15 मार्च 2024

Sarla Thakral | सरला ठकराल | First female aircraft pilot | प्रथम महिला विमान चालक

 



हमारे समाज में महिलाओं के लिए बंदिशें बहुत ज्यादा होती हैं। हांलाकि अब इन बंदिशों को तोड़कर लड़कियों को आगे आने का मौका मिलने लगा है। पर,आज से करीब सत्तर-अस्सी साल पहले ऐसा नहीं था। उस जमाने में महिलाओं को बहुद ज्यादा आजादी नहीं थी और न हीं उनको अपनी मर्जी का काम करने की इजाजत थी। ऐसे में अपने सपनों को साकार कर आकाश में उड़ने वाली पहली महिला बनीं सरला ठकराल। चलिए जानें उनके बारे में कुछ बातें...

🇮🇳 सरला ठकराल का जन्म #दिल्ली में हुआ था। उन्होंने साल 1929 में पहली बार दिल्ली में खोले गए फ्लाइंग क्लब में विमान चालन का प्रशिक्षण लिया था और एक हजार घंटे का अनुभव भी लिया था। दिल्ली के ही फ्लाइंग क्लब में उनकी भेंट #पी_डी_शर्मा से हुई जो उस क्लब में खुद एक व्यावसायिक विमान चालक थे। विवाह के बाद उनके पति ने उन्हें व्यावसायिक विमान चालक बनने का प्रोत्साहन दिया।

🇮🇳 पति से प्रोत्साहन पाकर सरला ठकराल ने जोधपुर फ्लाइंग क्लब में ट्रेनिंग ली। 1936 में लाहौर का हवाईअड्डा उस ऐतिहासिक पल का गवाह बना जब 21 वर्षीया सरला ठकराल ने जिप्सी मॉथ नामक दो सीट वाले विमान को उड़ाया था। 

🇮🇳 साल 1939 सरला के लिए बहुत दुख भरा रहा। जब वह कमर्शियल पायलेट लाइसेंस लेने के लिए कड़ी मेहनत कर रही तीं तब दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। फ्लाइट क्लब बंद हो गया और फिर सरला ठकराल को अपनी ट्रेनिंग भी बीच में ही रोकनी पड़ी। इससे भी ज्यादा दुख की बात यह रही कि इसी साल एक विमान दुर्घटना में उनके पति का देहांत हो गया। जिसके बाद उनकी जिंदगी बदल गई। 

🇮🇳 पति की मौत के समय वह लाहौर में थी तब उनकी उम्र 24 साल थी। वहां से सरला वापस आ गईं और मेयो स्कूल ऑफ आर्ट में दाखिला ले लिया। जहां उन्होंने बंगाल स्कूल ऑफ से पेंटिंग सीखी और फाइन आर्ट में डिप्लोमा भी किया। भारत के विभाजन के बाद सरला अपनी दो बेटियों के साथ दिल्ली आ गई और यहाँ उनकी मुलाकात #पी_पी_ठकराल के साथ हुई। ठकराल ने उनके साथ साल 1948 में शादी कर ली। जिंदगी की दूसरी पारी में वो सफल उद्यमी और पेंटर बनीं। 15 मार्च 2008 को सरला ठकराल की मौत हो गई। 

साभार: amarujala.com

#First_female_aircraft_pilot #Sarla_Thakral

🇮🇳 भारत की प्रथम महिला विमान चालक #सरला_ठकराल जी को उनकी पुण्यतिथि पर हार्दिक श्रद्धांजलि !  

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 



सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. 



Guru hanuman | vijay pal | wrestler | गुरु हनुमान | विजय पाल | पहलवान

 



भारतीय कुश्‍ती के पितामह माने जाने वाले #गुरु_हनुमान यानी #विजय_पाल गुरुओं के गुरु थे. उन्‍होंने इंटरनेशनल कुश्‍ती मानकों के साथ आधुनिक भारतीय कुश्‍ती और पारंपरिक भारतीय कुश्‍ती शैली यानी पहलवानी को मिलाकर एक खाका तैयार किया था. समय के साथ उन्‍होंने लगभग सभी फ्री स्‍टाइल इंटरनेशनल पहलवानों को कोचिंग दी और जो गुरु हनुमान के शिष्‍य थे, वें आज खुद गुरु बनकर भारतीय कुश्‍ती को अधिक ऊंचाईयों तक लेकर जा रहे हैं. बतौर खिलाड़ी और कोच गुरु हनुमान दिग्‍गज थे. भारतीय कुश्‍ती में उनके योगदान के कारण उन्‍हें पितामाह कहा जाता है. दो बार के ओलिंपिक मेडलिस्‍ट #सुशील_कुमार के गुरु #सतपाल_सिंह उनके शिष्‍य थे.

🇮🇳 15 मार्च 1901 को राजस्‍थान के #चिड़ावा में जन्‍मे गुरु हनुमान का सपना शुरुआत से ही एक अच्‍छा पहलवान बनने का था, उन्‍होंने स्‍कूल छोड़कर कम उम्र में ही गांव के अखाड़े में पहलवानी करनी शुरू कर दी. 1919 में वह बिरला मिल्‍स के पास सब्‍जी मंडी में अपनी दुकान जमाने के लिए दिल्‍ली आ गए. मगर दुकानदार की बजाय वह पहलवान बन गए और इस फील्‍ड में उन्‍होंने जल्‍दी लोकप्रियता हासिल कर ली. गुरु हनुमान का पहलवानी के प्रति लग्‍न को देखते हुए मशहूर उद्योगपति कृष्‍णकुमार बिडला ने उन्‍हें अखाड़ा स्‍थापित करने के लिए जमीन दे दी और आजादी के बाद तो यह अखाड़ा दिल्‍ली के पहलवानों के लिए मंदिर समान हो गया. उनके तीन में से दो शिष्‍य #सुदेश_कुमार और #प्रेम_नाथ ने 1958 कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स में गोल्‍ड मेडल जीता था. जबकि बाकी शिष्‍य #सतपाल_सिंह और #करतार_सिंह ने 1982 और 1986 में एशियन गेम्‍स में गोल्‍ड मेडल जीता. गुरु हनुमान के 8 शिष्‍यों में सर्वोच्च भारतीय खेल सम्मान अजुर्न अवॉर्ड से भी नवाजा गया.

