किसी देश का उत्थान जनता की चेतना और राजनीतिक जागरूकता पर निर्भर करता है। 🇮🇳
🇮🇳 आज देश के महानायक भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और डॉ. राम मनोहर लोहिया को एक साथ याद करने का दिन है। 23 मार्च को जहाँ भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु के बलिदान का दिन है तो वहीं महान समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया की जयंती भी है।
🇮🇳 डॉ. लोहिया एक ऐसे चिंतक और नेता थे, जिन्होंने अपने जन्मदिन को बलिदान दिवस (शहीदी दिवस) को समर्पित कर दिया। वे कहते थे कि यह जन्मदिन से अधिक अपने महानायकों को याद करने का दिन है, जो बहुत कम उम्र में बलिदान देकर समाज को एक बड़ा सपना दे गया। ऐसे बलिदान समाज में एक नई सोच और सपने देखने के नजरिए को प्रतिफलित करती हैं, उस सपने को आगे बढ़ाने का दिन है।
🇮🇳 उन्होंने भगत सिंह और उनके साथियों के बलिदानों के बाद खुद का जन्मदिन मनाने से इनकार कर दिया और अपने समाजवादी साथियों से यह अपील की कि वह भी उसे न मनाएं । अगर कोई उनसे जन्मदिन मनाने का आग्रह करता तो वह स्पष्ट रूप से कहते थे कि भगत सिंह और उनके साथियों के बलिदानों को याद करना चाहिए और इस दिन को हमें बलिदान दिवस के रूप में मनाना चाहिए।
🇮🇳 इतने कम उम्र में भगत सिंह जितना लिख गए और पढ़ गए वह अद्भुत है। उनकी लेखनी में समाज के हाशिए पर खड़े लोगों की झलक दिखती है। आज हमारे समाज को भगत सिंह और डॉ. राम मनोहर लोहिया के त्याग, विचार और संदेश को आत्मसात करने की जरूरत है।
डॉ. लोहिया और भगत सिंह की कार्य प्रणाली, व्यक्तित्व, सोच एवं जीवन दर्शन में कई समानताएं देखने को मिलती हैं। दोनों का लक्ष्य था कि एक ऐसे समाज की स्थापना की जाए, जिसमें शोषण न हो, भेदभाव न हो, असमानता न हो, किसी प्रकार का अप्राकृतिक अथवा अमानवीय विभेद न हो। अर्थात समतामूलक समाजवादी समाज की स्थापना की जाए।
🇮🇳 दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि समाज में व्यक्ति-व्यक्ति के बीच कोई भेद एवं कोई दीवार न हो, न ही जाति का बंधन हो और न ही धर्म की बंदिशें हो, सभी जन एक समान हों और सब जन का मंगल हो।
🇮🇳 वहीं मौजूदा हालात ऐसे हैं, जिसमें सभी का मंगल बाधित होता दिख रहा है। देश में बढ़ती बेरोजगारी, महँगाई, छात्र-छात्राओं में हताशा की किरणें और आए दिन राजनीतिक परिदृश्य में परिवर्तन इस ओर इशारा करती हैं कि राम मनोहर लोहिया की समाजवादी विचारधारा आज भी प्रासंगिक है।
उन्होंने कहा था कि-
जो लोग ये कहते हैं कि राजनीति को रोजी-रोटी की समस्या से अलग रखो तो यह कहना उनकी अज्ञानता है या बेईमानी है। राजनीति का अर्थ और प्रमुख उद्देश्य लोगों का पेट भरना है। जिस राजनीति से लोगों को रोटी नहीं मिलती, उनका पेट नहीं भरता वह राजनीति भ्रष्ट, पापी और नीच राजनीति है।’ अर्थात राजनीति को हम दरकिनार करके समाज के विकास या समतामूलक समाज की स्थापना की बात नहीं कर सकते हैं। क्योंकि राजनीति भी हमारे समाज का ही हिस्सा है।
🇮🇳 राजनीति में शुचिता और पारदर्शिता डॉ. लोहिया की पहली शर्त थी, लेकिन राजनीति का बदलता स्वरूप समाज की प्राथमिकता को कम कर रहा है। समाज से सीधा संवाद नहीं हो रहा है। यहाँ पर संवाद की प्रक्रिया में ओपिनियन लीडर की भूमिका अहम हो गई है, जो राजनीतिक पार्टियों के द्वारा तय किए गए मुद्दों पर केंद्रित होता दिख रहा है।
