21 मार्च 2024

Major Mohit Sharma | मेजर मोहित शर्मा

 


‘शक है तो गोली मार दो’: इफ्तिखार भट्ट बन जब मेजर मोहित शर्मा ने आतंकियों के बीच बनाई पैठ, फिर ठोक दिया 🇮🇳

🇮🇳 हरियाणा के रोहतक में आज भी पैरा स्पेशल फोर्स के ऑफिसर मेजर मोहित शर्मा को उनकी बहादुरी के लिए घर-घर में याद किया जाता है। मरणोपतरांत अशोक चक्र से सम्मानित इस हुतात्मा ने साल 2009 में उत्तर कश्मीर के कुपवाड़ा जिले में एक सैन्य ऑपरेशन के दौरान अंतिम साँस ली थी। लेकिन, साल 2004 में इनके द्वारा किया गया एक ऑपरेशन आज भी कइयों के लिए प्रेरणा है।

🇮🇳 शिव अरूर और राहुल सिंह की किताब ‘इंडिया मोस्ट फीयरलेस 2’ में  इस बात का जिक्र है कि कैसे मेजर मोहित शर्मा ने इस्लामी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन में घुसपैठ करके दो खूँखार आतंकियों को मारा। 

🇮🇳 दक्षिण कश्मीर से 50 किमी दूर शोपियाँ में मेजर ने अपने ऑपरेशन को अंजाम दिया था। मेजर ने इस काम के लिए सबसे पहले अपना नाम और हुलिया बदला। उन्होंने लम्बी दाढ़ी-मूँछ रख कर आतंकियों की तरह अपने हाव-भाव बनाए। फिर इफ्तिखार भट्ट नाम के जरिए वह अबू तोरारा और अबू सबजार के संपर्क में आए।

🇮🇳 इसके बाद मेजर ने बतौर इफ्तिखार भट्ट दोनों हिजबुल आतंकियों को ये कहकर विश्वास दिलाया कि भारतीय सेना ने उनके भाई को साल 2001 में मारा था और अब वह बस सेना पर हमला करके बदला चाहते हैं। उन्होंने अपने मनगढ़ंत मंसूबे बताकर आतंकियों से कहा कि इस काम में उन्हें उन दोनों की मदद चाहिए। मेजर शर्मा ने दोनों आतंकियों से कहा कि उन्हें आर्मी के चेक प्वाइंट पर हमला बोलना है और उसके लिए वह जमीनी काम कर चुके हैं।

🇮🇳 मेजर शर्मा के इस ऑपरेशन में आतंकियों ने कई बार उनसे उनकी पहचान पूछी। लेकिन वह कहते, “मुझे तुम्हारी मदद चाहिए। मुझको सीखना है।” तोरारा ने तो कई बार उनकी पहचान के बारे में उनसे पूछा। लेकिन आखिरकार वे मेजर शर्मा के जाल में फँस गए और मदद करने को राजी हो गए। आतंकियों ने उन्हें बताया कि वह कई हफ्तों तक अंडरग्राउंड रहेंगे और आतंंकी हमले के लिए मदद जुटाएँगे। किसी तरह मेजर ने उन्हें मना ही लिया कि वह तब तक घर नहीं लौटेंगे जब तक चेक प्वाइंट को उड़ा नहीं देते।

🇮🇳 देखते ही देखते आने वाले दिनों में दोनों आतंकियों ने सब व्यवस्था कर ली। साथ ही पास के ग्रामों से तीन आतंकियों को भी बुला लिया। जब तोरारा को दोबारा संदेह हुआ तो मेजर ने उससे कहा, “अगर मेरे बारे में कोई शक है तो मुझे मार दो।” अपने हाथ से राइफल छोड़ते हुए वह आतंकियों से बोले, “तुम ऐसा नहीं कर सकते, अगर तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है। इसलिए तुम्हारे पास अब मुझे मारने के अलावा कोई चारा नहीं है।”

🇮🇳 मेजर की बातें सुनकर दोनों आतंकी असमंजस में पड़ गए। इतने में मेजर मोहित शर्मा को मौका मिला और उन्होंने थोड़ी दूर जाकर अपनी 9 mm पिस्टल को लोड कर दोनों आतंकियों को मौत के घाट उतार दिया। उन्होंने दो गोलियाँ आतंकियों के छाती पर मारी और एक सिर में। इसके बाद वह उनके हथियार उठाकर भागकर नजदीक के आर्मी कैंप में गए।

🇮🇳 इस ऑपरेशन के 5 साल बाद कुपवाड़ा के एक सैन्य ऑपरेशन में वह स्वयं भी बलिदान हो गए। अपने आखिरी समय में भी मेजर ने अपने कई साथियों को सुरक्षित बचाया। आखिर में सीने में गोली लगने के कारण दम तो़ड़ने वाले मेजर मोहित शर्मा के शूरता के किस्से आज भी समय-समय पर दोहराए जाते हैं। हाल में उनकी कहानी नेशन फर्स्ट, ऑलवेज और एवरीटाइम नाम के ट्विटर अकॉउंट पर एक पूरे स्टोरी थ्रेड में शेयर की गई है।

साभार : opindia.com

🇮🇳 #अशोक_चक्र से सम्मानित; माँ भारती की रक्षा के संकल्प को पूरा करने के लिए अद्भुत वीरता, सूझबूझ और साहस का परिचय देने वाले अमर हुतात्मा #मेजर_मोहित_शर्मा जी को उनके बलिदान दिवस पर कोटि-कोटि नमन !