🇮🇳 गुरु हनुमान के पास 1970 तक भी मॉर्डन मैट नहीं था. वह सिर्फ नेचुरल टैलेंट पर काम करते थे. गुरु हनुमान गांव के युवा लड़कों के साथ काम करते थे, जो भारतीय स्‍टाइल में फाइट के आदी थे. जो ज्‍यादा से ज्‍यादा 40 मिनट तक लड़ सकते थे. गुरु हनुमान ने उन पर काम किया.

1974 कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स के गोल्‍ड मेडलिस्‍ट प्रेमनाथ ने अपने गुरु के बारे में बताया था कि बीमारी में भी उनके गुरु अभ्‍यास करवाते थे. वो मेहनत से कभी पीछे नहीं भागते थे. अभ्‍यास में सुबह 4 बजे उठकर सबसे पहले दौड़, फिर इसके बाद बाउट का अभ्‍यास, किसी के गिरने से पहले पहले कम से कम 30 मिनट तक मुकाबला, इसके अलावा रस्सियों पर चढ़ना, 100 पुशअप ये सब तब करना होता अभ्‍यास में शामिल थे. और ये सब गुरुजी के दोपहर के खाने के फैसले तक करना होता था.

🇮🇳 गुरु हनुमान की 1999 में दर्दनाक हादसे में मौत हो गई थी. 24 मई को वे हरिद्वार जा रहे थे और कार दुर्घटना में उन्‍होंने दुनिया को अलविदा कह दिया. जो खेल जगत और खासकर कुश्‍ती के लिए बहुत बड़ी हानि थी.

साभार: news18.com

🇮🇳 भारत के महान कुश्ती प्रशिक्षक व विश्वप्रसिद्ध #पहलवान #गुरु_हनुमान #wrestler #guru_hanuman जी को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 



सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

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Major Sandeep Unnikrishnan | मेजर संदीप उन्नीकृष्णन | Soldier

 



15 मार्च 1977 को जन्मे संदीप उन्नीकृष्णन #बेंगलुरु में रहने वाले एक मलयाली परिवार से आते थे। उनका परिवार केरल के कोझिकोड जिले के चेरुवन्नूर से बेंगलुरु शिफ्ट हुआ था। उनके पिता #के_उन्नीकृष्णन इसरो के अधिकारी रह चुके हैं। उनकी माता का नाम #धनलक्ष्मी_उन्नीकृष्णन है। वह अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे। उन्होंने बेंगलुरु के फ्रैंक एंथनी पब्लिक स्कूल से शुरुआती पढ़ाई की। 1995 में साइंस स्ट्रीम से आईएससी की।

🇮🇳 साल 1995 में उन्होंने एनडीए में प्रवेश लिया। चार सालों के बाद उनको वह करने का मौका मिला जिसका सपना हर सैनिक देखता है यानी 1999 में कारगिल युद्ध में उनको लड़ने का मौका मिला। फिर साल 2007 में उनको राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (एनएसजी) के स्पेशल ऐक्शन ग्रुप (एसएजी) में शामिल किया गया। वह निडर और बहादुर थे। मुश्किल हालात का सामना करने से पीछे नहीं हटते थे।

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🇮🇳 ‘ऊपर मत आना, मैं इन सबको देख लूंगा.’

🇮🇳 अपने एक घायल साथी को बचाने के बाद अपने साथियों से कहे गए ये आखिरी शब्द थे शहीद उन्नीकृष्णन के. मुंबई में हुए बम धमाकों के बाद ताज होटल में आतंकियों का सफाया करने के लिए 27 नवंबर 2008 को एनएसजी टीम को लाया गया था. मेजर संदीप उन्नीकृष्णन कमांडो इस ऑपरेशन को लीड कर रहे थे.

🇮🇳 क्या हुआ था 27 नवंबर 2008 को---

10 कमांडो की टीम ने जब ताज होटल में मोर्चा संभाला. तो संदीप की टीम को तीसरी मंजिल पर आतंकियों के होने का शक हुआ. यहां एक कमरे में कुछ औरतों को आतंकियों ने बंधक बनाया हुआ था. कमरे का दरवाजा अंदर से बंद था. उसे तोड़ने पर संदीप की टीम पर अचानक से गोलीबारी शुरू हो गई. जवाबी कार्रवाई में संदीप की टीम को इस बात का भी ध्यान रखना था कि किसी बंधक को गोली न लग जाए. इस गोलीबारी में संदीप के एक साथी कमांडो सुनील यादव घायल हो गए.  संदीप ने अपने घायल साथी को सुरक्षित स्थान तक पहुंचाया.

🇮🇳 इसी दौरान उनके दाएं हाथ में गोली लग गई. फिर भी संदीप ने आतंकियों का पीछा किया. और गोली चला रहे आतंकियों को ढूंढकर मार गिराया. जब वो आगे बढ़े तो आतंकी कमरे में लोगों को बंद करके मार रहे थे. संदीप ने वहां से 14 लोगों को बाहर निकाला. लेकिन पीछे से हुई गोलीबारी में संदीप बुरी तरह से जख्मी हो गए. वो लड़ते रहे, लेकिन उनकी सांसों ने उनका साथ नहीं दिया. अपने ऑपरेशन को कामयाब बनाते हुए वो शहीद हो गए.