🇮🇳 जहाँ समाज की भूमिका कम हो जाती है और राजनीति धीरे-धीरे रोजी-रोटी की समस्या से दूर होने लगती है। वहीं वोट की राजनीति पर अधिक केंद्रित हो जाती है। जबकि किसी देश का उत्थान जनता की चेतना और राजनीतिक जागरूकता पर निर्भर करता है।
🇮🇳 डॉ. लोहिया समाज के अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति के लोकतांत्रिक अधिकारों की बात करते थे। उन्होंने कहा कि आर्थिक गैर बराबरी जाति-पाति राक्षस हैं और अगर एक से लड़ना है तो दूसरे से भी लड़ना जरूरी है। जाति समाज में असमानता को उत्पन्न करती है। जाति प्रथा के कारण ही समाज के निम्न वर्ग के लोग शोषण का शिकार होते हैं और उन्हें उन्नति के अवसरों से दूर कर देती है।
🇮🇳 यही असमानता मानव विकास की यात्रा में बढ़ती दिख रही है। इसके लिए जाति भेदभाव को खत्म करने की आवश्यकता है और यह आर्थिक बराबरी होने पर ही खत्म हो सकती है। इसलिए समाज को बराबरी और समतामूलक बनाने के लिए इनसे छुटकारा पाना होगा। वे आजीवन समाजवादी विचारों के समरूप समानता स्थापित करने लिए संघर्षरत रहे।
🇮🇳 वह देश के उन तमाम लोगों की आवाज थे, जिनकी आवाज संसद तक नहीं पहुँचती थी। उन सभी की आवाज को उन्होंने संसद तक पहुंचाया। आज भी हमें याद है कि कैसे राम मनोहर लोहिया ने संसद में एक आम आदमी के रोज के खर्चे से हजारों गुना अधिक बताते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री पर तीखा हमला किया था।
🇮🇳 उन्होंने एक आम आदमी की आमदनी की पीड़ा को प्रधानमंत्री के समक्ष रखा। उन्होंने कहा था-
जो आबादी का 27 करोड़ है, वह तीन आना प्रतिदिन पर जीवनयापन कर रहे हैं। वहीं प्रधानमंत्री के कुत्ते पर प्रतिदिन तीन रुपये का खर्च किया जाता है। जबकि प्रधानमंत्री पर प्रतिदिन 25 से 30 हजार रुपये खर्च होता है। उन्होंने संसद में जनता की समस्याओं को तर्कों के साथ रखने की एक अलग पहचान को साबित किया।
🇮🇳 आज भी डॉ. लोहिया के विचारों से सीखने की जरूरत है कि कैसे विपक्ष की भूमिका में रहकर जनता के सवालों को पूरे जोरदार तरीके से रखा जाए। यह बातें सिर्फ लोहिया के भाषण के रूप में नहीं है, बल्कि वर्तमान राजनीतिक पार्टियों के लिए सीखने और आत्मसात करने की जरूरत है। उनके कालखंड में जितने भी विपक्षी नेता हुए, उन सब में एक नैतिक बल की दृष्टि थी, जिसका आज के विपक्षी नेताओं में अभाव दिख रहा है।
🇮🇳 वे जीवन के अंतिम वर्षों में राजनीति के अलावा साहित्य एवं कला पर युवाओं से संवाद करते रहे। उन्होंने कहा था कि ‘जिंदा कौमें पाँच साल इंतजार नहीं करतीं।’ डॉ. लोहिया जीवन के अंतिम क्षण तक कौम के बारे में सोचते रहते थे, लेकिन अब यह दिखाई नहीं देता।
🇮🇳 आज के नेता सिर्फ व सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं, जिससे परिवारवाद का भी आरोप लगता रहा है। भारतीय राजनीति में डॉ. लोहिया की आज भी जरूरत है। उनका विचार और समतामूलक समाज की अवधारणा भारतीय संदर्भों में देश का भविष्य सुनिश्चित कर सकता है।
साभार : amarujala.com
🇮🇳 समतामूलक समाज की अवधारणा को आगे बढ़ाने वाले, समाजवाद के जनक, भारतीय #स्वतंत्रता आंदोलन के सेनानी #राममनोहर_लोहिया जी को उनकी जयंती पर कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि !
#RamManohar_Lohia ji
🇮🇳💐🙏
#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व
#आजादी_का_अमृतकाल
साभार: चन्द्र कांत (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था
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