🇮🇳🔶#अध्यात्म_और_योग #spirituality_and_yoga 🔶🇮🇳
🇮🇳🔶 श्री श्री परमहंस योगानन्द #Shri_Shri_Paramahansa_Yogananda का जन्म, 5 जनवरी 1893 को, उत्तर प्रदेश के शहर #गोरखपुर में एक धर्म-परायण व समृद्ध बंगाली परिवार में हुआ था। माता-पिता ने उनका नाम #मुकुन्द_लाल_घोष रखा। उनके सगे-संबंधियों को यह स्पष्ट दिखता था कि बचपन से ही उनकी चेतना की गहराई एवं आध्यात्म का अनुभव साधारण से कहीं अधिक था।
🇮🇳🔶 #योगानन्दजी के माता-पिता प्रसिद्ध गुरु, #लाहिड़ी_महाशय, के शिष्य थे जिन्होंने आधुनिक भारत में क्रियायोग के पुनरुत्थान में प्रमुख भूमिका निभायी थी। जब योगानन्दजी अपनी माँ की गोद में ही थे, तब लाहिड़ी महाशय ने उन्हें आशीर्वाद दिया था और भविष्यवाणी की थी, “छोटी माँ, तुम्हारा पुत्र एक योगी बनेगा। एक आध्यात्मिक इंजन की भाँति, वह कई आत्माओं को ईश्वर के साम्राज्य में ले जाएगा।”
🇮🇳🔶 अपनी युवावस्था में मुकुन्द ने एक ईश्वर-प्राप्त गुरु को पाने की आशा से, भारत के कई साधुओं और सन्तों से भेंट की। सन् 1910 में, सत्रह वर्ष की आयु में वे पूजनीय सन्त, श्री श्री #स्वामी_श्रीयुक्तेश्वर_गिरि के शिष्य बने। इस महान गुरु के आश्रम में उन्होंने अपने जीवन के अगले दस वर्ष बिताए, और उनसे कठोर परन्तु प्रेमपूर्ण आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त की।
🇮🇳🔶 पहली भेंट पर ही, और उसके पश्चात कई बार, श्रीयुक्तेश्वरजी ने अपने युवा शिष्य को बताया कि उसे ही प्राचीन क्रियायोग के विज्ञान को अमेरिका तथा पूरे विश्व भर में प्रसार करने के लिए चुना गया था।
🇮🇳🔶 मुकुन्द द्वारा कोलकाता विश्वविद्यालय से सन् 1915 में स्नातक की डिग्री प्राप्त करने के बाद, उनके गुरु ने उन्हें गरिमामय संन्यास परंपरा के अनुसार संन्यास की दीक्षा दी, और तब उन्हें #योगानन्द नाम दिया गया (जिसका अर्थ है दिव्य योग के द्वारा परमानन्द की प्राप्ति)। अपने जीवन को ईश्वर-प्रेम तथा सेवा के लिए समर्पित करने की उनकी इच्छा इस प्रकार पूर्ण हुई।
🇮🇳🔶 योगानन्दजी ने 1917 में, लड़कों के लिए एक “जीवन कैसे जियें” स्कूल की स्थापना के साथ अपना जीवन कार्य आरंभ किया। इस स्कूल में आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ योग एवं आध्यात्मिक आदर्शों में प्रशिक्षण भी दिया जाता था। कासिमबाज़ार के महाराजा ने स्कूल को चलाने के लिए रांची (जो कि कोलकाता से लगभग 250 मील दूर है) में स्थित अपना ग्रीष्मकालीन महल उपलब्ध कराया था। कुछ साल बाद स्कूल को देखने आए महात्मा गाँधी ने लिखा: “इस संस्था ने मेरे मन को गहराई से प्रभावित किया है।”
🇮🇳🔶 सन् 1920 में एक दिन, रांची स्कूल में ध्यान करते हुए, योगानन्दजी को एक दिव्य अनुभव हुआ जिस से उन्होंने समझा कि अब पश्चिम में उनका कार्य आरंभ करने का समय आ गया है। वे तुरंत कोलकाता के लिए रवाना हो गए, जहां अगले दिन उन्हें बोस्टन में उस साल आयोजित होने वाले धार्मिक नेताओं के एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए निमन्त्रण मिल गया। श्री युक्तेश्वरजी ने योगानन्दजी के इस संकल्प की पुष्टि करते हुए कहा कि वह सही समय था, और आगे कहा: “सभी दरवाज़े तुम्हारे लिए खुले हैं। अभी नहीं तो कभी नहीं जा सकोगे।”