#Ashoka_Chakra

#Major_Mohit_Sharma


🇮🇳💐🙏

🇮🇳 जय हिन्द, जय हिन्द की सेना 🇮🇳

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. 



Nataraja Ramakrishna | नटराज रामकृष्ण | Dance master | Kuchipudi | Traditional dance |

 



नटराज रामकृष्ण को 700 साल पुराने नृत्य रूप #पेरिनी_शिवतांडवम को पुनर्जीवित करने के लिए जाना जाता है। उन्होंने #कुचिपुड़ी को पारंपरिक #नृत्य रूप के साथ अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई। 🇮🇳

🇮🇳 नटराज रामकृष्ण (जन्म- 21 मार्च, 1923; मृत्यु- 7 जून, 2011) भारत के एक नृत्य गुरु थे। वे आंध्र प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष रहे थे। वह एक विद्वान और संगीतज्ञ भी थे, जिन्होंने आंध्र प्रदेश और दुनिया भर में शास्त्रीय नृत्य को बढ़ावा दिया। उन्होंने 40 से अधिक पुस्तकें लिखीं, जिनमें से कई को अत्यधिक सम्मानित किया गया। नृत्य की कला में नटराज रामकृष्ण के योगदान को व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त है।

🇮🇳 मात्र 18 साल की उम्र में ही नटराज रामकृष्ण को मराठा के तत्कालीन शासक द्वारा नागपुर में 'नटराज' की उपाधि दी गई थी।

🇮🇳 नटराज रामकृष्ण को 700 साल पुराने नृत्य रूप 'पेरिनी शिवतांडवम' को पुनर्जीवित करने के लिए जाना जाता है। उन्होंने कुचिपुड़ी को पारंपरिक नृत्य रूप के साथ अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई।

🇮🇳 आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नीलम संजीव रेड्डी के अनुरोध पर नटराज रामकृष्ण ने हैदराबाद में 'नृत्य निकेतन' नामक नृत्य विद्यालय की स्थापना की थी।

🇮🇳 सन 1991 में उन्हें 'राजा-लक्ष्मी पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था।

🇮🇳 अपने लंबे करियर में नटराज रामकृष्ण ने कई नर्तकियों को प्रशिक्षित किया और अत्यधिक प्रशंसित नृत्य नाटकों को लिखा और कोरियोग्राफ किया।

🇮🇳 उन्होंने 'चिंदू यक्षगानम' का प्रचार करने में बहुत मदद की, जो तेलंगाना का एक प्राचीन लोक रूप है। उन्होंने श्रीकाकुलम और विजयनगरम जिलों के टपेटागल्लू, पूर्व और पश्चिम गोदावरी जिलों के वीरा नाट्यम और गरगालु, देवदासी जैसी अन्य लोक कलाओं को भी पुनर्जीवित किया।

🇮🇳 नटराज रामकृष्ण ने #डोमारस, #गुरवाययालु, #उरुमुलु और #वेदी_भगवतुलु जैसे नृत्य कलाकारों की भी मदद की और उन्हें प्रोत्साहित किया।

🇮🇳 उन्होंने भगवान वेंकटेश्वर के जीवन की रचना "नृत्य नाटक" (#बैले) के रूप में की थी।

🇮🇳 भारत सरकार द्वारा प्रायोजित एक शोध छात्र के रूप में नटराज रामकृष्ण ने तत्कालीन यूएसएसआर (अब रूस) और फ्रांस में भारतीय नृत्य कला का प्रचार करने के लिए काम किया, जिससे भारतीय और पश्चिमी शास्त्रीय और लोक नृत्यों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया।

🇮🇳 उन्हें 21 जनवरी 2011 को संगीत नाटक अकादमी फैलोशिप से सम्मानित किया गया था।

साभार: bharatdiscovery.org

🇮🇳 संगीत नाटक अकादमी फैलोशिप से सम्मानित; भारत के सुप्रसिद्ध #नृत्यगुरु #पद्मश्री #नटराज_रामकृष्ण जी को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

#danceguru  #padmashree  #Natraj_Ramakrishna 

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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Ustad Bismillah Khan | उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ | Shehnai Player | शहनाई वादक

 



वर्ष 1947 में #आजादी की पूर्व संध्या पर जब लालकिले पर देश का झंडा फहरा रहा था, तब बिस्मिल्लाह ख़ाँ की शहनाई भी वहाँ आज़ादी का संदेश बाँट रही थी। तब से लगभग हर साल 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के भाषण के बाद बिस्मिल्लाह ख़ाँ का #शहनाई वादन एक प्रथा बन गयी। 🇮🇳

🇮🇳 हिन्दी फ़िल्म #स्वदेश के गीत #ये_जो_देश_है_तेरा में शहनाई की मधुर तान बिखेरी थी। 🇮🇳

🇮🇳 उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ (जन्म- 21 मार्च, 1916, बिहार; मृत्यु- 21 अगस्त, 2006) 'भारत रत्न' से सम्मानित प्रख्यात शहनाई वादक थे। सन 1969 में 'एशियाई संगीत सम्मेलन' के 'रोस्टम पुरस्कार' तथा अनेक अन्य पुरस्कारों से सम्मानित बिस्मिल्लाह खाँ ने शहनाई को भारत के बाहर एक विशिष्ट पहचान दिलवाने में मुख्य योगदान दिया। 

