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01 अप्रैल 2024

How our Gurukuls were closed | हमारे गुरुकुल कैसे बन्द हुए | लेखक : नलीन चंद्र

 




इंग्लैंड में पहला स्कूल school 1811 में खुला उस समय भारत में 7,32,000 #गुरुकुल #Gurukul  थे, आइए जानते हैं हमारे गुरुकुल #Gurukul कैसे बन्द हुए।

हमारे #सनातन #Sanatan #संस्कृति #cultural #परम्परा #tradition   के गुरुकुल में क्या क्या पढाई होती थी, ये जान लेना पहले जरूरी है।

01 अग्नि विद्या (#Metallurgy) 

02 वायु विद्या (#Flight) 

03 जल विद्या (#Navigation) 

04 अंतरिक्ष विद्या (#Space_Science) 

05 पृथ्वी विद्या (#Environment) 

06 सूर्य विद्या (#Solar_Study) 

07 चन्द्र व लोक विद्या (#Lunar_Study) 

08 मेघ विद्या (#Weather_Forecast) 

09 पदार्थ विद्युत विद्या (#Battery) 

10 सौर ऊर्जा विद्या (#Solar_Energy) 

11 दिन रात्रि विद्या 

12 सृष्टि विद्या (#Space Research) 

13 खगोल विद्या (#Astronomy) 

14 भूगोल विद्या (#Geography) 

15 काल विद्या (#Time) 

16 भूगर्भ विद्या (#Geology #Mining) 

17 रत्न व धातु विद्या (#Gems & #Metals) 

18 आकर्षण विद्या (#Gravity) 

19 प्रकाश विद्या (#Solar #Energy) 

20 तार विद्या (#Communication) 

21 विमान विद्या (#Plane) 

22 जलयान विद्या (#Water #Vessels) 

23 अग्नेय अस्त्र विद्या (#Arms & #Ammunition) 

24 जीव जंतु विज्ञान विद्या (#Zoology #Botany) 

25 यज्ञ विद्या (#Material #Sic) 


ये तो बात हुई #वैज्ञानिक विद्याओं की, अब बात करते हैं #व्यावसायिक और #तकनीकी विद्या की।


26 वाणिज्य (#Commerce) 

27 कृषि (#Agriculture) 

28 पशुपालन (#Animal #Husbandry) 

29 पक्षिपलन (#Bird Keeping) 

30 पशु प्रशिक्षण (#Animal #Training) 

31 यान यन्त्रकार (#Mechanics) 

32 रथकार (#Vehicle #Designing) 

33 रतन्कार (#Gems) 

34 सुवर्णकार (#Jewellery #Designing) 

35 वस्त्रकार (#Textile) 

36 कुम्भकार (#Pottery) 

37 लोहकार (#Metallurgy) 

38 तक्षक 

39 रंगसाज (#Dying) 

40 खटवाकर 

41 रज्जुकर (#Logistics) 

42 वास्तुकार (#Architect) 

43 पाकविद्या (#Cooking) 

44 सारथ्य (#Driving) 

45 नदी प्रबन्धक (#Water #Management) 

46 सुचिकार (#Data #Entry) 

47 गोशाला प्रबन्धक (#Animal #Husbandry) 

48 उद्यान पाल (#Horticulture) 

49 वन पाल (#Forestry) 

50 नापित (#Paramedical)


जिस देश के गुरुकुल इतने समृद्ध हों उस देश को आखिर कैसे गुलाम बनाया गया होगा ?


मैकाले का स्पष्ट कहना था कि भारत को हमेशा-हमेशा के लिए अगर गुलाम बनाना है तो इसकी “देशी और सांस्कृतिक शिक्षा व्यवस्था” को पूरी तरह से ध्वस्त करना होगा और उसकी जगह “अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था” लानी होगी और तभी इस देश में शरीर से हिन्दुस्तानी लेकिन दिमाग से अंग्रेज पैदा होंगे और जब इस देश की यूनिवर्सिटी से निकलेंगे तो हमारे हित में काम करेंगे।

1850 तक इस देश में “7 लाख 32 हजार” गुरुकुल हुआ करते थे और उस समय इस देश में गाँव थे “7 लाख 50 हजार” मतलब हर गाँव में औसतन एक गुरुकुल और ये जो गुरुकुल होते थे वो सब के सब आज की भाषा में ‘#Higher #Learning #Institute’ हुआ करते थे। उन सबमें 18 विषय पढ़ाए जाते थे और ये गुरुकुल समाज के लोग मिलके चलाते थे न कि राजा, महाराजा।

अंग्रेजों का एक अधिकारी था #G.W. #Luther और दूसरा था #Thomas #Munro ! दोनों ने अलग अलग इलाकों का अलग-अलग समय सर्वे किया था। #Luther, जिसने उत्तर भारत का सर्वे किया था, उसने लिखा है कि यहाँ 97% साक्षरता है और #Munro, जिसने दक्षिण भारत का सर्वे किया था, उसने लिखा कि यहाँ तो 100% साक्षरता है।

मैकाले एक मुहावरा इस्तेमाल कर रहा है–

“कि जैसे किसी खेत में कोई फसल लगाने के पहले उसे पूरी तरह जोत दिया जाता है वैसे ही इसे जोतना होगा और अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी।”


इस लिए उसने सबसे पहले गुरुकुलों को गैरकानूनी घोषित किया। जब गुरुकुल गैरकानूनी हो गए तो उनको मिलने वाली सहायता जो समाज की तरफ से होती थी वो गैरकानूनी हो गयी, फिर संस्कृत को गैरकानूनी घोषित किया और इस देश के गुरुकुलों को घूम घूम कर ख़त्म कर दिया, उनमें आग लगा दी, उसमें पढ़ाने वाले गुरुओं को उसने मारा-पीटा, जेल में डाला।


गुरुकुलों में शिक्षा निःशुल्क दी जाती थी। इस तरह से सारे गुरुकुलों को ख़त्म किया गया और फिर अंग्रेजी शिक्षा को कानूनी घोषित किया गया और कलकत्ता में पहला कॉन्वेंट स्कूल खोला गया। उस समय इसे ‘फ्री स्कूल’ कहा जाता था। इसी कानून के तहत भारत में कलकत्ता यूनिवर्सिटी बनाई गयी, बम्बई यूनिवर्सिटी बनाई गयी, मद्रास यूनिवर्सिटी बनाई गयी, ये तीनों गुलामी ज़माने के यूनिवर्सिटी आज भी देश में मौजूद हैं।


मैकाले ने अपने पिता को एक चिट्ठी लिखी थी बहुत मशहूर चिट्ठी है वो, उसमें वो लिखता है कि-


“इन कॉन्वेंट स्कूलों से ऐसे बच्चे निकलेंगे जो देखने में तो भारतीय होंगे लेकिन दिमाग से अंग्रेज होंगे और इन्हें अपने देश के बारे में कुछ पता नहीं होगा। इनको अपने संस्कृति के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपनी परम्पराओं के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने मुहावरे नहीं मालूम होंगे, जब ऐसे बच्चे होंगे इस देश में तो अंग्रेज भले ही चले जाएँ इस देश से अंग्रेजियत नहीं जाएगी।”


उस समय लिखी चिट्ठी की सच्चाई इस देश में अब साफ साफ दिखाई दे रही है और उस एक्ट की महिमा देखिये कि हमें अपनी भाषा बोलने में शर्म आती है, जबकि अंग्रेजी में बोलते हैं कि दूसरों पर रोब पड़ेगा, हम तो खुद में हीन हो गए हैं जिसे अपनी भाषा बोलने में शर्म आ रही है, उस देश का कैसे कल्याण संभव है ?


हमारी पुरानी शिक्षा पद्धति बहुत ही समृद्ध और विशाल थी और यही कारण था कि हम विश्वगुरु थे। हमारी शिक्षा पद्धति से पैसे कमाने वाले मशीन पैदा नहीं होते थे बल्कि मानवता के कल्याण हेतु अच्छे और विद्वान इंसान पैदा होते थे। आज तो जो बहुत पढ़ा लिखा है वही सबसे अधिक भ्रष्ट है, वही सबसे बड़ा चोर है।


हमने अपना इतिहास गवां दिया है। क्योंकि अंग्रेज हमसे हमारी पहचान छीनने में सफल हुए। उन्होंने हमारी शिक्षा पद्धति को बर्बाद कर के हमें अपनी संस्कृति, मूल धर्म, ज्ञान और समृद्धि से अलग कर दिया।


आज जो स्कूलों और कॉलेजों का हाल है वो क्या ही लिखा जाए ! हम न जाने ऐसे लोग कैसे पैदा कर रहें हैं जिनमें जिम्मेवारी का कोई एहसास नहीं है। जिन्हें सिर्फ़ पद और पैसों से प्यार है। हम इतने असफल कैसे होते जा रहें हैं ?


किसी भी समाज की स्थिति का अनुमान वहां के शैक्षणिक संस्थानों की स्थिति से लगाया जा सकता है। आज हम इसमें बहुत असफल हैं। हमने स्कूल और कॉलेज तो बना लिए लेकिन जिस उद्देश्य के लिए इसका निर्माण हुआ उसकी पूर्ति के योग्य इंसान और सिस्टम नहीं बना पाए।


जब आप अपने देश का इतिहास पढ़ेंगे तो आप गर्व भी महसूस करेंगे और रोएंगे भी क्योंकि आपने जो गवां दिया है वो पैसों रुपयों से नहीं खरीदा जा सकता।


हमें एक बड़े पुनर्जागरण की जरूरत है। सरकारें आएंगी जाएंगी, इनसे बहुत उम्मीद करना बेवकूफी होगी, जनता जब तक नहीं जागती हम अपनी विरासत को कभी पुनः हासिल नहीं कर पाएंगे।

जागना होगा और कोई विकल्प नहीं।

"लेखक के निजी विचार हैं "

 







लेखक : नलीन चंद्र  (Naleen Chandra)  01/04/2024 


सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. ,

24 मार्च 2024

| पंडित हरिभाऊ उपाध्याय | साहित्यकार तथा स्वतंत्रता आंदोलन के राष्ट्रसेवी | 24 मार्च, 1892 - 25 अगस्त, 1972

 


हरिभाऊ उपाध्याय का जन्म 24 मार्च, 1892 को मध्य प्रदेश में #उज्जैन ज़िले के #भौंरोसा नामक गाँव में हुआ था। विद्यार्थी जीवन से ही उनके मन में साहित्य के प्रति चेतना जाग्रत हो गई थी। संस्कृत के नाटकों तथा अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध उपन्यासों के अध्ययन के बाद वे उपन्यास लेखन की  और अग्रसर हुए।

🇮🇳 हरिभाऊ उपाध्याय ने हिन्दी सेवा से सार्वजनिक जीवन शुरू किया और  सबसे पहले  ‘औदुम्बर’ मासिक पत्र के प्रकाशन द्वारा हिन्दी पत्रकारिता जगत में पर्दापण किया। सबसे पहले  1911 में वे ‘औदुम्बर’ के सम्पादक बने। पढ़ते-पढ़ते ही इन्होंने इसके सम्पादन का कार्य भी आरम्भ किया। ‘औदुम्बर’ में कई विद्वानों के विविध विषयों से सम्बद्ध पहली बार लेखमाला निकली, जिससे हिन्दी भाषा की स्वाभाविक प्रगति हुई। इसका श्रेय हरिभाऊ के उत्साह और लगन को ही जाता है। 1915  में हरिभाऊ उपाध्याय #महावीर_प्रसाद_द्विवेदी के सान्निध्य में आये। हरिभाऊ जी खुद लिखते हैं कि- “औदुम्बर की सेवाओं ने मुझे आचार्य द्विवेदी जी की सेवा में पहुँचाया।” द्विवेदी जी के साथ ‘सरस्वती’ में कार्य करने के बाद हरिभाऊ उपाध्याय ने ‘प्रताप’, ‘हिन्दी नवजीवन’ और ‘प्रभा’ के सम्पादन में योगदान दिया और स्वयं ‘मालव मयूर’ नामक पत्र निकालने की योजना बनायी। लेकिन यह पत्र अधिक दिन नहीं चल सका।