🇮🇳🔶 अमेरिका प्रस्थान करने से कुछ समय पहले, योगानन्दजी को #महावतार_बाबाजी के दर्शन प्राप्त हुए। महावतार बाबाजी क्रिया योग को इस युग में पुनःजीवित करने वाले मृत्युंजय परमगुरु हैं। बाबाजी ने योगानन्दजी से कहा, “तुम ही वह हो जिसे मैंने पाश्चात्य जगत में क्रिया योग का प्रसार करने के लिए चुना है। बहुत वर्ष पहले मैं तुम्हारे गुरु युक्तेश्वर से कुंभ मेले में मिला था और तभी मैंने उनसे कह दिया था कि मैं तुम्हें उनके पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजूंगा। ईश्वर-साक्षात्कार की वैज्ञानिक प्रणाली, क्रिया योग, का अंततः सभी देशों में प्रसार हो जायेगा और मनुष्य को अनंत परमपिता का व्यक्तिगत इन्द्रियातीत अनुभव कराने के द्वारा यह राष्ट्रों के बीच सौहार्द्र स्थापित करने में सहायक होगा।”
🇮🇳🔶 युवा स्वामी सितंबर 1920 में बोस्टन पहुँचे। उन्होंने अपना पहला व्याख्यान, धार्मिक उदारतावादियों के अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में “#धर्म-विज्ञान” पर दिया, जिसे उत्साहपूर्वक सुना गया। उसी वर्ष उन्होंने भारत के योग के प्राचीन विज्ञान और दर्शन एवं इसकी कालजयी ध्यान की परंपरा पर अपनी शिक्षाओं का प्रसार करने के लिए सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप (एसआरएफ़) की स्थापना की। पहला एसआरएफ़ ध्यान केंद्र बोस्टन में #डॉ_एम_डब्लयू_लुईस और #श्रीमती_एलिस_हैसी (जो परवर्ती काल में सिस्टर योगमाता बनी) की मदद से शुरू किया गया था, जो आगे चलकर योगानन्दजी के आजीवन शिष्य बने।
🇮🇳🔶 अगले कई वर्षों तक, वे अमेरिका के पूर्वतटीय क्षेत्रों में रहे जहाँ पर उन्होंने व्याख्यान दिये और योग सिखाया; सन 1924 में उन्होंने पूरे अमेरिका का दौरा किया और कई शहरों में योग पर व्याख्यान दिये । सन 1925 की शुरूआत में लॉस एंजेलिस पहुँचकर उन्होंने माउंट वाशिंगटन के ऊपर सेल्फ़-रियलाइजेशन फ़ेलोशिप के अंतरराष्ट्रीय मुख्यालय की स्थापना की, जो कि आगे चल कर उनके बढ़ते काम का आध्यात्मिक और प्रशासनिक केंद्र बन गया।
🇮🇳🔶 सन् 1924 से 1935 तक योगानन्दजी ने व्यापक रूप से भ्रमण किया और व्याख्यान दिए। इस दौरान उन्होंने अमेरिका के कई सबसे बड़े सभागारों – न्यूयॉर्क के कार्नेगी हॉल से लेकर लॉस एंजिलिस के फिल्हार्मोनिक सभागृह तक – में व्याख्यान दिये, जो श्रोताओं की भीड़ से खचाखच भर जाते थे। लॉस एंजिलिस टाइम्स ने लिखाः “फिल्हार्मोनिक सभागृह में एक अद्भुत दृश्य देखने को मिला जब हज़ारों लोगों को व्याख्यान शुरू होने से एक घण्टा पहले वापिस जाने को बोल दिया गया क्योंकि 3000 सीट का वह हॉल पूरी तरह भर गया था।”