🇮🇳 मेजर संदीप उन्नीकृष्णन की अंतिम विदाई---

संदीप की अंतिम यात्रा के समय आसमान भी उदास था. 29 नवंबर को जिस दिन संदीप उन्नीकृष्णन की अंतिम यात्रा जा रही थी, वास्तव में उस दिन बैंगलुरू में गहरे काले बादल छाए हुए थे. इससे ठीक 3 दिन पहले संदीप की बातचीत घर के लोगों से हुई थी. वो कोई 15 दिन बाद अपने दोस्त की शादी में बैंगलुरू आने वाले थे.

🇮🇳 उन्नीकृष्णन 7वीं बिहार रेजीमेंट के जवान थे और एनएसजी में संदीप की यह दूसरी डेप्यूटेशन थी. अपनी ऑरकुट प्रोफाइल पर संदीप ने जो भाषाएं आती हैं उनमें बिहारी का भी ज़िक्र किया है. क्रिकेट और फिल्मों के दीवाने संदीप 5 भाषाएं बोल लेते थे और इन भाषाओं के मज़ाकिया शब्दों से इन्हें खास लगाव था.

🇮🇳 संदीप के पिता इसरो में वैज्ञानिक थे. लेकिन संदीप ने अपने ही ढंग से एक गैर-मामूली ज़िंदगी जीने के लिए सेना में जाने का फैसला किया.

साभार: thelallantop.com

🇮🇳 भारतीय सेना के शूरवीर अदम्य साहसी एवं निर्भीक सैनिक #मेजर_संदीप_उन्नीकृष्णन #Major_Sandeep_Unnikrishnan जी को उनकी जयंती पर कोटि-कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

🇮🇳 जय हिन्द, जय हिन्द की सेना 🇮🇳

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 



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Malti Devi Chaudhary | मालती देवी चौधरी | Freedom fighter | Social worker

 


मालती देवी चौधरी (जन्म- 26 जुलाई, 1904, पूर्वी बंगाल; मृत्यु- 15 मार्च, 1998) भारतीय स्वतंत्रता सेनानी तथा गाँधीवादी थीं। सन 1921 में, सोलह साल की उम्र में मालती चौधरी को शांति निकेतन भेजा गया, जहाँ उन्हें विश्व भारती में भर्ती कराया गया। उन्होंने #नबाकृष्णा_चौधरी से विवाह किया था, जो बाद में ओडिशा के मुख्यमंत्री बने। नमक सत्याग्रह के दौरान मालती चौधरी और उनके पति भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए और आंदोलन में भाग लिया। उन्होंने सत्याग्रह के लिए अनुकूल वातावरण बनाने के लिए लोगों के साथ संवाद किया।

🇮🇳 मालती चौधरी का जन्म 26 जुलाई, 1904 में हुआ था। वह एक ब्राह्मण परिवार से थीं। उनके पिता बैरिस्टर #कुमुद_नाथ_सेन की मृत्यु तब हुई जब वह केवल ढाई साल कीं थीं। उनकी मां #स्नेहलता_सेन एक अच्छी लेखिका थीं, जिन्होंने 'जुगलंजलि' लिखी और #रवींद्रनाथ_टैगोर की कुछ कृतियों का अनुवाद किया। मालती चौधरी की पृष्ठभूमि अच्छी थी। उनके नाना बहरीलाल गुप्ता एक आईसीएस अधिकारी थे। उनके दो चचेरे भाई रंजीत गुप्ता पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्य सचिव थे और इंद्रजीत गुप्ता पूर्व गृहमंत्री थे। उनके दो भाई पी. के. सेन पूर्व आयकर आयुक्त थे और के. पी. सेन भारतीय डाक सेवा के पूर्व अधिकारी थे।

🇮🇳 16 साल की उम्र में मालती चौधरी को शांति निकेतन भेजा गया, जहां उन्हें टैगोर द्वारा स्थापित 'विश्वभारती' में भर्ती कराया गया। वह बहुत भाग्यशाली थीं कि उन्हें शांतिनिकेतन में रवींद्रनाथ टैगोर से सीधे ज्ञान प्राप्त करने का मौका मिला। शांति निकेतन में मालती ने न केवल डिग्री प्राप्त की, बल्कि विभिन्न प्रकार की कला और संस्कृति में भी विशाल ज्ञान प्राप्त किया। मालती चौधरी टैगोर के सिद्धांतों, शिक्षा और विकास और देशभक्ति के विचारों से बेहद प्रभावित थीं। गुरुदेव ने प्यार से उन्हें ‘मीनू’ कहा।

🇮🇳 मालती चौधरी नबाकृष्णा चौधरी के निकट संपर्क में आईं, जो साबरमती आश्रम से शांतिनिकेतन में पढ़ाई करने आये थे। उन्होंने 1927 में नबाकृष्णा चौधरी से शादी की। शादी के बाद वे #उड़ीसा में बस गईं और #ग्रामीण_विकास के बारे में कई तरह की सामाजिक गतिविधियाँ शुरू कीं। उन्होंने गन्ने की खेती को बेहतर बनाने में गरीब किसान की मदद की। उन्होंने आसपास के गांवों में भी वयस्क शिक्षा शुरू की।

🇮🇳 नमक सत्याग्रह के समय मालती चौधरी और उनके पति भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए। उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। जेलों में उन्होंने साथी कैदियों को पढ़ाया और गांधीजी के विचारों और विचारों का प्रचार किया।

