुशीलन_समिति के सदस्य बन गए। इसके बाद उन्होंने बहरामपुर कॉलेज में बीए कोर्स में दाखिला ले लिया। यहीं वे प्रसिद्ध क्रांतिकारी संगठन #युगांतर से जुड़े। वर्ष 1918 में चटगाँव वापस आकर उन्होंने स्थानीय युवाओं को संगठित करने के लिए युगांतर पार्टी की स्थापना की। 

🇮🇳 शिक्षक बनने के बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की चटगाँव जिला शाखा के अध्यक्ष भी चुने गए थे। उन्होंने धन और हथियारों की कमी को देखते हुए अंग्रेज सरकार से #गुरिल्ला_युद्ध करने का निश्चय किया। उन्होंने दिन-दहाड़े 23 दिसंबर, 1923 को चटगाँव में असम-बंगाल रेलवे के ट्रेजरी ऑफिस को लूटा। किंतु उन्हें सबसे बड़ी सफलता चटगाँव आर्मरी रेड के रूप में मिली, जिसने अंग्रेजी सरकार को झकझोर दिया था।  

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मास्टरा दा ने युवाओं को संगठित कर #भारतीय_प्रजातांत्रिक_सेना नामक संगठन खड़ा किया। 18 अप्रैल, 1930 को सैनिक वस्त्रों में इन युवाओं ने  के नेतृत्व में दो दल बनाए। इन्होंने चटगाँव के सहायक सैनिक शस्त्रागार पर कब्जा कर लिया। किन्तु दुर्भाग्यवश उन्हें बंदूकें तो मिलीं, किंतु उनकी गोलियां नहीं मिल सकीं। क्रांतिकारियों ने टेलीफोन और टेलीग्राफ के तार काट दिए और रेलमार्गों को अवरुद्ध कर दिया। 

🇮🇳 अपनी साहसिक घटनाओं द्वारा अंग्रेजी सरकार को छकाते रहे। ऐसी अनेक घटनाओं में 1930 से 1932 के बीच 22 अंग्रेज अधिकारी और उनके लगभग 220 सहायकों की हत्याएं की गईं। इस दौरान मास्टर सूर्यसेन ने अनेक संकट झेले। 

🇮🇳 अंग्रेज सरकार ने सूर्यसेन पर 10 हजार रुपए का इनाम भी घोषित कर दिया था। इसके लालच में एक धोखेबाज साथी नेत्रसेन की मुखबिरी पर 16 फरवरी, 1933 को अंग्रेज पुलिस ने सूर्यसेन को गिरफ्तार कर लिया। 

🇮🇳 12 जनवरी, 1934 को चटगाँव सेंट्रल जेल में सूर्यसेन को साथी #तारकेश्वर के साथ फाँसी की सजा दी गई, लेकिन फाँसी से पूर्व उन्हें कईं अमानवीय यातनाएं दी गईं। ब्रितानी हुकूमत की क्रूरता और अपमान की पराकाष्ठा यह थी कि उनकी मृत देह को भी धातु के बक्से में बंद करके बंगाल की खाड़ी में फेंक दिया गया। आजादी के बाद चटगाँव सेंट्रल जेल के उस फाँसी के तख्त को बांग्लादेश सरकार ने मास्टर सूर्यसेन स्मारक घोषित किया था। 

🇮🇳 भारत डिस्कवरी डॉट ओरआरजी के अनुसार, मास्टर सूर्यसेन ने फॉसी के एक दिन पूर्व 11 जनवरी, 1934 को अपने एक मित्र को अंतिम पत्र लिखा था। इसमें उन्होंने लिखा, "मृत्यु मेरा द्वार खटखटा रही है। मेरा मन अनंत की और बह रहा है। मेरे लिए यह वह पल है, जब मैं मृत्यु को अपने परम मित्र के रूप में अंगीकार करूँ। इस सौभाग्यशील, पवित्र और निर्णायक पल में, मैं तुम सबके लिए क्या छोड़ कर जा रहा हूँ? सिर्फ एक चीज - मेरा स्वप्न, मेरा सुनहरा स्वप्न, स्वतंत्र भारत का स्वप्न। प्रिय मित्रों, आगे बढ़ो और कभी अपने कदम पीछे मत खींचना। उठो और कभी निराश मत होना। सफलता अवश्य मिलेगी।"

साभार: amarujala.com

🇮🇳 भारतीय #स्वतंत्रता संग्राम के स्वर्णिम अध्याय के निर्माता वीर #क्रांतिकारी #मास्टर_दा #सूर्यसेन जी की जयंती पर उन्हें कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से कोटि-कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि !

#Revolutionary #Master_Da #Suryasenji

🇮🇳💐🙏

🇮🇳 वन्दे मातरम् 🇮🇳

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल


साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

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Hanuman Prasad Poddar | हनुमान प्रसाद पोद्दार | जन्म:1892 - मृत्यु- 22 मार्च 1971

 



#अलौकिक_संत

हनुमान प्रसाद पोद्दार (जन्म:1892 - मृत्यु- 22 मार्च 1971) का नाम #गीता_प्रेस #Geeta_Press स्थापित करने के लिये भारत व विश्व में प्रसिद्ध है। भारतीय अध्यात्मिक जगत पर हनुमान पसाद पोद्दार नाम का एक ऐसा सूरज उदय हुआ, जिसकी वजह से देश के घर-घर में गीता, #रामायण, #वेद और #पुराण जैसे ग्रंथ पहुँचे सके। आज #गीता_प्रेस_गोरखपुर का नाम किसी भी भारतीय के लिए अनजाना नहीं है। सनातन हिंदू संस्कृति में आस्था रखने वाला दुनिया में शायद ही कोई ऐसा परिवार होगा, जो गीता प्रेस गोरखपुर के नाम से परिचित नहीं होगा। इस देश में और दुनिया के हर कोने में रामायण, #गीता, वेद, पुराण और #उपनिषद से लेकर प्राचीन भारत के ऋषियों -मुनियों की कथाओं को पहुँचाने का एक मात्र श्रेय गीता प्रेस गोरखपुर के संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार को है। प्रचार-प्रसार से दूर रहकर एक अकिंचन सेवक और निष्काम कर्मयोगी की तरह पोद्दार जी ने हिंदू संस्कृति की मान्यताओं को घर-घर तक पहुँचाने में जो योगदान दिया है, इतिहास में उसकी मिसाल मिलना ही मुश्किल है।

🇮🇳🔶 भारतीय पंचांग के अनुसार विक्रम संवत के वर्ष 1949 में अश्विन कृष्ण की प्रदोष के दिन उनका जन्म हुआ। #राजस्थान के #रतनगढ़ में #लाला_भीमराज_अग्रवाल और उनकी पत्नी #रिखीबाई हनुमान के भक्त थे, तो उन्होंने अपने पुत्र का नाम 'हनुमान प्रसाद' रख दिया। दो वर्ष की आयु में ही इनकी माता का स्वर्गवास हो जाने पर इनका पालन-पोषण इनकी दादी ने किया। #दादी के धार्मिक संस्कारों के बीच बालक हनुमान को बचपन से ही गीता, रामायण वेद, उपनिषद और पुराणों की कहानियाँ पढ़ने - सुनने को मिली। इन संस्कारों का बालक पर गहरा असर पड़ा। बचपन में ही इन्हें हनुमान कवच का पाठ सिखाया गया। निंबार्क संप्रदाय के #संत_ब्रजदास जी ने बालक को दीक्षा दी।

🇮🇳🔶 उस समय देश ग़ुलामी की जंज़ीरों मे जकड़ा हुआ था। इनके पिता अपने कारोबार का वजह से #कलकत्ता में थे और ये अपने दादा जी के साथ #असम में। कलकत्ता में ये स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारियों #अरविंद_घोष, #देशबंधु_चितरंजन_दास, #पंडित_झाबरमल_शर्मा के संपर्क में आए और आज़ादी आंदोलन में कूद पड़े। इसके बाद #लोकमान्य_तिलक और #गोपालकृष्ण_गोखले जब कलकत्ता आए तो पोद्दार जी उनके संपर्क में आए इसके बाद उनकी मुलाकात #गाँधीजी से हुई। 

🇮🇳🔶 #वीर_सावरकर द्वारा लिखे गए '1857 का स्वातंत्र्य समर ग्रंथ' से पोद्दार जी बहुत प्रभावित हुए और 1938 में वे वीर सावरकर से मिलने के लिए मुंबई चले आए। 1906 में उन्होंने कपड़ों में गाय की चर्बी के प्रयोग किए जाने के ख़िलाफ़ आंदोलन चलाया और विदेशी वस्तुओं और विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के लिए संघर्ष छेड़ दिया। युवावस्था में ही उन्होंने खादी और स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना शुरू कर दिया। विक्रम संवत 1971 में जब #महामना #पंडित_मदन_मोहन_मालवीय बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए धन संग्रह करने के उद्देश्य से कलकत्ता आए तो पोद्दार जी ने कई लोगों से मिलकर इस कार्य के लिए दान-राशि दिलवाई।

🇮🇳🔶 कलकत्ता में आज़ादी आंदोलन और क्रांतिकारियों के साथ काम करने के एक मामले में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने हनुमान प्रसाद पोद्दार सहित कई प्रमुख व्यापारियों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। इन लोगों ने ब्रिटिश सरकार के हथियारों के एक जख़ीरे को लूटकर उसे छिपाने में मदद की थी। जेल में पोद्दार जी ने हनुमान जी की आराधना करना शुरू कर दी। बाद में उन्हें #अलीपुर जेल में नज़रबंद कर दिया गया। नज़रबंदी के दौरान पोद्दार जी ने समय का भरपूर सदुपयोग किया। वहाँ वे अपनी दिनचर्या सुबह तीन बजे शुरू करते थे और पूरा समय परमात्मा का ध्यान करने में ही बिताते थे। बाद में उन्हें नजरबंद रखते हुए पंजाब की #शिमलपाल जेल में भेज दिया गया। वहाँ कैदी मरीज़ों के स्वास्थ्य की जाँच के लिए एक होम्योपैथिक चिकित्सक जेल में आते थे, पोद्दार जी ने इस चिकित्सक से #होम्योपैथी की बारीकियाँ सीख ली और होम्योपैथी की किताबों का अध्ययन करने के बाद ख़ुद ही मरीज़ों का इलाज करने लगे। बाद में वे #जमनालाल_बजाज की प्रेरणा से मुंबई चले आए। यहाँ वे वीर सावरकर, #नेताजी_सुभाष_चंद्र_बोस, #महादेव_देसाई और #कृष्णदास_जाजू जैसी विभूतियों के निकट संपर्क में आए।

