22 मार्च 2024

Hanuman Prasad Poddar | हनुमान प्रसाद पोद्दार | जन्म:1892 - मृत्यु- 22 मार्च 1971

 



#अलौकिक_संत

हनुमान प्रसाद पोद्दार (जन्म:1892 - मृत्यु- 22 मार्च 1971) का नाम #गीता_प्रेस #Geeta_Press स्थापित करने के लिये भारत व विश्व में प्रसिद्ध है। भारतीय अध्यात्मिक जगत पर हनुमान पसाद पोद्दार नाम का एक ऐसा सूरज उदय हुआ, जिसकी वजह से देश के घर-घर में गीता, #रामायण, #वेद और #पुराण जैसे ग्रंथ पहुँचे सके। आज #गीता_प्रेस_गोरखपुर का नाम किसी भी भारतीय के लिए अनजाना नहीं है। सनातन हिंदू संस्कृति में आस्था रखने वाला दुनिया में शायद ही कोई ऐसा परिवार होगा, जो गीता प्रेस गोरखपुर के नाम से परिचित नहीं होगा। इस देश में और दुनिया के हर कोने में रामायण, #गीता, वेद, पुराण और #उपनिषद से लेकर प्राचीन भारत के ऋषियों -मुनियों की कथाओं को पहुँचाने का एक मात्र श्रेय गीता प्रेस गोरखपुर के संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार को है। प्रचार-प्रसार से दूर रहकर एक अकिंचन सेवक और निष्काम कर्मयोगी की तरह पोद्दार जी ने हिंदू संस्कृति की मान्यताओं को घर-घर तक पहुँचाने में जो योगदान दिया है, इतिहास में उसकी मिसाल मिलना ही मुश्किल है।

🇮🇳🔶 भारतीय पंचांग के अनुसार विक्रम संवत के वर्ष 1949 में अश्विन कृष्ण की प्रदोष के दिन उनका जन्म हुआ। #राजस्थान के #रतनगढ़ में #लाला_भीमराज_अग्रवाल और उनकी पत्नी #रिखीबाई हनुमान के भक्त थे, तो उन्होंने अपने पुत्र का नाम 'हनुमान प्रसाद' रख दिया। दो वर्ष की आयु में ही इनकी माता का स्वर्गवास हो जाने पर इनका पालन-पोषण इनकी दादी ने किया। #दादी के धार्मिक संस्कारों के बीच बालक हनुमान को बचपन से ही गीता, रामायण वेद, उपनिषद और पुराणों की कहानियाँ पढ़ने - सुनने को मिली। इन संस्कारों का बालक पर गहरा असर पड़ा। बचपन में ही इन्हें हनुमान कवच का पाठ सिखाया गया। निंबार्क संप्रदाय के #संत_ब्रजदास जी ने बालक को दीक्षा दी।

🇮🇳🔶 उस समय देश ग़ुलामी की जंज़ीरों मे जकड़ा हुआ था। इनके पिता अपने कारोबार का वजह से #कलकत्ता में थे और ये अपने दादा जी के साथ #असम में। कलकत्ता में ये स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारियों #अरविंद_घोष, #देशबंधु_चितरंजन_दास, #पंडित_झाबरमल_शर्मा के संपर्क में आए और आज़ादी आंदोलन में कूद पड़े। इसके बाद #लोकमान्य_तिलक और #गोपालकृष्ण_गोखले जब कलकत्ता आए तो पोद्दार जी उनके संपर्क में आए इसके बाद उनकी मुलाकात #गाँधीजी से हुई। 

🇮🇳🔶 #वीर_सावरकर द्वारा लिखे गए '1857 का स्वातंत्र्य समर ग्रंथ' से पोद्दार जी बहुत प्रभावित हुए और 1938 में वे वीर सावरकर से मिलने के लिए मुंबई चले आए। 1906 में उन्होंने कपड़ों में गाय की चर्बी के प्रयोग किए जाने के ख़िलाफ़ आंदोलन चलाया और विदेशी वस्तुओं और विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के लिए संघर्ष छेड़ दिया। युवावस्था में ही उन्होंने खादी और स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना शुरू कर दिया। विक्रम संवत 1971 में जब #महामना #पंडित_मदन_मोहन_मालवीय बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए धन संग्रह करने के उद्देश्य से कलकत्ता आए तो पोद्दार जी ने कई लोगों से मिलकर इस कार्य के लिए दान-राशि दिलवाई।

🇮🇳🔶 कलकत्ता में आज़ादी आंदोलन और क्रांतिकारियों के साथ काम करने के एक मामले में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने हनुमान प्रसाद पोद्दार सहित कई प्रमुख व्यापारियों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। इन लोगों ने ब्रिटिश सरकार के हथियारों के एक जख़ीरे को लूटकर उसे छिपाने में मदद की थी। जेल में पोद्दार जी ने हनुमान जी की आराधना करना शुरू कर दी। बाद में उन्हें #अलीपुर जेल में नज़रबंद कर दिया गया। नज़रबंदी के दौरान पोद्दार जी ने समय का भरपूर सदुपयोग किया। वहाँ वे अपनी दिनचर्या सुबह तीन बजे शुरू करते थे और पूरा समय परमात्मा का ध्यान करने में ही बिताते थे। बाद में उन्हें नजरबंद रखते हुए पंजाब की #शिमलपाल जेल में भेज दिया गया। वहाँ कैदी मरीज़ों के स्वास्थ्य की जाँच के लिए एक होम्योपैथिक चिकित्सक जेल में आते थे, पोद्दार जी ने इस चिकित्सक से #होम्योपैथी की बारीकियाँ सीख ली और होम्योपैथी की किताबों का अध्ययन करने के बाद ख़ुद ही मरीज़ों का इलाज करने लगे। बाद में वे #जमनालाल_बजाज की प्रेरणा से मुंबई चले आए। यहाँ वे वीर सावरकर, #नेताजी_सुभाष_चंद्र_बोस, #महादेव_देसाई और #कृष्णदास_जाजू जैसी विभूतियों के निकट संपर्क में आए।