🇮🇳 बिस्मिल्लाह ख़ाँ का जन्म 21 मार्च, 1916 को #बिहार के #डुमरांव नामक स्थान पर हुआ था। उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ विश्व के सर्वश्रेष्ठ शहनाई वादक माने जाते थे। उनके परदादा शहनाई नवाज़ #उस्ताद_सालार_हुसैन_ख़ाँ से शुरू यह परिवार पिछली पाँच पीढ़ियों से शहनाई वादन का प्रतिपादक रहा है। बिस्मिल्लाह ख़ाँ को उनके चाचा #अली_बक्श_विलायतु ने संगीत की शिक्षा दी, जो #बनारस के पवित्र #विश्वनाथ_मन्दिर में अधिकृत शहनाई वादक थे।

🇮🇳 उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ के नाम के साथ एक दिलचस्प वाकया भी जुड़ा हुआ है। उनका जन्म होने पर उनके दादा #रसूल_बख्श_ख़ाँ ने उनकी तरफ़ देखते हुए 'बिस्मिल्ला' कहा। इसके बाद उनका नाम 'बिस्मिल्ला' ही रख दिया गया। उनका एक और नाम 'कमरूद्दीन' था। उनके पूर्वज बिहार के भोजपुर रजवाड़े में दरबारी संगीतकार थे। उनके पिता #पैंगबर_ख़ाँ इसी प्रथा से जुड़ते हुए डुमराव रियासत के #महाराजा_केशव_प्रसाद_सिंह के दरबार में शहनाई वादन का काम करने लगे। छह साल की उम्र में बिस्मिल्ला को बनारस ले जाया गया। यहाँ उनका संगीत प्रशिक्षण भी शुरू हुआ और #गंगा के साथ उनका जुड़ाव भी। ख़ाँ साहब 'काशी विश्वनाथ मंदिर' से जुड़े अपने चाचा अली बख्श ‘विलायतु’ से शहनाई वादन सीखने लगे।

🇮🇳 बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने जटिल संगीत की रचना, जिसे तब तक शहनाई के विस्तार से बाहर माना जाता था, में परिवर्द्धन करके अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया और शीघ्र ही उन्हें इस वाद्य से ऐसे जोड़ा जाने लगा, जैसा किसी अन्य वादक के साथ नहीं हुआ। उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने भारत के पहले गणतंत्र दिवस समारोह की पूर्व संध्या पर नई दिल्ली में लाल क़िले से अत्यधिक मर्मस्पर्शी शहनाई वादक प्रस्तुत किया।

🇮🇳 बिस्मिल्ला ख़ाँ ने 'बजरी', 'चैती' और 'झूला' जैसी लोकधुनों में बाजे को अपनी तपस्या और रियाज़ से ख़ूब सँवारा और क्लासिकल मौसिक़ी में शहनाई को सम्मानजनक स्थान दिलाया। इस बात का भी उल्लेख करना आवश्यक है कि जिस ज़माने में बालक बिस्मिल्लाह ने शहनाई की तालीम लेना शुरू की थी, तब गाने बजाने के काम को इ़ज़्जत की नज़रों से नहीं देखा जाता था। ख़ाँ साहब की माता जी शहनाई वादक के रूप में अपने बच्चे को कदापि नहीं देखना चाहती थीं। वे अपने पति से कहती थीं कि- "क्यों आप इस बच्चे को इस हल्के काम में झोक रहे हैं"।

🇮🇳 उल्लेखनीय है कि शहनाई वादकों को तब विवाह आदि में बुलवाया जाता था और बुलाने वाले घर के आँगन या ओटले के आगे इन कलाकारों को आने नहीं देते थे। लेकिन बिस्मिल्लाह ख़ाँ साहब के पिता और मामू अडिग थे कि इस बच्चे को तो शहनाई वादक बनाना ही है। उसके बाद की बातें अब इतिहास हैं।

अफ़ग़ानिस्तान, यूरोप, ईरान, इराक, कनाडा, पश्चिम अफ़्रीका, अमेरिका, भूतपूर्व सोवियत संघ, जापान, हांगकांग और विश्व भर की लगभग सभी राजधानियों में बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने शहनाई का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। मज़हबी शिया होने के बावज़ूद ख़ाँ साहब विद्या की हिन्दू #देवी_सरस्वती के परम उपासक थे। 'बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय' और 'शांतिनिकेतन' ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि प्रदान करके सम्मानित किया था। उनकी शहनाई की गूँज आज भी लोगों के कानों में गूँजती है।

🇮🇳 'भारतीय शास्त्रीय संगीत' और संस्कृति की फिजा में शहनाई के मधुर स्वर घोलने वाले प्रसिद्ध शहनाई वादक बिस्मिल्ला ख़ाँ शहनाई को अपनी बेगम कहते थे और संगीत उनके लिए उनका पूरा जीवन था। पत्नी के इंतकाल के बाद शहनाई ही उनकी बेगम और संगी-साथी दोनों थी, वहीं संगीत हमेशा ही उनका पूरा जीवन रहा। उनके ऊपर लिखी एक किताब ‘सुर की बारादरी’ में लेखक यतीन्द्र मिश्र ने लिखा है- "ख़ाँ साहब कहते थे कि संगीत वह चीज है, जिसमें जात-पात कुछ नहीं है। संगीत किसी मजहब का बुरा नहीं चाहता।" किताब में मिश्र ने बनारस से बिस्मिल्लाह ख़ाँ के जुड़ाव के बारे में भी लिखा है। उन्होंने लिखा है कि- "ख़ाँ साहब कहते थे कि उनकी शहनाई बनारस का हिस्सा है। वह ज़िंदगी भर #मंगलागौरी और पक्का महल में रियाज करते हुए जवान हुए हैं तो कहीं ना कहीं बनारस का रस उनकी शहनाई में टपकेगा ही।"