मुंबई में उन्होंने अग्रवाल नवयुवकों को संगठित कर मारवाड़ी खादी प्रचार मंडल की स्थापना की। इसके बाद वे प्रसिद्ध संगीताचार्य #विष्णु_दिगंबर के सत्संग में आए और उनके हृदय में संगीत का झरना बह निकला। फिर उन्होंने भक्ति गीत लिखे जो 'पत्र-पुष्प' के नाम से प्रकाशित हुए। मुंबई में वे अपने मौसेरे भाई #जयदयाल_गोयन्का जी के गीता पाठ से बहुत प्रभावित थे। उनके गीता के प्रति प्रेम और लोगों की गीता को लेकर जिज्ञासा को देखते हुए भाई जी ने इस बात का प्रण किया कि वे श्रीमद् भागवद्गीता को कम से कम मूल्य पर लोगों को उपलब्ध कराएँगे।

🇮🇳🔶 उन्होंने गीता पर एक टीका लिखी और उसे कलकत्ता के 'वाणिक प्रेस' में छपवाई। पहले ही संस्करण की पाँच हज़ार प्रतियाँ बिक गई। लेकिन पोद्दार जी को इस बात का दु:ख था कि इस पुस्तक में ढेरों ग़लतियाँ थी। इसके बाद उन्होंने इसका संशोधित संस्करण निकाला मगर इसमें भी ग़लतियाँ दोहरा गई थी। इस बात से भाई जी के मन को गहरी ठेस लगी और उन्होंने तय किया कि जब तक अपना खुद का प्रेस नहीं होगा, यह कार्य आगे नहीं बढ़ेगा। बस यही एक छोटा सा संकल्प गीता प्रेस गोरखपुर की स्थापना का आधार बना। उनके भाई गोयनका जी का व्यापार तब बांकुड़ा, बंगाल में था और वे गीता पर प्रवचन के सिलसिले में प्राय: बाहर ही रहा करते थे। तब समस्या यह थी कि प्रेस कहाँ लगाई जाए। उनके मित्र #घनश्याम_दास_जालान गोरखपुर में ही व्यापार करते थे। उन्होंने प्रेस गोरखपुर में ही लगाए जाने और इस कार्य में भरपूर सहयोग देने का आश्वासन दिया। इसके बाद मई 1922 में गीता प्रेस का स्थापना की गई।

🇮🇳🔶 1926 में मारवाड़ी अग्रवाल महासभा का अधिवेशन दिल्ली में था सेठ जमनालाल बजाज अधिवेशन के सभापति थे। इस अवसर पर #सेठ_घनश्यामदास_बिड़ला भी मौजूद थे। बिड़ला जी ने भाई जी द्वारा गीता के प्रचार-प्रसार के लिए किए जा रहे कार्यों की सराहना करते हुए उनसे आग्रह किया कि सनातन धर्म के प्रचार और सद विचारों को लोगों तक पहुँचाने के लिए एक संपूर्ण पत्रिका का प्रकाशन होना चाहिए। बिड़ला जी के इन्हीं वाक्यों ने भाई जी को #कल्याण नाम की पत्रिका के प्रकाशन के लिए प्रेरित किया। अगस्त 1955 में कल्याण का पहला प्रवेशांक निकला। इसके बाद 'कल्याण' भारतीय परिवारों के बीच एक लोकप्रिय संपूर्ण पत्रिका के रुप में स्थापित हो गई और आज भी धार्मिक जागरण में कल्याण एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। 'कल्याण' तेरह माह तक मुंबई से प्रकाशित होती रही। इसके बाद अगस्त 1926 से गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित होने लगा।

🇮🇳🔶 पोद्दार जी ने कल्याण को एक आदर्श और रुचिकर पत्रिका का रुप देने के लिए देश भर के महात्माओं, लेखकों और संतों आदि को पत्र लिखकर इसके लिए विविध विषयों पर लेख आमंत्रित किए। साथ ही उन्होंने श्रेष्ठतम कलाकारों से देवी-देवताओं के आकर्षक चित्र बनवाए और उनको कल्याण में प्रकाशित किया। कल्याण की सामग्री के संपादन से लेकर उसके रंग-रुप को अंतिम रूप देने का कार्य भी पोद्दार जी ही देखते थे। वह प्रतिदिन अठारह घंटे कार्य करते थे। कल्याण को उन्होंने मात्र हिंदू धर्म की ही पत्रिका के रुप में पहचान देने की बजाय उसमे सभी धर्मों के आचार्यों, जैन मुनियों, रामानुज, निंबार्क, माध्व आदि संप्रदायों के विद्वानों के लेखों का प्रकाशन किया।

🇮🇳🔶 1936 में गोरखपुर में भयंकर बाढ़ आ गई थी। बाढ़ पीड़ित क्षेत्र के निरीक्षण के लिए पं. जवाहरलाल नेहरू जब गोरखपुर आए तो तत्कालीन अंग्रेज़ सरकार के दबाव में उन्हें वहाँ किसी भी व्यक्ति ने कार उपलब्ध नहीं कराई, क्योंकि अंग्रेज़ कलेक्टर ने सभी लोगों को धौंस दे रखी थी कि जो भी नेहरू जी को कार देगा उसका नाम विद्रोहियों की सूची में लिख दिया जाएगा। लेकिन भाई जी ने अपनी कार नेहरू जी को दे दी।

🇮🇳🔶 1938 में जब राजस्थान में भयंकर अकाल पड़ा तो पोद्दार जी अकाल पीड़ित क्षेत्र में पहुँचे और उन्होंने अकाल पीड़ितों के साथ ही मवेशियों के लिए भी चारे की व्यवस्था करवाई। बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, द्वारका, कालड़ी श्रीरंगम आदि स्थानों पर वेद - भवन तथा विद्यालयों की स्थापना में पोद्दार जी ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपने जीवन-काल में पोद्दार जी ने 25 हज़ार से ज़्यादा पृष्ठों का साहित्य-सृजन किया।

🇮🇳🔶 अंग्रेज़ों के समय में गोरखपुर में उनकी धर्म व साहित्य सेवा तथा उनकी लोकप्रियता को देखते हुए तत्कालीन अंग्रेज़ कलेक्टर पेडले ने उन्हें 'राय साहब' की उपाधि से अलंकृत करने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन पोद्दार जी ने विनम्रतापूर्वक इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। इसके बाद अंग्रेज़ कमिश्नर होबर्ट ने 'राय बहादुर' की उपाधि देने का प्रस्ताव रखा लेकिन पोद्दार जी ने इस प्रस्ताव को भी स्वीकार नहीं किया। देश की स्वाधीनता के बाद डॉ. संपूर्णानंद, कन्हैयालाल मुंशी और अन्य लोगों के परामर्श से तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने पोद्दार जी को 'भारत रत्न' की उपाधि से अलंकृत करने का प्रस्ताव रखा लेकिन उन्होंने इसमें भी कोई रुचि नहीं दिखाई।

🇮🇳🔶 22 मार्च 1971 को पोद्दार जी ने इस नश्वर शरीर का त्याग कर दिया और अपने पीछे वे `गीता प्रेस गोरखपुर' के नाम से एक ऐसा केंद्र छोड़ गए, जो भारतीय संस्कृति को पूरे विश्व में फैलाने में एक अग्रणी भूमिका निभा रहा है।

साभार : bharatdiscovery.com

🇮🇳 त्याग और सेवा की प्रतिमूर्ति, माँ भारती के सच्चे सपूत, अलौकिक संत एवं प्रसिद्ध  #स्वतंत्रता सेनानी #हनुमान_प्रसाद_पोद्दार जी की पुण्यतिथि पर उन्हें कोटि-कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि !

Death anniversary of #freedomfighter #Hanuman_Prasad_Poddar ji

🇮🇳🕉️🚩🔱💐🙏 पर उन्हें कोटि-कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳🕉️🚩🔱💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व


#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. 

Ramchandra Chatterjee | राम चंद्र चटर्जी | गुब्बारे की सवारी

 



#राम_चंद्र_चटर्जी और उनकी बैलोन सवारी जिसने भारत का इतिहास बदल दिया।

🇮🇳 एक समय की बात है, आश्चर्य और साहसी कारनामे से भरी दुनिया में, एक ट्रैपेज़ कलाकार रहता था जो सितारों तक पहुँचने का सपना देखता था। अपने कलाबाजी कौशल और महत्वाकांक्षा से भरे दिल के साथ, उन्होंने ऊँची उड़ान भरने की एक साहसी योजना तैयार की।

🇮🇳 यह 19वीं सदी का उत्तरार्ध था और वह व्यक्ति राम चंद्र चटर्जी थे; #कलकत्ता का रहने वाला एक ट्रैपेज़ खिलाड़ी, जो नेशनल सर्कस कंपनी के लिए काम करता था। वह भारत के शुरुआती जिमनास्ट और ट्रैपेज़ कलाकारों में से एक थे। लेकिन उन्हें अचानक एक नई घटना का पता चला।

🇮🇳 18वीं सदी के यूरोप में हॉट-एयर बैलूनिंग का चलन था, लेकिन भारत को डी. रॉबर्टसन की पहली उड़ान देखने में 1836 तक का समय लग गया। लेकिन असली गुब्बारा बुखार तब भड़का जब 1880 के दशक के अंत में प्रसिद्ध गुब्बारा वादक पर्सिवल स्पेंसर भारत पहुँचे।

🇮🇳 19 मार्च, 1889 को, स्पेंसर ने कलकत्ता रेस कोर्स से उड़ान भरी और एक महीने बाद, 10 अप्रैल, 1889 को, निडर राम चंद्र चटर्जी उनके साथ शामिल हो गए।