मुंबई में उन्होंने अग्रवाल नवयुवकों को संगठित कर मारवाड़ी खादी प्रचार मंडल की स्थापना की। इसके बाद वे प्रसिद्ध संगीताचार्य #विष्णु_दिगंबर के सत्संग में आए और उनके हृदय में संगीत का झरना बह निकला। फिर उन्होंने भक्ति गीत लिखे जो 'पत्र-पुष्प' के नाम से प्रकाशित हुए। मुंबई में वे अपने मौसेरे भाई #जयदयाल_गोयन्का जी के गीता पाठ से बहुत प्रभावित थे। उनके गीता के प्रति प्रेम और लोगों की गीता को लेकर जिज्ञासा को देखते हुए भाई जी ने इस बात का प्रण किया कि वे श्रीमद् भागवद्गीता को कम से कम मूल्य पर लोगों को उपलब्ध कराएँगे।

🇮🇳🔶 उन्होंने गीता पर एक टीका लिखी और उसे कलकत्ता के 'वाणिक प्रेस' में छपवाई। पहले ही संस्करण की पाँच हज़ार प्रतियाँ बिक गई। लेकिन पोद्दार जी को इस बात का दु:ख था कि इस पुस्तक में ढेरों ग़लतियाँ थी। इसके बाद उन्होंने इसका संशोधित संस्करण निकाला मगर इसमें भी ग़लतियाँ दोहरा गई थी। इस बात से भाई जी के मन को गहरी ठेस लगी और उन्होंने तय किया कि जब तक अपना खुद का प्रेस नहीं होगा, यह कार्य आगे नहीं बढ़ेगा। बस यही एक छोटा सा संकल्प गीता प्रेस गोरखपुर की स्थापना का आधार बना। उनके भाई गोयनका जी का व्यापार तब बांकुड़ा, बंगाल में था और वे गीता पर प्रवचन के सिलसिले में प्राय: बाहर ही रहा करते थे। तब समस्या यह थी कि प्रेस कहाँ लगाई जाए। उनके मित्र #घनश्याम_दास_जालान गोरखपुर में ही व्यापार करते थे। उन्होंने प्रेस गोरखपुर में ही लगाए जाने और इस कार्य में भरपूर सहयोग देने का आश्वासन दिया। इसके बाद मई 1922 में गीता प्रेस का स्थापना की गई।

🇮🇳🔶 1926 में मारवाड़ी अग्रवाल महासभा का अधिवेशन दिल्ली में था सेठ जमनालाल बजाज अधिवेशन के सभापति थे। इस अवसर पर #सेठ_घनश्यामदास_बिड़ला भी मौजूद थे। बिड़ला जी ने भाई जी द्वारा गीता के प्रचार-प्रसार के लिए किए जा रहे कार्यों की सराहना करते हुए उनसे आग्रह किया कि सनातन धर्म के प्रचार और सद विचारों को लोगों तक पहुँचाने के लिए एक संपूर्ण पत्रिका का प्रकाशन होना चाहिए। बिड़ला जी के इन्हीं वाक्यों ने भाई जी को #कल्याण नाम की पत्रिका के प्रकाशन के लिए प्रेरित किया। अगस्त 1955 में कल्याण का पहला प्रवेशांक निकला। इसके बाद 'कल्याण' भारतीय परिवारों के बीच एक लोकप्रिय संपूर्ण पत्रिका के रुप में स्थापित हो गई और आज भी धार्मिक जागरण में कल्याण एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। 'कल्याण' तेरह माह तक मुंबई से प्रकाशित होती रही। इसके बाद अगस्त 1926 से गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित होने लगा।

🇮🇳🔶 पोद्दार जी ने कल्याण को एक आदर्श और रुचिकर पत्रिका का रुप देने के लिए देश भर के महात्माओं, लेखकों और संतों आदि को पत्र लिखकर इसके लिए विविध विषयों पर लेख आमंत्रित किए। साथ ही उन्होंने श्रेष्ठतम कलाकारों से देवी-देवताओं के आकर्षक चित्र बनवाए और उनको कल्याण में प्रकाशित किया। कल्याण की सामग्री के संपादन से लेकर उसके रंग-रुप को अंतिम रूप देने का कार्य भी पोद्दार जी ही देखते थे। वह प्रतिदिन अठारह घंटे कार्य करते थे। कल्याण को उन्होंने मात्र हिंदू धर्म की ही पत्रिका के रुप में पहचान देने की बजाय उसमे सभी धर्मों के आचार्यों, जैन मुनियों, रामानुज, निंबार्क, माध्व आदि संप्रदायों के विद्वानों के लेखों का प्रकाशन किया।

🇮🇳🔶 1936 में गोरखपुर में भयंकर बाढ़ आ गई थी। बाढ़ पीड़ित क्षेत्र के निरीक्षण के लिए पं. जवाहरलाल नेहरू जब गोरखपुर आए तो तत्कालीन अंग्रेज़ सरकार के दबाव में उन्हें वहाँ किसी भी व्यक्ति ने कार उपलब्ध नहीं कराई, क्योंकि अंग्रेज़ कलेक्टर ने सभी लोगों को धौंस दे रखी थी कि जो भी नेहरू जी को कार देगा उसका नाम विद्रोहियों की सूची में लिख दिया जाएगा। लेकिन भाई जी ने अपनी कार नेहरू जी को दे दी।

🇮🇳🔶 1938 में जब राजस्थान में भयंकर अकाल पड़ा तो पोद्दार जी अकाल पीड़ित क्षेत्र में पहुँचे और उन्होंने अकाल पीड़ितों के साथ ही मवेशियों के लिए भी चारे की व्यवस्था करवाई। बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, द्वारका, कालड़ी श्रीरंगम आदि स्थानों पर वेद - भवन तथा विद्यालयों की स्थापना में पोद्दार जी ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपने जीवन-काल में पोद्दार जी ने 25 हज़ार से ज़्यादा पृष्ठों का साहित्य-सृजन किया।

🇮🇳🔶 अंग्रेज़ों के समय में गोरखपुर में उनकी धर्म व साहित्य सेवा तथा उनकी लोकप्रियता को देखते हुए तत्कालीन अंग्रेज़ कलेक्टर पेडले ने उन्हें 'राय साहब' की उपाधि से अलंकृत करने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन पोद्दार जी ने विनम्रतापूर्वक इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। इसके बाद अंग्रेज़ कमिश्नर होबर्ट ने 'राय बहादुर' की उपाधि देने का प्रस्ताव रखा लेकिन पोद्दार जी ने इस प्रस्ताव को भी स्वीकार नहीं किया। देश की स्वाधीनता के बाद डॉ. संपूर्णानंद, कन्हैयालाल मुंशी और अन्य लोगों के परामर्श से तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने पोद्दार जी को 'भारत रत्न' की उपाधि से अलंकृत करने का प्रस्ताव रखा लेकिन उन्होंने इसमें भी कोई रुचि नहीं दिखाई।