🇮🇳 बिस्मिल्ला ख़ाँ ने मंदिरों, राजे-जरवाड़ों के मुख्य द्वारों और शादी-ब्याह के अवसर पर बजने वाले लोकवाद्य शहनाई को अपने मामू #उस्ताद_मरहूम_अलीबख़्श के निर्देश पर 'शास्त्रीय संगीत' का वाद्य बनाने में जो अथक परिश्रम किया, उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती। #उस्ताद_विलायत_ख़ाँ के सितार और #पण्डित_वी_जी_जोग के वायलिन के साथ ख़ाँ साहब की शहनाई जुगलबंदी के एल. पी. रिकॉडर्स ने बिक्री के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले। इन्हीं एलबम्स के बाद जुगलबंदियों का दौर चला। संगीत-सुर और नमाज़ इन तीन बातों के अलावा बिस्मिल्लाह ख़ाँ के लिए सारे इनाम-इक़राम, सम्मान बेमानी थे। उन्होंने एकाधिक बार कहा कि- "सिर्फ़ संगीत ही है, जो इस देश की विरासत और तहज़ीब को एकाकार करने की ताक़त रखता है"। बरसों पहले कुछ कट्टरपंथियों ने बिस्मिल्ला ख़ाँ के शहनाई वादन पर आपत्ति की। उन्होंने आँखें बद कीं और उस पर "अल्लाह हू" बजाते रहे। थोड़ी देर बाद उन्होंने मौलवियों से पूछा- "मैं अल्लाह को पुकार रहा हूँ, मैं उसकी खोज कर रहा हूँ। क्या मेरी ये जिज्ञासा हराम है"। निश्चित ही सब बेज़ुबान हो गए। सादे पहनावे में रहने वाले बिस्मिल्ला ख़ाँ के बाजे में पहले वह आकर्षण और वजन नहीं आता था। उन्हें अपने उस्ताद से हिदायत मिली कि व्यायाम किए बिना साँस के इस बाजे से प्रभाव नहीं पैदा किया जा सकेगा। इस पर बिस्मिल्ला ख़ाँ उस्ताद की बात मानकर सुबह-सुबह गंगा के घाट पहुँच जाते और व्यायाम से अपने शरीर को गठीला बनाते। यही वजह है कि वे बरसों पूरे भारत में घूमते रहे और शहनाई का तिलिस्म फैलाते रहे।

🇮🇳 भारत की आजादी और ख़ाँ की शहनाई का भी ख़ास रिश्ता रहा है। 1947 में आजादी की पूर्व संध्या पर जब लालकिले पर देश का झंडा फहरा रहा था तब उनकी शहनाई भी वहाँ आजादी का संदेश बाँट रही थी। तब से लगभग हर साल 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के भाषण के बाद बिस्मिल्लाह का शहनाई वादन एक प्रथा बन गयी। ख़ाँ ने देश और दुनिया के अलग अलग हिस्सों में अपनी शहनाई की गूँज से लोगों को मोहित किया। अपने जीवन काल में उन्होंने ईरान, इराक, अफ़ग़ानिस्तान, जापान, अमेरिका, कनाडा और रूस जैसे अलग-अलग मुल्कों में अपनी शहनाई की जादुई धुनें बिखेरीं।

बिस्मिल्ला ख़ाँ ने कई फ़िल्मों में भी संगीत दिया। उन्होंने कन्नड़ फ़िल्म ‘सन्नादी अपन्ना’, हिंदी फ़िल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ और सत्यजीत रे की फ़िल्म ‘जलसाघर’ के लिए शहनाई की धुनें छेड़ी। आखिरी बार उन्होंने आशुतोष गोवारिकर की हिन्दी फ़िल्म ‘स्वदेश’ के गीत ‘ये जो देश है तेरा' में शहनाई की मधुर तान बिखेरी थी।

🇮🇳 संगीतकारों का मानना है कि उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान साहब की बदौलत ही शहनाई को पहचान मिली है और आज उसके विदेशों तक में दीवाने हैं। वो ऐसे इंसान और संगीतकार थे कि उनकी प्रशंसा में संगीतकारों के पास भी शब्दों की कमी नज़र आई। पंडित जसराज हों या हरिप्रसाद चौरसिया सभी का मानना है कि वो एक संत संगीतकार थे।

🇮🇳 #पंडित_जसराज का मानना है- उनके जैसा महान् संगीतकार न पैदा हुआ है और न कभी होगा। मैं सन् 1946 से उनसे मिलता रहा हूँ। पहली बार उनका संगीत सुनकर मैं पागल सा हो गया था। मुझे पता नहीं था कि संगीत इतना अच्छा भी हो सकता है। उनके संगीत में मदमस्त करने की कला थी, वह मिठास थी जो बहुत ही कम लोगों के संगीत में सुनने को मिलती है। मैं उनके बारे में जितना भी कहूँगा बहुत कम होगा क्योंकि वो एक ऐसे इंसान थे जिन्होंने कभी दिखावे में यकीन नहीं किया। वो हमेशा सबको अच्छी राह दिखाते थे और बताते थे। वो ऑल इंडिया रेडियो को बहुत मानते थे और हमेशा कहा करते कि मुझे ऑल इंडिया रेडियो ने ही बनाया है। वो एक ऐसे फरिश्ते थे जो धरती पर बार-बार जन्म नहीं लेते हैं और जब जन्म लेते हैं तो अपनी अमिट छाप छोड़ जाते है।