🇮🇳 स्पेंसर के साथ अपनी संयुक्त चढ़ाई से प्रेरित होकर, चटर्जी ने एकल उड़ान पर अपना ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने स्पेंसर का गुब्बारा, "द वायसराय" हासिल कर लिया, जिसका नाम बदलकर "कलकत्ता शहर" रखा गया। #पथुरियाघाट के टैगोरों के समर्थन से, चटर्जी ने अपनी एकल, महत्वाकांक्षी यात्रा शुरू की।

🇮🇳 27 अप्रैल, 1889 को पहले 'मूल' बंगाली व्यक्ति के लिए गुब्बारे की सवारी करने के लिए एक भव्य दिन की योजना बनाई गई थी। हजारों की संख्या में दर्शक गैस कंपनी मैदान में इंतजार में जमा थे। हालाँकि, प्रकृति की कुछ और ही योजनाएँ थीं।

🇮🇳 निराशा के बावजूद, राम चंद्र चटर्जी दृढ़ संकल्पित रहे। उन्होंने 4 मई को चढ़ाई की नई तारीख तय की और टिकट पाने वालों को आश्वासन दिया कि उन्हें अभी भी सम्मानित किया जाएगा। उनके दृढ़ संकल्प ने उनके असाधारण पराक्रम को देखने के लिए उत्सुक लोगों की आशाओं को जीवित रखा।

🇮🇳 बड़े दिन पर, एक म्यूजिकल बैंड बजने के साथ, हिंदू अनुष्ठान पूरे हुए और 8,000 दर्शक उत्सुकता से देख रहे थे, राम चंद्र चटर्जी ने अपने हल्के सूट और टोपी में "द सिटी ऑफ कलकत्ता" में उड़ान भरी। ऊपर और दूर ऊपर।

🇮🇳 कलकत्ता के आसमान में एक ऐतिहासिक क्षण सामने आया। गुब्बारा लगभग 40 मिनट तक तैरता रहा और सोडेपोर के पास धीरे से उतरने से पहले 4,000 फीट की ऊँचाई तक पहुँच गया। यह तारीख, 4 मई, 1889 को भारत के अंतरिक्ष साहसिक कार्य में एक स्वर्णिम अध्याय के रूप में चिह्नित किया जाना चाहिए।

#Ram_Chandra_Chatterjee

साभार: pixstory.com

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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21 मार्च 2024

Major Mohit Sharma | मेजर मोहित शर्मा

 


‘शक है तो गोली मार दो’: इफ्तिखार भट्ट बन जब मेजर मोहित शर्मा ने आतंकियों के बीच बनाई पैठ, फिर ठोक दिया 🇮🇳

🇮🇳 हरियाणा के रोहतक में आज भी पैरा स्पेशल फोर्स के ऑफिसर मेजर मोहित शर्मा को उनकी बहादुरी के लिए घर-घर में याद किया जाता है। मरणोपतरांत अशोक चक्र से सम्मानित इस हुतात्मा ने साल 2009 में उत्तर कश्मीर के कुपवाड़ा जिले में एक सैन्य ऑपरेशन के दौरान अंतिम साँस ली थी। लेकिन, साल 2004 में इनके द्वारा किया गया एक ऑपरेशन आज भी कइयों के लिए प्रेरणा है।

🇮🇳 शिव अरूर और राहुल सिंह की किताब ‘इंडिया मोस्ट फीयरलेस 2’ में  इस बात का जिक्र है कि कैसे मेजर मोहित शर्मा ने इस्लामी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन में घुसपैठ करके दो खूँखार आतंकियों को मारा। 

🇮🇳 दक्षिण कश्मीर से 50 किमी दूर शोपियाँ में मेजर ने अपने ऑपरेशन को अंजाम दिया था। मेजर ने इस काम के लिए सबसे पहले अपना नाम और हुलिया बदला। उन्होंने लम्बी दाढ़ी-मूँछ रख कर आतंकियों की तरह अपने हाव-भाव बनाए। फिर इफ्तिखार भट्ट नाम के जरिए वह अबू तोरारा और अबू सबजार के संपर्क में आए।

🇮🇳 इसके बाद मेजर ने बतौर इफ्तिखार भट्ट दोनों हिजबुल आतंकियों को ये कहकर विश्वास दिलाया कि भारतीय सेना ने उनके भाई को साल 2001 में मारा था और अब वह बस सेना पर हमला करके बदला चाहते हैं। उन्होंने अपने मनगढ़ंत मंसूबे बताकर आतंकियों से कहा कि इस काम में उन्हें उन दोनों की मदद चाहिए। मेजर शर्मा ने दोनों आतंकियों से कहा कि उन्हें आर्मी के चेक प्वाइंट पर हमला बोलना है और उसके लिए वह जमीनी काम कर चुके हैं।

🇮🇳 मेजर शर्मा के इस ऑपरेशन में आतंकियों ने कई बार उनसे उनकी पहचान पूछी। लेकिन वह कहते, “मुझे तुम्हारी मदद चाहिए। मुझको सीखना है।” तोरारा ने तो कई बार उनकी पहचान के बारे में उनसे पूछा। लेकिन आखिरकार वे मेजर शर्मा के जाल में फँस गए और मदद करने को राजी हो गए। आतंकियों ने उन्हें बताया कि वह कई हफ्तों तक अंडरग्राउंड रहेंगे और आतंंकी हमले के लिए मदद जुटाएँगे। किसी तरह मेजर ने उन्हें मना ही लिया कि वह तब तक घर नहीं लौटेंगे जब तक चेक प्वाइंट को उड़ा नहीं देते।

🇮🇳 देखते ही देखते आने वाले दिनों में दोनों आतंकियों ने सब व्यवस्था कर ली। साथ ही पास के ग्रामों से तीन आतंकियों को भी बुला लिया। जब तोरारा को दोबारा संदेह हुआ तो मेजर ने उससे कहा, “अगर मेरे बारे में कोई शक है तो मुझे मार दो।” अपने हाथ से राइफल छोड़ते हुए वह आतंकियों से बोले, “तुम ऐसा नहीं कर सकते, अगर तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है। इसलिए तुम्हारे पास अब मुझे मारने के अलावा कोई चारा नहीं है।”

🇮🇳 मेजर की बातें सुनकर दोनों आतंकी असमंजस में पड़ गए। इतने में मेजर मोहित शर्मा को मौका मिला और उन्होंने थोड़ी दूर जाकर अपनी 9 mm पिस्टल को लोड कर दोनों आतंकियों को मौत के घाट उतार दिया। उन्होंने दो गोलियाँ आतंकियों के छाती पर मारी और एक सिर में। इसके बाद वह उनके हथियार उठाकर भागकर नजदीक के आर्मी कैंप में गए।

🇮🇳 इस ऑपरेशन के 5 साल बाद कुपवाड़ा के एक सैन्य ऑपरेशन में वह स्वयं भी बलिदान हो गए। अपने आखिरी समय में भी मेजर ने अपने कई साथियों को सुरक्षित बचाया। आखिर में सीने में गोली लगने के कारण दम तो़ड़ने वाले मेजर मोहित शर्मा के शूरता के किस्से आज भी समय-समय पर दोहराए जाते हैं। हाल में उनकी कहानी नेशन फर्स्ट, ऑलवेज और एवरीटाइम नाम के ट्विटर अकॉउंट पर एक पूरे स्टोरी थ्रेड में शेयर की गई है।

साभार : opindia.com

🇮🇳 #अशोक_चक्र से सम्मानित; माँ भारती की रक्षा के संकल्प को पूरा करने के लिए अद्भुत वीरता, सूझबूझ और साहस का परिचय देने वाले अमर हुतात्मा #मेजर_मोहित_शर्मा जी को उनके बलिदान दिवस पर कोटि-कोटि नमन !

#Ashoka_Chakra

#Major_Mohit_Sharma


🇮🇳💐🙏

🇮🇳 जय हिन्द, जय हिन्द की सेना 🇮🇳

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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Nataraja Ramakrishna | नटराज रामकृष्ण | Dance master | Kuchipudi | Traditional dance |

 



नटराज रामकृष्ण को 700 साल पुराने नृत्य रूप #पेरिनी_शिवतांडवम को पुनर्जीवित करने के लिए जाना जाता है। उन्होंने #कुचिपुड़ी को पारंपरिक #नृत्य रूप के साथ अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई। 🇮🇳

🇮🇳 नटराज रामकृष्ण (जन्म- 21 मार्च, 1923; मृत्यु- 7 जून, 2011) भारत के एक नृत्य गुरु थे। वे आंध्र प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष रहे थे। वह एक विद्वान और संगीतज्ञ भी थे, जिन्होंने आंध्र प्रदेश और दुनिया भर में शास्त्रीय नृत्य को बढ़ावा दिया। उन्होंने 40 से अधिक पुस्तकें लिखीं, जिनमें से कई को अत्यधिक सम्मानित किया गया। नृत्य की कला में नटराज रामकृष्ण के योगदान को व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त है।

🇮🇳 मात्र 18 साल की उम्र में ही नटराज रामकृष्ण को मराठा के तत्कालीन शासक द्वारा नागपुर में 'नटराज' की उपाधि दी गई थी।

🇮🇳 नटराज रामकृष्ण को 700 साल पुराने नृत्य रूप 'पेरिनी शिवतांडवम' को पुनर्जीवित करने के लिए जाना जाता है। उन्होंने कुचिपुड़ी को पारंपरिक नृत्य रूप के साथ अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई।

🇮🇳 आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नीलम संजीव रेड्डी के अनुरोध पर नटराज रामकृष्ण ने हैदराबाद में 'नृत्य निकेतन' नामक नृत्य विद्यालय की स्थापना की थी।

🇮🇳 सन 1991 में उन्हें 'राजा-लक्ष्मी पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था।

🇮🇳 अपने लंबे करियर में नटराज रामकृष्ण ने कई नर्तकियों को प्रशिक्षित किया और अत्यधिक प्रशंसित नृत्य नाटकों को लिखा और कोरियोग्राफ किया।

🇮🇳 उन्होंने 'चिंदू यक्षगानम' का प्रचार करने में बहुत मदद की, जो तेलंगाना का एक प्राचीन लोक रूप है। उन्होंने श्रीकाकुलम और विजयनगरम जिलों के टपेटागल्लू, पूर्व और पश्चिम गोदावरी जिलों के वीरा नाट्यम और गरगालु, देवदासी जैसी अन्य लोक कलाओं को भी पुनर्जीवित किया।

