🇮🇳 राजनारायण मिश्र - आज़ादी के आंदोलन का सशक्त क्रांतिवीर जिसके नाम हुई ब्रिटिश साम्राज्य की आखिरी फाँसी 🇮🇳
🇮🇳 राजनारायण मिश्र ने कहा था कि हमें दस आदमी ही चाहिए, जो त्यागी हों और देश की ख़ातिर अपनी जान की बाज़ी लगा सकें. कई सौ आदमी नहीं चाहिए जो लंबी-चौड़ी हाँकते हों और अवसरवादी हों। 🇮🇳
🇮🇳 चाहे जितनी तरह से कही जाए, और जितनी बार, भारत की आज़ादी की कहानी से कुछ छूट ही जाता है। हमारे देश की आज़ादी के किस्सों में कितने ही उत्सर्ग ऐसे हैं जिनकी ध्वनि लोगों तक नहीं पहुँची, कितने ही पन्ने अधखुले हैं, कितने बलिदान अकथ रह गये हैं। 9 दिसंबर, 1944 को लखनऊ में ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ का उद्घोष करते हुए वीरगति का वरण करने वाले क्रांतिकारी राजनारायण मिश्र को उनकी बलिदान का सिला मिला होता तो आज आप उन्हें जानते होते। ब्रिटिश साम्राज्य में सबसे नौजवान फाँसी थी खुदीराम बोस की और विराम लगा राजनारायण मिश्र जी की फाँसी से।
🇮🇳 आईये जानते हैं राजनारायण मिश्र किन अवधारणाओं और अंग्रेज़ शासन के हाथों किन शोषित परिस्थतियों में बड़े हुए होंगे कि 24 वर्ष की छोटी उम्र में ही उन्हें अपने प्राणों की बलि चढ़ानी पढ़ी।
🇮🇳 #लखनऊ में बलिवेदी पर चढे राजनारायण मिश्र का जन्म #लखीमपुर_खीरी जिले के #कठिना नदी के तटवर्ती #भीषमपुर गाँव में साल 1919 की #बसंत_पंचमी को हुआ था। #बलदेवप्रसाद_मिश्र के इस पुत्र ने दो साल के होते-होते अपनी माँ #तुलसी_देवी को खो दिया था और होश सँभाला तो पाया कि पूरा देश ही दुर्दशाग्रस्त है और इसका सबसे बड़ा कारण गुलामी है।
🇮🇳 फिर, 23 मार्च, 1931 को #सरदार_भगत_सिंह की शहादत के बाद राजनारायण ने उनको अपना आदर्श मानकर जो सशस्त्र साम्राज्यवाद विरोधी प्रतिरोध संगठित करना शुरू किया तो फाँसी पर चढ़ने तक लगे रहे, बिना थके और बिना पराजित हुए।
🇮🇳 पाँच भाइयों में सबसे छोटे, उन्होंने केवल 22 साल की उम्र में हथियार इकट्ठा करके अंग्रेजों को भगाने की कोशिश की। उनके आंतरिक उत्साह ने उन्हें आश्वस्त किया कि औपनिवेशिक ब्रिटिश साम्राज्य से लड़ने के लिए सशस्त्र प्रतिरोध की आवश्यकता है।
🇮🇳 राजनारायण मिश्र ने कहा था कि हमें दस आदमी ही चाहिए, जो त्यागी हों और देश की ख़ातिर अपनी जान की बाज़ी लगा सकें. कई सौ आदमी नहीं चाहिए जो लंबी-चौड़ी हाँकते हों और अवसरवादी हों।
🇮🇳 पर मेरी तो यह अभिलाष, चिता-निकट भी पहुँच सकूँ मैं अपने पैरों-पैरों चलकर 🇮🇳
🇮🇳 1942 में हथियार लूटने की कोशिश में, लखीमपुर खीरी के उपायुक्त फायरिंग में मारे गए, जिसके बाद उन्होंने गाँव छोड़ दिया। इस घटना के बाद अंग्रेजों ने उनके परिवार को प्रताड़ित किया। घर गिराकर हल चलवा दिया। घर में रखे सारे सामानों को भी लूट लिया। आखिरकार, औपनिवेशिक अधिकारियों ने मिश्रा को स्वतंत्रता कार्यकर्ता #नसीरुद्दीन_मौज़ी के साथ गोली मारने के आरोप में पकड़ लिया। मिश्रा को अक्टूबर 1943 में #मेरठ के गाँधी आश्रम से गिरफ्तार किया गया और 27 जून 1944 को महज़ 24 साल के राजनारायण मिश्र को मौत की सजा सुनाई गई। पहली जुलाई को उन्हें लखनऊ जेल भेज दिया गया और बाद में चीफ कोर्ट ने भी उनकी सजा पर मोहर लगा दी।
🇮🇳 "शीघ्र ही आप लोगों के बीच से जा रहा । मेरे हृदय में किसी प्रकार का दु:ख नहीं है। आजादी के लिए मरने वाले किसी के प्रति द्वेष-भाव नहीं रखते हैं। हॅंसते-हँसते बलिवेदी पर चढ़ जाते हैं। किसी के प्रति कोई कटु वाक्य नहीं कहते हैं। जाने वाले का कौन साथ देता है। आप लोग किसी तरह की चिंता न करें। माँ ने मुझे हँसने के लिए ही पैदा किया था। अंतिम समय में भी हँसता ही रहूँगा।"
-- राजनारायण मिश्र ने जेल से झारखंडे राय को लिखे पत्र की चंद पंक्तियाँ
🇮🇳 बेशक, उन्हें प्रिवी कौंसिल में अपील की मोहलत मिली, लेकिन परिवार की गरीबी और समाज की कृतघ्नता के कारण वह अपील हो ही नहीं पाई। तब माफी माँग लेने की गोरों के प्रस्ताव का जवाब, उन्होंने अपनी इस अंतिम इच्छा से दिया था - एक यह कि वह स्वयं अपने गले में फंदा लटकाएंगे और फाँसी पर लटक जाने के बाद उनके पार्थिव शरीर को उनके जेल में बंद स्वतंत्रता सेनानी ही फंदे से मुक्त करेंगे।
~ आस्था सिंह
साभार: knocksense.com
ब्रिटिश साम्राज्य की आखिरी फाँसी पाने वाले राजनारायण मिश्र का जन्म वर्ष 1919 में बसंत पंचमी के दिन हुआ था और 9 दिसम्बर 1944 को प्रातः 4 बजे उन्होंने हँसते-हँसते फाँसी का फंदा चूम लिया था।
माँ भारती के अमर सपूत क्रांतिवीर को कोटि-कोटि नमन !
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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व
#आजादी_का_अमृतकाल
साभार: चन्द्र कांत (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था
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