🇮🇳 बाँसुरी वादक #हरिप्रसाद_चौरसिया का कहना है- बिस्मिल्ला ख़ाँ साहब भारत की एक महान् विभूति थे, अगर हम किसी संत संगीतकार को जानते है तो वो हैं बिस्मिल्ला खा़न साहब। बचपन से ही उनको सुनता और देखता आ रहा हूं और उनका आशीर्वाद सदा हमारे साथ रहा। वो हमें दिशा दिखाकर चले गए, लेकिन वो कभी हमसे अलग नहीं हो सकते हैं। उनका संगीत हमेशा हमारे साथ रहेगा। उनके मार्गदर्शन पर अनेक कलाकार चल रहे हैं। शहनाई को उन्होंने एक नई पहचान दी। शास्त्रीय संगीत में उन्होंने शहनाई को जगह दिलाई इससे बड़ी बात क्या हो सकती है। यह उनकी मेहनत और शहनाई के प्रति समर्पण ही था कि आज शहनाई को भारत ही नहीं बल्कि पूरे संसार में सुना और सराहा जा रहा है। उनकी कमी तो हमेशा ही रहेगी। मेरा मानना है कि उनका निधन नहीं हो सकता क्योंकि वो हमारी आत्मा में इस कदर रचे बसे हुए हैं कि उनको अलग करना नामुमकिन है।

🇮🇳 सन 1956 में बिस्मिल्लाह ख़ाँ को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

🇮🇳 सन 1961 में उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया गया।

🇮🇳 सन 1968 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।

🇮🇳 सन 1980 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।

🇮🇳 2001 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

🇮🇳 मध्य प्रदेश में उन्हें सरकार द्वारा तानसेन पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।

🇮🇳 बिस्मिल्ला ख़ान ने एक संगीतज्ञ के रूप में जो कुछ कमाया था वो या तो लोगों की मदद में ख़र्च हो गया या अपने बड़े परिवार के भरण-पोषण में। एक समय ऐसा आया जब वो आर्थिक रूप से मुश्किल में आ गए थे, तब सरकार को उनकी मदद के लिए आगे आना पड़ा था। उन्होंने अपने अंतिम दिनों में दिल्ली के इंडिया गेट पर शहनाई बजाने की इच्छा व्यक्त की थी लेकिन उस्ताद की यह इच्छा पूरी नहीं हो पाई और 21 अगस्त, 2006 को 90 वर्ष की आयु में इनका देहावसान हो गया।

साभार: bharatdiscovery.org

🇮🇳 #भारतरत्न, 'रोस्टम पुरस्कार', #पद्मश्री, #पद्मभूषण, #पद्मविभूषण और 'तानसेन पुरस्कार' से सम्मानित; विश्वविख्यात सर्वश्रेष्ठ #शहनाई_वादक #उस्ताद_बिस्मिल्लाह_ख़ाँ जी को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

#शहनाई_वादक #उस्ताद_बिस्मिल्लाह_ख़ाँ 

#Shehnai_Player #Ustad_Bismillah_Khan

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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Shaheed Raghunath Mahato | शहीद रघुनाथ महतो

 



अमर शहीद रघुनाथ महतो (जन्म: 21 मार्च 1738 - बलिदान: 5 अप्रैल 1778) का इतिहास बयां करते हैं गड़े पत्थर 🇮🇳

🇮🇳 वे चुहाड़ विद्रोह के महानायक थे। क्रांति वीर रघुनाथ महतो व उनके कुछ सहयोगियों की वीरगाथा को कीता-लोटा में गड़े पत्थर याद कराते हैं।

🇮🇳 झारखंड की धरती ने अनेक महान देशभक्तों को जन्म दिया जिन्होंने अंग्रेजों की गुलामी से देश को आजाद कराने के लिए हँसते-हँसते अपने प्राणों की आहूति दे दी। झारखंड के ऐसे शहीदों में एक नाम है अमर शहीद रघुनाथ महतो का। वे चुहाड़ विद्रोह के महानायक थे। क्रांति वीर रघुनाथ महतो व उनके कुछ सहयोगियों की वीरगाथा को कीता-लोटा में गड़े पत्थर याद कराते हैं।

🇮🇳 1857 के सिपाही विद्रोह से काफी पहले पहले 1769 में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ चुहाड़ विद्रोह हुआ था। इसका उल्लेख इतिहासकार शमिक सेन, डॉ. वीरभारत तलवार व भारत का मुक्ति संग्राम के लेखक अयोध्या सिंह आदि ने किया है। संभवत: यह अंग्रेजों के खिलाफ प्रथम संगठित विद्रोह था। उस जमाने में ब्रिटिश राज के विरुद्व जो लोग विद्रोह करते थे उन्हें बदमाश, चुहाड़ आदि कहा जाता था। इसीलिए इस विद्रोह का नाम ''चुहाड़ विद्रोह'' पड़ा। उस जमाने में क्रांतिकारियों के बारे में चर्चा करना अपराध था।