🇮🇳 हरिभाऊ उपाध्याय की हिन्दी साहित्य को विशेष देन उनके द्वारा बहुमूल्य पुस्तकों का रूपांतरण है। कई मौलिक रचनाओं के अलावा उन्होंने जवाहरलाल नेहरू की ‘मेरी कहानी’ और पट्टाभि सीतारमैया द्वारा लिखित ‘कांग्रेस का इतिहास’ का हिन्दी में अनुवाद किया। हरिभाऊ जी का प्रयास हमें भारतेन्दु काल की याद दिलाता है, जब प्राय: सभी हिन्दी लेखक बंगला से हिन्दी में अनुवाद करके साहित्य की अभिवृद्धि करते थे। अनुवाद करने में भी उन्होंने इस बात का सदा ध्यान रखा कि पुस्तक की भाषा लेखक की भाषा और उसके व्यक्तित्व के अनुरूप हो। अनुवाद पढ़ने से यह अनुभव नहीं होता कि अनुवाद पढ़ रहे हैं। यही अनुभव होता है कि मानो स्वयं मूल लेखक की ही वाणी और विचारधारा अविरल रूप से उसी मूल स्त्रोत से बह रही है। इस प्रकार हरिभाऊ जी ने अपने साथी जननायकों के ग्रंथों का अनुवाद करके हिन्दी साहित्य को व्यापकता प्रदान की।

🇮🇳 हरिभाऊ उपाध्याय की अनेक पुस्तकें आज हिन्दी साहित्य जगत को प्राप्त हो चुकी हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-

• ‘बापू के आश्रम में’

• ‘स्वतंत्रता की ओर’

• ‘सर्वोदय की बुनियाद’

• ‘श्रेयार्थी जमनालाल जी’

• ‘साधना के पथ पर’

• ‘भागवत धर्म’

• ‘मनन’

• ‘विश्व की विभूतियाँ’

• ‘पुण्य स्मरण’

• 'प्रियदर्शी अशोक’

• ‘हिंसा का मुकाबला कैसे करें’

• ‘दूर्वादल’ (कविता संग्रह)

• ‘स्वामी जी का बलिदान’

• ‘हमारा कर्त्तव्य और युगधर्म’

🇮🇳 ☝️इन सभी रचनाओं से हिन्दी साहित्य निश्चित ही समृद्ध हुआ है। हरिभाऊ जी की रचनाएँ भाव, भाषा और शैली की दृष्टि से बड़ी आकर्षक हैं। इनमें रस है, मधुरता और उज्ज्वलता है। इनमें सत्य और अहिंसा की शुभ्रता है, धर्म की समंवयबुद्धि है और लेखनी की सतत साधना और प्रेरणा है।

🇮🇳 #महात्मा_गाँधी से प्रभावित होकर हरिभाऊ उपाध्याय ‘भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन’ में कूद पड़े थे। पुरानी अजमेर रियासत में इन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वे अजमेर के मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए थे। हरिभाऊ जी हृदय से ये अत्यंत कोमल थे, लेकिन सिद्धांतों के साथ कोई समझौता नहीं करते थे। राजस्थान की सब रियासतों को मिलाकर राजस्थान राज्य बना और इसके कई वर्षों बाद मोहनलाल सुखाड़िया मुख्यमंत्री बने थे। उन्होंने अत्यंत आग्रहपूर्वक हरिभाऊ उपाध्याय को पहले वित्त फिर शिक्षामंत्री बनाया था। बहुत दिनों तक वे इस पद पर रहे, लेकिन स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण त्यागपत्र दे दिया। हरिभाऊ उपाध्याय कई वर्षों तक राजस्थान की ‘शासकीय साहित्य अकादमी’ के अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने ‘महिला शिक्षा सदन’, हटूँडी (अजमेर) और ‘सस्ता साहित्य मंडल’ की स्थापना की थी।

🇮🇳 हरिभाऊ उपाध्याय  25 अगस्त, 1972 को मृत्यु हो गई ।

🇮🇳 #भारत के प्रसिद्ध #साहित्यकार तथा #स्वतंत्रता आंदोलन के राष्ट्रसेवी #पंडित_हरिभाऊ_उपाध्याय जी को उनकी जयंती पर हार्दिक श्रद्धांजलि !

#Pandit_Haribhau_Upadhyay ji

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल


साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. 


Radhikaraman Prasad Singh | राधिकारमण प्रसाद सिंह | पद्मभूषण तथा साहित्य वाचस्पति की उपाधि से अलंकृत साहित्यकार |




 जब वक्त्त गुजर जाता है तो याद बनती है. किसी बाग की खुशबू निकल जाए तो फूल खिलने की फरियाद आती है. इसी तरह आज साहित्य नगरी #सूर्यपुरा का स्वर्णिम अतीत सिर्फ यादों में सिमटकर रह गया है. साहित्याकाश के दीप्तिमान नक्षत्र राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह का किला आज भले ही रख रखाव के अभाव में खंडहर में तब्दील होने लगा हो परंतु लाहौरी ईट से बना यह किला आज भी राजा साहब की याद को ताजा करता है.

🇮🇳🔰 राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह का जन्म 10 सितम्बर 1890 को तत्कालीन #शाहाबाद जिला के #बिक्रमगंज के #सूर्यपुरा ग्राम के एक कायस्थ परिवार में हुआ था. बड़े जमींदार होने की वजह से अपने नाम के साथ सिंह लगाते थे. इनके पिता #राज_राजेश्वरी_प्रसाद_सिंह हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, बंग्ला, फ़ारसी तथा पश्तो के विद्वान होने के साथ ब्रज भाषा के एक बड़े कवि भी थे. राधिका रमण प्रसाद के पितामह #दीवान_राम_कुमार_सिंह साहित्यक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे और कुमार उपनाम से ब्रज भाषा मे कविताएं लिखा करते थे. ये कहना गलत नही होगा कि राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह को साहित्य विरासत में मिला था.

🇮🇳🔰 उनकी प्राम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई. घर पर ही उन्होंने संस्कृत हिन्दी और अंग्रेजी की प्राम्भिक शिक्षा पूर्ण की. 1903 ई. में पिता के अचानक स्वर्गवास होने पर इनकी रियासत कोर्ट ऑफ वांडर्स के अधीन हो गई. शाहाबाद के कलक्टर के अभिभाकत्व में उन्होंने आरा जिला स्कूल में दाखिला लिया. कुछ ही दिन बाद जिलाधिकारी ने उन्हे कलकत्ता भेज दिया. वही से उन्होने दसवीं की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की. उस समय तक उन्होंने ब्रजभाषा में कविता लिखना शुरू कर दिया था. #बंगभंग_आंदोलन से प्रभावित होने के कारण जिलाधिकारी ने आगरा कॉलेज, आगरा में उनका नाम लिखवा दिया. वहाँ से उन्होने एफ.ए. (इंटरमीडिएट)किया. 1912 ई. में प्रयाग विश्वविद्यालय से बीए का परीक्षा पास किए. उसी समय उनकी प्रथम कहानी कानों में कंगना इन्दु में प्रकाशित हुई. 1914 ई. में कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम.ए. (इतिहास) की परीक्षाएं पास कीं.

🇮🇳🔰 1917 ई. में जब वे बालिग हुए, तब रियासत ‘कोर्ट ऑव वार्ड्स’ के बंधन से मुक्त हुए और वे उसके स्वामी हो गए. सन् 1920 ई. के आसपास अंग्रेजी सरकार ने राधिकारमण प्रसाद सिंह को ‘राजा’ की उपाधि से विभूषित किया. इसी बीच उन्हें बिहार प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया. 1921 ई. में उन्हें शाहाबाद जिला परिषद के डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के प्रथम भारतीय चेयरमैन के रूप में निर्वाचित किया. 28 फरवरी 1927 को उन्होंने जिला बोर्ड के तत्वावधान में #महात्मा_गाँधी का अभिनन्दन किया. 1932 ई. में बिहार हरिजन सेवा संघ के अध्यक्ष बनाए गए. 1941 ई. में उन्हें अग्रेजी सरकार ने सी.आई.ई. की पदवी से विभूषित किया.

🇮🇳🔰 1947 ई. भारतीय स्वंतत्रता के बाद राजा साहब पटना में रहने लगे और साहित्य साधना में लग गए. हिन्दी साहित्य की उल्लेखनीय उपाधि और 1962 ई. में  भारत सरकार ने पद्म भूषण की उपाधि और 1969 ई. में मगध विश्वविद्यालय, बोध गया ने डॉक्टर ऑफ लिटरेचर (डी.लिट्) की मानक उपाधि से सम्मानित किया. 1970 ई में प्रयाग हिन्दी साहित्य सम्मेलन में साहित्यवाचस्पति की उपाधि से अलंकृत किया गया. 24 मार्च 1971 ई. को वो हिन्दी साहित्य की गोद में सदैव के लिए ध्यान मग्न हो गए.

🇮🇳🔰 उनकी रचनाएँ इस प्रकार हैं:-

🔰 नाटक:- (1) ‘नये रिफारमर’ या ‘नवीन सुधारक’ (सन् 1911 ई.), (2) ‘धर्म की धुरी’ (सन् 1952 ई.), (3) ‘अपना पराया’ (सन् 1953 ई.) और (4) ‘नजर बदली बदल गये नजारे’ (सन् 1961 ई.)।

🔰 कहानी संग्रह:- ‘कुसुमांजली’ (सन् 1912 ई.)। लघु उपन्यास:- (1) ‘नवजीवन’ (सन् 1912 ई), (2) ‘तरंग’ (सन् 1920 ई.), (3) ‘माया मिली न राम’ (सन् 1936 ई.), (4) ‘मॉडर्न कौन, सुंदर कौन’ (सन् 1964 ई.), और (5) ‘अपनी-अपनी नजर’, ‘अपनी-अपनी डगर’ (सन् 1966 ई.)।

🔰 उपन्यास:- (1) ‘राम-रहीम’ (सन् 1936 ई.), (2) ‘पुरुष और नारी’ (सन् 1939 ई.), (3) ‘सूरदास’ (सन् 1942 ई.), (4) ‘संस्कार’ (सन् 1944 ई.), (5) ‘पूरब और पश्चिम’ (सन् 1951 ई.), (6) ‘चुंबन और चाँटा’ (सन् 1957 ई.)

🔰 कहानियाँ:- (1) ‘गाँधी टोपी’ (सन् 1938 ई.), (2) ‘सावनी समाँ’ (सन् 1938 ई.), (3) ‘नारी क्या एक पहेली? (सन् 1951 ई.), (4) ‘हवेली और झोपड़ी’ (सन् 1951 ई.), (5) ‘देव और दानव’ (सन् 1951 ई.), (6) ‘वे और हम’ (सन् 1956 ई.), (7) ‘धर्म और मर्म’ (सन् 1959 ई.) (😎 ‘तब और अब’ (सन् 1958 ई.), (9) ‘अबला क्या ऐसी सबला?’ (सन् 1962 ई.), (10) ‘बिखरे मोती’ (भाग-1) (सन् 1965 ई.)।

🔰 संस्मरण:- (1) ‘टूटा तारा’ (1941), (2) ‘बिखरे मोती’ (भाग-2, 3) (1966)।

रिपोर्ट- जयराम

साभार : rohtasdistrict.com

🇮🇳 #पद्मभूषण तथा साहित्य वाचस्पति की उपाधि से अलंकृत; हिंदी के सुप्रसिद्ध #साहित्यकार #राजा_राधिकारमण_प्रसाद_सिंह जी को उनकी पुण्यतिथि पर हार्दिक श्रद्धांजलि !