🇮🇳🔶 22 मार्च 1971 को पोद्दार जी ने इस नश्वर शरीर का त्याग कर दिया और अपने पीछे वे `गीता प्रेस गोरखपुर' के नाम से एक ऐसा केंद्र छोड़ गए, जो भारतीय संस्कृति को पूरे विश्व में फैलाने में एक अग्रणी भूमिका निभा रहा है।

साभार : bharatdiscovery.com

🇮🇳 त्याग और सेवा की प्रतिमूर्ति, माँ भारती के सच्चे सपूत, अलौकिक संत एवं प्रसिद्ध  #स्वतंत्रता सेनानी #हनुमान_प्रसाद_पोद्दार जी की पुण्यतिथि पर उन्हें कोटि-कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि !

Death anniversary of #freedomfighter #Hanuman_Prasad_Poddar ji

🇮🇳🕉️🚩🔱💐🙏 पर उन्हें कोटि-कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳🕉️🚩🔱💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व


#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. 

Ramchandra Chatterjee | राम चंद्र चटर्जी | गुब्बारे की सवारी

 



#राम_चंद्र_चटर्जी और उनकी बैलोन सवारी जिसने भारत का इतिहास बदल दिया।

🇮🇳 एक समय की बात है, आश्चर्य और साहसी कारनामे से भरी दुनिया में, एक ट्रैपेज़ कलाकार रहता था जो सितारों तक पहुँचने का सपना देखता था। अपने कलाबाजी कौशल और महत्वाकांक्षा से भरे दिल के साथ, उन्होंने ऊँची उड़ान भरने की एक साहसी योजना तैयार की।

🇮🇳 यह 19वीं सदी का उत्तरार्ध था और वह व्यक्ति राम चंद्र चटर्जी थे; #कलकत्ता का रहने वाला एक ट्रैपेज़ खिलाड़ी, जो नेशनल सर्कस कंपनी के लिए काम करता था। वह भारत के शुरुआती जिमनास्ट और ट्रैपेज़ कलाकारों में से एक थे। लेकिन उन्हें अचानक एक नई घटना का पता चला।

🇮🇳 18वीं सदी के यूरोप में हॉट-एयर बैलूनिंग का चलन था, लेकिन भारत को डी. रॉबर्टसन की पहली उड़ान देखने में 1836 तक का समय लग गया। लेकिन असली गुब्बारा बुखार तब भड़का जब 1880 के दशक के अंत में प्रसिद्ध गुब्बारा वादक पर्सिवल स्पेंसर भारत पहुँचे।

🇮🇳 19 मार्च, 1889 को, स्पेंसर ने कलकत्ता रेस कोर्स से उड़ान भरी और एक महीने बाद, 10 अप्रैल, 1889 को, निडर राम चंद्र चटर्जी उनके साथ शामिल हो गए।

🇮🇳 स्पेंसर के साथ अपनी संयुक्त चढ़ाई से प्रेरित होकर, चटर्जी ने एकल उड़ान पर अपना ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने स्पेंसर का गुब्बारा, "द वायसराय" हासिल कर लिया, जिसका नाम बदलकर "कलकत्ता शहर" रखा गया। #पथुरियाघाट के टैगोरों के समर्थन से, चटर्जी ने अपनी एकल, महत्वाकांक्षी यात्रा शुरू की।

🇮🇳 27 अप्रैल, 1889 को पहले 'मूल' बंगाली व्यक्ति के लिए गुब्बारे की सवारी करने के लिए एक भव्य दिन की योजना बनाई गई थी। हजारों की संख्या में दर्शक गैस कंपनी मैदान में इंतजार में जमा थे। हालाँकि, प्रकृति की कुछ और ही योजनाएँ थीं।

🇮🇳 निराशा के बावजूद, राम चंद्र चटर्जी दृढ़ संकल्पित रहे। उन्होंने 4 मई को चढ़ाई की नई तारीख तय की और टिकट पाने वालों को आश्वासन दिया कि उन्हें अभी भी सम्मानित किया जाएगा। उनके दृढ़ संकल्प ने उनके असाधारण पराक्रम को देखने के लिए उत्सुक लोगों की आशाओं को जीवित रखा।

🇮🇳 बड़े दिन पर, एक म्यूजिकल बैंड बजने के साथ, हिंदू अनुष्ठान पूरे हुए और 8,000 दर्शक उत्सुकता से देख रहे थे, राम चंद्र चटर्जी ने अपने हल्के सूट और टोपी में "द सिटी ऑफ कलकत्ता" में उड़ान भरी। ऊपर और दूर ऊपर।

🇮🇳 कलकत्ता के आसमान में एक ऐतिहासिक क्षण सामने आया। गुब्बारा लगभग 40 मिनट तक तैरता रहा और सोडेपोर के पास धीरे से उतरने से पहले 4,000 फीट की ऊँचाई तक पहुँच गया। यह तारीख, 4 मई, 1889 को भारत के अंतरिक्ष साहसिक कार्य में एक स्वर्णिम अध्याय के रूप में चिह्नित किया जाना चाहिए।

#Ram_Chandra_Chatterjee

साभार: pixstory.com

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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Ragini Trivedi | रागिनी त्रिवेदी | विचित्र वीणा, सितार और जल तरंग | 22 मार्च, 1960

 



रागिनी त्रिवेदी (जन्म- 22 मार्च, 1960) भारतीय शास्त्रीय संगीतकार हैं। वह विचित्रवीणा, सितार और जल तरंग पर प्रस्तुति देती हैं।

🇮🇳 रागिनी त्रिवेदी विचित्र वीणा वादक और संगीतज्ञ #लालमणि_मिश्र की पुत्री हैं।

🇮🇳 वह डिजिटल संगीत संकेतन प्रणाली की निर्माता हैं, जिसे 'ओमे स्वारलिपि' कहा जाता है।