🇮🇳 1933 में उन्होंने अपने पति के साथ 'उत्कल कांग्रेस समाजवादी कर्म संघ' का गठन किया। बाद में इस संगठन को 'अखिल भारतीय कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी' की उड़ीसा प्रांतीय शाखा के रूप में जाना जाने लगा।

🇮🇳 1934 में मालती चौधरी उड़ीसा में अपनी प्रसिद्ध पदयात्रा में गांधीजी के साथ शामिल हुईं।

🇮🇳 1946 में मालती चौधरी ने उड़ीसा के अंगुल में 'बाजीरावत छत्रवास' और 1948 में 'उत्कल नवजीवन मंडल' की स्थापना की।

बाजीराव छत्रवास का गठन स्वतंत्रता सेनानियों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गों और समाज के विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों के बच्चों के बीच शिक्षा का प्रसार करने के लिए किया गया था।

🇮🇳 उत्कल नवजीवन मंडल ने मुख्य रूप से उड़ीसा में ग्रामीण विकास और आदिवासी कल्याण के लिए काम किया। मालती चौधरी ने चंपतिमुंडा में पोस्ट बेसिक स्कूल की स्थापना भी की।

🇮🇳 शिक्षा और ग्रामीण क्षेत्र में अपनी महान भूमिका के लिए उन्होंने खुद को एक समर्पित स्वतंत्रता सेनानी के रूप में स्थापित किया।

🇮🇳 मालती चौधरी भूदान आंदोलन के दौरान विनोबा भावे के साथ थीं। 

🇮🇳 वह अपनी नोआखली यात्रा के दौरान गांधीजी से जुड़ीं। गांधीजी ने उन्हें प्यार से ‘तूफानी’ कहा। उन्होंने 'कृसक आंदोलन' का नेतृत्व किया जिससे गरीब किसानों को भूस्वामियों और साहूकारों की पकड़ से बचाया जा सके।

🇮🇳 सन 1946 में मालती चौधरी को भारत की संविधान सभा के सदस्य के रूप में चुना गया। वह उत्कल प्रदेश कांग्रेस समिति के अध्यक्ष के रूप में भी चुनी गई थी6। आजादी के बाद उन्होंने पिछड़े वर्गों के लिए संघर्ष करना जारी रखा। जब उनके पति ने ओडिशा के मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया, तो उन्होंने उड़ीसा में विभिन्न ग्रामीण पुनर्निर्माण योजना शुरू की। जब आपात काल का वादा किया गया था, तब मालती चौधरी ने इंदिरा गांधी सरकार की नीति का विरोध किया। उन्हें जेल में डाल दिया गया था।

🇮🇳 मालती चौधरी को राष्ट्र के प्रति समर्पण के लिए कई पुरस्कार मिले, जिनमें बाल कल्याण के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार (1987), जमनालाल बजाज पुरस्कार (1988), उत्कल सेवा सम्मान (1994), टैगोर लिटरेसी अवार्ड (1995), लोकसभा और राज्य सभा द्वारा संविधान सभा (1997) की पहली बैठक की 50 वीं वर्षगांठ के अवसर पर सम्मान, राज्य समाज कल्याण सलाहकार बोर्ड (1997) द्वारा सम्मान, राज्य महिला आयोग द्वारा सम्मान (1997) आदि हैं।

🇮🇳 सन 1998 में मालती चौधरी का निधन हुआ।

साभार : bharatdiscovery.org

🇮🇳 प्रमुख #स्वतंत्रतासेनानी और #समाजसेविका #Freedom_fighter and #social_worker #मालती_चौधरी  #Malati_Chaudhary जी को उनकी पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

वन्दे मातरम् 🇮🇳

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व 

#आजादी_का_अमृतकाल

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 



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Pooja Gehlot | पूजा गहलोत | wrestler | पहलवान

 


राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में अनेक पदक अपने नाम करने वाली, सोनीपत (हरियाणा) में जन्मी भारतीय महिला फ्रीस्टाइल #पहलवान #पूजा_गहलोत #wrestler #pooja_gehlot जी को #जन्मोत्सव #birthday celebration के शुभ अवसर पर मेरी ओर से भी ढेरों बधाई एवं सफल जीवन की अनंत शुभकामनाऍं !

🇮🇳🌹🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

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14 मार्च 2024

Kejriwal | 16 मार्च को कोर्ट में हाजिर होंगे.....केजरीवाल ? लेखक : सुभाष चन्द्र



केजरीवाल से उम्मीद थी, वो Rouse Avenue कोर्ट नहीं जाएगा,

और आज भूमिका तैयार कर दी - लेकिन अपनी कब्र खुद खोद रहा है मूर्ख -

मैंने एक बार पहले भी लिखा था कि Rouse Avenue Court ने ED की 2nd शिकायत पर केजरीवाल Kejriwal को फिर से पिछली नियत तिथि 16 मार्च को कोर्ट में हाजिर होने के लिए कह कर गलती की थी क्योंकि जब उसके ED के 3 summons की अवहेलना को कोर्ट ने अपराध माना था तो 8 summons पर हाजिर न होने पर तो सीधा उसे निर्देश देने चाहिए थे ED के सामने पेश होने के लिए - 


ऐसी पूरी संभावना थी कि केजरीवाल 16 मार्च को भी कोर्ट को गच्चा दे देगा और उसके लिए उसने विधानसभा का सत्र फिर से 15 मार्च से बुला लिया जिससे एक बार फिर बहाना बना सके कोर्ट में न जाने का -


आज केजरीवाल ने दूसरा खेल खेला है - उसने सेशन कोर्ट में Rouse Avenue Court के summons को चुनौती दे दी जिस पर आज सुनवाई पूरी नहीं हुई जो कल होगी - कल यदि सेशन कोर्ट इसकी अर्जी ख़ारिज करता है (जैसी पूरी संभावना है) तो ये कल ही हाई कोर्ट चला जाएगा और वहां भी बात नहीं बनी तो ये फिर सुप्रीम कोर्ट में जाकर माथा फोड़ेगा -