#Raja_Radhikaman_Prasad_Singh ji

#literateur

#padmabhushan


🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल


साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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23 मार्च 2024

Basanti Devi | स्वतंत्रता आंदोलन की अमर सेनानी बसंती देवी | 23 मार्च 1880 - 7 मई 1974

 





1925 में अपने पति #देशबंधु_चित्तरंजन_दास के देहांत के बाद भी #बसंती_देवी बराबर राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेती रहीं। 🇮🇳

🇮🇳 बसंती देवी (जन्म: 23 मार्च, 1880, कोलकाता; मृत्यु: 7 मई 1974) भारत की स्वतंत्रता सेनानी और बंगाल के प्रसिद्ध नेता #चित्तरंजन_दास की पत्नी थीं। राष्ट्रपिता #महात्मा_गाँधी द्वारा आरंभ किए गये #असहयोग_आंदोलन में भी ये सम्मिलित हुईं। लोगों में #खादी का प्रचार करने के अभियोग में इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था।

🇮🇳 बंगाल के प्रसिद्ध नेता चित्तरंजन दास की पत्नी बसंती देवी का जन्म 23 मार्च, 1880 ई. को #कोलकाता (पूर्व नाम कलकत्ता) में हुआ। बचपन में ये अपने पिता के साथ #असम में रहती थीं तथा आगे की शिक्षा के लिए कोलकाता आ गईं। यहीं 1897 में इनका बैरिस्टर चित्तरंजन दास के साथ विवाह हुआ।

🇮🇳 बसंती देवी भी स्वतंत्रता सेनानी थीं, जब 1917 में चित्तरंजन दास राजनीति में कूद पड़े तो बसंती देवी ने भी पूरी तरह से उनका साथ दिया। गाँधी जी द्वारा आरंभ किए गये 'असहयोग आंदोलन' में ये सम्मिलित हुईं। इनके द्वारा लोगों में खादी का प्रचार करने के अभियोग में इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और इसके बाद ही 1921 में इनके पति और पुत्र भी पकड़ लिये गये। लोगों में खादी के प्रचार के अभियोग में बसंती देवी की गिरफ्तारी का लोगों ने बहुत विरोध किया। देश के अनेक प्रमुख बैरिस्टरों ने भी इसके विरोध में आवाज़ उठाई औ #बसंती_देवी जी र मामला वाइसराय तक ले गए। जहाँ इसके बाद सरकार ने इन्हें रिहा कर दिया।

🇮🇳 जेल से बाहर आने पर भी बसंती देवी ने विदेशी शासन का विरोध जारी रखा। ये देश के विभिन्न स्थानों में गईं और लोगों को चित्तरंजन दास के राजनीतिक विचारों से परिचित कराया। 1922 में चित्तरंजन दास, #मौलाना_अबुल_कलाम_आज़ाद, #सुभाष_चंद्र_बोस आदि गिरफ्तार कर लिए गए। चित्तरंजन दास को चटगाँव राजनीतिक सम्मेलन की अध्यक्षता करनी थीं। परंतु उनकी गिरफ्तारी पर बसंती देवी ने स्वयं इस सम्मेलन की अध्यक्षता की।

🇮🇳 1925 में देशबंधु चित्तरंजन दास का देहांत हो गया। इसके बाद भी बसंती देवी बराबर राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेती रहीं और 1974 में इनका देहांत हो गया।

साभार: bharatdiscovery.org

🇮🇳 #पद्मविभूषण से सम्मानित; भारत के #स्वतंत्रता आंदोलन की अमर सेनानी #बसंती_देवी जी को उनकी जयंती पर कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि !

#Basanti_devi ji

🇮🇳💐🙏

🇮🇳 वन्दे मातरम् 🇮🇳

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल


साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. 



Dr. Ram Manohar Lohia | डॉ. राम मनोहर लोहिया | 23 March 1910 – 12 October 1967

 




किसी देश का उत्थान जनता की चेतना और राजनीतिक जागरूकता पर निर्भर करता है। 🇮🇳 

🇮🇳 आज देश के महानायक भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और डॉ. राम मनोहर लोहिया को एक साथ याद करने का दिन है। 23 मार्च को जहाँ भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु के बलिदान का दिन है तो वहीं महान समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया की जयंती भी है।

🇮🇳 डॉ. लोहिया एक ऐसे चिंतक और नेता थे, जिन्होंने अपने जन्मदिन को बलिदान दिवस (शहीदी दिवस) को समर्पित कर दिया। वे कहते थे कि यह जन्मदिन से अधिक अपने महानायकों को याद करने का दिन है, जो बहुत कम उम्र में बलिदान देकर समाज को एक बड़ा सपना दे गया। ऐसे बलिदान समाज में एक नई सोच और सपने देखने के नजरिए को प्रतिफलित करती हैं, उस सपने को आगे बढ़ाने का दिन है।

🇮🇳 उन्होंने भगत सिंह और उनके साथियों के बलिदानों के बाद खुद का जन्मदिन मनाने से इनकार कर दिया और अपने समाजवादी साथियों से यह अपील की कि वह भी उसे न मनाएं । अगर कोई उनसे जन्मदिन मनाने का आग्रह करता तो वह स्पष्ट रूप से कहते थे कि भगत सिंह और उनके साथियों के बलिदानों को याद करना चाहिए और इस दिन को हमें बलिदान दिवस के रूप में मनाना चाहिए।

🇮🇳 इतने कम उम्र में भगत सिंह जितना लिख गए और पढ़ गए वह अद्भुत है। उनकी लेखनी में समाज के हाशिए पर खड़े लोगों की झलक दिखती है। आज हमारे समाज को भगत सिंह और डॉ. राम मनोहर लोहिया के त्याग, विचार और संदेश को आत्मसात करने की जरूरत है।

डॉ. लोहिया और भगत सिंह की कार्य प्रणाली, व्यक्तित्व, सोच एवं जीवन दर्शन में कई समानताएं देखने को मिलती हैं। दोनों का लक्ष्य था कि एक ऐसे समाज की स्थापना की जाए, जिसमें शोषण न हो, भेदभाव न हो, असमानता न हो, किसी प्रकार का अप्राकृतिक अथवा अमानवीय विभेद न हो। अर्थात समतामूलक समाजवादी समाज की स्थापना की जाए।

🇮🇳 दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि समाज में व्यक्ति-व्यक्ति के बीच कोई भेद एवं कोई दीवार न हो, न ही जाति का बंधन हो और न ही धर्म की बंदिशें हो, सभी जन एक समान हों और सब जन का मंगल हो।

🇮🇳 वहीं मौजूदा हालात ऐसे हैं, जिसमें सभी का मंगल बाधित होता दिख रहा है। देश में बढ़ती बेरोजगारी, महँगाई, छात्र-छात्राओं में हताशा की किरणें और आए दिन राजनीतिक परिदृश्य में परिवर्तन इस ओर इशारा करती हैं कि राम मनोहर लोहिया की समाजवादी विचारधारा आज भी प्रासंगिक है।

उन्होंने कहा था कि-

जो लोग ये कहते हैं कि राजनीति को रोजी-रोटी की समस्या से अलग रखो तो यह कहना उनकी अज्ञानता है या बेईमानी है। राजनीति का अर्थ और प्रमुख उद्देश्य लोगों का पेट भरना है। जिस राजनीति से लोगों को रोटी नहीं मिलती, उनका पेट नहीं भरता वह राजनीति भ्रष्ट, पापी और नीच राजनीति है।’ अर्थात राजनीति को हम दरकिनार करके समाज के विकास या समतामूलक समाज की स्थापना की बात नहीं कर सकते हैं। क्योंकि राजनीति भी हमारे समाज का ही हिस्सा है।

🇮🇳 राजनीति में शुचिता और पारदर्शिता डॉ. लोहिया की पहली शर्त थी, लेकिन राजनीति का बदलता स्वरूप समाज की प्राथमिकता को कम कर रहा है। समाज से सीधा संवाद नहीं हो रहा है। यहाँ पर संवाद की प्रक्रिया में ओपिनियन लीडर की भूमिका अहम हो गई है, जो राजनीतिक पार्टियों के द्वारा तय किए गए मुद्दों पर केंद्रित होता दिख रहा है।

🇮🇳 जहाँ समाज की भूमिका कम हो जाती है और राजनीति धीरे-धीरे रोजी-रोटी की समस्या से दूर होने लगती है। वहीं वोट की राजनीति पर अधिक केंद्रित हो जाती है। जबकि किसी देश का उत्थान जनता की चेतना और राजनीतिक जागरूकता पर निर्भर करता है।

🇮🇳 डॉ. लोहिया समाज के अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति के लोकतांत्रिक अधिकारों की बात करते थे। उन्होंने कहा कि आर्थिक गैर बराबरी जाति-पाति राक्षस हैं और अगर एक से लड़ना है तो दूसरे से भी लड़ना जरूरी है। जाति समाज में असमानता को उत्पन्न करती है। जाति प्रथा के कारण ही समाज के निम्न वर्ग के लोग शोषण का शिकार होते हैं और उन्हें उन्नति के अवसरों से दूर कर देती है।

🇮🇳 यही असमानता मानव विकास की यात्रा में बढ़ती दिख रही है। इसके लिए जाति भेदभाव को खत्म करने की आवश्यकता है और यह आर्थिक बराबरी होने पर ही खत्म हो सकती है। इसलिए समाज को बराबरी और समतामूलक बनाने के लिए इनसे छुटकारा पाना होगा। वे आजीवन समाजवादी विचारों के समरूप समानता स्थापित करने लिए संघर्षरत रहे।

🇮🇳 वह देश के उन तमाम लोगों की आवाज थे, जिनकी आवाज संसद तक नहीं पहुँचती थी। उन सभी की आवाज को उन्होंने संसद तक पहुंचाया। आज भी हमें याद है कि कैसे राम मनोहर लोहिया ने संसद में एक आम आदमी के रोज के खर्चे से हजारों गुना अधिक बताते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री पर तीखा हमला किया था।

🇮🇳 उन्होंने एक आम आदमी की आमदनी की पीड़ा को प्रधानमंत्री के समक्ष रखा। उन्होंने कहा था-

जो आबादी का 27 करोड़ है, वह तीन आना प्रतिदिन पर जीवनयापन कर रहे हैं। वहीं प्रधानमंत्री के कुत्ते पर प्रतिदिन तीन रुपये का खर्च किया जाता है। जबकि प्रधानमंत्री पर प्रतिदिन 25 से 30 हजार रुपये खर्च होता है। उन्होंने संसद में जनता की समस्याओं को तर्कों के साथ रखने की एक अलग पहचान को साबित किया। 

🇮🇳 आज भी डॉ. लोहिया के विचारों से सीखने की जरूरत है कि कैसे विपक्ष की भूमिका में रहकर जनता के सवालों को पूरे जोरदार तरीके से रखा जाए। यह बातें सिर्फ लोहिया के भाषण के रूप में नहीं है, बल्कि वर्तमान राजनीतिक पार्टियों के लिए सीखने और आत्मसात करने की जरूरत है। उनके कालखंड में जितने भी विपक्षी नेता हुए, उन सब में एक नैतिक बल की दृष्टि थी, जिसका आज के विपक्षी नेताओं में अभाव दिख रहा है।

🇮🇳 वे जीवन के अंतिम वर्षों में राजनीति के अलावा साहित्य एवं कला पर युवाओं से संवाद करते रहे। उन्होंने कहा था कि ‘जिंदा कौमें पाँच साल इंतजार नहीं करतीं।’ डॉ. लोहिया जीवन के अंतिम क्षण तक कौम के बारे में सोचते रहते थे, लेकिन अब यह दिखाई नहीं देता।

🇮🇳 आज के नेता सिर्फ व सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं, जिससे परिवारवाद का भी आरोप लगता रहा है। भारतीय राजनीति में डॉ. लोहिया की आज भी जरूरत है। उनका विचार और समतामूलक समाज की अवधारणा भारतीय संदर्भों में देश का भविष्य सुनिश्चित कर सकता है।

साभार : amarujala.com

🇮🇳 समतामूलक समाज की अवधारणा को आगे बढ़ाने वाले, समाजवाद के जनक, भारतीय #स्वतंत्रता आंदोलन के सेनानी #राममनोहर_लोहिया जी को उनकी जयंती पर कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि !

#RamManohar_Lohia ji

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल


साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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| स्वतंत्रता सेनानी सुहासिनी गांगुली | जन्म- 3 फ़रवरी, 1909; मृत्यु- 23 मार्च, 1965





 #क्रांतिकारी_वीरांगना भारत की लड़ाई में पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं ने भी कंधे से कंधा मिलाकर अपना योगदान दिया। इसमें से कई महिलाओं ने जहाँ #महात्मा_गाँधी के अहिंसा का मार्ग अपनाया तो वहीं कई महिलाओं ने #चंद्रशेखर_आजाद और #भगत_सिंह जैसे क्रांतिकारियों के मार्ग को अपनाया। ऐसे ही महान महिला स्वतंत्रता सेनानियों में #सुहासिनी गांगुली का नाम प्रमुख है जिन्होंने बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियों में अपना सक्रिय योगदान दिया ।

🇮🇳 सुहासिनी गांगुली का जन्म 3 फरवरी 1909 को तत्कालीन बंगाल के #खुलना में हुआ था।

🇮🇳 अपनी शिक्षा पूरी करने के उपरांत उन्होंने #कोलकाता में एक मूक बधिर बच्चों के स्कूल में नौकरी करना शुरू किया जहाँ पर वह क्रांतिकारियों के संपर्क में आई।

🇮🇳 उल्लेखनीय है कि उन दिनों बंगाल में ‘छात्री संघा’ नाम का एक महिला क्रांतिकारी संगठन कार्यरत था जिसकी कमान #कमला_दासगुप्ता के हाथों में थी। उल्लेखनीय है कि इसी संगठन से #प्रीति_लता_वादेदार और #बीना_दास जैसी वीरांगनायें जुड़ी हुई थी।

🇮🇳 खुलना के क्रांतिकारी #रसिक_लाल_दास और क्रांतिकारी #हेमंत_तरफदार के संपर्क में आने से सुहासिनी गांगुली क्रांतिकारी गतिविधियों की ओर प्रेरित हुई और जल्द ही #युगांतर_पार्टी से जुड़ गई।

🇮🇳 सन 1930 के #चटगाँव_शस्त्रागार_कांड के उपरांत #छात्री_संघा के साथ-साथ अन्य क्रांतिकारी साथियों समेत सुहासिनी गांगुली पर भी निगरानी बढ़ गई। इसके उपरांत वह चंद्रनगर आ गई एवं क्रांतिकारी #शशिधर_आचार्य की छद्म धर्मपत्नी के तौर पर रहने लगीं।

🇮🇳 चंद्रनगर में रहते हुए सुहासिनी गांगुली ने क्रांतिकारियों को मदद करने में वही किरदार निभाया जैसा #दुर्गा_भाभी ने भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू समेत अन्य क्रांतिकारियों की मदद करने के लिए निभाया था।

🇮🇳 इन्होंने पर्दे के पीछे से क्रांतिकारी गतिविधियों के संचालन हेतु अपने घर को ना केवल प्रमुख स्थल बनाया बल्कि उस दौर के सभी क्रांतिकारियों को जरूरत पड़ने पर आश्रय भी प्रदान किया।

🇮🇳 वर्ष 1930 में एक दिन पुलिस के साथ हुई आमने-सामने की मुठभेड़ में #जीवन_घोषाल जहाँ बलिदान हो गए वहीं शशिधर आचार्य और सुहासिनी को गिरफ्तार करके उन्हें #हिजली डिटेंशन कैम्प में रखा गया। आगे चलकर यही हिजली डिटेंशन कैम्प खड़गपुर आईआईटी का कैम्पस बना।

🇮🇳 1938 में रिहा होने के उपरांत इन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी को ज्वाइन किया। यद्यपि 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में कम्युनिस्ट पार्टी के द्वारा इस आंदोलन का बहिष्कार किया गया फिर भी इन्होंने आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाते हुए क्रांतिकारियों की लगातार मदद की।

🇮🇳 प्रसिद्ध क्रांतिकारी #हेमंत_तरफदार की सहायता के कारण इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया एवं इन्हें पुनः 1945 में रिहा किया गया। रिहा होने के उपरांत वह हेमंत तरफदार द्वारा निवास कर रहे धनबाद के एक आश्रम में रहने लगी।

🇮🇳 अन्य तात्कालिक स्वतंत्रता सेनानियों के विपरीत इन्होंने राजनीति का त्याग करते हुए आजादी के बाद अपना सारा जीवन सामाजिक, आध्यात्मिक कार्यों हेतु समर्पित कर दिया।

🇮🇳 मार्च 1965 में यह एक सड़क दुर्घटना की शिकार हो गई एवं इलाज के दौरान चिकित्सीय लापरवाही से बैक्टीरियल इंफेक्शन के कारण इनकी मृत्यु 23 मार्च 1965 को हो गई।

साभार: dhyeyaias.com

🇮🇳 भारत के स्वाधीनता संघर्ष की #स्वतंत्रता सेनानी, #क्रांतिकारी #वीरांगना #सुहासिनी_गांगुली जी को उनकी पुण्यतिथि पर कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से शत् शत् नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि !

#Revolutionary  #Suhasini_Ganguly ji

🇮🇳💐🙏

🇮🇳 वन्दे मातरम् 🇮🇳

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल


साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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Lala Ram Thakur | VICTORIA CROSS WINNER | लांस नायक लाला राम | जन्म- 20 अप्रैल, 1876, हिमाचल प्रदेश; मृत्यु- 23 मार्च, 1927

 



#भारतीयता_की_पहचान_को_कायम_रखने_वाले_नायक

लांस नायक लाला राम (जन्म- 20 अप्रैल, 1876, हिमाचल प्रदेश; मृत्यु- 23 मार्च, 1927) भारतीय थल सेना के 41वें डोगरा में लांस नाईक थे। उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अहम भूमिका निभाई थी। उन्होंने मेसोपोटामिया (मौजूदा इराक) में हन्ना के युद्ध में 21 जनवरी, 1916 को बहादुरी की मिसाल कायम की, जिसके लिए उनको "विक्टोरिया क्रॉस" से सम्मानित किया गया।

🇮🇳 लांस नायक लाला राम ने एक ब्रिटिश ऑफिसर को दुश्मन के करीब जमीन पर बेसुध पाया। वह ऑफिसर दूसरी रेजिमेंट का था।

लाला राम उस ऑफिसर को एक अस्थायी शरण में ले आए, जिसे उन्होंने खुद बनाया था। उसमें वह पहले भी चार लोगों की मरहम-पट्टी कर चुके थे।

🇮🇳 जब उस अधिकारी के जख्म की मरहम-पट्टी कर दी तो उनको अपनी रेजिमेंट के एजुटेंट की आवाज सुनाई दी। एजुटेंट बुरी तरह जख्मी थे और जमीन पर पड़े थे।

लाला राम ने एजुटेंट को अकेले नहीं छोड़ने का फैसला किया। उन्होंने अपने पीठ पर लादकर एजुटेंट को ले जाना चाहा, लेकिन एजुटेंट ने मना कर दिया।

🇮🇳 उसके बाद वह शेल्टर में आ गए और अपने कपड़े उतारकर जख्मी अधिकारी को गर्म रखने की कोशिश की और अंधेरा होने तक उसके साथ रहे।

🇮🇳 जब वह अधिकारी अपने शेल्टर में चला गया तो उन्होंने पहले वाले जख्मी अधिकारी को मुख्य खंदक में पहुँचाया। इसके बाद वह एक स्ट्रेचर लेकर गए और अपने एजुटेंट को वापस लाए।

🇮🇳 उन्होंने अपने अधिकारियों के लिए साहस और समर्पण की अनोखी मिसाल कायम की।

🇮🇳 लाला राम का 23 मार्च, 1927 में निधन हो गया और उनके अंतिम शब्द थे- "हमने सच्चे दिल से लड़ा।"

साभार: bharatdiscovery.org

🇮🇳 विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित; प्रथम विश्व युद्ध के दौरान मेसोपोटामिया (मौजूदा इराक) में हन्ना के युद्ध में 21 जनवरी, 1916 को बहादुरी की मिसाल कायम करने वाले भारतीय थल सेना के 41वें डोगरा के सैनिक #लांस_नायक_लाला_राम जी को उनकी पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि !

#Lance_Nayak_Lala_Ram ji

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल


साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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Brigadier Rai Singh Yadav | ब्रिगेडियर राय सिंह यादव | टाइगर ऑफ नाथू ला | 17 मार्च 1925 -23 मार्च, 2017

 


#नाथू_ला_का_बाघ

लेफ्टिनेंट कर्नल राय सिंह यादव को भारतीय सेना में 'टाइगर ऑफ नाथू ला' के नाम से याद किया जाता है। उन्होंने संगीनों और राइफल बटों के साथ आमने-सामने की लड़ाई में आगे रहकर अपने लोगों का नेतृत्व किया। 🇮🇳

🇮🇳 राय सिंह यादव का जन्म 17 मार्च 1925 को पंजाब प्रांत (अब हरियाणा के रेवाड़ी जिले) के #गुड़गाँव जिले के #कोसली गाँव में हुआ था। उनके पिता #रायसाहब_गणपत_सिंह थे जिन्होंने 1920 के दशक में ब्रिटिश भारतीय सेना में सेवा की थी। राय सिंह ने अपनी सीनियर कैम्ब्रिज किंग जॉर्ज मिलिट्री स्कूल, जुलुंदुर से उत्तीर्ण की। वह 1944 में एक सिपाही के रूप में सेना में शामिल हुए। उन्हें 10 दिसंबर 1950 को 2 ग्रेनेडियर्स में नियुक्त किया गया था। उनका दिमाग विश्लेषणात्मक था और सेवा के आरंभ में ही वे सैन्य रणनीति और रणनीति में निपुण हो गए थे। उन्हें यूके के कैम्बरली में प्रतिष्ठित डिफेंस सर्विसेज स्टाफ कॉलेज में भाग लेने के लिए नामांकित किया गया था।   