🇮🇳 नटराज रामकृष्ण ने #डोमारस, #गुरवाययालु, #उरुमुलु और #वेदी_भगवतुलु जैसे नृत्य कलाकारों की भी मदद की और उन्हें प्रोत्साहित किया।

🇮🇳 उन्होंने भगवान वेंकटेश्वर के जीवन की रचना "नृत्य नाटक" (#बैले) के रूप में की थी।

🇮🇳 भारत सरकार द्वारा प्रायोजित एक शोध छात्र के रूप में नटराज रामकृष्ण ने तत्कालीन यूएसएसआर (अब रूस) और फ्रांस में भारतीय नृत्य कला का प्रचार करने के लिए काम किया, जिससे भारतीय और पश्चिमी शास्त्रीय और लोक नृत्यों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया।

🇮🇳 उन्हें 21 जनवरी 2011 को संगीत नाटक अकादमी फैलोशिप से सम्मानित किया गया था।

साभार: bharatdiscovery.org

🇮🇳 संगीत नाटक अकादमी फैलोशिप से सम्मानित; भारत के सुप्रसिद्ध #नृत्यगुरु #पद्मश्री #नटराज_रामकृष्ण जी को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

#danceguru  #padmashree  #Natraj_Ramakrishna 

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

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Kushal Konwar | कुशल कोंवर | Revolutionary | क्रांतिकारी

 



फाँसी से पहले जेल में बचे उनके शेष समय के दौरान उन्होंने अपना समय गीता पढ़ कर बिताया। कुशल ने लगभग 112 दिन जेल में बिताए। 🇮🇳

🇮🇳 कुशल कोंवर जो ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ भारत छोड़ो आन्दोलन का हिस्सा रहे। उसी दौरान आन्दोलन ने कुछ क्षेत्रों में हिंसक रूप ले लिया। कुशल कोंवर को एक ऐसे गुनाह के लिए गिरफ्तार किया जो उन्होंने किया भी नहीं था। इस गुनाह के लिए उन्हें फाँसी की सजी दी गई। बिना किसी गलती और गुनाह के बाद भी उन्होंने फाँसी की इस सजा को स्वीकार किया। 

🇮🇳 कुशल कोंवर का जन्म 21 मार्च 1905 में हुआ था। कुशल का जन्म #असम के #गोलाघाट जिले में हुआ था। वह एक शाही परिवार से थे। #अहोम_साम्राज्य के शाही परिवार से होने पर उन्होंने कोंवर सरनेम का प्रयोग किया था। जिसे बाद में उन्होंने छोड़ भी दिया था। कुशल एक ऐसे व्यक्ति थे, जो शांत थे और सच्चाई से प्यार करने वाले थे। ये गुण उन्हें उनके माता-पिता #कनकेश्वरी_कोंवर और #सोनाराम_कोंवर से मिले थे।

🇮🇳 कुशल ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा #बेजबरुआ स्कूल से हासिल की। अपनी प्रारंभिक शिक्षा के बाद कुशल ने 1918 में गोलाघाट के गवर्नमेंट हाई स्कूल में आगे की शिक्षा प्राप्त की। 1921 के समय की बात है उस दौरान वह स्कूल में थे। गॉंधी जी का #असहयोग_आन्दोलन चल रहा था और उनके इस आन्दोलन से कुशल बहुत प्रभावित हुए जिसके बाद से उन्होंने इस आन्दोलन में सक्रिय रूप से भूमिका निभाई।

🇮🇳 1919 में जब ब्रिटिश सरकार ने #जलियांवाला_बाग हत्याकांड और रॉलेट एक्ट जारी किया उस दौरान कुशल केवल 17 वर्ष के थे। इस एक्ट का असल जलियांवाला बाग तक ही सीमित नहीं था। इसका असर पूरे भारत में देखने को मिला था। इस हत्याकांड के विरोध में असहयोग आन्दोलन की शुरूआत हुई और इस आन्दोलन का प्रभाव असम तक पहुँचा और कुशल और अन्य युवा सेनानी इस आन्दोलन में सक्रिय रूप से उतरे।

🇮🇳 कुशल का जीवन गाँधी जी के विचारों से अधिक प्रभावित था। गॉंधी जी के स्वराज, सत्य और अहिंसा से वाले आदर्शों से वह इस कदर प्रभावित हुए की उन्होंने #बेंगमई में एक प्राथमिक विद्यालय की स्थापना की और वहाँ एक शिक्षक के रूप में कार्य किया। इसके बाद वह एक क्लर्क के रूप में बालीजन टी एस्टेट में शामिल हुए, जहाँ उन्होंने कुछ समय के लिए काम किया। इस प्रकार गॉंधी जी के स्वतंत्रता के आह्वान और दिल में स्वतंत्र भारत को देखने की उनकी इच्छा में उन्होंने अपना जीवन देश के नाम समर्पित कर दिया। उन्होंने सत्याग्रह और अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग आंदोलन में #सरूपथर क्षेत्र के लोगों का नेतृत्व किया और कांग्रेस पार्टी को संगठित किया। इसके बाद वे सरुपथर कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष चुने गए।

🇮🇳 10 अक्टूबर 1942 में स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले कार्यकर्ताओं ने सरूपथर की रेलवे की पटरी से स्लीपरों हटा दिए थे जिसकी वजह से वहाँ से गुजरने वाली सैन्य रेल गाड़ी पटरी से उतर गई। जिसमें हजारों की तादाद में अंग्रेजी सैनिक मारे गए। पुलिस ने इलाके को तुरंत घेर लिया और इस घटना को अंजाम देने वालों को ढूँढना शुरू किया।

🇮🇳 इस घटना के लिए कुशल को आरोपी माना गया था। जबकि इस घटना में उनका कोई हाथ नहीं था। पुलिस कर्मियों के पास उनके गुनहगार होने का कोई सबूत नहीं था लेकिन फिर भी कुशल को रेलवे की तोड़फोड़ का मुख्य आरोपी माना गया और उनको इसके लिए गिरफ्तार किया गया।

🇮🇳 5 नवंबर 1942 में उन्हें गोलाघाट लाया गया और वहाँ की #जोरहाट जेल में बंद कर दिया गया। सीएम हम्फ्री की अदालत में उन्हें दोषी करार किया गया और उन्हें फाँसी की सजा दी गई। जबकि उन्होंने ये गुनाह किया भी नहीं था। लेकिन फिर भी कुशल ने गरिमा के साथ इस फैसले को स्वीकार किया।

🇮🇳 जेल में जब उनकी पत्नी #प्रभावती उनसे मिलने गई तो उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि उन्हें गर्व है कि भगवान ने देश के लिए सर्वोच्च बलिदान के लिए हजारों लोगों में से उन्हें चुना।

🇮🇳 फाँसी से पहले जेल में बचे उनके शेष समय के दौरान उन्होंने अपना समय गीता पढ़ कर बिताया। कुशल ने लगभग 112 दिन जेल में बिताए। 6 जून 1943 में उन्हे फाँसी की सजा सुनाई गई। और फाँसी देने की तिथि 15 जून 1943 की थी। 15 जून 1943 को शाम 4:30 बजे कुशल कोंवर को फाँसी दी गई।

साभार: careerindia.com


🇮🇳 भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर सेनानी क्रांतिकारी #कुशल_कोंवर  #kushal_konwar जी को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

वन्दे मातरम् 🇮🇳

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. 

World puppet day | विश्व कठपुतली दिवस

 



#विश्व_कठपुतली_दिवस

#world_puppet_day

भारत में पारंपरिक पुतली नाटकों की कथावस्तु में पौराणिक साहित्य, लोककथाएँ और किवदंतियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। पहले अमर सिंह राठौड़, पृथ्वीराज, हीर-रांझा, लैला-मजनूं और शीरीं-फ़रहाद की कथाएँ ही कठपुतली खेल में दिखाई जाती थीं।

🇮🇳 विश्व कठपुतली दिवस प्रत्येक वर्ष 21 मार्च को मनाया जाता है। 'कठपुतली' का खेल अत्यंत प्राचीन नाटकीय खेल है, जो समस्त सभ्य संसार में प्रशांत महासागर के पश्चिमी तट से पूर्वी तट तक-व्यापक रूप प्रचलित रहा है। यह खेल गुड़ियों अथवा पुतलियों (पुत्तलिकाओं) द्वारा खेला जाता है। गुड़ियों के नर मादा रूपों द्वारा जीवन के अनेक प्रसंगों की, विभिन्न विधियों से, इसमें अभिव्यक्ति की जाती है और जीवन को नाटकीय विधि से मंच पर प्रस्तुत किया जाता है। कठपुतलियाँ या तो लकड़ी की होती हैं या पेरिस-प्लास्टर की या काग़ज़ की लुग्दी की। उसके शरीर के भाग इस प्रकार जोड़े जाते हैं कि उनसे बँधी डोर खींचने पर वे अलग-अलग हिल सकें।

साभार: bharatdiscovery.org

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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20 मार्च 2024

Rohit Mehta | रोहित मेहता

 



रोहित मेहता (जन्म- 3 अगस्त, 1908, सूरत; मृत्यु- 20 मार्च, 1995, वाराणसी) प्रसिद्ध साहित्यकार, विचारक, लेखक‍, दार्शनिक, भाष्यकार और स्वतंत्रता सेनानी थे। वे निरंतर प्रयत्नशील जीवन में आस्था रखने वाले इंसान थे। कई बार जेल भी गये। उन्होंने यूरोप, एशिया, अफ्रीका, अमेरिका आदि देशों का भ्रमण किया और दर्शन पर प्रभावशाली व्याख्यान दिए।

🇮🇳 प्रसिद्ध विचारक, लेखक और स्वतंत्रता सेनानी रोहित मेहता का जन्म 3 अगस्त, 1908 ईस्वी को #सूरत (#गुजरात) में हुआ था। सूरत, #अहमदाबाद और #मुंबई में उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी की। विद्यार्थी जीवन से ही वे सार्वजनिक कार्यों में भाग लेने लगे थे। 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने गुजरात कॉलेज, अहमदाबाद की 3 महीने तक चली हड़ताल का नेतृत्व किया था। स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण उन्होंने 5 बार जेल की सजा काटी। वे कांग्रेस में समाजवादी विचारों के समर्थक थे। 