🇮🇳 उनके पिता प्रसिद्ध संगीतकार लालमणि मिश्र, माता #पद्मा ने रागिनी और भाई #गोपाल_शंकर में संगीत के प्रति प्रेम पैदा किया।

🇮🇳 #वाराणसी में परिवार रीवा कोठी में दूसरी मंजिल पर रहता था। वहीं गायक #ओंकारनाथ_ठाकुर भूतल पर रहते थे।

🇮🇳 रागिनी त्रिवेदी ने 9 अप्रैल, 1977 को अपनी माँ को खो दिया और 17 जुलाई, 1979 को उनके पिता भी चल बसे। उन्होंने और उनके भाई गोपाल ने संगीत का अभ्यास जारी रखा।

🇮🇳 कुछ समय के लिए उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ाया और बाद में #होशंगाबाद, #रीवा और #इंदौर के सरकारी कॉलेजों में सितार पढ़ाया।

साभार: bharatdiscovery.org

🇮🇳 #विचित्रवीणा, #सितार और #जलतरंग पर प्रस्तुति देने वाली भारतीय #शास्त्रीय  #संगीतकार #रागिनी_त्रिवेदी जी को जन्मदिवस की ढेरों बधाई एवं अनंत शुभकामनाएँ!

#Ragini_Trivedi

#Vichitra_Veena, #Sitar and #Jaltarang

🇮🇳🌹🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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World Water Day | विश्व जल दिवस | 22 मार्च

 




#विश्व_जल_दिवस  #world_Water_Day

हमारी पृथ्वी का ​एक तिहाई हिस्सा जल से घिरा हुआ है। इसके बावजूद भी जगह जगह पर लोग पानी की समस्या से परेशान हैं। कई जगह पानी की सप्लाई इतनी ज्यादा है कि लोग उसे आँख मूँदकर बर्बाद करते हैं तो कई जगह प्यास बुझाने के लिए ही पानी नसीब नहीं है। यहीं कारण है कि दुनिया के अ​धिकांश लोगों को जल संकट का सामना करना पड़ता है। लोगों में पानी के प्रति अवेयरनेस बढ़ाने के लिए ही #22_मार्च का दिन विश्व जल दिवस के रूप में मनाया जाता है। ताकि लोग पानी की कीमत को समझ सकें। #विश्व के हर नागरिक को इसके महत्व से अवगत कराने के लिए ही संयुक्त राष्ट्र ने विश्व जल दिवस मनाने की शुरुआत की थी। 

🇮🇳🌏 #पानी ही जीवन का आधार है जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता है। जिस तरह से अब प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हो रहा है उससे साफ है कि भविष्य में संकट और गहरा सकता है।  क्लाइमेट चेंज और बढ़ती जनसंख्या तथा जल स्त्रोतों के अत्यधिक दोहन की वजह से भूजल का स्तर लगातार कम होता जा रहा है। ऐसे में जरूरी है कि हम पानी की वैल्यू को समझे और इसे बरबाद होने से बचाए।

🇮🇳🌏 पूरे विश्व में साफ पानी का धनी देश ब्राजील को माना जाता है। #ब्राजील में 8647 अरब क्यूबिक मीटर पानी उपलब्ध है। विश्व में पानी की उपलब्धता को लेकर भारत का आठवां स्थान है।  एक रिपोर्ट के मुताबिक #भारत विश्व के कुल भूजल का 24 फीसदी इस्तेमाल करता है। कई महानगरों में जिस तरह से जल स्तर कम हो रहा है उससे भविष्य में संकट और गहरा हो सकता है।  गौर करने वाली बात ये है कि धरती का करीब तीन चौथाई हिस्सा पानी पानी से भरा हुआ है, लेकिन इसमें से सिर्फ तीन फीसदी हिस्सा ही पीने योग्य है।

🇮🇳🌏 विश्व जल दिवस हर साल 22 मार्च को मनाया जाता है। इसका उद्देश्य विश्व के सभी विकसित देशों में स्वच्छ, सुरक्षित जल की उपलब्धता सुनिश्चित करवाना है। साथ ही जल संरक्षण के महत्व पर ध्यान केंद्रित करना है। विश्व जल दिवस मनाने की पहल रियो डी जेनेरियो में 1992 में आयोजित पर्यावरण तथा विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन द्वारा आयोजित कार्यक्रम में की गई थी। 1993 में संयुक्त राष्ट्र ने इस दिन को वार्षिक कार्यक्रम के रूप में मनाने का निर्णय लिया। इस कार्यक्रम का उद्देश्य लोगों के बीच में जल संरक्षण का महत्व, साफ पीने योग्य जल का महत्व जैसे कई पानी से जुड़े मुद्दों के प्रति जागरुकता जाना है।

🇮🇳🌏 #पृथ्वी का 71 प्रतिशत भाग जल से घिरा हुआ है, 29 फीसदी भाग पर स्थल है। इस 29 प्रतिशत क्षेत्र पर ही इंसान और दूसरे प्राणी रहते हैं। कुल पानी का लगभग 97 फीसदी पानी #समुद्र में पाया जाता है, लेकिन खारा होने के कारण इस पानी को पीने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। सिर्फ ​तीन प्रतिशत पानी ही पीने लायक है, जो #ग्लेशियर, नदी, तालाबों में पाया जाता है। इस तीन फीसदी #पानी में भी 2.4 फीसदी हिस्सा ग्लेशियरों, दक्षिणी ध्रुवों पर जमा है, जबकि बचा हुआ 0.6 फीसदी पानी #नदी, तालाबों, झीलों और कुँओं में मौजूद है। जिसका हम उपयोग कर सकते हैं, इसलिए हमें जल को बचाना चाहिए। इसकी एक बूँद बूँद बहुत कीमती है, इसे व्यर्थ नहीं गवाना चाहिए।

साभार: bhaskarhindi.com

★ जल व्यर्थ न होने दें।

★ #जल #संरक्षण पर लोगों को जागरूक करें।

🇮🇳🌹🙏

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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21 मार्च 2024

Major Mohit Sharma | मेजर मोहित शर्मा

 


‘शक है तो गोली मार दो’: इफ्तिखार भट्ट बन जब मेजर मोहित शर्मा ने आतंकियों के बीच बनाई पैठ, फिर ठोक दिया 🇮🇳