🇮🇳 1962 में झटके के बाद, किसी भी चीनी हमले के खिलाफ भारत की उत्तरी सीमाओं की रक्षा के लिए सात पर्वतीय डिवीजनों को खड़ा किया गया था। नाथू ला डोंगक्या रेंज पर एक पहाड़ी दर्रा है जो 14,250 फीट (4,340 मीटर) की ऊंचाई पर सिक्किम और तिब्बत की चुम्बी घाटी को अलग करता है। सिक्किम के नाथू ला दर्रे पर, तैनात चीनी और भारतीय सेनाएँ लगभग 20-30 मीटर की दूरी पर तैनात थीं। क्षेत्र में छोटे पैमाने पर झड़पें अक्सर होती रहीं। लेफ्टिनेंट कर्नल राय सिंह ने नाथू ला सीमा चौकी की सुरक्षा करने वाले 2 ग्रेनेडियर्स की कमान संभाली। 

🇮🇳 20 अगस्त 1967 को, लेफ्टिनेंट कर्नल राय सिंह यादव को उत्तरी कंधे पर पहली चीनी घुसपैठ के बाद नाथू ला में जल शेड के साथ तार की बाड़ बनाने का आदेश दिया गया था। चीनी राजनीतिक कमिश्नर रेन रोंग, पैदल सेना की एक टुकड़ी के साथ, दर्रे के केंद्र में आये जहाँ लेफ्टिनेंट कर्नल राय सिंह यादव अपनी कमांडो पलटन के साथ खड़े थे। रोंग ने यादव से तार बिछाना बंद करने को कहा। भारतीय सैनिकों ने रुकने से इनकार कर दिया. चीनियों ने भारतीय सैनिकों पर मशीनगनों से गोलीबारी कर जवाब दिया। दर्रे में कवर की कमी के कारण शुरुआत में भारतीय सैनिकों को भारी क्षति उठानी पड़ी। बाद में चीनियों ने भी भारतीयों पर तोपखाने से गोलियाँ चलायीं। 

🇮🇳 भारतीय सैनिकों ने अपनी ओर से तोपखाने से जवाब दिया। झड़प दिन-रात चलती रही, अगले तीन दिनों तक दोनों पक्षों ने तोपखाने से गोलाबारी की। भारतीय सैनिक चीनी सेना को 'पीटने' में कामयाब रहे। दुश्मन के गंभीर प्रतिरोध के बावजूद, यादव बाड़ लगाने का काम सफलतापूर्वक पूरा करने में कामयाब रहे। 

🇮🇳 7 सितंबर 1967 को, उन्हें उत्तरी कंधे से दक्षिण कंधे तक बाड़ का विस्तार करने का आदेश दिया गया था। चीनियों ने गोलीबारी शुरू कर दी, संगीनों और राइफल बटों का भी इस्तेमाल किया। 11 सितंबर को बाड़ को मजबूत करने का काम करते समय चीनियों ने मोर्टार और रिकॉइललेस गन से हमला कर दिया। उन्होंने अपनी यूनिट को सभी उपलब्ध हथियारों के साथ जवाबी गोलीबारी करने का आदेश दिया, और अपने लोगों को सुरक्षा में वापस लाने के लिए कवर फायर देने के लिए व्यक्तिगत रूप से एक लाइट मशीन गन (एलएमजी) से गोलीबारी की। 

🇮🇳 जब उनका खुद का बंकर क्षतिग्रस्त हो गया, तो वह खुले में आये, एक घायल सैनिक का हथियार उठाया और चीनियों पर गोलीबारी करते रहे। बाद में उन्होंने ब्राउनिंग मशीन गन का संचालन किया जब इसके ऑपरेटर की मौत हो गई। लेकिन बाद में उनके पेट में गोली लगी और वह मौके पर ही गिर पड़े. उसके सिर पर भी छर्रे से वार किया गया। कुछ समय बाद, जब उन्हें होश आया, तो उन्होंने हिलने से इनकार कर दिया और अपने गंभीर घावों की परवाह किए बिना, उन्होंने निर्देश देना जारी रखा और अपने सैनिकों को लड़ते रहने के लिए प्रोत्साहित किया। 

🇮🇳 लेफ्टिनेंट कर्नल राय सिंह यादव को भारतीय सेना में 'टाइगर ऑफ नाथू ला' के नाम से याद किया जाता है। उन्होंने संगीनों और राइफल बटों के साथ आमने-सामने की लड़ाई में सामने से अपने लोगों का नेतृत्व किया और इस प्रकार दुश्मन के सामने विशिष्ट बहादुरी और असाधारण नेतृत्व का प्रदर्शन किया। इसके लिए उन्हें महावीर चक्र (एमवीसी) से सम्मानित किया गया।

🇮🇳 लेफ्टिनेंट कर्नल राय सिंह (एमवीसी), सेना मुख्यालय, नई दिल्ली में सैन्य संचालन निदेशालय में जनरल स्टाफ ऑफिसर ग्रेड 1 के रूप में तैनात थे। बाद में, उन्हें ब्रिगेडियर के पद पर पदोन्नत किया गया और एक इन्फैंट्री ब्रिगेड की कमान सौंपी गई। उन्होंने प्रतिनियुक्ति पर सीमा सुरक्षा बल में महानिरीक्षक (संचालन) के रूप में भी कार्य किया। 23 मार्च, 2017 को उन्होंने अंतिम साँस ली।

साभार: oneindiaonepeople.com

🇮🇳 युद्ध क्षेत्र में विशिष्ट बहादुरी और असाधारण नेतृत्व के लिए महावीर चक्र (एमवीसी) से सम्मानित; #ब्रिगेडियर_राय_सिंह_यादव जी को उनकी पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि !

#Brigadier_Rai_Singh_Yadav

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल


साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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Sardar Bhagat Singh | स्वतंत्रता सेनानी एवं क्रान्तिकारी | सरदार भगत सिंह | जन्म: 28 सितम्बर 1907 , वीरगति: 23 मार्च 1931



#क्रांतिकारी_बलिदानियों_का_देश_के_लिए_स्वप्न_कब_पूरा_होगा ???

भगत सिंह (जन्म: 28 सितम्बर 1907 , वीरगति: 23 मार्च 1931) भारत के एक महान स्वतंत्रता सेनानी एवं क्रान्तिकारी थे।

28 सितंबर 1907 को लायलपुर, पश्चिमी पंजाब, भारत (वर्तमान पाकिस्तान) में एक सिख परिवार में जन्मे भगत सिंह, किशन सिंह संधू और विद्या वती के बेटे थे। सात भाई-बहनों में भगत सिंह दूसरे नंबर पर थे उनके दादा अर्जन सिंह, पिता किशन सिंह और चाचा अजीत सिंह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल थे।

भगत सिंह ने अपनी 5वीं तक की पढाई गांव में की और उसके बाद उनके पिता किशन सिंह ने दयानंद एंग्लो वैदिक हाई स्कूल, लाहौर में उनका दाखिला करवाया। बहुत ही छोटी उम्र में भगत सिंह, #महात्मा गांधी जी के असहयोग आन्दोलन से जुड़ गए और बहुत ही बहादुरी से उन्होंने ब्रिटिश सेना को ललकारा।

महज़ 24 साल की उम्र में #ब्रिटिश सरकार ने सरदार भगत सिंह को फांसी पर चढ़ा दिया था. उन पर #लाहौर षडयंत्र केस में शामिल होने का आरोप था. #भगत सिंह के साथ #राजगुरु और #सुखदेव #Bhagat_Singh, #Rajguru and #Sukhdev को भी सज़ा-ए-मौत दी गई थी

भगत सिंह जिस तस्वीर को अपनी जेब में रखते थे वह किसी बाबा की फोटो नहीं थी वो एक 19 साल के नौजवान #करतार सिंह सराभा की फोटो थी जिसे भगत सिंह अपना आदर्श, अपना गुरु मानते थे. #पंजाब के लुधियाना जिले के सराभा गांव में 24 मई, 1896 को जन्म करतार सिंह सराभा को अंग्रेजों ने महज 19 साल की उम्र में ही #फांसी दे दी थी.

सामाजिक प्रगति कुछ लोगों के अभिजात-वर्ग बनने पर नहीं बल्कि लोकतंत्र के संवर्धन पर निर्भर करती है; सार्वभौमिक भाईचारा केवल तब प्राप्त किया जा सकता है जब सामाजिक, राजनीतिक और व्यक्तिगत जीवन में अवसर की एक समानता होती है। 🔴🇮🇳

जय भारत !

~ सरदार भगत सिंह की डायरी से

मानवता को समर्पित दूरदृष्टा चिंतक, देशभक्ति से ओतप्रोत माँ भारती के सच्चे सपूत अमर बलिदानी #सरदार_भगत_सिंह जी को शत् शत् नमन !

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल


साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. 

Balidan diwas | बलिदान-दिवस | भगतसिंह, सुखदेव व राजगुरू | 23 मार्च, 1931



#बलिदान_दिवस

सरदार भगत सिंह 🇮🇳

🇮🇳 अमर हुतात्मा #सरदार_भगतसिंह का जन्म- 27 सितंबर, 1907 को बंगा, लायलपुर, पंजाब (अब पाकिस्तान में) हुआ था व 23 मार्च, 1931 को इन्हें दो अन्य साथियों सुखदेव व राजगुरू के साथ फाँसी दे दी गई। भगतसिंह का नाम भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अविस्मरणीय है। भगतसिंह देश के लिये जीये और देश ही के लिए बलिदान भी हो गए।

🇮🇳 राजगुरु 🇮🇳

🇮🇳 24 अगस्त, 1908 को पुणे ज़िले के खेड़ा गाँव (जिसका नाम अब 'राजगुरु नगर' हो गया है) में पैदा हुए अमर हुतात्मा #राजगुरु का पूरा नाम 'शिवराम हरि राजगुरु' था। आपके पिता का नाम 'श्री हरि नारायण' और माता का नाम 'पार्वती बाई' था। भगत सिंह और सुखदेव के साथ ही राजगुरु को भी 23 मार्च 1931 को फाँसी दी गई थी।

राजगुरु 'स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं उसे हासिल करके रहूँगा' का उद्घोष करने वाले लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से अत्यधिक प्रभावित थे।

🇮🇳 सुखदेव 🇮🇳

🇮🇳 अमर हुतात्मा #सुखदेव का जन्म 15 मई, 1907, पंजाब में हुआ था। 23 मार्च, 1931 को सेंट्रल जेल, लाहौर में भगतसिंह व राजगुरू के साथ इन्हें भी फाँसी दे दी गई। सुखदेव का नाम भारत के अमर क्रांतिकारियों और बलिदानियों में गिना जाता है। आपने अल्पायु में ही देश के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। सुखदेव का पूरा नाम 'सुखदेव थापर' था। इनका नाम भगत सिंह और राजगुरु के साथ जोड़ा जाता है।   

🇮🇳 इन तीनों अमर बलिदानियों की तिकड़ी भारत के इतिहास में सदैव याद रखी जाएगी। तीनों देशभक्त क्रांतिकारी आपस में अच्छे मित्र थे और देश की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वत्र न्यौछावर कर देने वालों में से थे। 23 मार्च, 1931 को भारत के इन तीनों वीर नौजवानों को एक साथ फ़ाँसी दी गई और 23 मार्च को बलिदान-दिवस के रूप में याद किया जाता है।

सभी राष्ट्रभक्तों की ओर से अमर हुतात्माओं को कोटि-कोटि नमन !

#Sukhdev #Rajgurusardar #BhagatSingh

🇮🇳💐🙏

भारत माता की जय 🇮🇳

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल


साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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Sardar Bhagat Singh | क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह | Sardar Kultar Singh | क्रांतिकारी सरदार कुलतार सिंह

 



वर्ष 1975 में अपने विद्यालय #गीता_विद्या_मंदिर, #सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) के #वार्षिकोत्सव में मुझे शहीद-ए-आज़म सरदार भगत सिंह के अनुज #सरदार_कुलतार_सिंह (जो समारोह के मुख्य अतिथि थे) का स्वागत करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था !