🇮🇳 रोहित मेहता योग्य व्यक्ति थे। उनमें क्षमताएं थीं, वे विचारक थे, दार्शनिक थे, भाष्यकार थे, लेखक थे और विख्यात वक्ता थे। उन्होंने यूरोप, एशिया, अफ्रीका, अमेरिका आदि देशों का भ्रमण किया और दर्शन पर प्रभावशाली व्याख्यान दिये। मेहता का मानना था कि वास्तविक रहस्य कभी न समाप्त होने वाली यात्रा में ही है। वे 1941 में #अडयार, #तमिलनाडु गए। मेहता ने 3 वर्षों तक #थियोसोफिकल_सोसाइटी में अंतर्राष्ट्रीय सेक्रेटरी का काम किया और 15 वर्षों तक इस संस्था की भारतीय शाखा के महामंत्री रहे।

🇮🇳 रोहित मेहता बहुत ही प्रखर लेखक‍ थे। उन्होंने दर्शन पर 25 से अधिक पुस्तकें लिखीं।

🇮🇳 प्रसिद्ध विचारक लेखक और स्वतंत्रता सेनानी रोहित मेहता का 20 मार्च, 1995 को #वाराणसी में निधन हो गया।

साभार: bharatdiscovery.org

🇮🇳 प्रसिद्ध साहित्यकार, विचारक, लेखक‍, दार्शनिक, भाष्यकार और स्वतंत्रता सेनानी #रोहित_मेहता  #Rohit_Mehta जी को उनकी पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि ! 

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व 

#आजादी_का_अमृतकाल

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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Jaipal Singh Munda | जयपाल सिंह मुंडा

 



हर साल 20 मार्च को झारखंड के महान नेता, शिक्षाविद और हॉकी के अभूतपूर्व खिलाड़ी रहे 'मरांग गोमके' जयपाल सिंह मुंडा को उनकी परिनिर्वाण दिवस के मौके पर याद किया जाता है। मरांग गोमके एक उपाधि है, आदिवासी परंपरा में इसे सबसे बड़ा नेता कहा जाता है। यह उनकी प्रासंगिकता आज भी आदिवासी जीवन में जल, जंगल, जमीन के संघर्ष ‘आबुआ दिसुम आबुआ राज’ से जुड़ा है।

🇮🇳 जयपाल सिंह मुंडा का जन्म #झारखंड (सन् 2000 के पूर्व बिहार) की राजधानी #रांची से करीब 18 किलोमीटर दक्षिण, #खूंटी जिले के #टकरा_पाहनटोली में हुआ था। खूंटी से मात्र पाँच मील अर्थात आठ किलोमीटर दूरी पर अवस्थित टकरा पाहनटोली (सरना धर्म के पुजारियों का टोला) है, जो अब लगभग ईसाई गाँव में तब्दील हो गया है। यहाँ एक चर्च और प्राइमरी स्कूल है। जयपाल सिंह मुंडा का प्रारम्भिक नाम #प्रमोद_पाहन था। जयपाल सिंह ने अपनी जीवनी में लिखा है– “मेरा नाम किसने और कब बदला, मुझे नहीं मालूम। वह 1911 की 3 जनवरी थी, जिस दिन मेरा नाम बदल गया होगा। तब मैं 8-10 साल का रहा होउँगा। घर के लोग मुझे प्रमोद कहते थे और 3 जनवरी के पहले तक यही नाम था। लेकिन, 3 जनवरी, 1911 को जब मैं अपने बाबा (पिता) #अमरू_पाहन की उंगली थामे, सकुचाते हुए रांची के संत पॉल स्कूल पहुँचा तो न सिर्फ मेरी पैदाइश की तारीख बदल गयी, बल्कि मेरा नाम ही बदल गया।”

🇮🇳 संत पॉल स्कूल नाम लिखाने से पहले ही टकरा के प्राइमरी स्कूल के शिक्षक लूकस सर से हिंदी और गणित की शिक्षा प्राप्त कर चुके थे। संत पॉल स्कूल के तत्कालीन प्रधानाध्यपक कैनन कॉसग्रोव थे। उन्होंने अपनी पारखी नजरों से जयपाल सिंह की प्रतिभा को परख लिया था। छात्र जयपाल पढ़ाई में जितने तेज थे, उतने ही खेलकूद और अन्य गतिविधियों में अग्रणी थे। कॉसग्रोव उनकी इस बहुमुखी प्रतिभा से प्रभावित थे, बल्कि उन्हें अपना सर्वप्रिय छात्र बना लिया था। जयपाल सिंह को संत पॉल में पढ़ते हुए छह साल हो गए थे कि 1918 में कॉसग्रोव सेवानिवृत होकर इंग्लैंड चले गए।

🇮🇳 कॉसग्रोव लौटते वक्त अपने साथ छात्र जयपाल सिंह को भी इंग्लैंड ले जा रहे थे। “जब चारों ओर खबर फैल गई कि कॉसग्रोव भारत छोड़कर इंग्लैंड अपने देश वापस जा रहे हैं… लेकिन, जिस बात की चर्चा ज्यादा थी और जिस बात से लोग हैरत में थे, वह यह थी कि कॉसग्रोव अपने संग मुझे ले जा रहे थे।”

🇮🇳 रांची में रहते हुए जयपाल सिंह को सबसे ज्यादा अपनी माँ की याद आती थी। वह अक्सर अपनी माँ को यादकर भावुक हो जाते थे। माँ को याद करते हुए वे लिखते हैं– “मैं माँ का बहुत प्यारा था।… माँ एक साधारण आदिवासी औरत थी। ममत्व और दयालुता से भरी-पूरी बहुत ही सुंदर, पर एक रूढ़िवादी स्त्री थी। दस-पन्द्रह दिनों के भीतर वह एक बार जरूर रांची आती थी, मुझसे मिलने। आने पर मुर्गा बनाती। वह कॉसग्रोव को बहुत पसंद नहीं करती थी। इस बात से हमेशा सशंकित रहती थी कि कॉसग्रोव मुझे ईसाई बना देगा। शायद इसलिए कॉसग्रोव भी दूरी बरतते थे। लेकिन, मैं माँ की इच्छा का सम्मान नहीं रख सका। मेरी नजदीकियां कॉसग्रोव के साथ लगातार बढ़ती गईं और उसने मुझे ईसाई बना ही दिया।”

🇮🇳 #तारा_बनर्जी राजनीतिक रूप से अत्यंत प्रतिष्ठित बंगाली परिवार की बेटी थीं। तारा के नाना #ओमेश_चंद्र_बनर्जी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सह-संस्थापक और पहले अध्यक्ष थे। माँ #एग्नेस_मजूमदार और पिता #जी_के_मजूमदार की बंगाली समाज में काफी प्रतिष्ठा थी। जयपाल सिंह ने तारा को शादी के लिए प्रस्ताव दिया और तारा तथा उसके परिवार से सहमति मिलते ही #दार्जिलिंग में दोनों का विवाह 1932 में ईसाई रीति से हो गया।

🇮🇳 जयपाल सिंह कुछ दिनों तक पारिवारिक जीवन का आनंद ले ही रहे थे कि ऑयल कंपनी ने उनकी नौकरी के कॉन्ट्रैक्ट का नवीनीकरण करने से मना कर दिया। आजीविका की तलाश में उन्हें अफ्रीका जाकर एक कॉलेज में शिक्षक की नौकरी करनी पड़ी। तारा कुछ दिन साथ रहकर दार्जिलिंग वापस लौट आईं। इसी बीच जयपाल सिंह एक अफ्रीकी महिला ग्रेस के मोहपाश में पड़ गए। यह बात 1934-36 की है।

सन् 1937 में वे रायपुर के राजकुमार कॉलेज में रहे। लेकिन, कॉलेज के प्रिंसिपल स्मिथ पीयर्स से ठन जाने के कारण जयपाल सिंह को कॉलेज की नौकरी त्यागनी पड़ी। जल्द ही उन्हें बीकानेर राज्य में नौकरी मिल गई। लेकिन, ईमानदारी के कारण वहाँ भी नौकरी छोड़नी पड़ी और फिर वे #कश्मीर #राजा_हरि_सिंह के बेटे #कर्ण_सिंह को पढ़ाने के लिए चले गए। कश्मीर की आबोहवा तारा को रास नहीं आई और वह बीमार हो गईं। अतः जयपाल सिंह को कश्मीर छोड़ना पड़ा।

🇮🇳 अफसोस है कि जयपाल सिंह मुंडा का मूल्यांकन निर्मम रूप से एकपक्षीय है। उनका सही मूल्यांकन समग्रता में होना चाहिए। एक महान आदिवासी नेता, झारखंड आंदोलन को बेहतर नेतृत्व देने वाला नेता और एक महान खिलाड़ी जिसके नेतृत्व में गुलाम भारत ने पहली दफा गोल्ड मेडल जीता। आईसीएस जैसी नौकरी को त्यागकर आंदोलन के लिए सब कुछ न्यौछावर कर देने वाला व्यक्ति और एक सरल, सहज आदिवासी, जो कांग्रेसियों के छल-कपट को समझ नहीं पाया। जैसे कि छल से एकलव्य से अँगूठा माँग लिया गया था।

🇮🇳 बहरहाल, आदिवासियों के लिए उनका संघर्ष संविधान सभा में उनके भाषण में साफ झलकता है। यही उन्हें मारंग गोमके यानी सबसे बड़े नेता के रूप में स्थापित करता है। इसके बावजूद वर्ष 2000 में झारखंड के अलग बनने के बाद उन्हें जो सम्मान मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया है।

प्रस्तुति: देवेंद्र शरण

(संपादन : समीक्षा सहनी/नवल/अनिल)

संदर्भ : मरङ गोमके जयपाल सिंह मुंडा, अश्विनी कुमार पंकज, प्रभात प्रकाशन, 2020 

साभार: forwardpress.in

#Dr_Jaipal_Singh_Munda

#death anniversary

🇮🇳 1928 में एम्सटर्डम (नेदरलैंड्स) में हुए #ओलिंपिक खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय #हॉकी टीम के कप्तान, संविधान बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले महान आदिवासी नेता, शिक्षाविद 'मरांग गोमके' #डॉ_जयपाल_सिंह_मुंडा जी को उनकी पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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15 मार्च 2024