🇮🇳 हरियाणा के रोहतक में आज भी पैरा स्पेशल फोर्स के ऑफिसर मेजर मोहित शर्मा को उनकी बहादुरी के लिए घर-घर में याद किया जाता है। मरणोपतरांत अशोक चक्र से सम्मानित इस हुतात्मा ने साल 2009 में उत्तर कश्मीर के कुपवाड़ा जिले में एक सैन्य ऑपरेशन के दौरान अंतिम साँस ली थी। लेकिन, साल 2004 में इनके द्वारा किया गया एक ऑपरेशन आज भी कइयों के लिए प्रेरणा है।

🇮🇳 शिव अरूर और राहुल सिंह की किताब ‘इंडिया मोस्ट फीयरलेस 2’ में  इस बात का जिक्र है कि कैसे मेजर मोहित शर्मा ने इस्लामी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन में घुसपैठ करके दो खूँखार आतंकियों को मारा। 

🇮🇳 दक्षिण कश्मीर से 50 किमी दूर शोपियाँ में मेजर ने अपने ऑपरेशन को अंजाम दिया था। मेजर ने इस काम के लिए सबसे पहले अपना नाम और हुलिया बदला। उन्होंने लम्बी दाढ़ी-मूँछ रख कर आतंकियों की तरह अपने हाव-भाव बनाए। फिर इफ्तिखार भट्ट नाम के जरिए वह अबू तोरारा और अबू सबजार के संपर्क में आए।

🇮🇳 इसके बाद मेजर ने बतौर इफ्तिखार भट्ट दोनों हिजबुल आतंकियों को ये कहकर विश्वास दिलाया कि भारतीय सेना ने उनके भाई को साल 2001 में मारा था और अब वह बस सेना पर हमला करके बदला चाहते हैं। उन्होंने अपने मनगढ़ंत मंसूबे बताकर आतंकियों से कहा कि इस काम में उन्हें उन दोनों की मदद चाहिए। मेजर शर्मा ने दोनों आतंकियों से कहा कि उन्हें आर्मी के चेक प्वाइंट पर हमला बोलना है और उसके लिए वह जमीनी काम कर चुके हैं।

🇮🇳 मेजर शर्मा के इस ऑपरेशन में आतंकियों ने कई बार उनसे उनकी पहचान पूछी। लेकिन वह कहते, “मुझे तुम्हारी मदद चाहिए। मुझको सीखना है।” तोरारा ने तो कई बार उनकी पहचान के बारे में उनसे पूछा। लेकिन आखिरकार वे मेजर शर्मा के जाल में फँस गए और मदद करने को राजी हो गए। आतंकियों ने उन्हें बताया कि वह कई हफ्तों तक अंडरग्राउंड रहेंगे और आतंंकी हमले के लिए मदद जुटाएँगे। किसी तरह मेजर ने उन्हें मना ही लिया कि वह तब तक घर नहीं लौटेंगे जब तक चेक प्वाइंट को उड़ा नहीं देते।

🇮🇳 देखते ही देखते आने वाले दिनों में दोनों आतंकियों ने सब व्यवस्था कर ली। साथ ही पास के ग्रामों से तीन आतंकियों को भी बुला लिया। जब तोरारा को दोबारा संदेह हुआ तो मेजर ने उससे कहा, “अगर मेरे बारे में कोई शक है तो मुझे मार दो।” अपने हाथ से राइफल छोड़ते हुए वह आतंकियों से बोले, “तुम ऐसा नहीं कर सकते, अगर तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है। इसलिए तुम्हारे पास अब मुझे मारने के अलावा कोई चारा नहीं है।”

🇮🇳 मेजर की बातें सुनकर दोनों आतंकी असमंजस में पड़ गए। इतने में मेजर मोहित शर्मा को मौका मिला और उन्होंने थोड़ी दूर जाकर अपनी 9 mm पिस्टल को लोड कर दोनों आतंकियों को मौत के घाट उतार दिया। उन्होंने दो गोलियाँ आतंकियों के छाती पर मारी और एक सिर में। इसके बाद वह उनके हथियार उठाकर भागकर नजदीक के आर्मी कैंप में गए।

🇮🇳 इस ऑपरेशन के 5 साल बाद कुपवाड़ा के एक सैन्य ऑपरेशन में वह स्वयं भी बलिदान हो गए। अपने आखिरी समय में भी मेजर ने अपने कई साथियों को सुरक्षित बचाया। आखिर में सीने में गोली लगने के कारण दम तो़ड़ने वाले मेजर मोहित शर्मा के शूरता के किस्से आज भी समय-समय पर दोहराए जाते हैं। हाल में उनकी कहानी नेशन फर्स्ट, ऑलवेज और एवरीटाइम नाम के ट्विटर अकॉउंट पर एक पूरे स्टोरी थ्रेड में शेयर की गई है।

साभार : opindia.com

🇮🇳 #अशोक_चक्र से सम्मानित; माँ भारती की रक्षा के संकल्प को पूरा करने के लिए अद्भुत वीरता, सूझबूझ और साहस का परिचय देने वाले अमर हुतात्मा #मेजर_मोहित_शर्मा जी को उनके बलिदान दिवस पर कोटि-कोटि नमन !

#Ashoka_Chakra

#Major_Mohit_Sharma


🇮🇳💐🙏

🇮🇳 जय हिन्द, जय हिन्द की सेना 🇮🇳

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. 