~ चन्द्र कांत 

🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳

अपने छोटे भाई कुलतार के नाम सरदार भगत सिंह का अन्तिम पत्र :

सेंट्रल जेल, लाहौर,

3 मार्च, 1931

अजीज कुलतार,

आज तुम्हारी आँखों में आँसू देखकर बहुत दुख हुआ। आज तुम्हारी बातों में बहुत दर्द था, तुम्हारे आँसू मुझसे सहन नहीं होते।

बरखुर्दार, हिम्मत से शिक्षा प्राप्त करना और सेहत का ख्याल रखना। हौसला रखना और क्या कहूँ!

उसे यह फ़िक्र है हरदम नया तर्ज़े-ज़फा क्या है,

हमे यह शौक़ है देखें सितम की इन्तहा क्या है।

दहर से क्यों खफ़ा रहें, चर्ख़ का क्यों गिला करें,

सारा जहाँ अदू सही, आओ मुकाबला करें।

कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहले-महफ़िल,

चराग़े-सहर हूँ बुझा चाहता हूँ।

हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली,

ये मुश्ते-ख़ाक है फानी, रहे रहे न रहे।

अच्छा रुख़सत। खुश रहो अहले-वतन; हम तो सफ़र करते हैं। हिम्मत से रहना। नमस्ते।

तुम्हारा भाई,

भगतसिंह

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🇮🇳 भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर क्रांतिकारी #सरदार_भगत_सिंह जी और उनके अनुज क्रांतिकारी #सरदार_कुलतार_सिंह जी को भावभीनी श्रद्धांजलि !

#Sardar_Bhagat_Singh ji and his younger brothers revolutionary #Sardar_Kultar_Singh ji

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व 

#आजादी_का_अमृतकाल


साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. 

22 मार्च 2024

Suryasen | सूर्यसेन | Revolutionary | द हीरो ऑफ चटगांव क्रांति | 22 मार्च, 1894 -12 जनवरी, 1934

 


फाँसी के ऐन वक्त पहले उनके हाथों के नाखून उखाड़ लिए गए। उनके दाँतों को तोड़ दिया गया, ताकि अपनी अंतिम साँस तक वे वंदेमातरम् का उद्घोष न कर सकें। 🇮🇳

🇮🇳 ब्रितानी हुकूमत की क्रूरता और अपमान की पराकाष्ठा यह थी कि उनकी मृत देह को भी धातु के बक्से में बंद करके बंगाल की खाड़ी में फेंक दिया गया। 🇮🇳

🇮🇳 मेरे लिए यह वह पल है, जब मैं मृत्यु को अपने परम मित्र के रूप में अंगीकार करूँ। इस सौभाग्यशील, पवित्र और निर्णायक पल में, मैं तुम सबके लिए क्या छोड़ कर जा रहा हूँ? सिर्फ एक चीज - मेरा स्वप्न, मेरा सुनहरा स्वप्न, #स्वतंत्र #भारत का स्वप्न। 🇮🇳

🇮🇳 हमारे देश को आजादी यों ही नसीब नहीं हुई है। भारत की स्वाधीनता की पृष्ठभूमि में कई महान क्रांतिकारियों ने अपने देश की आजादी की खातिर खून के कड़वे घूँट पीये हैं। ऐसे ही एक महान देशभक्त क्रांतिकारी थे सूर्यसेन। जिन्हें अंग्रेजों ने #मरते दम तक असहनीय यातनाएं दी थीं। अविभाजित बंगाल के #चटगॉंव (चिट्टागोंग, अब बांग्लादेश में) में स्वाधीनता आंदोलन के अमर नायक बने सूर्यसेन उर्फ सुरज्या सेन का जन्म 22 मार्च, 1894 को हुआ था। क्रांतिकारी एवं स्वतंत्रता सेनानी सूर्यसेन को द हीरो ऑफ चिट्टागोंग के नाम से भी जाना जाता है। 

🇮🇳 अंग्रेजी हुकूमत क्रांतिकारी सूर्य सेन से इतना खौफ खाती थी कि उन्हें बेहोशी की हालत में फाँसी पर चढ़ाया गया था। अंग्रेजों के जुल्म ही दास्तां सिर्फ इतनी ही नहीं है। ब्रितानी तानाशाही की अमानवीय बर्बरता और क्रूरता की हद तब देखी गई जब सूर्यसेन को फाँसी के फंदे पर लटकाया जा रहा था। फाँसी के ऐन वक्त पहले उनके हाथों के नाखून उखाड़ लिए गए। उनके दाँतों को तोड़ दिया गया, ताकि अपनी अंतिम साँस तक वे वंदेमातरम का उदघोष न कर सकें। सूर्यसेन के संघर्ष की बानगी पढ़कर ही रूह काँप उठती है। लेकिन उन्होंने यह सब #मातृभूमि के लिए हँसते हुए झेला था। 

🇮🇳 पेशे से शिक्षक रहे बंगाल के इस नायक को लोग सूर्यसेन कम मास्टर दा कहकर ज्यादा पुकारते थे। 1930 की चटगाँव आर्मरी रेड के नायक मास्टर सूर्यसेन ने अंग्रेज सरकार को सीधी चुनौती दी थी। उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर चटगॉंव को अंग्रेजी हुकूमत के शासन के दायरे से बाहर कर लिया था और भारतीय ध्वज को फहराया था। उन्होंने न केवल क्षेत्र में ब्रिटिश हुकूमत की संचार सुविधा ठप कीं बल्कि रेलवे, डाक और टेलीग्राफ सब संचार एवं सूचना माध्यमों को ध्वस्त करते हुए चटगाँव से अंग्रेज सरकार के संपर्क तंत्र को ही खत्म कर दिया था। 

🇮🇳 सूर्यसेन की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा चटगांव में ही हुई। उनके पिता #रामनिरंजन भी चटगाँव के ही #नोआपारा इलाके में एक शिक्षक थे। 22 वर्षीय सूर्यसेन जब इंटरमीडिएट के विद्यार्थी थे, तभी अपने एक शिक्षक की प्रेरणा से वह बंगाल की प्रमुख क्रांतिकारी संस्था #अनुशीलन_समिति के सदस्य बन गए। इसके बाद उन्होंने बहरामपुर कॉलेज में बीए कोर्स में दाखिला ले लिया। यहीं वे प्रसिद्ध क्रांतिकारी संगठन #युगांतर से जुड़े। वर्ष 1918 में चटगाँव वापस आकर उन्होंने स्थानीय युवाओं को संगठित करने के लिए युगांतर पार्टी की स्थापना की। 

🇮🇳 शिक्षक बनने के बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की चटगाँव जिला शाखा के अध्यक्ष भी चुने गए थे। उन्होंने धन और हथियारों की कमी को देखते हुए अंग्रेज सरकार से #गुरिल्ला_युद्ध करने का निश्चय किया। उन्होंने दिन-दहाड़े 23 दिसंबर, 1923 को चटगाँव में असम-बंगाल रेलवे के ट्रेजरी ऑफिस को लूटा। किंतु उन्हें सबसे बड़ी सफलता चटगाँव आर्मरी रेड के रूप में मिली, जिसने अंग्रेजी सरकार को झकझोर दिया था।  

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मास्टरा दा ने युवाओं को संगठित कर #भारतीय_प्रजातांत्रिक_सेना नामक संगठन खड़ा किया। 18 अप्रैल, 1930 को सैनिक वस्त्रों में इन युवाओं ने  के नेतृत्व में दो दल बनाए। इन्होंने चटगाँव के सहायक सैनिक शस्त्रागार पर कब्जा कर लिया। किन्तु दुर्भाग्यवश उन्हें बंदूकें तो मिलीं, किंतु उनकी गोलियां नहीं मिल सकीं। क्रांतिकारियों ने टेलीफोन और टेलीग्राफ के तार काट दिए और रेलमार्गों को अवरुद्ध कर दिया। 

🇮🇳 अपनी साहसिक घटनाओं द्वारा अंग्रेजी सरकार को छकाते रहे। ऐसी अनेक घटनाओं में 1930 से 1932 के बीच 22 अंग्रेज अधिकारी और उनके लगभग 220 सहायकों की हत्याएं की गईं। इस दौरान मास्टर सूर्यसेन ने अनेक संकट झेले। 

🇮🇳 अंग्रेज सरकार ने सूर्यसेन पर 10 हजार रुपए का इनाम भी घोषित कर दिया था। इसके लालच में एक धोखेबाज साथी नेत्रसेन की मुखबिरी पर 16 फरवरी, 1933 को अंग्रेज पुलिस ने सूर्यसेन को गिरफ्तार कर लिया। 

🇮🇳 12 जनवरी, 1934 को चटगाँव सेंट्रल जेल में सूर्यसेन को साथी #तारकेश्वर के साथ फाँसी की सजा दी गई, लेकिन फाँसी से पूर्व उन्हें कईं अमानवीय यातनाएं दी गईं। ब्रितानी हुकूमत की क्रूरता और अपमान की पराकाष्ठा यह थी कि उनकी मृत देह को भी धातु के बक्से में बंद करके बंगाल की खाड़ी में फेंक दिया गया। आजादी के बाद चटगाँव सेंट्रल जेल के उस फाँसी के तख्त को बांग्लादेश सरकार ने मास्टर सूर्यसेन स्मारक घोषित किया था। 

🇮🇳 भारत डिस्कवरी डॉट ओरआरजी के अनुसार, मास्टर सूर्यसेन ने फॉसी के एक दिन पूर्व 11 जनवरी, 1934 को अपने एक मित्र को अंतिम पत्र लिखा था। इसमें उन्होंने लिखा, "मृत्यु मेरा द्वार खटखटा रही है। मेरा मन अनंत की और बह रहा है। मेरे लिए यह वह पल है, जब मैं मृत्यु को अपने परम मित्र के रूप में अंगीकार करूँ। इस सौभाग्यशील, पवित्र और निर्णायक पल में, मैं तुम सबके लिए क्या छोड़ कर जा रहा हूँ? सिर्फ एक चीज - मेरा स्वप्न, मेरा सुनहरा स्वप्न, स्वतंत्र भारत का स्वप्न। प्रिय मित्रों, आगे बढ़ो और कभी अपने कदम पीछे मत खींचना। उठो और कभी निराश मत होना। सफलता अवश्य मिलेगी।"

साभार: amarujala.com

🇮🇳 भारतीय #स्वतंत्रता संग्राम के स्वर्णिम अध्याय के निर्माता वीर #क्रांतिकारी #मास्टर_दा #सूर्यसेन जी की जयंती पर उन्हें कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से कोटि-कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि !

#Revolutionary #Master_Da #Suryasenji

🇮🇳💐🙏

🇮🇳 वन्दे मातरम् 🇮🇳

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल


साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. 