हाई कोर्ट उसके वक्फ मंत्री अमानतुल्लाह को पहले ही कह चुका है कि उसे ED के सामने पेश होने से कोई छूट नहीं मिल सकती और सुप्रीम कोर्ट तमिलनाडु के 5 DMs को कह चुका है कि उन्हें ED के summons पर पेश होना ही होगा - ऐसे में केजरीवाल को कहीं से कोई राहत मिलने की उम्मीद न के बराबर है लेकिन फिर भी हाथ पांव मार कर केवल Time Gain करना चाहता है -


परंतु ED के summons पर उसे हाजिर होना ही पड़ेगा और जितना यह न जाने के लिए पापड़ बेलता फिरेगा, उतना ये अपने को खुद ही दोषी साबित करता जाएगा -


केजरीवाल ने दिमाग में फितूर है कि चुनाव घोषित होने के बाद आचार संहिता लगने के कारण उसकी गिरफ़्तारी नहीं हो सकेगी परंतु उसे ऐसी सलाह देने वाले केजरीवाल को चौड़े में फसवा देना चाहते है क्योंकि जांच एजेंसियों के काम का आचार संहिता से कोई संबंध नहीं होता और यदि यह सोचता है कि फिर भी गिरफ्तार होने के बाद वो victim card खेल लेगा तो ये उसकी भूल है क्योंकि दोष तो अपने खिलाफ यह खुद सिद्ध कर रहा है बार बार ED के summons की अवहेलना करके और अदालतों में मामले को उलझा कर - अगर कुछ गलत नहीं किया तो उसको ED के सामने पेश होने में कोई डर नहीं होना चाहिए लेकिन उसे पता है जब उसके चेले चपाटे सिसोदिया और संजय सिंह को जमानत नहीं मिल पा रही तो केजरीवाल की भी लंबी जेल यात्रा निश्चित है -


फिर जेल जाते हुए केजरीवाल की पार्टी के लोग ही गीत गाएंगे - “चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देस हुआ बेगाना”


ध्रुव राठी के केस में शिकायतकर्ता एक बार फिर वही गलती कर रहा है जो केजरीवाल को माफ़ी देने को तैयार है - ये पूरी तरह उस केस में फंसा हुआ है और जैसे ही 2 साल की सजा होती है, केजरीवाल की राजनीति का the end हो लेगा - शिकायतकर्ता को पुनर्विचार करना चाहिए और इस जैसे मक्कार को माफ़ी नहीं देनी चाहिए -

"लेखक के निजी विचार हैं "

 लेखक : सुभाष चन्द्र  | मैं हूं मोदी का परिवार | “मैं वंशज श्री राम का” 14/03/2024 

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Albert Einstein | अल्बर्ट आइंस्टीन | Scientist | वैज्ञानिक

 



अल्बर्ट आइंस्टीन (जर्मन उच्चारण आइनश्टाइन) का जन्म, 14 मार्च 1879 को तत्कालीन जर्मन साम्राज्य के उल्म शहर में रहने वाले एक यहूदी परिवार में हुआ था. उल्म आज जर्मनी के जिस बाडेन-व्यूर्टेमबेर्ग राज्य में पड़ता है, वह उस समय जर्मन साम्राज्य की व्यूर्टेमबेर्ग राजशाही का शहर हुआ करता था. लेकिन अल्बर्ट आइंस्टीन का बचपन उल्म के बदले बवेरिया की राजधानी म्यूनिख में बीता. परिवार उनके जन्म के एक ही वर्ष बाद म्यूनिख में रहने लगा था.

🇮🇳 अल्बर्ट आइंस्टीन ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात’ वाली कहावत चरितार्थ करते थे. भाषाएं छोड़ कर हर विषय में, विशेषकर विज्ञान में वे बचपन से ही बहुत तेज़ थे. विज्ञान की किताबें पढ़-पढ़ कर स्कूली दिनों में ही अल्बर्ट आइंस्टीन सामान्य विज्ञान के अच्छे-ख़ासे ज्ञाता बन गए थे. जर्मनी के अलावा वे उसके पड़ोसी देशों स्विट्ज़रलैंड और ऑस्ट्रिया में भी वहां के नागरिक बन कर रहे. 1914 से 1932 तक बर्लिन में रहने के दौरान हिटलर की यहूदियों के प्रति घृणा को समय रहते भाँप कर अल्बर्ट आइंस्टीन अमेरिका चले गये. वहीं, 18 अप्रैल 1955 के दिन उन्होंने प्रिन्स्टन के एक अस्पताल में अंतिम साँस ली.

🇮🇳 अल्बर्ट आइंस्टीन को 20वीं सदी का ही नहीं, बल्कि अब तक के सारे इतिहास का सबसे बड़ा वैज्ञानिक माना जाता है. 1905 एक साथ उनकी कई उपलब्धियों का स्वर्णिम वर्ष था. उसी वर्ष उनके सर्वप्रसिद्ध सूत्र E= mc² ऊर्जा= द्रव्यमान X प्रकाशगति घाते2) का जन्म हुआ था. ‘सैद्धांतिक भौतिकी, विशेषकर प्रकाश के वैद्युतिक (इलेक्ट्रिकल) प्रभाव के नियमों’ संबंधी उनकी खोज के लिए उन्हें 1921 का नोबेल पुरस्कार मिला. 17 मार्च 1905 को प्रकाशित यह खोज अल्बर्ट आइंस्टीन ने स्विट्ज़रलैंड की राजधानी बेर्न के पेटेंट कार्यालय में एक प्रौद्योगिक-सहायक के तौर पर 1905 में ही की थी.