🇮🇳 बगैर कुछ लिखे इन पत्थरों को गाड़ कर रखा गया था, ताकि इतिहास कभी न कभी सामने आए। भारत का मुक्ति संग्राम किताब के अनुसार महान क्रांतिकारी रघुनाथ महतो की सांगठनिक क्षमता व युद्धकला से अंग्रेज डरते थे। रघुनाथ महतो के साथ हथियारों से लैस डेढ़-दो सौ लोगों का लड़ाकु दस्ता हमेशा रहता था। इस कारण अंग्रेजों की सेना भी उन्हें पकड़ने की हिम्मत नहीं करती थी। 1769 से 1778 के बीच रघुनाथ महतो के नेतृत्व में चुहाड़ विद्रोहियों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के दर्जनों अफसरों व सैकड़ों फिरंगी सैनिकों को मार दिया था। इसी के बाद अंग्रेज सेनापति विलकिंग्सन ने उनके खिलाफ ठोस रणनीति बनानी शुरू कर दी। उस जमाने में विद्रोहियों की रात में सभा होती थी।

🇮🇳 रघुनाथ महतो को पकड़ना उतना आसान नहीं था। फरवरी 1778 में विद्रोहियों ने दामोदर नदी पार कर झरिया के राजा के क्षेत्र मे चढ़ाई कर दी। रात को राजा के बैरक में शस्त्र लूटने के उद्देश्य से हमला किया गया। दामोदर नदी किनारे एक सभा की गई। अगली रणनीति के लिए विद्रोहियों को तैयार रहने को कहा गया। रघुनाथ महतो की सेना में करीब पाँच हजार विद्रोही थे और वे तीर-धनुष, टागी, फरसा, तलवार, भाला आदि पारंपरिक हथियारो से लैस रहा करते थे। इन लोगों ने प्रस्ताव पारित किया कि जब तक अंग्रेज हमारी जमीन जमींदारों के हाथों सौंपते रहेंगे तथा राजस्व में वृद्वि करते रहेंगे तब तक हम किसी भी हालत में आंदोलन बंद नहीं करेंगे और हमारी जंग जारी रहेगी। गॉंव-गॉंव से काफी संख्या में अंग्रेजों के विरुद्व संघर्ष करने हेतु रघुनाथ महतो के समर्थन में कृषक कूद पड़े।

🇮🇳 पाँच अप्रैल 1778 को रघुनाथ महतो विद्रोहियों के साथ राँची जिला अ‌र्न्तगत सिल्ली प्रखंड के किता-लोटा जंगल के पास बैठक कर रामगढ़ पुलिस छावनी में हमला करने हेतु रणनीति बना रहे थे। उस समय चारों तरफ से अंग्रेजों की सेना ने उन्हें घेरकर गोलियों की बौछार कर दी। रघुनाथ महतो समेत दर्जनों विद्रोही अंग्रेजों से लड़ते हुए शहीद हो गए। कीता गाव के चापाडीह़ निवासी कालीचरण महतो (65) ने जिस स्थान पर रघुनाथ महतो व उनके सहयोगी बुली महतो शहीद हुए, उसी स्थान पर एक बड़ा पत्थर रघुनाथ व साथ में एक छोटा पत्थर बुली महतो की स्मृति में गाड़े गये थे। आस-पास और छह क्रांतिकारी शहीद हुए, उन स्थानों पर छह पत्थर गाड़े गए। नदी पार लोटा गाँव में चार क्रांतिकारी शहीद हुए, वहाँ चार पत्थर गाड़े गए। ये पत्थर आज भी उन वीरों की शहादत की याद दिलाते हैं।

साभार: jagran.com

🇮🇳 1769 से 1778 के दौरान झारखंड़ में ब्रिटिश शासन के विरूद्ध #चुहाड़_विद्रोह (चुहाड़ क्रांति) के महानायक क्रांतिवीर #रघुनाथ_महतो  #Raghunath_Mahto जी को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. 

Freedom fighter Manvendra Nath Rai | स्वतंत्रतासेनानी मानवेन्द्र नाथ रॉय

 



क्रांतिकारी मानवेन्द्र नाथ रॉय (21 मार्च 1887- 25 जनवरी 1954) 🇮🇳

🇮🇳 एमएन रॉय बीसवीं सदी के भारतीय दार्शनिक थे। उन्होंने अपना करियर एक उग्रवादी राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में शुरू किया और भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह आयोजित करने के लिए हथियारों की तलाश में 1915 में भारत छोड़ दिया। हालाँकि, हथियार सुरक्षित करने के रॉय के प्रयास विफल रहे और अंततः जून 1916 में, वह सैन फ्रांसिस्को, कैलिफ़ोर्निया पहुँचे। यहीं पर रॉय, जो उस समय #नरेंद्र_नाथ_भट्टाचार्य के नाम से जाने जाते थे, ने अपना नाम बदलकर मनबेंद्र नाथ रॉय रख लिया। रॉय ने कई अमेरिकी कट्टरपंथियों के साथ मित्रता विकसित की और न्यूयॉर्क पब्लिक लाइब्रेरी में अक्सर जाते रहे। उन्होंने समाजवाद का एक व्यवस्थित अध्ययन शुरू किया, मूल रूप से इसका मुकाबला करने के इरादे से, लेकिन जल्द ही उन्हें पता चला कि वे स्वयं समाजवादी बन गए थे! रॉय 1920 में मॉस्को में लेनिन से मिले और एक अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग वाले कम्युनिस्ट नेता बन गए। फिर भी, सितंबर 1929 में उन्हें विभिन्न कारणों से कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से निष्कासित कर दिया गया। दिसंबर 1930 में वह भारत लौट आए और उन्हें कानपुर कम्युनिस्ट षडयंत्र मामले में उनकी भूमिका के लिए छह साल की कैद की सजा सुनाई गई।