Rahi Masoom Raza | राही मासूम रज़ा | Writer | साहित्यकार

 



🇮🇳🔶 #महाभारत #Mahabharata सीरियल शुरू हुआ मेरी पैदाइश के साल. सन 1988 में. और मेरे समझदार होने से पहले चुक गया. हम समझदार हुए शक्तिमान के जमाने में. जिसमें मुकेश खन्ना थे. मुकेश महाभारत में बने थे भीष्म पितामह. तो शक्तिमान का वह रूप देखने के लिए हमने महाभारत देखा. उसके भी बहुत साल बाद पढ़ रहे थे टोपी शुक्ला. उसमें और महाभारत में एक कनेक्शन मिला. महाभारत की स्क्रिप्ट लिखी थी #राही_मासूम_रज़ा ने. जिन्होंने टोपी शुक्ला को हमारे बुक शेल्फ में इंस्टाल किया. राही मासूम रज़ा को पढ़ते हुए सोचना. एक शिया मुसलमान. सोचो कि उसने कितनी बाउंड्री कलम से खोद कर गिरा दी होगी. मजहब, रीति रिवाज, भारत माता की जय टाइप पब्लिसिटी स्टंट सबकी हवा निकाल दी उसने. और फिर उनकी लिखी किताबों के नाम चुनो. उनकी लिस्ट प्रिंट कराओ. और लाकर पढ़ डालो. इंसान बन जाओगे भाईसाहब. बाउंड्री गिर जाएंगी ढेर सारी.

🇮🇳🔶 राही मासूम रज़ा 1 सितम्बर को आए थे दुनिया में

🇮🇳🔶 हम उनके फैन हो गए थे टोपी शुक्ला पढ़ते हुए. टोपी से बड़ा अपनापा सा हो गया था. काहे? काहे कि वह भी बीच वाला था. मने एक भाई बड़ा एक छोटा. बीच में पिसता था हमेशा. शकल भी सबसे अलग टाइप की थी. जितनी दुश्वारियां उसकी थी करीब वैसी ही मेरी भी. अपनी कंडीशन भी बिल्कुल उसी तरह थी. बड़ा अच्छा लगा कि किसी ने हम जैसे बीच वालों की हालत समझी, लिखी थी.

🇮🇳🔶 1968 में मुंबई पहुंच गए थे. रोजी रोटी का मसला भी था और लिखने का भी. फिल्मों में लिख कर नाम और पैसा कमाया. लेकिन सुकून तो साहब इसी में मिलता है. जो मन में जमी सीमेंट तोड़ कर बाहर उफन पड़ता है. उसको लिखा जाए. ऐसा बहुत लिखा है. आधा गांव, कटरा बी आरजू, सीन 75, ओस की बूंद, दिल एक सादा कागज. नीम का पेड़ तो याद ही होगा. सीरियल आता था इसका. जगजीत सिंह इसका टाइटल सांग गाते थे “मुंह की बात सुने हर कोई, दिल के दर्द को जाने कौन. आवाजों के बाजारों में खामोशी पहचाने कौन.” और पंकज कपूर थे मेन रोल में. ये राही की लिखी आखिरी चीज थी. मैं एक फेरीवाला, शीशे के मकां वाले और ग़रीबे शहर. इनमें लिखी हैं उर्दू नज़्म और शायरी.

🇮🇳🔶 कविता पढ़ो उनकी लिखी. मैं एक फेरी वाला का हिस्सा है ये.

मेरा नाम मुसलमानों जैसा है

मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो.

मेरे उस कमरे को लूटो

जिस में मेरी बयाज़ें जाग रही हैं

और मैं जिस में तुलसी की रामायण से सरगोशी कर के

कालिदास के मेघदूत से ये कहता हूँ

मेरा भी एक सन्देशा है

🇮🇳🔶 शुरुआत में जब इलाहाबाद रहे. तो 10-15 उपन्यास लिख डाले दूसरों के नाम से. घोस्ट राइटर. जब मुंबई पहुंचे तो नाम पैदा हो गया. उसके बाद सब कुछ लिखते रहे. करीब 300 फिल्में और 100 के आस पास सीरियल लिखे. सबसे लंबा काम है उनका महाकाव्य ‘अट्ठारह सौ सत्तावन.’ आधा गांव उपन्यास आया 1966 में. उसके बारे में लिख गए हैं-

🔰 “वह उपन्यास वास्तव में मेरा एक सफर था. मैं ग़ाज़ीपुर की तलाश में निकला हूं लेकिन पहले मैं अपनी गंगोली में ठहरूंगा. अगर गंगोली की हक़ीक़त पकड़ में आ गयी तो मैं ग़ाज़ीपुर का एपिक लिखने का साहस करूंगा”

🇮🇳🔶 उनको याद करते हुए ये नज्म पढ़ लेना. सुन लेना. गुन लेना.

🔰 "हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चाँद

अपनी रात की छत पर, कितना तनहा होगा चाँद

जिन आँखों में काजल बनकर, तैरी काली रात

उन आँखों में आँसू का इक, कतरा होगा चाँद

रात ने ऐसा पेंच लगाया, टूटी हाथ से डोर

आँगन वाले नीम में जाकर, अटका होगा चाँद

चाँद बिना हर दिन यूँ बीता, जैसे युग बीते

मेरे बिना किस हाल में होगा, कैसा होगा चाँद"

~ आशुतोष चचा

साभार: thelallantop.com

#Literature #Rahi_Masoom_Raza

🇮🇳 बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी और प्रसिद्ध #साहित्यकार #राही_मासूम_रज़ा जी की पुण्यतिथि पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि !  

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 



सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

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Major Sandeep Unnikrishnan | मेजर संदीप उन्नीकृष्णन | Soldier

 



15 मार्च 1977 को जन्मे संदीप उन्नीकृष्णन #बेंगलुरु में रहने वाले एक मलयाली परिवार से आते थे। उनका परिवार केरल के कोझिकोड जिले के चेरुवन्नूर से बेंगलुरु शिफ्ट हुआ था। उनके पिता #के_उन्नीकृष्णन इसरो के अधिकारी रह चुके हैं। उनकी माता का नाम #धनलक्ष्मी_उन्नीकृष्णन है। वह अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे। उन्होंने बेंगलुरु के फ्रैंक एंथनी पब्लिक स्कूल से शुरुआती पढ़ाई की। 1995 में साइंस स्ट्रीम से आईएससी की।

🇮🇳 साल 1995 में उन्होंने एनडीए में प्रवेश लिया। चार सालों के बाद उनको वह करने का मौका मिला जिसका सपना हर सैनिक देखता है यानी 1999 में कारगिल युद्ध में उनको लड़ने का मौका मिला। फिर साल 2007 में उनको राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (एनएसजी) के स्पेशल ऐक्शन ग्रुप (एसएजी) में शामिल किया गया। वह निडर और बहादुर थे। मुश्किल हालात का सामना करने से पीछे नहीं हटते थे।

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🇮🇳 ‘ऊपर मत आना, मैं इन सबको देख लूंगा.’

🇮🇳 अपने एक घायल साथी को बचाने के बाद अपने साथियों से कहे गए ये आखिरी शब्द थे शहीद उन्नीकृष्णन के. मुंबई में हुए बम धमाकों के बाद ताज होटल में आतंकियों का सफाया करने के लिए 27 नवंबर 2008 को एनएसजी टीम को लाया गया था. मेजर संदीप उन्नीकृष्णन कमांडो इस ऑपरेशन को लीड कर रहे थे.

🇮🇳 क्या हुआ था 27 नवंबर 2008 को---

10 कमांडो की टीम ने जब ताज होटल में मोर्चा संभाला. तो संदीप की टीम को तीसरी मंजिल पर आतंकियों के होने का शक हुआ. यहां एक कमरे में कुछ औरतों को आतंकियों ने बंधक बनाया हुआ था. कमरे का दरवाजा अंदर से बंद था. उसे तोड़ने पर संदीप की टीम पर अचानक से गोलीबारी शुरू हो गई. जवाबी कार्रवाई में संदीप की टीम को इस बात का भी ध्यान रखना था कि किसी बंधक को गोली न लग जाए. इस गोलीबारी में संदीप के एक साथी कमांडो सुनील यादव घायल हो गए.  संदीप ने अपने घायल साथी को सुरक्षित स्थान तक पहुंचाया.

🇮🇳 इसी दौरान उनके दाएं हाथ में गोली लग गई. फिर भी संदीप ने आतंकियों का पीछा किया. और गोली चला रहे आतंकियों को ढूंढकर मार गिराया. जब वो आगे बढ़े तो आतंकी कमरे में लोगों को बंद करके मार रहे थे. संदीप ने वहां से 14 लोगों को बाहर निकाला. लेकिन पीछे से हुई गोलीबारी में संदीप बुरी तरह से जख्मी हो गए. वो लड़ते रहे, लेकिन उनकी सांसों ने उनका साथ नहीं दिया. अपने ऑपरेशन को कामयाब बनाते हुए वो शहीद हो गए.

🇮🇳 मेजर संदीप उन्नीकृष्णन की अंतिम विदाई---

संदीप की अंतिम यात्रा के समय आसमान भी उदास था. 29 नवंबर को जिस दिन संदीप उन्नीकृष्णन की अंतिम यात्रा जा रही थी, वास्तव में उस दिन बैंगलुरू में गहरे काले बादल छाए हुए थे. इससे ठीक 3 दिन पहले संदीप की बातचीत घर के लोगों से हुई थी. वो कोई 15 दिन बाद अपने दोस्त की शादी में बैंगलुरू आने वाले थे.

🇮🇳 उन्नीकृष्णन 7वीं बिहार रेजीमेंट के जवान थे और एनएसजी में संदीप की यह दूसरी डेप्यूटेशन थी. अपनी ऑरकुट प्रोफाइल पर संदीप ने जो भाषाएं आती हैं उनमें बिहारी का भी ज़िक्र किया है. क्रिकेट और फिल्मों के दीवाने संदीप 5 भाषाएं बोल लेते थे और इन भाषाओं के मज़ाकिया शब्दों से इन्हें खास लगाव था.