Hanuman Prasad Poddar | हनुमान प्रसाद पोद्दार | जन्म:1892 - मृत्यु- 22 मार्च 1971

 



#अलौकिक_संत

हनुमान प्रसाद पोद्दार (जन्म:1892 - मृत्यु- 22 मार्च 1971) का नाम #गीता_प्रेस #Geeta_Press स्थापित करने के लिये भारत व विश्व में प्रसिद्ध है। भारतीय अध्यात्मिक जगत पर हनुमान पसाद पोद्दार नाम का एक ऐसा सूरज उदय हुआ, जिसकी वजह से देश के घर-घर में गीता, #रामायण, #वेद और #पुराण जैसे ग्रंथ पहुँचे सके। आज #गीता_प्रेस_गोरखपुर का नाम किसी भी भारतीय के लिए अनजाना नहीं है। सनातन हिंदू संस्कृति में आस्था रखने वाला दुनिया में शायद ही कोई ऐसा परिवार होगा, जो गीता प्रेस गोरखपुर के नाम से परिचित नहीं होगा। इस देश में और दुनिया के हर कोने में रामायण, #गीता, वेद, पुराण और #उपनिषद से लेकर प्राचीन भारत के ऋषियों -मुनियों की कथाओं को पहुँचाने का एक मात्र श्रेय गीता प्रेस गोरखपुर के संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार को है। प्रचार-प्रसार से दूर रहकर एक अकिंचन सेवक और निष्काम कर्मयोगी की तरह पोद्दार जी ने हिंदू संस्कृति की मान्यताओं को घर-घर तक पहुँचाने में जो योगदान दिया है, इतिहास में उसकी मिसाल मिलना ही मुश्किल है।

🇮🇳🔶 भारतीय पंचांग के अनुसार विक्रम संवत के वर्ष 1949 में अश्विन कृष्ण की प्रदोष के दिन उनका जन्म हुआ। #राजस्थान के #रतनगढ़ में #लाला_भीमराज_अग्रवाल और उनकी पत्नी #रिखीबाई हनुमान के भक्त थे, तो उन्होंने अपने पुत्र का नाम 'हनुमान प्रसाद' रख दिया। दो वर्ष की आयु में ही इनकी माता का स्वर्गवास हो जाने पर इनका पालन-पोषण इनकी दादी ने किया। #दादी के धार्मिक संस्कारों के बीच बालक हनुमान को बचपन से ही गीता, रामायण वेद, उपनिषद और पुराणों की कहानियाँ पढ़ने - सुनने को मिली। इन संस्कारों का बालक पर गहरा असर पड़ा। बचपन में ही इन्हें हनुमान कवच का पाठ सिखाया गया। निंबार्क संप्रदाय के #संत_ब्रजदास जी ने बालक को दीक्षा दी।

🇮🇳🔶 उस समय देश ग़ुलामी की जंज़ीरों मे जकड़ा हुआ था। इनके पिता अपने कारोबार का वजह से #कलकत्ता में थे और ये अपने दादा जी के साथ #असम में। कलकत्ता में ये स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारियों #अरविंद_घोष, #देशबंधु_चितरंजन_दास, #पंडित_झाबरमल_शर्मा के संपर्क में आए और आज़ादी आंदोलन में कूद पड़े। इसके बाद #लोकमान्य_तिलक और #गोपालकृष्ण_गोखले जब कलकत्ता आए तो पोद्दार जी उनके संपर्क में आए इसके बाद उनकी मुलाकात #गाँधीजी से हुई। 

🇮🇳🔶 #वीर_सावरकर द्वारा लिखे गए '1857 का स्वातंत्र्य समर ग्रंथ' से पोद्दार जी बहुत प्रभावित हुए और 1938 में वे वीर सावरकर से मिलने के लिए मुंबई चले आए। 1906 में उन्होंने कपड़ों में गाय की चर्बी के प्रयोग किए जाने के ख़िलाफ़ आंदोलन चलाया और विदेशी वस्तुओं और विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के लिए संघर्ष छेड़ दिया। युवावस्था में ही उन्होंने खादी और स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना शुरू कर दिया। विक्रम संवत 1971 में जब #महामना #पंडित_मदन_मोहन_मालवीय बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए धन संग्रह करने के उद्देश्य से कलकत्ता आए तो पोद्दार जी ने कई लोगों से मिलकर इस कार्य के लिए दान-राशि दिलवाई।

🇮🇳🔶 कलकत्ता में आज़ादी आंदोलन और क्रांतिकारियों के साथ काम करने के एक मामले में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने हनुमान प्रसाद पोद्दार सहित कई प्रमुख व्यापारियों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। इन लोगों ने ब्रिटिश सरकार के हथियारों के एक जख़ीरे को लूटकर उसे छिपाने में मदद की थी। जेल में पोद्दार जी ने हनुमान जी की आराधना करना शुरू कर दी। बाद में उन्हें #अलीपुर जेल में नज़रबंद कर दिया गया। नज़रबंदी के दौरान पोद्दार जी ने समय का भरपूर सदुपयोग किया। वहाँ वे अपनी दिनचर्या सुबह तीन बजे शुरू करते थे और पूरा समय परमात्मा का ध्यान करने में ही बिताते थे। बाद में उन्हें नजरबंद रखते हुए पंजाब की #शिमलपाल जेल में भेज दिया गया। वहाँ कैदी मरीज़ों के स्वास्थ्य की जाँच के लिए एक होम्योपैथिक चिकित्सक जेल में आते थे, पोद्दार जी ने इस चिकित्सक से #होम्योपैथी की बारीकियाँ सीख ली और होम्योपैथी की किताबों का अध्ययन करने के बाद ख़ुद ही मरीज़ों का इलाज करने लगे। बाद में वे #जमनालाल_बजाज की प्रेरणा से मुंबई चले आए। यहाँ वे वीर सावरकर, #नेताजी_सुभाष_चंद्र_बोस, #महादेव_देसाई और #कृष्णदास_जाजू जैसी विभूतियों के निकट संपर्क में आए।

मुंबई में उन्होंने अग्रवाल नवयुवकों को संगठित कर मारवाड़ी खादी प्रचार मंडल की स्थापना की। इसके बाद वे प्रसिद्ध संगीताचार्य #विष्णु_दिगंबर के सत्संग में आए और उनके हृदय में संगीत का झरना बह निकला। फिर उन्होंने भक्ति गीत लिखे जो 'पत्र-पुष्प' के नाम से प्रकाशित हुए। मुंबई में वे अपने मौसेरे भाई #जयदयाल_गोयन्का जी के गीता पाठ से बहुत प्रभावित थे। उनके गीता के प्रति प्रेम और लोगों की गीता को लेकर जिज्ञासा को देखते हुए भाई जी ने इस बात का प्रण किया कि वे श्रीमद् भागवद्गीता को कम से कम मूल्य पर लोगों को उपलब्ध कराएँगे।

🇮🇳🔶 उन्होंने गीता पर एक टीका लिखी और उसे कलकत्ता के 'वाणिक प्रेस' में छपवाई। पहले ही संस्करण की पाँच हज़ार प्रतियाँ बिक गई। लेकिन पोद्दार जी को इस बात का दु:ख था कि इस पुस्तक में ढेरों ग़लतियाँ थी। इसके बाद उन्होंने इसका संशोधित संस्करण निकाला मगर इसमें भी ग़लतियाँ दोहरा गई थी। इस बात से भाई जी के मन को गहरी ठेस लगी और उन्होंने तय किया कि जब तक अपना खुद का प्रेस नहीं होगा, यह कार्य आगे नहीं बढ़ेगा। बस यही एक छोटा सा संकल्प गीता प्रेस गोरखपुर की स्थापना का आधार बना। उनके भाई गोयनका जी का व्यापार तब बांकुड़ा, बंगाल में था और वे गीता पर प्रवचन के सिलसिले में प्राय: बाहर ही रहा करते थे। तब समस्या यह थी कि प्रेस कहाँ लगाई जाए। उनके मित्र #घनश्याम_दास_जालान गोरखपुर में ही व्यापार करते थे। उन्होंने प्रेस गोरखपुर में ही लगाए जाने और इस कार्य में भरपूर सहयोग देने का आश्वासन दिया। इसके बाद मई 1922 में गीता प्रेस का स्थापना की गई।

🇮🇳🔶 1926 में मारवाड़ी अग्रवाल महासभा का अधिवेशन दिल्ली में था सेठ जमनालाल बजाज अधिवेशन के सभापति थे। इस अवसर पर #सेठ_घनश्यामदास_बिड़ला भी मौजूद थे। बिड़ला जी ने भाई जी द्वारा गीता के प्रचार-प्रसार के लिए किए जा रहे कार्यों की सराहना करते हुए उनसे आग्रह किया कि सनातन धर्म के प्रचार और सद विचारों को लोगों तक पहुँचाने के लिए एक संपूर्ण पत्रिका का प्रकाशन होना चाहिए। बिड़ला जी के इन्हीं वाक्यों ने भाई जी को #कल्याण नाम की पत्रिका के प्रकाशन के लिए प्रेरित किया। अगस्त 1955 में कल्याण का पहला प्रवेशांक निकला। इसके बाद 'कल्याण' भारतीय परिवारों के बीच एक लोकप्रिय संपूर्ण पत्रिका के रुप में स्थापित हो गई और आज भी धार्मिक जागरण में कल्याण एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। 'कल्याण' तेरह माह तक मुंबई से प्रकाशित होती रही। इसके बाद अगस्त 1926 से गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित होने लगा।

🇮🇳🔶 पोद्दार जी ने कल्याण को एक आदर्श और रुचिकर पत्रिका का रुप देने के लिए देश भर के महात्माओं, लेखकों और संतों आदि को पत्र लिखकर इसके लिए विविध विषयों पर लेख आमंत्रित किए। साथ ही उन्होंने श्रेष्ठतम कलाकारों से देवी-देवताओं के आकर्षक चित्र बनवाए और उनको कल्याण में प्रकाशित किया। कल्याण की सामग्री के संपादन से लेकर उसके रंग-रुप को अंतिम रूप देने का कार्य भी पोद्दार जी ही देखते थे। वह प्रतिदिन अठारह घंटे कार्य करते थे। कल्याण को उन्होंने मात्र हिंदू धर्म की ही पत्रिका के रुप में पहचान देने की बजाय उसमे सभी धर्मों के आचार्यों, जैन मुनियों, रामानुज, निंबार्क, माध्व आदि संप्रदायों के विद्वानों के लेखों का प्रकाशन किया।

🇮🇳🔶 1936 में गोरखपुर में भयंकर बाढ़ आ गई थी। बाढ़ पीड़ित क्षेत्र के निरीक्षण के लिए पं. जवाहरलाल नेहरू जब गोरखपुर आए तो तत्कालीन अंग्रेज़ सरकार के दबाव में उन्हें वहाँ किसी भी व्यक्ति ने कार उपलब्ध नहीं कराई, क्योंकि अंग्रेज़ कलेक्टर ने सभी लोगों को धौंस दे रखी थी कि जो भी नेहरू जी को कार देगा उसका नाम विद्रोहियों की सूची में लिख दिया जाएगा। लेकिन भाई जी ने अपनी कार नेहरू जी को दे दी।

🇮🇳🔶 1938 में जब राजस्थान में भयंकर अकाल पड़ा तो पोद्दार जी अकाल पीड़ित क्षेत्र में पहुँचे और उन्होंने अकाल पीड़ितों के साथ ही मवेशियों के लिए भी चारे की व्यवस्था करवाई। बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, द्वारका, कालड़ी श्रीरंगम आदि स्थानों पर वेद - भवन तथा विद्यालयों की स्थापना में पोद्दार जी ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपने जीवन-काल में पोद्दार जी ने 25 हज़ार से ज़्यादा पृष्ठों का साहित्य-सृजन किया।

🇮🇳🔶 अंग्रेज़ों के समय में गोरखपुर में उनकी धर्म व साहित्य सेवा तथा उनकी लोकप्रियता को देखते हुए तत्कालीन अंग्रेज़ कलेक्टर पेडले ने उन्हें 'राय साहब' की उपाधि से अलंकृत करने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन पोद्दार जी ने विनम्रतापूर्वक इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। इसके बाद अंग्रेज़ कमिश्नर होबर्ट ने 'राय बहादुर' की उपाधि देने का प्रस्ताव रखा लेकिन पोद्दार जी ने इस प्रस्ताव को भी स्वीकार नहीं किया। देश की स्वाधीनता के बाद डॉ. संपूर्णानंद, कन्हैयालाल मुंशी और अन्य लोगों के परामर्श से तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने पोद्दार जी को 'भारत रत्न' की उपाधि से अलंकृत करने का प्रस्ताव रखा लेकिन उन्होंने इसमें भी कोई रुचि नहीं दिखाई।

🇮🇳🔶 22 मार्च 1971 को पोद्दार जी ने इस नश्वर शरीर का त्याग कर दिया और अपने पीछे वे `गीता प्रेस गोरखपुर' के नाम से एक ऐसा केंद्र छोड़ गए, जो भारतीय संस्कृति को पूरे विश्व में फैलाने में एक अग्रणी भूमिका निभा रहा है।

साभार : bharatdiscovery.com

🇮🇳 त्याग और सेवा की प्रतिमूर्ति, माँ भारती के सच्चे सपूत, अलौकिक संत एवं प्रसिद्ध  #स्वतंत्रता सेनानी #हनुमान_प्रसाद_पोद्दार जी की पुण्यतिथि पर उन्हें कोटि-कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि !

Death anniversary of #freedomfighter #Hanuman_Prasad_Poddar ji

🇮🇳🕉️🚩🔱💐🙏 पर उन्हें कोटि-कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳🕉️🚩🔱💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व


#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. 

Ramchandra Chatterjee | राम चंद्र चटर्जी | गुब्बारे की सवारी

 



#राम_चंद्र_चटर्जी और उनकी बैलोन सवारी जिसने भारत का इतिहास बदल दिया।

🇮🇳 एक समय की बात है, आश्चर्य और साहसी कारनामे से भरी दुनिया में, एक ट्रैपेज़ कलाकार रहता था जो सितारों तक पहुँचने का सपना देखता था। अपने कलाबाजी कौशल और महत्वाकांक्षा से भरे दिल के साथ, उन्होंने ऊँची उड़ान भरने की एक साहसी योजना तैयार की।

🇮🇳 यह 19वीं सदी का उत्तरार्ध था और वह व्यक्ति राम चंद्र चटर्जी थे; #कलकत्ता का रहने वाला एक ट्रैपेज़ खिलाड़ी, जो नेशनल सर्कस कंपनी के लिए काम करता था। वह भारत के शुरुआती जिमनास्ट और ट्रैपेज़ कलाकारों में से एक थे। लेकिन उन्हें अचानक एक नई घटना का पता चला।

🇮🇳 18वीं सदी के यूरोप में हॉट-एयर बैलूनिंग का चलन था, लेकिन भारत को डी. रॉबर्टसन की पहली उड़ान देखने में 1836 तक का समय लग गया। लेकिन असली गुब्बारा बुखार तब भड़का जब 1880 के दशक के अंत में प्रसिद्ध गुब्बारा वादक पर्सिवल स्पेंसर भारत पहुँचे।

🇮🇳 19 मार्च, 1889 को, स्पेंसर ने कलकत्ता रेस कोर्स से उड़ान भरी और एक महीने बाद, 10 अप्रैल, 1889 को, निडर राम चंद्र चटर्जी उनके साथ शामिल हो गए।

🇮🇳 स्पेंसर के साथ अपनी संयुक्त चढ़ाई से प्रेरित होकर, चटर्जी ने एकल उड़ान पर अपना ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने स्पेंसर का गुब्बारा, "द वायसराय" हासिल कर लिया, जिसका नाम बदलकर "कलकत्ता शहर" रखा गया। #पथुरियाघाट के टैगोरों के समर्थन से, चटर्जी ने अपनी एकल, महत्वाकांक्षी यात्रा शुरू की।

🇮🇳 27 अप्रैल, 1889 को पहले 'मूल' बंगाली व्यक्ति के लिए गुब्बारे की सवारी करने के लिए एक भव्य दिन की योजना बनाई गई थी। हजारों की संख्या में दर्शक गैस कंपनी मैदान में इंतजार में जमा थे। हालाँकि, प्रकृति की कुछ और ही योजनाएँ थीं।

🇮🇳 निराशा के बावजूद, राम चंद्र चटर्जी दृढ़ संकल्पित रहे। उन्होंने 4 मई को चढ़ाई की नई तारीख तय की और टिकट पाने वालों को आश्वासन दिया कि उन्हें अभी भी सम्मानित किया जाएगा। उनके दृढ़ संकल्प ने उनके असाधारण पराक्रम को देखने के लिए उत्सुक लोगों की आशाओं को जीवित रखा।

🇮🇳 बड़े दिन पर, एक म्यूजिकल बैंड बजने के साथ, हिंदू अनुष्ठान पूरे हुए और 8,000 दर्शक उत्सुकता से देख रहे थे, राम चंद्र चटर्जी ने अपने हल्के सूट और टोपी में "द सिटी ऑफ कलकत्ता" में उड़ान भरी। ऊपर और दूर ऊपर।

🇮🇳 कलकत्ता के आसमान में एक ऐतिहासिक क्षण सामने आया। गुब्बारा लगभग 40 मिनट तक तैरता रहा और सोडेपोर के पास धीरे से उतरने से पहले 4,000 फीट की ऊँचाई तक पहुँच गया। यह तारीख, 4 मई, 1889 को भारत के अंतरिक्ष साहसिक कार्य में एक स्वर्णिम अध्याय के रूप में चिह्नित किया जाना चाहिए।

#Ram_Chandra_Chatterjee

साभार: pixstory.com

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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21 मार्च 2024

Major Mohit Sharma | मेजर मोहित शर्मा

 


‘शक है तो गोली मार दो’: इफ्तिखार भट्ट बन जब मेजर मोहित शर्मा ने आतंकियों के बीच बनाई पैठ, फिर ठोक दिया 🇮🇳

🇮🇳 हरियाणा के रोहतक में आज भी पैरा स्पेशल फोर्स के ऑफिसर मेजर मोहित शर्मा को उनकी बहादुरी के लिए घर-घर में याद किया जाता है। मरणोपतरांत अशोक चक्र से सम्मानित इस हुतात्मा ने साल 2009 में उत्तर कश्मीर के कुपवाड़ा जिले में एक सैन्य ऑपरेशन के दौरान अंतिम साँस ली थी। लेकिन, साल 2004 में इनके द्वारा किया गया एक ऑपरेशन आज भी कइयों के लिए प्रेरणा है।

🇮🇳 शिव अरूर और राहुल सिंह की किताब ‘इंडिया मोस्ट फीयरलेस 2’ में  इस बात का जिक्र है कि कैसे मेजर मोहित शर्मा ने इस्लामी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन में घुसपैठ करके दो खूँखार आतंकियों को मारा। 

🇮🇳 दक्षिण कश्मीर से 50 किमी दूर शोपियाँ में मेजर ने अपने ऑपरेशन को अंजाम दिया था। मेजर ने इस काम के लिए सबसे पहले अपना नाम और हुलिया बदला। उन्होंने लम्बी दाढ़ी-मूँछ रख कर आतंकियों की तरह अपने हाव-भाव बनाए। फिर इफ्तिखार भट्ट नाम के जरिए वह अबू तोरारा और अबू सबजार के संपर्क में आए।

🇮🇳 इसके बाद मेजर ने बतौर इफ्तिखार भट्ट दोनों हिजबुल आतंकियों को ये कहकर विश्वास दिलाया कि भारतीय सेना ने उनके भाई को साल 2001 में मारा था और अब वह बस सेना पर हमला करके बदला चाहते हैं। उन्होंने अपने मनगढ़ंत मंसूबे बताकर आतंकियों से कहा कि इस काम में उन्हें उन दोनों की मदद चाहिए। मेजर शर्मा ने दोनों आतंकियों से कहा कि उन्हें आर्मी के चेक प्वाइंट पर हमला बोलना है और उसके लिए वह जमीनी काम कर चुके हैं।

🇮🇳 मेजर शर्मा के इस ऑपरेशन में आतंकियों ने कई बार उनसे उनकी पहचान पूछी। लेकिन वह कहते, “मुझे तुम्हारी मदद चाहिए। मुझको सीखना है।” तोरारा ने तो कई बार उनकी पहचान के बारे में उनसे पूछा। लेकिन आखिरकार वे मेजर शर्मा के जाल में फँस गए और मदद करने को राजी हो गए। आतंकियों ने उन्हें बताया कि वह कई हफ्तों तक अंडरग्राउंड रहेंगे और आतंंकी हमले के लिए मदद जुटाएँगे। किसी तरह मेजर ने उन्हें मना ही लिया कि वह तब तक घर नहीं लौटेंगे जब तक चेक प्वाइंट को उड़ा नहीं देते।

🇮🇳 देखते ही देखते आने वाले दिनों में दोनों आतंकियों ने सब व्यवस्था कर ली। साथ ही पास के ग्रामों से तीन आतंकियों को भी बुला लिया। जब तोरारा को दोबारा संदेह हुआ तो मेजर ने उससे कहा, “अगर मेरे बारे में कोई शक है तो मुझे मार दो।” अपने हाथ से राइफल छोड़ते हुए वह आतंकियों से बोले, “तुम ऐसा नहीं कर सकते, अगर तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है। इसलिए तुम्हारे पास अब मुझे मारने के अलावा कोई चारा नहीं है।”

🇮🇳 मेजर की बातें सुनकर दोनों आतंकी असमंजस में पड़ गए। इतने में मेजर मोहित शर्मा को मौका मिला और उन्होंने थोड़ी दूर जाकर अपनी 9 mm पिस्टल को लोड कर दोनों आतंकियों को मौत के घाट उतार दिया। उन्होंने दो गोलियाँ आतंकियों के छाती पर मारी और एक सिर में। इसके बाद वह उनके हथियार उठाकर भागकर नजदीक के आर्मी कैंप में गए।

🇮🇳 इस ऑपरेशन के 5 साल बाद कुपवाड़ा के एक सैन्य ऑपरेशन में वह स्वयं भी बलिदान हो गए। अपने आखिरी समय में भी मेजर ने अपने कई साथियों को सुरक्षित बचाया। आखिर में सीने में गोली लगने के कारण दम तो़ड़ने वाले मेजर मोहित शर्मा के शूरता के किस्से आज भी समय-समय पर दोहराए जाते हैं। हाल में उनकी कहानी नेशन फर्स्ट, ऑलवेज और एवरीटाइम नाम के ट्विटर अकॉउंट पर एक पूरे स्टोरी थ्रेड में शेयर की गई है।

साभार : opindia.com

🇮🇳 #अशोक_चक्र से सम्मानित; माँ भारती की रक्षा के संकल्प को पूरा करने के लिए अद्भुत वीरता, सूझबूझ और साहस का परिचय देने वाले अमर हुतात्मा #मेजर_मोहित_शर्मा जी को उनके बलिदान दिवस पर कोटि-कोटि नमन !

#Ashoka_Chakra

#Major_Mohit_Sharma


🇮🇳💐🙏

🇮🇳 जय हिन्द, जय हिन्द की सेना 🇮🇳

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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Makar Sankranti मकर संक्रांति

  #मकर_संक्रांति, #Makar_Sankranti, #Importance_of_Makar_Sankranti मकर संक्रांति' का त्यौहार जनवरी यानि पौष के महीने में मनाया जाता है। ...