🇮🇳🔶 योगानन्दजी ने दुनिया के महान धर्मों की अंतर्निहित एकता पर ज़ोर दिया, और भगवान के प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुभव को प्राप्त करने के लिए सार्वभौमिक रूप से उपयुक्त तरीकों को सिखाया। जो शिष्य साधना में गहरी रुचि दिखाते थे, उनहें वे आत्म-जागृति प्रदान करने वाली क्रियायोग की तकनीक सिखाते थे, और इस तरह पश्चिम में तीस वर्षों के दौरान उन्होंने 1,00,000 से भी अधिक पुरुषों और महिलाओं को क्रिया योग की दीक्षा दी।
🇮🇳🔶 जो उनके शिष्य बने, उनमें विज्ञान, व्यवसाय और कला के कई प्रमुख व्यक्ति थे, जैसे बागवानी विशेषज्ञ लूथर बरबैंक, ओपेरा गायिका अमेलिता गली कुर्चि, जॉर्ज ईस्टमैन (कोडक कैमरा के आविष्कारक), कवि एडविन मार्खम, और ऑर्केस्ट्रा निर्देशक लियोपोल्ड स्टोकोव्स्की। सन 1927 में अमेरिका के राष्ट्रपति केल्विन कूलिज ने उन्हें औपचारिक रूप से व्हाइट हाउस में आमंत्रित किया।वे समाचार पत्रों में योगानन्दजी की गतिविधियों के बारे में पढ़कर, उनमें रुचि लेने लगे थे।
🇮🇳🔶 सन् 1929 में, मैक्सिको की दो महीने की यात्रा के दौरान, उन्होंने लैटिन अमेरिका में अपने कार्य के भविष्य के बीज बोए। मेक्सिको के राष्ट्रपति, डॉ एमिलियो पोरटेस गिल ने उनका स्वागत किया। वे योगानन्दजी की शिक्षाओं के आजीवन प्रशंसक बन गए।
🇮🇳🔶 1930 के दशक के मध्य तक, #परमहंसजी के वे आरंभिक शिष्य उनके संपर्क में आ चुके थे, जो आगे चलकर उन्हें सेल्फ-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप कार्य का विस्तार करने और उनके जीवनकाल समाप्त होने के बाद क्रिया योग मिशन को आगे बढ़ाने में मदद करने वाले थे। इन शिष्यों में वे दो भी शामिल थे, जिन्हें उन्होंने अपने आध्यात्मिक उत्तराधिकारी के रूप में सेल्फ-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के अध्यक्ष के पद के लिए नियुक्त किया था: #राजर्षि_जनकानंद (जेम्स जे लिन), जो 1932 में कंसास शहर में गुरुजी से मिले; और #श्री_दया_माता, जिन्होंने एक वर्ष पूर्व साल्ट लेक सिटी में उनकी कक्षाओं में भाग लिया था।
🇮🇳🔶 अन्य शिष्य जिन्होंने 1920 और 1930 के दशकों के दौरान उनके व्याख्यान कार्यक्रमों में भाग लिया और एसआरएफ़ के कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित करने के लिए आगे आये, वे थे डॉ और श्रीमती एम डब्ल्यू लुईस, जिन्होंने 1920 में बोस्टन में उनसे मुलाकात की; ज्ञानमाता (सिएटल, 1924); तारा माता (सैन फ्रांसिस्को, 1924); दुर्गा माता (डेट्रॉइट, 1929); आनंद माता (साल्ट लेक सिटी, 1931); श्रद्धा माता (टैकोमा, 1933); और शैलसुता माता (सांता बारबरा, 1933)।
🇮🇳🔶 इस प्रकार, योगानन्दजी के शरीर छोड़ने के कई वर्षों बाद तक भी सेल्फ-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप को उन शिष्यों का निर्देशन प्राप्त होता रहा जिन्होंने परमहंस योगानन्दजी से व्यक्तिगत आध्यात्मिक प्रशिक्षण प्राप्त किया था।