Nataraja Ramakrishna | नटराज रामकृष्ण | Dance master | Kuchipudi | Traditional dance |

 



नटराज रामकृष्ण को 700 साल पुराने नृत्य रूप #पेरिनी_शिवतांडवम को पुनर्जीवित करने के लिए जाना जाता है। उन्होंने #कुचिपुड़ी को पारंपरिक #नृत्य रूप के साथ अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई। 🇮🇳

🇮🇳 नटराज रामकृष्ण (जन्म- 21 मार्च, 1923; मृत्यु- 7 जून, 2011) भारत के एक नृत्य गुरु थे। वे आंध्र प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष रहे थे। वह एक विद्वान और संगीतज्ञ भी थे, जिन्होंने आंध्र प्रदेश और दुनिया भर में शास्त्रीय नृत्य को बढ़ावा दिया। उन्होंने 40 से अधिक पुस्तकें लिखीं, जिनमें से कई को अत्यधिक सम्मानित किया गया। नृत्य की कला में नटराज रामकृष्ण के योगदान को व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त है।

🇮🇳 मात्र 18 साल की उम्र में ही नटराज रामकृष्ण को मराठा के तत्कालीन शासक द्वारा नागपुर में 'नटराज' की उपाधि दी गई थी।

🇮🇳 नटराज रामकृष्ण को 700 साल पुराने नृत्य रूप 'पेरिनी शिवतांडवम' को पुनर्जीवित करने के लिए जाना जाता है। उन्होंने कुचिपुड़ी को पारंपरिक नृत्य रूप के साथ अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई।

🇮🇳 आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नीलम संजीव रेड्डी के अनुरोध पर नटराज रामकृष्ण ने हैदराबाद में 'नृत्य निकेतन' नामक नृत्य विद्यालय की स्थापना की थी।

🇮🇳 सन 1991 में उन्हें 'राजा-लक्ष्मी पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था।

🇮🇳 अपने लंबे करियर में नटराज रामकृष्ण ने कई नर्तकियों को प्रशिक्षित किया और अत्यधिक प्रशंसित नृत्य नाटकों को लिखा और कोरियोग्राफ किया।

🇮🇳 उन्होंने 'चिंदू यक्षगानम' का प्रचार करने में बहुत मदद की, जो तेलंगाना का एक प्राचीन लोक रूप है। उन्होंने श्रीकाकुलम और विजयनगरम जिलों के टपेटागल्लू, पूर्व और पश्चिम गोदावरी जिलों के वीरा नाट्यम और गरगालु, देवदासी जैसी अन्य लोक कलाओं को भी पुनर्जीवित किया।

🇮🇳 नटराज रामकृष्ण ने #डोमारस, #गुरवाययालु, #उरुमुलु और #वेदी_भगवतुलु जैसे नृत्य कलाकारों की भी मदद की और उन्हें प्रोत्साहित किया।

🇮🇳 उन्होंने भगवान वेंकटेश्वर के जीवन की रचना "नृत्य नाटक" (#बैले) के रूप में की थी।

🇮🇳 भारत सरकार द्वारा प्रायोजित एक शोध छात्र के रूप में नटराज रामकृष्ण ने तत्कालीन यूएसएसआर (अब रूस) और फ्रांस में भारतीय नृत्य कला का प्रचार करने के लिए काम किया, जिससे भारतीय और पश्चिमी शास्त्रीय और लोक नृत्यों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया।

🇮🇳 उन्हें 21 जनवरी 2011 को संगीत नाटक अकादमी फैलोशिप से सम्मानित किया गया था।

साभार: bharatdiscovery.org

🇮🇳 संगीत नाटक अकादमी फैलोशिप से सम्मानित; भारत के सुप्रसिद्ध #नृत्यगुरु #पद्मश्री #नटराज_रामकृष्ण जी को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

#danceguru  #padmashree  #Natraj_Ramakrishna 

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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Ustad Bismillah Khan | उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ | Shehnai Player | शहनाई वादक

 



वर्ष 1947 में #आजादी की पूर्व संध्या पर जब लालकिले पर देश का झंडा फहरा रहा था, तब बिस्मिल्लाह ख़ाँ की शहनाई भी वहाँ आज़ादी का संदेश बाँट रही थी। तब से लगभग हर साल 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के भाषण के बाद बिस्मिल्लाह ख़ाँ का #शहनाई वादन एक प्रथा बन गयी। 🇮🇳

🇮🇳 हिन्दी फ़िल्म #स्वदेश के गीत #ये_जो_देश_है_तेरा में शहनाई की मधुर तान बिखेरी थी। 🇮🇳

🇮🇳 उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ (जन्म- 21 मार्च, 1916, बिहार; मृत्यु- 21 अगस्त, 2006) 'भारत रत्न' से सम्मानित प्रख्यात शहनाई वादक थे। सन 1969 में 'एशियाई संगीत सम्मेलन' के 'रोस्टम पुरस्कार' तथा अनेक अन्य पुरस्कारों से सम्मानित बिस्मिल्लाह खाँ ने शहनाई को भारत के बाहर एक विशिष्ट पहचान दिलवाने में मुख्य योगदान दिया। 

🇮🇳 बिस्मिल्लाह ख़ाँ का जन्म 21 मार्च, 1916 को #बिहार के #डुमरांव नामक स्थान पर हुआ था। उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ विश्व के सर्वश्रेष्ठ शहनाई वादक माने जाते थे। उनके परदादा शहनाई नवाज़ #उस्ताद_सालार_हुसैन_ख़ाँ से शुरू यह परिवार पिछली पाँच पीढ़ियों से शहनाई वादन का प्रतिपादक रहा है। बिस्मिल्लाह ख़ाँ को उनके चाचा #अली_बक्श_विलायतु ने संगीत की शिक्षा दी, जो #बनारस के पवित्र #विश्वनाथ_मन्दिर में अधिकृत शहनाई वादक थे।

🇮🇳 उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ के नाम के साथ एक दिलचस्प वाकया भी जुड़ा हुआ है। उनका जन्म होने पर उनके दादा #रसूल_बख्श_ख़ाँ ने उनकी तरफ़ देखते हुए 'बिस्मिल्ला' कहा। इसके बाद उनका नाम 'बिस्मिल्ला' ही रख दिया गया। उनका एक और नाम 'कमरूद्दीन' था। उनके पूर्वज बिहार के भोजपुर रजवाड़े में दरबारी संगीतकार थे। उनके पिता #पैंगबर_ख़ाँ इसी प्रथा से जुड़ते हुए डुमराव रियासत के #महाराजा_केशव_प्रसाद_सिंह के दरबार में शहनाई वादन का काम करने लगे। छह साल की उम्र में बिस्मिल्ला को बनारस ले जाया गया। यहाँ उनका संगीत प्रशिक्षण भी शुरू हुआ और #गंगा के साथ उनका जुड़ाव भी। ख़ाँ साहब 'काशी विश्वनाथ मंदिर' से जुड़े अपने चाचा अली बख्श ‘विलायतु’ से शहनाई वादन सीखने लगे।