🇮🇳 संदीप के पिता इसरो में वैज्ञानिक थे. लेकिन संदीप ने अपने ही ढंग से एक गैर-मामूली ज़िंदगी जीने के लिए सेना में जाने का फैसला किया.

साभार: thelallantop.com

🇮🇳 भारतीय सेना के शूरवीर अदम्य साहसी एवं निर्भीक सैनिक #मेजर_संदीप_उन्नीकृष्णन #Major_Sandeep_Unnikrishnan जी को उनकी जयंती पर कोटि-कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

🇮🇳 जय हिन्द, जय हिन्द की सेना 🇮🇳

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 



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14 मार्च 2024

Albert Einstein | अल्बर्ट आइंस्टीन | Scientist | वैज्ञानिक

 



अल्बर्ट आइंस्टीन (जर्मन उच्चारण आइनश्टाइन) का जन्म, 14 मार्च 1879 को तत्कालीन जर्मन साम्राज्य के उल्म शहर में रहने वाले एक यहूदी परिवार में हुआ था. उल्म आज जर्मनी के जिस बाडेन-व्यूर्टेमबेर्ग राज्य में पड़ता है, वह उस समय जर्मन साम्राज्य की व्यूर्टेमबेर्ग राजशाही का शहर हुआ करता था. लेकिन अल्बर्ट आइंस्टीन का बचपन उल्म के बदले बवेरिया की राजधानी म्यूनिख में बीता. परिवार उनके जन्म के एक ही वर्ष बाद म्यूनिख में रहने लगा था.

🇮🇳 अल्बर्ट आइंस्टीन ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात’ वाली कहावत चरितार्थ करते थे. भाषाएं छोड़ कर हर विषय में, विशेषकर विज्ञान में वे बचपन से ही बहुत तेज़ थे. विज्ञान की किताबें पढ़-पढ़ कर स्कूली दिनों में ही अल्बर्ट आइंस्टीन सामान्य विज्ञान के अच्छे-ख़ासे ज्ञाता बन गए थे. जर्मनी के अलावा वे उसके पड़ोसी देशों स्विट्ज़रलैंड और ऑस्ट्रिया में भी वहां के नागरिक बन कर रहे. 1914 से 1932 तक बर्लिन में रहने के दौरान हिटलर की यहूदियों के प्रति घृणा को समय रहते भाँप कर अल्बर्ट आइंस्टीन अमेरिका चले गये. वहीं, 18 अप्रैल 1955 के दिन उन्होंने प्रिन्स्टन के एक अस्पताल में अंतिम साँस ली.

🇮🇳 अल्बर्ट आइंस्टीन को 20वीं सदी का ही नहीं, बल्कि अब तक के सारे इतिहास का सबसे बड़ा वैज्ञानिक माना जाता है. 1905 एक साथ उनकी कई उपलब्धियों का स्वर्णिम वर्ष था. उसी वर्ष उनके सर्वप्रसिद्ध सूत्र E= mc² ऊर्जा= द्रव्यमान X प्रकाशगति घाते2) का जन्म हुआ था. ‘सैद्धांतिक भौतिकी, विशेषकर प्रकाश के वैद्युतिक (इलेक्ट्रिकल) प्रभाव के नियमों’ संबंधी उनकी खोज के लिए उन्हें 1921 का नोबेल पुरस्कार मिला. 17 मार्च 1905 को प्रकाशित यह खोज अल्बर्ट आइंस्टीन ने स्विट्ज़रलैंड की राजधानी बेर्न के पेटेंट कार्यालय में एक प्रौद्योगिक-सहायक के तौर पर 1905 में ही की थी.

🇮🇳 उसी वर्ष आइंस्टीन ने 30 जून को ‘गतिशील पिंडों की वैद्युतिक गत्यात्मकता’ के बारे में भी एक अध्ययन प्रकाशित किया था. डॉक्टर की उपाधि पाने के लिए उसी वर्ष 20 जुलाई के दिन ‘आणविक आयाम का एक नया निर्धारण’ नाम से अपना शोधप्रबंध (थीसिस) उन्होंने ज्यूरिच विश्वविद्यालय को समर्पित किया था. उस समय उनकी उम्र 26 वर्ष थी. 15 जनवरी 1906 को उन्हें डॉक्टर की उपाधि मिल भी गयी.

🇮🇳 अल्बर्ट आइंस्टीन के नाम को जिस चीज़ ने अमर बना दिया, वह था उनका सापेक्षता सिद्धांत (थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी). उन्होंने गति के स्वरूप का अध्ययन किया और कहा कि गति एक सापेक्ष अवस्था है. आइंस्टीन के मुताबिक ब्रह्मांड में ऐसा कोई स्थिर प्रमाण नहीं है, जिसके द्वारा मनुष्य पृथ्वी की ‘निरपेक्ष गति’ या किसी प्रणाली का निश्चय कर सके. गति का अनुमान हमेशा किसी दूसरी वस्तु को संदर्भ बना कर उसकी अपेक्षा स्थिति-परिवर्तन की मात्रा के आधार पर ही लगाया जा सकता है. 1907 में प्रतिपादित उनके इस सिद्धांत को ‘सापेक्षता का विशिष्ट सिद्धांत’ कहा जाने लगा.

🇮🇳 आइंस्टीन का कहना था कि सापेक्षता के इस विशिष्ट सिद्धांत को प्रकाशित करने के बाद एक दिन उनके दिमाग़ में एक नया ज्ञानप्रकाश चमका. उनके शब्दों में ‘मैं बेर्न के पेटेंट कार्यालय में आरामकुर्सी पर बैठा हुआ था. तभी मेरे दिमाग़ में एक विचार कौंधा, यदि कोई व्यक्ति बिना किसी अवरोध के ऊपर से नीचे गिर रहा हो तो वह अपने आप को भारहीन अनुभव करेगा. मैं भौचक्का रह गया. इस साधारण-से विचार ने मुझे झकझोर दिया. वह मुझे उसी समय से गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत की ओर धकेलने लगा.’

🇮🇳 इस छोटे-से विचार पर कई वर्षों के चिंतन-मनन और गणीतीय समीकरणों के आधार पर 1916 में आइंस्टीन ने एक नई थ्योरी दी. उन्होंने कहा कि ब्रहमांड में किसी वस्तु को खी़ंचने वाला जो गुरुत्वाकर्षण प्रभाव देखा जाता है, उसका असली कारण यह है कि हर वस्तु अपने द्रव्यमान (सरल भाषा में भार) और आकार के अनुसार अपने आस-पास के दिक्-काल (स्पेस-टाइम) में मरोड़ पैदा कर देती है. वैसे तो हर वस्तु और हर वस्तु की गति दिक्-काल में यह बदलाव लाती है, लेकिन बड़ी और भारी वस्तुएं तथा प्रकाश की गति के निकट पहुँचती गतियां कहीं बड़े बदलाव पैदा करती हैं.

🇮🇳 आइंस्टीन ने सामान्य सापेक्षता के अपने इस क्रांतिकारी सिद्धांत में दिखाया कि वास्तव में दिक् के तीन और काल का एक मिलाकर ब्रह्माण्ड में चार आयामों वाला दिक्-काल है, जिसमें सारी वस्तुएं और सारी ऊर्जाएं अवस्थित हैं. उनके मुताबिक समय का प्रवाह हर वस्तु के लिए एक जैसा हो, यह जरूरी नहीं है. आइंस्टीन का मानना था कि दिक्-काल को प्रभावित कर के उसे मरोड़ा, खींचा और सिकोड़ा भी जा सकता है. ब्रह्मांड में ऐसा निरंतर होता रहता है.

1932 में आइंस्टीन के अमेरिका चले जाने के बाद 1933 में जर्मनी पर हिटलर की तानाशाही शुरू हो गयी. 10 मई 1933 को उसके प्रचारमंत्री योज़ेफ़ गोएबेल्स ने हर प्रकार के यहूदी साहित्य की सार्वजनिक होली जलाने का अभियान छेड़ दिया. आइंस्टीन की लिखी पुस्तकों की भी होली जली. ‘जर्मन राष्ट्र के शत्रुओं’ की एक सूची बनी, जिसमें उस व्यक्ति को पाँच हज़ार डॉलर का पुरस्कार देने की घोषणा भी की गयी, जो आइंस्टीन की हत्या कर देगा.

🇮🇳 आइंस्टीन तब तक अमेरिका के प्रिन्स्टन शहर में बस गये थे. वहाँ वे गुरुत्वाकर्षण वाले अपने सामान्य सापेक्षता सिद्धांत के नियमों तथा विद्युत-चुम्बकत्व के नियमों के बीच मेल बैठाते हुए एक ‘समग्र क्षेत्र सिद्धांत’ (यूनिफ़ाइड फ़ील्ड थ्योरी) का प्रतिपादन करने में जुट गये. इसके लिए वे किसी ‘ब्रह्मसूत्र’ जैसे एक ऐसे गणितीय समीकरण पर पहुंचना चाहते थे, जो दोनों को एक सूत्र में पिरोते हुए ब्रहमांड की सभी शक्तियों और अवस्थाओं की व्याख्या करने का मूलाधार बन सके. वे मृत्युपर्यंत इस पर काम करते रहे, पर न तो उन्हें सफलता मिल पायी और न आज तक कोई दूसरा वैज्ञानिक यह काम कर पाया है.

🇮🇳 ‘समग्र क्षेत्र सिद्धांत’ वाला ‘ब्रह्मसूत्र’ ख़ोजने का काम अल्बर्ट आइंस्टीन ने वास्तव में 1930 में बर्लिन में ही शुरू कर दिया था. उस समय उन्होंने इस बारे में आठ पृष्ठों का एक लेख भी लिखा था, जिसे उन्होंने कभी प्रकाशित नहीं किया. इस लेख के अब तक सात पृष्ठ मिल चुके थे, एक पृष्ठ नहीं मिल रहा था. आज उनके जन्म की 140वीं वर्षगांठ से कुछ ही दिन पहले यह खोया हुआ पृष्ठ भी मिल गया है.