🇮🇳🔶 उनके कार्य के शुरुआती वर्षों में योगानन्दजी के कुछ ही व्याख्यान और कक्षाएं अभिलेखित की गईं। लेकिन, 1931 में जब #श्री_दया_माता (जो बाद में उनके विश्वव्यापी संगठन की अध्यक्षा बनीं) उनके आश्रम में शामिल हुईं, उन्होंने योगानन्द जी के सैकड़ों व्याख्यानों, कक्षाओं और अनौपचारिक बातचीतों को ईमानदारी से अभिलेखित करने का पवित्र कार्य किया, ताकि उनके ज्ञान और प्रेरणा को उनकी मूल शक्ति और पवित्रता के साथ संरक्षित रखा जा सके और आने वाली पीढ़ियों के लिए सेल्फ-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप द्वारा प्रकाशित किया जा सके।
🇮🇳🔶 सन् 1935 में, योगानन्दजी अपने महान गुरु के अंतिम दर्शन के लिए भारत लौटे (बायें)। श्री युक्तेश्वर जी ने 9 मार्च, 1936 को अपना शरीर छोड़ा।) यूरोप, फिलिस्तीन और मिस्र के रास्ते जहाज़ और कार से यात्रा करते हुए, वे 1935 की गर्मियों में मुंबई पहुंचे।
🇮🇳🔶 अपनी जन्मभूमि के साल भर की यात्रा के दौरान योगानन्दजी ने भारत के अनेक शहरों में व्याख्यान दिये और क्रियायोग की दीक्षा दी। उन्हें कई महापुरुषों से मिलने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ, जैसे : महात्मा गाँधी, जिन्होंने क्रियायोग की दीक्षा लेने का अनुरोध किया; नोबेल पुरस्कार विजेता, भौतिक-शास्त्री सर #सी_वी_रमन; और भारत की कुछ सुविख्यात आध्यात्मिक विभूतियाँ, जैसे #रमण_महर्षि और #आनन्दमयी_माँ।
🇮🇳🔶 उसी वर्ष श्री युक्तेश्वर जी ने उन्हें भारत की सर्वोच्च आध्यात्मिक उपाधि, परमहंस से विभूषित किया। परमहंस का शाब्दिक अर्थ “सर्वोत्तम हंस” है। (हंस आध्यात्मिक प्रज्ञा का प्रतीक माना जाता है)। यह उपाधि उसे दी जाती है जो परमात्मा के साथ एकत्व की चरम अवस्था में स्थापित हो चुका है।
🇮🇳🔶 भारत में बिताए समय के दौरान, योगानन्दजी ने इस देश में उनके द्वारा स्थापित संस्था, योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया, के लिए एक सुदृढ़ आर्थिक नींव बनाई। संस्था का कार्य क्षिणेश्वर में स्थित मुख्यालय और रांची में स्थित मूल आश्रम के द्वारा आज भी वृद्धि पर है, और पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में इसके कई सारे स्कूल, आश्रम, और ध्यान केंद्र हैं, और कई सारे धर्मार्थ कार्य आयोजित किए जाते हैं।
🇮🇳🔶 सन् 1936 के अंतिम भाग में वे अमेरिका वापिस लौट गए, जहाँ वे जीवनपर्यंत रहे।
🇮🇳🔶 1930 के दशक में, परमहंस योगानंदजी ने देश भर में दिए जा रहे अपने सार्वजनिक व्याख्यानों को कम कर दिया ताकि वे अपना अधिकतर समय भावी पीढ़ियों तक अपना सन्देश पहुँचाने के लिए लेख लिखने में, और योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के आध्यात्मिक तथा लोकोपकारी कार्य की एक सुदृढ़ नींव रखने में बिता सकें।
🇮🇳🔶 जो व्यक्तिगत मार्गदर्शन और निर्देश उन्होंने अपनी कक्षाओं के छात्रों को दिया था, उसे उनके निर्देशन में योगदा सत्संग पाठमाला की एक व्यापक श्रृंखला में व्यवस्थित किया गया था।