🇮🇳 बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने जटिल संगीत की रचना, जिसे तब तक शहनाई के विस्तार से बाहर माना जाता था, में परिवर्द्धन करके अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया और शीघ्र ही उन्हें इस वाद्य से ऐसे जोड़ा जाने लगा, जैसा किसी अन्य वादक के साथ नहीं हुआ। उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने भारत के पहले गणतंत्र दिवस समारोह की पूर्व संध्या पर नई दिल्ली में लाल क़िले से अत्यधिक मर्मस्पर्शी शहनाई वादक प्रस्तुत किया।

🇮🇳 बिस्मिल्ला ख़ाँ ने 'बजरी', 'चैती' और 'झूला' जैसी लोकधुनों में बाजे को अपनी तपस्या और रियाज़ से ख़ूब सँवारा और क्लासिकल मौसिक़ी में शहनाई को सम्मानजनक स्थान दिलाया। इस बात का भी उल्लेख करना आवश्यक है कि जिस ज़माने में बालक बिस्मिल्लाह ने शहनाई की तालीम लेना शुरू की थी, तब गाने बजाने के काम को इ़ज़्जत की नज़रों से नहीं देखा जाता था। ख़ाँ साहब की माता जी शहनाई वादक के रूप में अपने बच्चे को कदापि नहीं देखना चाहती थीं। वे अपने पति से कहती थीं कि- "क्यों आप इस बच्चे को इस हल्के काम में झोक रहे हैं"।

🇮🇳 उल्लेखनीय है कि शहनाई वादकों को तब विवाह आदि में बुलवाया जाता था और बुलाने वाले घर के आँगन या ओटले के आगे इन कलाकारों को आने नहीं देते थे। लेकिन बिस्मिल्लाह ख़ाँ साहब के पिता और मामू अडिग थे कि इस बच्चे को तो शहनाई वादक बनाना ही है। उसके बाद की बातें अब इतिहास हैं।

अफ़ग़ानिस्तान, यूरोप, ईरान, इराक, कनाडा, पश्चिम अफ़्रीका, अमेरिका, भूतपूर्व सोवियत संघ, जापान, हांगकांग और विश्व भर की लगभग सभी राजधानियों में बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने शहनाई का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। मज़हबी शिया होने के बावज़ूद ख़ाँ साहब विद्या की हिन्दू #देवी_सरस्वती के परम उपासक थे। 'बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय' और 'शांतिनिकेतन' ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि प्रदान करके सम्मानित किया था। उनकी शहनाई की गूँज आज भी लोगों के कानों में गूँजती है।

🇮🇳 'भारतीय शास्त्रीय संगीत' और संस्कृति की फिजा में शहनाई के मधुर स्वर घोलने वाले प्रसिद्ध शहनाई वादक बिस्मिल्ला ख़ाँ शहनाई को अपनी बेगम कहते थे और संगीत उनके लिए उनका पूरा जीवन था। पत्नी के इंतकाल के बाद शहनाई ही उनकी बेगम और संगी-साथी दोनों थी, वहीं संगीत हमेशा ही उनका पूरा जीवन रहा। उनके ऊपर लिखी एक किताब ‘सुर की बारादरी’ में लेखक यतीन्द्र मिश्र ने लिखा है- "ख़ाँ साहब कहते थे कि संगीत वह चीज है, जिसमें जात-पात कुछ नहीं है। संगीत किसी मजहब का बुरा नहीं चाहता।" किताब में मिश्र ने बनारस से बिस्मिल्लाह ख़ाँ के जुड़ाव के बारे में भी लिखा है। उन्होंने लिखा है कि- "ख़ाँ साहब कहते थे कि उनकी शहनाई बनारस का हिस्सा है। वह ज़िंदगी भर #मंगलागौरी और पक्का महल में रियाज करते हुए जवान हुए हैं तो कहीं ना कहीं बनारस का रस उनकी शहनाई में टपकेगा ही।"

🇮🇳 बिस्मिल्ला ख़ाँ ने मंदिरों, राजे-जरवाड़ों के मुख्य द्वारों और शादी-ब्याह के अवसर पर बजने वाले लोकवाद्य शहनाई को अपने मामू #उस्ताद_मरहूम_अलीबख़्श के निर्देश पर 'शास्त्रीय संगीत' का वाद्य बनाने में जो अथक परिश्रम किया, उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती। #उस्ताद_विलायत_ख़ाँ के सितार और #पण्डित_वी_जी_जोग के वायलिन के साथ ख़ाँ साहब की शहनाई जुगलबंदी के एल. पी. रिकॉडर्स ने बिक्री के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले। इन्हीं एलबम्स के बाद जुगलबंदियों का दौर चला। संगीत-सुर और नमाज़ इन तीन बातों के अलावा बिस्मिल्लाह ख़ाँ के लिए सारे इनाम-इक़राम, सम्मान बेमानी थे। उन्होंने एकाधिक बार कहा कि- "सिर्फ़ संगीत ही है, जो इस देश की विरासत और तहज़ीब को एकाकार करने की ताक़त रखता है"। बरसों पहले कुछ कट्टरपंथियों ने बिस्मिल्ला ख़ाँ के शहनाई वादन पर आपत्ति की। उन्होंने आँखें बद कीं और उस पर "अल्लाह हू" बजाते रहे। थोड़ी देर बाद उन्होंने मौलवियों से पूछा- "मैं अल्लाह को पुकार रहा हूँ, मैं उसकी खोज कर रहा हूँ। क्या मेरी ये जिज्ञासा हराम है"। निश्चित ही सब बेज़ुबान हो गए। सादे पहनावे में रहने वाले बिस्मिल्ला ख़ाँ के बाजे में पहले वह आकर्षण और वजन नहीं आता था। उन्हें अपने उस्ताद से हिदायत मिली कि व्यायाम किए बिना साँस के इस बाजे से प्रभाव नहीं पैदा किया जा सकेगा। इस पर बिस्मिल्ला ख़ाँ उस्ताद की बात मानकर सुबह-सुबह गंगा के घाट पहुँच जाते और व्यायाम से अपने शरीर को गठीला बनाते। यही वजह है कि वे बरसों पूरे भारत में घूमते रहे और शहनाई का तिलिस्म फैलाते रहे।