🇮🇳 उसी वर्ष आइंस्टीन ने 30 जून को ‘गतिशील पिंडों की वैद्युतिक गत्यात्मकता’ के बारे में भी एक अध्ययन प्रकाशित किया था. डॉक्टर की उपाधि पाने के लिए उसी वर्ष 20 जुलाई के दिन ‘आणविक आयाम का एक नया निर्धारण’ नाम से अपना शोधप्रबंध (थीसिस) उन्होंने ज्यूरिच विश्वविद्यालय को समर्पित किया था. उस समय उनकी उम्र 26 वर्ष थी. 15 जनवरी 1906 को उन्हें डॉक्टर की उपाधि मिल भी गयी.

🇮🇳 अल्बर्ट आइंस्टीन के नाम को जिस चीज़ ने अमर बना दिया, वह था उनका सापेक्षता सिद्धांत (थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी). उन्होंने गति के स्वरूप का अध्ययन किया और कहा कि गति एक सापेक्ष अवस्था है. आइंस्टीन के मुताबिक ब्रह्मांड में ऐसा कोई स्थिर प्रमाण नहीं है, जिसके द्वारा मनुष्य पृथ्वी की ‘निरपेक्ष गति’ या किसी प्रणाली का निश्चय कर सके. गति का अनुमान हमेशा किसी दूसरी वस्तु को संदर्भ बना कर उसकी अपेक्षा स्थिति-परिवर्तन की मात्रा के आधार पर ही लगाया जा सकता है. 1907 में प्रतिपादित उनके इस सिद्धांत को ‘सापेक्षता का विशिष्ट सिद्धांत’ कहा जाने लगा.

🇮🇳 आइंस्टीन का कहना था कि सापेक्षता के इस विशिष्ट सिद्धांत को प्रकाशित करने के बाद एक दिन उनके दिमाग़ में एक नया ज्ञानप्रकाश चमका. उनके शब्दों में ‘मैं बेर्न के पेटेंट कार्यालय में आरामकुर्सी पर बैठा हुआ था. तभी मेरे दिमाग़ में एक विचार कौंधा, यदि कोई व्यक्ति बिना किसी अवरोध के ऊपर से नीचे गिर रहा हो तो वह अपने आप को भारहीन अनुभव करेगा. मैं भौचक्का रह गया. इस साधारण-से विचार ने मुझे झकझोर दिया. वह मुझे उसी समय से गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत की ओर धकेलने लगा.’

🇮🇳 इस छोटे-से विचार पर कई वर्षों के चिंतन-मनन और गणीतीय समीकरणों के आधार पर 1916 में आइंस्टीन ने एक नई थ्योरी दी. उन्होंने कहा कि ब्रहमांड में किसी वस्तु को खी़ंचने वाला जो गुरुत्वाकर्षण प्रभाव देखा जाता है, उसका असली कारण यह है कि हर वस्तु अपने द्रव्यमान (सरल भाषा में भार) और आकार के अनुसार अपने आस-पास के दिक्-काल (स्पेस-टाइम) में मरोड़ पैदा कर देती है. वैसे तो हर वस्तु और हर वस्तु की गति दिक्-काल में यह बदलाव लाती है, लेकिन बड़ी और भारी वस्तुएं तथा प्रकाश की गति के निकट पहुँचती गतियां कहीं बड़े बदलाव पैदा करती हैं.

🇮🇳 आइंस्टीन ने सामान्य सापेक्षता के अपने इस क्रांतिकारी सिद्धांत में दिखाया कि वास्तव में दिक् के तीन और काल का एक मिलाकर ब्रह्माण्ड में चार आयामों वाला दिक्-काल है, जिसमें सारी वस्तुएं और सारी ऊर्जाएं अवस्थित हैं. उनके मुताबिक समय का प्रवाह हर वस्तु के लिए एक जैसा हो, यह जरूरी नहीं है. आइंस्टीन का मानना था कि दिक्-काल को प्रभावित कर के उसे मरोड़ा, खींचा और सिकोड़ा भी जा सकता है. ब्रह्मांड में ऐसा निरंतर होता रहता है.

1932 में आइंस्टीन के अमेरिका चले जाने के बाद 1933 में जर्मनी पर हिटलर की तानाशाही शुरू हो गयी. 10 मई 1933 को उसके प्रचारमंत्री योज़ेफ़ गोएबेल्स ने हर प्रकार के यहूदी साहित्य की सार्वजनिक होली जलाने का अभियान छेड़ दिया. आइंस्टीन की लिखी पुस्तकों की भी होली जली. ‘जर्मन राष्ट्र के शत्रुओं’ की एक सूची बनी, जिसमें उस व्यक्ति को पाँच हज़ार डॉलर का पुरस्कार देने की घोषणा भी की गयी, जो आइंस्टीन की हत्या कर देगा.

🇮🇳 आइंस्टीन तब तक अमेरिका के प्रिन्स्टन शहर में बस गये थे. वहाँ वे गुरुत्वाकर्षण वाले अपने सामान्य सापेक्षता सिद्धांत के नियमों तथा विद्युत-चुम्बकत्व के नियमों के बीच मेल बैठाते हुए एक ‘समग्र क्षेत्र सिद्धांत’ (यूनिफ़ाइड फ़ील्ड थ्योरी) का प्रतिपादन करने में जुट गये. इसके लिए वे किसी ‘ब्रह्मसूत्र’ जैसे एक ऐसे गणितीय समीकरण पर पहुंचना चाहते थे, जो दोनों को एक सूत्र में पिरोते हुए ब्रहमांड की सभी शक्तियों और अवस्थाओं की व्याख्या करने का मूलाधार बन सके. वे मृत्युपर्यंत इस पर काम करते रहे, पर न तो उन्हें सफलता मिल पायी और न आज तक कोई दूसरा वैज्ञानिक यह काम कर पाया है.