🇮🇳🔶 जब वे भारत की यात्रा पर थे, उस दौरान उनके प्रिय शिष्य श्री श्री राजर्षि जनकानंद ने अपने गुरु के लिए कैलिफ़ोर्निया के एन्सिनीटस में प्रशांत महासागर के साथ सटा हुआ एक सुंदर आश्रम बनवाया था। यहाँ गुरुदेव ने अपनी आत्मकथा और अन्य लेखन पर काम करते हुए कई साल बिताए, और रिट्रीट कार्यक्रम शुरू किया जो आज भी जारी है।
🇮🇳🔶 उन्होंने कई सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप मंदिरों (एन्सिनीटस, हॉलीवुड और सैन डिएगो) की भी स्थापना की, जहाँ वे नियमित रूप से बहुविविध आध्यात्मिक विषयों पर एसआरएफ़ के श्रद्धालु सदस्यों और मित्रों के समूहों कों प्रवचन देते थे। बाद में इनमें से कई प्रवचन, जिन्हें श्री श्री दया माता ने स्टेनोग्राफी शैली में दर्ज किया था, योगानन्दजी के तीन खंडों में “संकलित प्रवचन एवं आलेख” के रूप में तथा योगदा सत्संग पत्रिका में वाइएसएस/एसआरएफ़ द्वारा प्रकाशित किये गए हैं।
🇮🇳🔶 योगानन्दजी की जीवन कथा, योगी कथामृत, 1946 में प्रकाशित हुई थी (और बाद के संस्करणों में उनके द्वारा इसका विस्तार किया गया था)। अपने प्रथम प्रकाशन के समय से, यह पुस्तक एक सदाबहार सर्वश्रेष्ठ पाठकगण की प्रिय बनकर, निरंतर प्रकाशन में रही है और इसका 50 भाषाओं में अनुवाद किया गया है। इसे व्यापक रूप से आधुनिक आध्यात्मिक गौरव ग्रन्थ माना जाता है।
🇮🇳🔶 1950 में, परमहंसजी ने लॉस एंजिल्स में अपने अंतर्राष्ट्रीय मुख्यालय में पहला सेल्फ़-रियलाइज़शन फ़ेलोशिप विश्व सम्मेलन आयोजित किया। यह एक सप्ताह का कार्यक्रम आज भी हर साल दुनिया भर से हज़ारों लोगों को आकर्षित करता है। उन्होंने उसी वर्ष पैसिफ़िक पैलिसैड्स, लॉस एंजिल्स में एसआरएफ़ लेक श्राइन आश्रम का लोकार्पण भी किया, जो एक झील के किनारे दस एकड़ के ध्यान के उद्यानों में बनाया गया एक सुंदर आश्रम है जहाँ #महात्मा_गाँधी की अस्थिओं का एक भाग भी संजो कर रखा गया है। आज एसआरएफ़ लेक श्राइन कैलिफ़ोर्निया के सबसे प्रमुख आध्यात्मिक स्थलों में से एक बन गया है।
🇮🇳🔶 परमहंस योगानन्द जी के अंतिम वर्ष काफी हद तक एकांत में बिताए गए थे, क्योंकि उन्होंने अपने लेखन को पूरा करने के लिए गहनता से काम किया — जिसमें #भगवद्गीता तथा जीसस क्राइस्ट के चार गोस्पेल्स में दी गयी शिक्षाओं पर उनकी विस्तृत टीका शामिल हैं, और पहले के कार्यों जैसे कि Whispers from Eternity और योगदा सत्संग पाठमाला का पुनःअवलोकन। उन्होंने श्री श्री दया माता, #श्री_श्री_मृणालिनी_माता, और उनके कुछ अन्य घनिष्टतम शिष्यों को आध्यात्मिक और संगठनात्मक मार्गदर्शन प्रदान करने का काम भी किया, जो उनके चले जाने के बाद दुनिया भर में उनका काम करने में सक्षम होंगे ।
🇮🇳🔶 गुरूजी ने उनसे कहा:
“मेरा शरीर नहीं रहेगा, लेकिन मेरा काम चलता रहेगा। और मेरी आत्मा जीवित रहेगी। यहां तक कि मेरे यहाँ से चले जाने के बाद भी मैं आप सभी के साथ मिलकर भगवान के संदेश की सहायता से संसार के उद्धार के लिए काम करूंगा।