🇮🇳 रॉय की वास्तविक दार्शनिक खोज उनके जेल के वर्षों के दौरान शुरू हुई, जिसका उपयोग उन्होंने 'आधुनिक विज्ञान के दार्शनिक परिणामों' का एक व्यवस्थित अध्ययन लिखने के लिए करने का निर्णय लिया, जो कि मार्क्सवाद की पुन: परीक्षा और पुन: सूत्रीकरण होगा, जिसकी उन्होंने 1919 से सदस्यता ली थी। रिफ्लेक्शन्स, जिसे रॉय ने पांच साल की अवधि में जेल में लिखा, नौ कठोर खंडों में विकसित हुआ। 'जेल पांडुलिपियाँ' अभी तक अपनी समग्रता में प्रकाशित नहीं हुई हैं, और वर्तमान में नई दिल्ली में नेहरू मेमोरियल संग्रहालय और पुस्तकालय अभिलेखागार में संरक्षित हैं। हालाँकि, पांडुलिपि के चयनित अंश 1930 और 1940 के दशक में अलग-अलग पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किए गए थे।

🇮🇳 अपने दार्शनिक कार्यों में रॉय ने दर्शन और धर्म के बीच स्पष्ट अंतर किया है। रॉय के अनुसार, कोई भी दार्शनिक उन्नति तब तक संभव नहीं है जब तक हम रूढ़िवादी धार्मिक विचारों और धार्मिक हठधर्मिता से छुटकारा नहीं पा लेते। दूसरी ओर, रॉय ने दर्शन और विज्ञान के बीच बहुत घनिष्ठ संबंध की परिकल्पना की है। इसके अलावा, रॉय ने अपने दर्शन में बौद्धिक और दार्शनिक क्रांति को केंद्रीय स्थान दिया है। रॉय का कहना था कि सामाजिक क्रांति से पहले एक दार्शनिक क्रांति अवश्य होनी चाहिए। इसके अलावा, रॉय ने अठारहवीं सदी के फ्रांसीसी भौतिकवादी होलबैक की परंपरा में, बीसवीं सदी के वैज्ञानिक विकास के आलोक में भौतिकवाद को संशोधित और पुनर्स्थापित किया है। भारतीय दर्शन के संदर्भ में, रॉय को प्राचीन भारतीय भौतिकवाद - लोकायत और चार्वाक दोनों की परंपरा में रखा जा सकता है।

🇮🇳 एमएन रॉय का मूल नाम नरेंद्र नाथ भट्टाचार्य था। उनका जन्म 21 मार्च 1887 को #बंगाल के 24 परगना जिले के एक गाँव #अर्बलिया में हुआ था। उनके पिता, #दीनबंधु_भट्टाचार्य, एक स्थानीय स्कूल के प्रधान पंडित थे। उनकी माता का नाम #बसंता_कुमारी था।

🇮🇳 25 जनवरी 1954 को आधी रात से दस मिनट पहले एमएन रॉय की दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई। उस समय उनकी उम्र लगभग 67 वर्ष थी।

साभार: iep.utm.edu

🇮🇳 वर्तमान शताब्दी के भारतीय दार्शनिकों में क्रान्तिकारी विचारक तथा मानवतावाद के प्रबल समर्थक क्रांतिकारी #स्वतंत्रतासेनानी #मानवेन्द्र_नाथ_रॉय जी को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

#FreedomFighter #Manvendra_Nath_Roy

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 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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Kushal Konwar | कुशल कोंवर | Revolutionary | क्रांतिकारी

 



फाँसी से पहले जेल में बचे उनके शेष समय के दौरान उन्होंने अपना समय गीता पढ़ कर बिताया। कुशल ने लगभग 112 दिन जेल में बिताए। 🇮🇳

🇮🇳 कुशल कोंवर जो ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ भारत छोड़ो आन्दोलन का हिस्सा रहे। उसी दौरान आन्दोलन ने कुछ क्षेत्रों में हिंसक रूप ले लिया। कुशल कोंवर को एक ऐसे गुनाह के लिए गिरफ्तार किया जो उन्होंने किया भी नहीं था। इस गुनाह के लिए उन्हें फाँसी की सजी दी गई। बिना किसी गलती और गुनाह के बाद भी उन्होंने फाँसी की इस सजा को स्वीकार किया। 

🇮🇳 कुशल कोंवर का जन्म 21 मार्च 1905 में हुआ था। कुशल का जन्म #असम के #गोलाघाट जिले में हुआ था। वह एक शाही परिवार से थे। #अहोम_साम्राज्य के शाही परिवार से होने पर उन्होंने कोंवर सरनेम का प्रयोग किया था। जिसे बाद में उन्होंने छोड़ भी दिया था। कुशल एक ऐसे व्यक्ति थे, जो शांत थे और सच्चाई से प्यार करने वाले थे। ये गुण उन्हें उनके माता-पिता #कनकेश्वरी_कोंवर और #सोनाराम_कोंवर से मिले थे।

🇮🇳 कुशल ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा #बेजबरुआ स्कूल से हासिल की। अपनी प्रारंभिक शिक्षा के बाद कुशल ने 1918 में गोलाघाट के गवर्नमेंट हाई स्कूल में आगे की शिक्षा प्राप्त की। 1921 के समय की बात है उस दौरान वह स्कूल में थे। गॉंधी जी का #असहयोग_आन्दोलन चल रहा था और उनके इस आन्दोलन से कुशल बहुत प्रभावित हुए जिसके बाद से उन्होंने इस आन्दोलन में सक्रिय रूप से भूमिका निभाई।