🇮🇳 ‘समग्र क्षेत्र सिद्धांत’ वाला ‘ब्रह्मसूत्र’ ख़ोजने का काम अल्बर्ट आइंस्टीन ने वास्तव में 1930 में बर्लिन में ही शुरू कर दिया था. उस समय उन्होंने इस बारे में आठ पृष्ठों का एक लेख भी लिखा था, जिसे उन्होंने कभी प्रकाशित नहीं किया. इस लेख के अब तक सात पृष्ठ मिल चुके थे, एक पृष्ठ नहीं मिल रहा था. आज उनके जन्म की 140वीं वर्षगांठ से कुछ ही दिन पहले यह खोया हुआ पृष्ठ भी मिल गया है.

🇮🇳 इसराइल में जेरूसलम के हिब्रू विश्वविद्यालय ने 13 मार्च को बताया कि उसने आइंस्टीन से संबंधित दस्तावेज़ों का एक संग्रह हाल ही में ख़रीदा है. ‘समग्र क्षेत्र सिद्धांत’ वाले उनके लेख का खोया हुआ पृष्ठ, दो ही सप्ताह पहले प्रप्त हुए इसी संग्रह में मिला है. अपने लेख में आइंस्टीन ने हस्तलिखित समीकरणों ओर रेखाचित्रों का खूब प्रयोग किया है. इस संग्रह में 110 पृष्ठों के बराबर सामग्री है. 1935 में उनके पुत्र हांस अल्बर्ट के नाम लिखा एक पत्र भी है. इस पत्र में उन्होंने जर्मनी में हिटलर की नाज़ी पार्टी के शासन को लेकर अपनी चिंताएं भी व्यक्त की हैं. एक दूसरा पत्र भी है, जो आइंस्टीन ने स्विट्ज़रलैंड में रहने वाले अपने एक इतालवी इंजीनियर-मित्र को लिखा था.

🇮🇳 आइंस्टीन की पहली पत्नी मिलेवा मारिच सर्बिया की थीं. दोनों बेर्न में अपनी पढ़ाई के दिनों में एक-दूसरे से परिचित हुए थे. उनसे उनके दो पुत्र थे हांस अल्बर्ट और एदुआर्द. शादी से पहले की दोनों की एक बेटी भी थी लीज़रिल. लेकिन उसके बारे में दोनों ने चुप्पी साध रखी थी, इसलिए इससे अधिक कुछ पता नहीं है.

🇮🇳 पुत्र हांस अल्बर्ट के नाम पत्र में जर्मन भाषा में आइंस्टीन ने लिखा था, ‘प्रिन्स्टन, 11 जनवरी 1935. मैं गणित रूपी राक्षस के पंजे में इस बुरी तरह जकड़ा हुआ हूँ कि किसी को निजी चिट्ठी लिख ही नहीं पाता. मैं ठीक हूं, दीन-दुनिया से विमुख हो कर काम में व्यस्त रहता हूँ. निकट भविष्य में मैं यूरोप जाने की नहीं सोच रहा, क्योंकि मैं वहाँ हो सकने वाली परेशानियों को झेलने के सक्षम नहीं हूँ. वैसे भी, एक बूढ़ा बालक होने के नाते मुझे सबसे परे रहने का अधिकार भी तो है ही.’

🇮🇳 जेरूसलेम के हिब्रू विश्वविद्यालय में आइनश्टइन से संबंधित लेखागार के परामर्शदाता हानोख़ गूटफ्रौएन्ड ने मीडिया को बताया कि इस संग्रह के अधिकांश दस्तावेज़ शोधकों को फ़ोटोकॉपी या नकलों के रूप में पहले से ज्ञात रहे हैं. यह बात अलग है कि कुछ कॉपियां अच्छी थीं और कुछ ख़राब थीं. नया प्राप्त संग्रह अब तक एक अमेरिकी संग्रहकर्ता के पास था. ‘समग्र क्षेत्र सिद्धांत’ वाले उनके लेख में शब्द बहुत कम हैं, गणित के सूत्रों और समीकरणों की भरमार है. यह नहीं बताया गया कि इस संग्रह को पाने के लिए कितना पैसा देना पड़ा है.

अल्बर्ट आइंस्टीन अपने समय में संसार के सबसे प्रतिष्ठित और प्रशंसित यहूदी थे, पर वे किसी ऊंचे पद के भूखे कभी नहीं थे. 1948 में जब इजरायल की एक यहूदी देश के रूप में स्थापना हुई, तो उनके सामने इसका राष्ट्रपति बनने का प्रस्ताव भी रखा गया था. उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया. इसके बदले अपनी वसीयत में उन्होंने लिखा कि पत्रों, लेखों, पांडुलिपियों इत्यादि के रूप में उनकी सारी दस्तावेज़ी विरासतों की नकलें, न कि मूल प्रतियां, जेरुसलम के हिब्रू विश्वविद्यालय को मिलनी चाहिए. इन दस्तावेज़ों से पता चलता है कि अमेरिका पहुँचने के बाद जर्मनी में रह गये अपने संबंधियों और परिजनों को वे न केवल पत्र लिखा करते थे, उन्हें जर्मनी से बाहर निकलने में सहायता देने का भी प्रयास करते थे.