🇮🇳 भारत की आजादी और ख़ाँ की शहनाई का भी ख़ास रिश्ता रहा है। 1947 में आजादी की पूर्व संध्या पर जब लालकिले पर देश का झंडा फहरा रहा था तब उनकी शहनाई भी वहाँ आजादी का संदेश बाँट रही थी। तब से लगभग हर साल 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के भाषण के बाद बिस्मिल्लाह का शहनाई वादन एक प्रथा बन गयी। ख़ाँ ने देश और दुनिया के अलग अलग हिस्सों में अपनी शहनाई की गूँज से लोगों को मोहित किया। अपने जीवन काल में उन्होंने ईरान, इराक, अफ़ग़ानिस्तान, जापान, अमेरिका, कनाडा और रूस जैसे अलग-अलग मुल्कों में अपनी शहनाई की जादुई धुनें बिखेरीं।

बिस्मिल्ला ख़ाँ ने कई फ़िल्मों में भी संगीत दिया। उन्होंने कन्नड़ फ़िल्म ‘सन्नादी अपन्ना’, हिंदी फ़िल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ और सत्यजीत रे की फ़िल्म ‘जलसाघर’ के लिए शहनाई की धुनें छेड़ी। आखिरी बार उन्होंने आशुतोष गोवारिकर की हिन्दी फ़िल्म ‘स्वदेश’ के गीत ‘ये जो देश है तेरा' में शहनाई की मधुर तान बिखेरी थी।

🇮🇳 संगीतकारों का मानना है कि उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान साहब की बदौलत ही शहनाई को पहचान मिली है और आज उसके विदेशों तक में दीवाने हैं। वो ऐसे इंसान और संगीतकार थे कि उनकी प्रशंसा में संगीतकारों के पास भी शब्दों की कमी नज़र आई। पंडित जसराज हों या हरिप्रसाद चौरसिया सभी का मानना है कि वो एक संत संगीतकार थे।

🇮🇳 #पंडित_जसराज का मानना है- उनके जैसा महान् संगीतकार न पैदा हुआ है और न कभी होगा। मैं सन् 1946 से उनसे मिलता रहा हूँ। पहली बार उनका संगीत सुनकर मैं पागल सा हो गया था। मुझे पता नहीं था कि संगीत इतना अच्छा भी हो सकता है। उनके संगीत में मदमस्त करने की कला थी, वह मिठास थी जो बहुत ही कम लोगों के संगीत में सुनने को मिलती है। मैं उनके बारे में जितना भी कहूँगा बहुत कम होगा क्योंकि वो एक ऐसे इंसान थे जिन्होंने कभी दिखावे में यकीन नहीं किया। वो हमेशा सबको अच्छी राह दिखाते थे और बताते थे। वो ऑल इंडिया रेडियो को बहुत मानते थे और हमेशा कहा करते कि मुझे ऑल इंडिया रेडियो ने ही बनाया है। वो एक ऐसे फरिश्ते थे जो धरती पर बार-बार जन्म नहीं लेते हैं और जब जन्म लेते हैं तो अपनी अमिट छाप छोड़ जाते है।

🇮🇳 बाँसुरी वादक #हरिप्रसाद_चौरसिया का कहना है- बिस्मिल्ला ख़ाँ साहब भारत की एक महान् विभूति थे, अगर हम किसी संत संगीतकार को जानते है तो वो हैं बिस्मिल्ला खा़न साहब। बचपन से ही उनको सुनता और देखता आ रहा हूं और उनका आशीर्वाद सदा हमारे साथ रहा। वो हमें दिशा दिखाकर चले गए, लेकिन वो कभी हमसे अलग नहीं हो सकते हैं। उनका संगीत हमेशा हमारे साथ रहेगा। उनके मार्गदर्शन पर अनेक कलाकार चल रहे हैं। शहनाई को उन्होंने एक नई पहचान दी। शास्त्रीय संगीत में उन्होंने शहनाई को जगह दिलाई इससे बड़ी बात क्या हो सकती है। यह उनकी मेहनत और शहनाई के प्रति समर्पण ही था कि आज शहनाई को भारत ही नहीं बल्कि पूरे संसार में सुना और सराहा जा रहा है। उनकी कमी तो हमेशा ही रहेगी। मेरा मानना है कि उनका निधन नहीं हो सकता क्योंकि वो हमारी आत्मा में इस कदर रचे बसे हुए हैं कि उनको अलग करना नामुमकिन है।

🇮🇳 सन 1956 में बिस्मिल्लाह ख़ाँ को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

🇮🇳 सन 1961 में उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया गया।

🇮🇳 सन 1968 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।

🇮🇳 सन 1980 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।

🇮🇳 2001 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

🇮🇳 मध्य प्रदेश में उन्हें सरकार द्वारा तानसेन पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।

🇮🇳 बिस्मिल्ला ख़ान ने एक संगीतज्ञ के रूप में जो कुछ कमाया था वो या तो लोगों की मदद में ख़र्च हो गया या अपने बड़े परिवार के भरण-पोषण में। एक समय ऐसा आया जब वो आर्थिक रूप से मुश्किल में आ गए थे, तब सरकार को उनकी मदद के लिए आगे आना पड़ा था। उन्होंने अपने अंतिम दिनों में दिल्ली के इंडिया गेट पर शहनाई बजाने की इच्छा व्यक्त की थी लेकिन उस्ताद की यह इच्छा पूरी नहीं हो पाई और 21 अगस्त, 2006 को 90 वर्ष की आयु में इनका देहावसान हो गया।

साभार: bharatdiscovery.org

🇮🇳 #भारतरत्न, 'रोस्टम पुरस्कार', #पद्मश्री, #पद्मभूषण, #पद्मविभूषण और 'तानसेन पुरस्कार' से सम्मानित; विश्वविख्यात सर्वश्रेष्ठ #शहनाई_वादक #उस्ताद_बिस्मिल्लाह_ख़ाँ जी को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

#शहनाई_वादक #उस्ताद_बिस्मिल्लाह_ख़ाँ 

#Shehnai_Player #Ustad_Bismillah_Khan

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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Makar Sankranti मकर संक्रांति

  #मकर_संक्रांति, #Makar_Sankranti, #Importance_of_Makar_Sankranti मकर संक्रांति' का त्यौहार जनवरी यानि पौष के महीने में मनाया जाता है। ...