🇮🇳 1919 में जब ब्रिटिश सरकार ने #जलियांवाला_बाग हत्याकांड और रॉलेट एक्ट जारी किया उस दौरान कुशल केवल 17 वर्ष के थे। इस एक्ट का असल जलियांवाला बाग तक ही सीमित नहीं था। इसका असर पूरे भारत में देखने को मिला था। इस हत्याकांड के विरोध में असहयोग आन्दोलन की शुरूआत हुई और इस आन्दोलन का प्रभाव असम तक पहुँचा और कुशल और अन्य युवा सेनानी इस आन्दोलन में सक्रिय रूप से उतरे।

🇮🇳 कुशल का जीवन गाँधी जी के विचारों से अधिक प्रभावित था। गॉंधी जी के स्वराज, सत्य और अहिंसा से वाले आदर्शों से वह इस कदर प्रभावित हुए की उन्होंने #बेंगमई में एक प्राथमिक विद्यालय की स्थापना की और वहाँ एक शिक्षक के रूप में कार्य किया। इसके बाद वह एक क्लर्क के रूप में बालीजन टी एस्टेट में शामिल हुए, जहाँ उन्होंने कुछ समय के लिए काम किया। इस प्रकार गॉंधी जी के स्वतंत्रता के आह्वान और दिल में स्वतंत्र भारत को देखने की उनकी इच्छा में उन्होंने अपना जीवन देश के नाम समर्पित कर दिया। उन्होंने सत्याग्रह और अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग आंदोलन में #सरूपथर क्षेत्र के लोगों का नेतृत्व किया और कांग्रेस पार्टी को संगठित किया। इसके बाद वे सरुपथर कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष चुने गए।

🇮🇳 10 अक्टूबर 1942 में स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले कार्यकर्ताओं ने सरूपथर की रेलवे की पटरी से स्लीपरों हटा दिए थे जिसकी वजह से वहाँ से गुजरने वाली सैन्य रेल गाड़ी पटरी से उतर गई। जिसमें हजारों की तादाद में अंग्रेजी सैनिक मारे गए। पुलिस ने इलाके को तुरंत घेर लिया और इस घटना को अंजाम देने वालों को ढूँढना शुरू किया।

🇮🇳 इस घटना के लिए कुशल को आरोपी माना गया था। जबकि इस घटना में उनका कोई हाथ नहीं था। पुलिस कर्मियों के पास उनके गुनहगार होने का कोई सबूत नहीं था लेकिन फिर भी कुशल को रेलवे की तोड़फोड़ का मुख्य आरोपी माना गया और उनको इसके लिए गिरफ्तार किया गया।

🇮🇳 5 नवंबर 1942 में उन्हें गोलाघाट लाया गया और वहाँ की #जोरहाट जेल में बंद कर दिया गया। सीएम हम्फ्री की अदालत में उन्हें दोषी करार किया गया और उन्हें फाँसी की सजा दी गई। जबकि उन्होंने ये गुनाह किया भी नहीं था। लेकिन फिर भी कुशल ने गरिमा के साथ इस फैसले को स्वीकार किया।

🇮🇳 जेल में जब उनकी पत्नी #प्रभावती उनसे मिलने गई तो उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि उन्हें गर्व है कि भगवान ने देश के लिए सर्वोच्च बलिदान के लिए हजारों लोगों में से उन्हें चुना।

🇮🇳 फाँसी से पहले जेल में बचे उनके शेष समय के दौरान उन्होंने अपना समय गीता पढ़ कर बिताया। कुशल ने लगभग 112 दिन जेल में बिताए। 6 जून 1943 में उन्हे फाँसी की सजा सुनाई गई। और फाँसी देने की तिथि 15 जून 1943 की थी। 15 जून 1943 को शाम 4:30 बजे कुशल कोंवर को फाँसी दी गई।

साभार: careerindia.com


🇮🇳 भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर सेनानी क्रांतिकारी #कुशल_कोंवर  #kushal_konwar जी को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

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वन्दे मातरम् 🇮🇳

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World puppet day | विश्व कठपुतली दिवस

 



#विश्व_कठपुतली_दिवस

#world_puppet_day

भारत में पारंपरिक पुतली नाटकों की कथावस्तु में पौराणिक साहित्य, लोककथाएँ और किवदंतियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। पहले अमर सिंह राठौड़, पृथ्वीराज, हीर-रांझा, लैला-मजनूं और शीरीं-फ़रहाद की कथाएँ ही कठपुतली खेल में दिखाई जाती थीं।

🇮🇳 विश्व कठपुतली दिवस प्रत्येक वर्ष 21 मार्च को मनाया जाता है। 'कठपुतली' का खेल अत्यंत प्राचीन नाटकीय खेल है, जो समस्त सभ्य संसार में प्रशांत महासागर के पश्चिमी तट से पूर्वी तट तक-व्यापक रूप प्रचलित रहा है। यह खेल गुड़ियों अथवा पुतलियों (पुत्तलिकाओं) द्वारा खेला जाता है। गुड़ियों के नर मादा रूपों द्वारा जीवन के अनेक प्रसंगों की, विभिन्न विधियों से, इसमें अभिव्यक्ति की जाती है और जीवन को नाटकीय विधि से मंच पर प्रस्तुत किया जाता है। कठपुतलियाँ या तो लकड़ी की होती हैं या पेरिस-प्लास्टर की या काग़ज़ की लुग्दी की। उसके शरीर के भाग इस प्रकार जोड़े जाते हैं कि उनसे बँधी डोर खींचने पर वे अलग-अलग हिल सकें।

साभार: bharatdiscovery.org

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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