🇮🇳 हिटलर के सत्ता में आने से 10 साल पहले ही आइंस्टीन ने भॉंप लिया था जर्मनी अपने यहूदियों के लिए कितना बड़ा अभिशाप बन सकता है. अपनी बहन माया के नाम 1922 में लिखे उनके ऐसे ही एक पत्र की जब नीलामी हुई, तो वह 30 हज़ार यूरो में बिका. इस पत्र में एक जगह उन्होंने लिखा है, ‘यहूदियों से घृणा करने वाले अपने जर्मन सहकर्मियों के बीच मैं तो ठीक-ठाक ही हूँ. यहाँ बाहर कोई नहीं जानता कि मैं कौन हूँ.’

🇮🇳 यह पत्र संभवतः जर्मनी के ही कील नगर से लिखा गया था. उन दिनों आइंस्टीन बर्लिन के सम्राट विलहेल्म इंस्टीट्यूट में भौतिकशास्त्र के प्रोफ़ेसर थे. उनके पत्र से यही पता चलता है कि अति उच्च शिक्षा प्राप्त जर्मन भी, हिटलर के आने से पहले ही यहूदियों से कितनी घृणा करने लगे थे. उनके प्रयासों से उनकी बहन माया भी 1939 में प्रिन्स्टन पहुंच गईं, पर नाज़ियों ने उनके पति को नहीं जाने दिया. माया 1951 में अपनी मृत्यु तक उन्हीं के साथ रह रही थी.

🇮🇳 दूसरा विश्व युद्ध शुरू होने से कुछ ही दिन पहले, अगस्त 1939 में, आइंस्टीन ने अमेरिका में रह रहे हंगेरियाई परमाणु वैज्ञानिक लेओ ज़िलार्द के कहने में आ कर एक पत्र पर दस्तखत कर दिए. यह पत्र अमेरिकी राष्ट्रपति फ़्रैंकलिन रूज़वेल्ट के नाम लिखा गया था. इसमें रूज़वेल्ट से कहा गया था कि नाज़ी जर्मनी एक बहुत ही विनाशकारी ‘नये प्रकार का बम’ बना रहा है या संभवतः बना चुका है. अमेरिकी गुप्तचर सूचनाएं भी कुछ इसी प्रकार की थीं, इसलिए अमेरिकी परमाणु बम बनाने की ‘मैनहटन परियोजना’ को हरी झंडी दिखा दी गयी. अमेरिका के पहले दोनों बम 6 और 9 अगस्त 1945 को जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहर पर गिरे.

🇮🇳 आइंस्टीन को इससे काफ़ी आघात पहुँचा. अपने एक पुराने मित्र लाइनस पॉलिंग को 16 नवंबर 1954 को लिखे अपने एक पत्र में खेद प्रकट करते हुए उन्होंने लिखा, ‘मैं अपने जीवन में तब एक बड़ी ग़लती कर बैठा, जब मैंने राष्ट्रपति रूज़वेल्ट को परमाणु बम बनाने की सलाह देने वाले पत्र पर अपने हस्ताक्षर कर दिये, हलांकि इसके पीछे यह औचित्य भी था कि जर्मन एक न एक दिन उसे बनाते.’

🇮🇳 इसी कारण अपने अंतिम दिनों में आइंस्टीन ने 10 अन्य बहुत प्रसिद्ध वैज्ञानिकों के साथ मिल कर, 11 अप्रैल 1955 को, ‘रसेल-आइंस्टीन मेनीफ़ेस्टो’ कहलाने वाले एक आह्वान पर हस्ताक्षर किए. इसमें मानवजाति को निरस्त्रीकरण के प्रति संवेदनशील बनाने का आग्रह किया गया था. दो ही दिन बाद, जब वे इसराइल के स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में एक भाषण लिख रहे थे, उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया. 15 अ़प्रैल को उन्हें प्रिन्सटन के अस्पताल में भर्ती किया गया. 18 अप्रैल को 76 वर्ष की अवस्था में वे दुनिया से चलबसे.

🇮🇳 शवपरीक्षक डॉक्टर ने आइंस्टीन की आँखों और मस्तिष्क को यह जानने के लिए अंत्येष्टि से पहले ही निकाल लिया कि उनके मस्तिष्क की बनावट में उनकी असाधारण प्रतिभा का कोई रहस्य तो नहीं छिपा है. उनके परिजनों ने मस्तिष्क के साथ इस प्रयोग की अनुमति दे दी थी. पर ऐसी कोई असाधारण संरचना उनके मस्तिष्क में नहीं मिली. मस्तिष्क का एक बड़ा हिस्सा शिकागो के ‘नेशनल म्यूज़ियम ऑफ़ हेल्थ ऐन्ड मेडिसिन’ (राष्ट्रीय स्वास्थ्य एवं औषधि संग्राहलय) में आज भी देखा जा सकता है.

🇮🇳 अल्बर्ट आइंस्टीन महात्मा गाँधी के बहुत बड़े प्रशंसक थे.1924 में उन्होने भारत के भौतिकशास्त्री सत्येन्द्रनाथ बोस के सहयोग से ‘बोस-आइंस्टीन कन्डेन्सेशन’ नाम की पदार्थ की एक ऐसी अवस्था होने की भी भविष्यवाणी की थी, जो परमशून्य (– 273.15 डिग्री सेल्सियस) तापमान के निकट देखी जा सकती है. यह भविष्यवाणी, जो मूलतः #सत्येन्द्रनाथ_बोस के दिमाग़ की उपज थी और उन्होंने उसके बार में अपना एक पत्र आइंस्टीन को भेजा था, 1955 में पहली बार एक प्रयोगशाला में सही सिद्ध की जा सकी. उसके बारे में 1905 मे लिखे लेख की पांडुलिपि बेल्जियम के लाइडन विश्वविद्यालय में मिली है.

साभार: satyagrah.scroll.in

🇮🇳 महान #वैज्ञानिक #Scientist #अल्बर्ट_आइंस्टीन जी को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 



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