“जो लोग सेल्फ़-रियलाइजे़शन फे़लोशिप में वास्तव में आन्तरिक आध्यात्मिक सहायता हेतु आये हैं वह उसे प्राप्त करेंगे जो वो ईश्वर से चाहते हैं। चाहे वे मेरे शरीर में रहते हुए आयें, या बाद में, एस आर एफ् गुरुओं के माध्यम से भगवान की शक्ति उसी भांति उन भक्तों में प्रवाहित होगी, और उनके उद्धार का कारण बनेगी …. अमरगुरु बाबाजी ने सभी सच्चे एस आर एफ भक्तों की प्रगति की रक्षा और मार्गदर्शन करने का वचन दिया है। लाहिड़ी महाशय और श्रीयुक्तेश्वरजी, जिन्होंने अपने शरीरों को त्याग दिया है, और मैं स्वयं, अपना शरीर छोड़ने के बाद भी —सभी वाई एस एस-एस आर एफ के सच्चे सदस्यों की सदा रक्षा और निर्देशन करेंगे। “
🇮🇳🔶 7 मार्च, सन् 1952, को परमहंस जी ने महासमाधि में प्रवेश किया, एक ईश्वर प्राप्त गुरु का मृत्यु के समय शरीर से सचेतन प्रस्थान। उन्होंने लॉस एंजेलिस के बिल्टमोर होटल में संयुक्त राज्य अमेरिका में भारत के राजदूत डॉ बिनय आर सेन के सम्मान में एक भोज में एक लघु भाषण देना समाप्त ही किया था।
🇮🇳🔶 उनके शरीर छोड़ने के समय एक असाधारण घटना हुई । फारेस्ट लॉन मेमोरियल-पार्क के निदेशक द्वारा हस्ताक्षरित एक प्रमाणित पत्र के अनुसार : “उनकी मृत्यु के बीस दिन बाद भी उनके शरीर में किसी प्रकार की विक्रिया नहीं दिखाई पड़ी….शवागार के वृत्ति-इतिहास से हमें जहाँ तक विदित है, पार्थिव शरीर के ऐसे परिपूर्ण संरक्षण की अवस्था अद्वितीय है …. योगानन्दजी की देह निर्विकारता की अद्भुत अवस्था में थी। ”
🇮🇳🔶 वर्षों पूर्व, परमहंस योगानन्दजी के गुरु, स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी ने उन्हें दिव्य प्रेम के अवतार के रूप में संदर्भित किया था। बाद में, उनके शिष्य और पहले आध्यात्मिक उत्तराधिकारी, राजर्षि जनकानंद ने उन्हें प्रेमावतार या “दिव्य प्रेम का अवतार” की उपाधि दी।
🇮🇳🔶 परमहंस योगानन्दजी की महासमाधि की पच्चीसवीं वर्षगाँठ के अवसर पर, मानवता के आध्यात्मिक उत्थान में उनके दूरगामी योगदान को भारत सरकार द्वारा औपचारिक मान्यता दी गई। उनके सम्मान में एक विशेष स्मारक डाक टिकट जारी किया गया था, साथ में एक श्रद्धांजलि जिसमें यह भी लिखा था:
🇮🇳🔶 “ईश्वर प्रेम तथा मानव-सेवा के आदर्श ने परमहंस योगानन्द के जीवन में सम्पूर्ण अभिव्यक्ति पाई….यद्यपि उनके जीवन का अधिकतर भाग भारत से बाहर व्यतीत हुआ, फिर भी उनका स्थान हमारे महान् सन्तों में है। उनका कार्य हर जगह परमात्मा प्राप्ति के मार्ग पर लोगों को आकर्षित करता हुआ, निरन्तर वृद्धि एवं अधिकाधिक दीप्तिमान हो रहा है।”
साभार: yssofindia.org
🇮🇳 विश्वप्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरू, योगी और संत #परमहंस_योगानन्द जी के महासमाधि दिवस की वर्षगाँठ के अवसर पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि !
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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व
साभार: चन्द्र कांत (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था
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