🇮🇳 इसराइल में जेरूसलम के हिब्रू विश्वविद्यालय ने 13 मार्च को बताया कि उसने आइंस्टीन से संबंधित दस्तावेज़ों का एक संग्रह हाल ही में ख़रीदा है. ‘समग्र क्षेत्र सिद्धांत’ वाले उनके लेख का खोया हुआ पृष्ठ, दो ही सप्ताह पहले प्रप्त हुए इसी संग्रह में मिला है. अपने लेख में आइंस्टीन ने हस्तलिखित समीकरणों ओर रेखाचित्रों का खूब प्रयोग किया है. इस संग्रह में 110 पृष्ठों के बराबर सामग्री है. 1935 में उनके पुत्र हांस अल्बर्ट के नाम लिखा एक पत्र भी है. इस पत्र में उन्होंने जर्मनी में हिटलर की नाज़ी पार्टी के शासन को लेकर अपनी चिंताएं भी व्यक्त की हैं. एक दूसरा पत्र भी है, जो आइंस्टीन ने स्विट्ज़रलैंड में रहने वाले अपने एक इतालवी इंजीनियर-मित्र को लिखा था.

🇮🇳 आइंस्टीन की पहली पत्नी मिलेवा मारिच सर्बिया की थीं. दोनों बेर्न में अपनी पढ़ाई के दिनों में एक-दूसरे से परिचित हुए थे. उनसे उनके दो पुत्र थे हांस अल्बर्ट और एदुआर्द. शादी से पहले की दोनों की एक बेटी भी थी लीज़रिल. लेकिन उसके बारे में दोनों ने चुप्पी साध रखी थी, इसलिए इससे अधिक कुछ पता नहीं है.

🇮🇳 पुत्र हांस अल्बर्ट के नाम पत्र में जर्मन भाषा में आइंस्टीन ने लिखा था, ‘प्रिन्स्टन, 11 जनवरी 1935. मैं गणित रूपी राक्षस के पंजे में इस बुरी तरह जकड़ा हुआ हूँ कि किसी को निजी चिट्ठी लिख ही नहीं पाता. मैं ठीक हूं, दीन-दुनिया से विमुख हो कर काम में व्यस्त रहता हूँ. निकट भविष्य में मैं यूरोप जाने की नहीं सोच रहा, क्योंकि मैं वहाँ हो सकने वाली परेशानियों को झेलने के सक्षम नहीं हूँ. वैसे भी, एक बूढ़ा बालक होने के नाते मुझे सबसे परे रहने का अधिकार भी तो है ही.’

🇮🇳 जेरूसलेम के हिब्रू विश्वविद्यालय में आइनश्टइन से संबंधित लेखागार के परामर्शदाता हानोख़ गूटफ्रौएन्ड ने मीडिया को बताया कि इस संग्रह के अधिकांश दस्तावेज़ शोधकों को फ़ोटोकॉपी या नकलों के रूप में पहले से ज्ञात रहे हैं. यह बात अलग है कि कुछ कॉपियां अच्छी थीं और कुछ ख़राब थीं. नया प्राप्त संग्रह अब तक एक अमेरिकी संग्रहकर्ता के पास था. ‘समग्र क्षेत्र सिद्धांत’ वाले उनके लेख में शब्द बहुत कम हैं, गणित के सूत्रों और समीकरणों की भरमार है. यह नहीं बताया गया कि इस संग्रह को पाने के लिए कितना पैसा देना पड़ा है.

अल्बर्ट आइंस्टीन अपने समय में संसार के सबसे प्रतिष्ठित और प्रशंसित यहूदी थे, पर वे किसी ऊंचे पद के भूखे कभी नहीं थे. 1948 में जब इजरायल की एक यहूदी देश के रूप में स्थापना हुई, तो उनके सामने इसका राष्ट्रपति बनने का प्रस्ताव भी रखा गया था. उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया. इसके बदले अपनी वसीयत में उन्होंने लिखा कि पत्रों, लेखों, पांडुलिपियों इत्यादि के रूप में उनकी सारी दस्तावेज़ी विरासतों की नकलें, न कि मूल प्रतियां, जेरुसलम के हिब्रू विश्वविद्यालय को मिलनी चाहिए. इन दस्तावेज़ों से पता चलता है कि अमेरिका पहुँचने के बाद जर्मनी में रह गये अपने संबंधियों और परिजनों को वे न केवल पत्र लिखा करते थे, उन्हें जर्मनी से बाहर निकलने में सहायता देने का भी प्रयास करते थे.

🇮🇳 हिटलर के सत्ता में आने से 10 साल पहले ही आइंस्टीन ने भॉंप लिया था जर्मनी अपने यहूदियों के लिए कितना बड़ा अभिशाप बन सकता है. अपनी बहन माया के नाम 1922 में लिखे उनके ऐसे ही एक पत्र की जब नीलामी हुई, तो वह 30 हज़ार यूरो में बिका. इस पत्र में एक जगह उन्होंने लिखा है, ‘यहूदियों से घृणा करने वाले अपने जर्मन सहकर्मियों के बीच मैं तो ठीक-ठाक ही हूँ. यहाँ बाहर कोई नहीं जानता कि मैं कौन हूँ.’

🇮🇳 यह पत्र संभवतः जर्मनी के ही कील नगर से लिखा गया था. उन दिनों आइंस्टीन बर्लिन के सम्राट विलहेल्म इंस्टीट्यूट में भौतिकशास्त्र के प्रोफ़ेसर थे. उनके पत्र से यही पता चलता है कि अति उच्च शिक्षा प्राप्त जर्मन भी, हिटलर के आने से पहले ही यहूदियों से कितनी घृणा करने लगे थे. उनके प्रयासों से उनकी बहन माया भी 1939 में प्रिन्स्टन पहुंच गईं, पर नाज़ियों ने उनके पति को नहीं जाने दिया. माया 1951 में अपनी मृत्यु तक उन्हीं के साथ रह रही थी.

🇮🇳 दूसरा विश्व युद्ध शुरू होने से कुछ ही दिन पहले, अगस्त 1939 में, आइंस्टीन ने अमेरिका में रह रहे हंगेरियाई परमाणु वैज्ञानिक लेओ ज़िलार्द के कहने में आ कर एक पत्र पर दस्तखत कर दिए. यह पत्र अमेरिकी राष्ट्रपति फ़्रैंकलिन रूज़वेल्ट के नाम लिखा गया था. इसमें रूज़वेल्ट से कहा गया था कि नाज़ी जर्मनी एक बहुत ही विनाशकारी ‘नये प्रकार का बम’ बना रहा है या संभवतः बना चुका है. अमेरिकी गुप्तचर सूचनाएं भी कुछ इसी प्रकार की थीं, इसलिए अमेरिकी परमाणु बम बनाने की ‘मैनहटन परियोजना’ को हरी झंडी दिखा दी गयी. अमेरिका के पहले दोनों बम 6 और 9 अगस्त 1945 को जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहर पर गिरे.

🇮🇳 आइंस्टीन को इससे काफ़ी आघात पहुँचा. अपने एक पुराने मित्र लाइनस पॉलिंग को 16 नवंबर 1954 को लिखे अपने एक पत्र में खेद प्रकट करते हुए उन्होंने लिखा, ‘मैं अपने जीवन में तब एक बड़ी ग़लती कर बैठा, जब मैंने राष्ट्रपति रूज़वेल्ट को परमाणु बम बनाने की सलाह देने वाले पत्र पर अपने हस्ताक्षर कर दिये, हलांकि इसके पीछे यह औचित्य भी था कि जर्मन एक न एक दिन उसे बनाते.’

🇮🇳 इसी कारण अपने अंतिम दिनों में आइंस्टीन ने 10 अन्य बहुत प्रसिद्ध वैज्ञानिकों के साथ मिल कर, 11 अप्रैल 1955 को, ‘रसेल-आइंस्टीन मेनीफ़ेस्टो’ कहलाने वाले एक आह्वान पर हस्ताक्षर किए. इसमें मानवजाति को निरस्त्रीकरण के प्रति संवेदनशील बनाने का आग्रह किया गया था. दो ही दिन बाद, जब वे इसराइल के स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में एक भाषण लिख रहे थे, उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया. 15 अ़प्रैल को उन्हें प्रिन्सटन के अस्पताल में भर्ती किया गया. 18 अप्रैल को 76 वर्ष की अवस्था में वे दुनिया से चलबसे.

🇮🇳 शवपरीक्षक डॉक्टर ने आइंस्टीन की आँखों और मस्तिष्क को यह जानने के लिए अंत्येष्टि से पहले ही निकाल लिया कि उनके मस्तिष्क की बनावट में उनकी असाधारण प्रतिभा का कोई रहस्य तो नहीं छिपा है. उनके परिजनों ने मस्तिष्क के साथ इस प्रयोग की अनुमति दे दी थी. पर ऐसी कोई असाधारण संरचना उनके मस्तिष्क में नहीं मिली. मस्तिष्क का एक बड़ा हिस्सा शिकागो के ‘नेशनल म्यूज़ियम ऑफ़ हेल्थ ऐन्ड मेडिसिन’ (राष्ट्रीय स्वास्थ्य एवं औषधि संग्राहलय) में आज भी देखा जा सकता है.

🇮🇳 अल्बर्ट आइंस्टीन महात्मा गाँधी के बहुत बड़े प्रशंसक थे.1924 में उन्होने भारत के भौतिकशास्त्री सत्येन्द्रनाथ बोस के सहयोग से ‘बोस-आइंस्टीन कन्डेन्सेशन’ नाम की पदार्थ की एक ऐसी अवस्था होने की भी भविष्यवाणी की थी, जो परमशून्य (– 273.15 डिग्री सेल्सियस) तापमान के निकट देखी जा सकती है. यह भविष्यवाणी, जो मूलतः #सत्येन्द्रनाथ_बोस के दिमाग़ की उपज थी और उन्होंने उसके बार में अपना एक पत्र आइंस्टीन को भेजा था, 1955 में पहली बार एक प्रयोगशाला में सही सिद्ध की जा सकी. उसके बारे में 1905 मे लिखे लेख की पांडुलिपि बेल्जियम के लाइडन विश्वविद्यालय में मिली है.

साभार: satyagrah.scroll.in

🇮🇳 महान #वैज्ञानिक #Scientist #अल्बर्ट_आइंस्टीन जी को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 



सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

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Makar Sankranti मकर संक्रांति

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