21 मार्च 2024

Shaheed Raghunath Mahato | शहीद रघुनाथ महतो

 



अमर शहीद रघुनाथ महतो (जन्म: 21 मार्च 1738 - बलिदान: 5 अप्रैल 1778) का इतिहास बयां करते हैं गड़े पत्थर 🇮🇳

🇮🇳 वे चुहाड़ विद्रोह के महानायक थे। क्रांति वीर रघुनाथ महतो व उनके कुछ सहयोगियों की वीरगाथा को कीता-लोटा में गड़े पत्थर याद कराते हैं।

🇮🇳 झारखंड की धरती ने अनेक महान देशभक्तों को जन्म दिया जिन्होंने अंग्रेजों की गुलामी से देश को आजाद कराने के लिए हँसते-हँसते अपने प्राणों की आहूति दे दी। झारखंड के ऐसे शहीदों में एक नाम है अमर शहीद रघुनाथ महतो का। वे चुहाड़ विद्रोह के महानायक थे। क्रांति वीर रघुनाथ महतो व उनके कुछ सहयोगियों की वीरगाथा को कीता-लोटा में गड़े पत्थर याद कराते हैं।

🇮🇳 1857 के सिपाही विद्रोह से काफी पहले पहले 1769 में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ चुहाड़ विद्रोह हुआ था। इसका उल्लेख इतिहासकार शमिक सेन, डॉ. वीरभारत तलवार व भारत का मुक्ति संग्राम के लेखक अयोध्या सिंह आदि ने किया है। संभवत: यह अंग्रेजों के खिलाफ प्रथम संगठित विद्रोह था। उस जमाने में ब्रिटिश राज के विरुद्व जो लोग विद्रोह करते थे उन्हें बदमाश, चुहाड़ आदि कहा जाता था। इसीलिए इस विद्रोह का नाम ''चुहाड़ विद्रोह'' पड़ा। उस जमाने में क्रांतिकारियों के बारे में चर्चा करना अपराध था।

🇮🇳 बगैर कुछ लिखे इन पत्थरों को गाड़ कर रखा गया था, ताकि इतिहास कभी न कभी सामने आए। भारत का मुक्ति संग्राम किताब के अनुसार महान क्रांतिकारी रघुनाथ महतो की सांगठनिक क्षमता व युद्धकला से अंग्रेज डरते थे। रघुनाथ महतो के साथ हथियारों से लैस डेढ़-दो सौ लोगों का लड़ाकु दस्ता हमेशा रहता था। इस कारण अंग्रेजों की सेना भी उन्हें पकड़ने की हिम्मत नहीं करती थी। 1769 से 1778 के बीच रघुनाथ महतो के नेतृत्व में चुहाड़ विद्रोहियों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के दर्जनों अफसरों व सैकड़ों फिरंगी सैनिकों को मार दिया था। इसी के बाद अंग्रेज सेनापति विलकिंग्सन ने उनके खिलाफ ठोस रणनीति बनानी शुरू कर दी। उस जमाने में विद्रोहियों की रात में सभा होती थी।

🇮🇳 रघुनाथ महतो को पकड़ना उतना आसान नहीं था। फरवरी 1778 में विद्रोहियों ने दामोदर नदी पार कर झरिया के राजा के क्षेत्र मे चढ़ाई कर दी। रात को राजा के बैरक में शस्त्र लूटने के उद्देश्य से हमला किया गया। दामोदर नदी किनारे एक सभा की गई। अगली रणनीति के लिए विद्रोहियों को तैयार रहने को कहा गया। रघुनाथ महतो की सेना में करीब पाँच हजार विद्रोही थे और वे तीर-धनुष, टागी, फरसा, तलवार, भाला आदि पारंपरिक हथियारो से लैस रहा करते थे। इन लोगों ने प्रस्ताव पारित किया कि जब तक अंग्रेज हमारी जमीन जमींदारों के हाथों सौंपते रहेंगे तथा राजस्व में वृद्वि करते रहेंगे तब तक हम किसी भी हालत में आंदोलन बंद नहीं करेंगे और हमारी जंग जारी रहेगी। गॉंव-गॉंव से काफी संख्या में अंग्रेजों के विरुद्व संघर्ष करने हेतु रघुनाथ महतो के समर्थन में कृषक कूद पड़े।

🇮🇳 पाँच अप्रैल 1778 को रघुनाथ महतो विद्रोहियों के साथ राँची जिला अ‌र्न्तगत सिल्ली प्रखंड के किता-लोटा जंगल के पास बैठक कर रामगढ़ पुलिस छावनी में हमला करने हेतु रणनीति बना रहे थे। उस समय चारों तरफ से अंग्रेजों की सेना ने उन्हें घेरकर गोलियों की बौछार कर दी। रघुनाथ महतो समेत दर्जनों विद्रोही अंग्रेजों से लड़ते हुए शहीद हो गए। कीता गाव के चापाडीह़ निवासी कालीचरण महतो (65) ने जिस स्थान पर रघुनाथ महतो व उनके सहयोगी बुली महतो शहीद हुए, उसी स्थान पर एक बड़ा पत्थर रघुनाथ व साथ में एक छोटा पत्थर बुली महतो की स्मृति में गाड़े गये थे। आस-पास और छह क्रांतिकारी शहीद हुए, उन स्थानों पर छह पत्थर गाड़े गए। नदी पार लोटा गाँव में चार क्रांतिकारी शहीद हुए, वहाँ चार पत्थर गाड़े गए। ये पत्थर आज भी उन वीरों की शहादत की याद दिलाते हैं।

साभार: jagran.com

🇮🇳 1769 से 1778 के दौरान झारखंड़ में ब्रिटिश शासन के विरूद्ध #चुहाड़_विद्रोह (चुहाड़ क्रांति) के महानायक क्रांतिवीर #रघुनाथ_महतो  #Raghunath_Mahto जी को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. 

Freedom fighter Manvendra Nath Rai | स्वतंत्रतासेनानी मानवेन्द्र नाथ रॉय

 



क्रांतिकारी मानवेन्द्र नाथ रॉय (21 मार्च 1887- 25 जनवरी 1954) 🇮🇳

🇮🇳 एमएन रॉय बीसवीं सदी के भारतीय दार्शनिक थे। उन्होंने अपना करियर एक उग्रवादी राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में शुरू किया और भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह आयोजित करने के लिए हथियारों की तलाश में 1915 में भारत छोड़ दिया। हालाँकि, हथियार सुरक्षित करने के रॉय के प्रयास विफल रहे और अंततः जून 1916 में, वह सैन फ्रांसिस्को, कैलिफ़ोर्निया पहुँचे। यहीं पर रॉय, जो उस समय #नरेंद्र_नाथ_भट्टाचार्य के नाम से जाने जाते थे, ने अपना नाम बदलकर मनबेंद्र नाथ रॉय रख लिया। रॉय ने कई अमेरिकी कट्टरपंथियों के साथ मित्रता विकसित की और न्यूयॉर्क पब्लिक लाइब्रेरी में अक्सर जाते रहे। उन्होंने समाजवाद का एक व्यवस्थित अध्ययन शुरू किया, मूल रूप से इसका मुकाबला करने के इरादे से, लेकिन जल्द ही उन्हें पता चला कि वे स्वयं समाजवादी बन गए थे! रॉय 1920 में मॉस्को में लेनिन से मिले और एक अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग वाले कम्युनिस्ट नेता बन गए। फिर भी, सितंबर 1929 में उन्हें विभिन्न कारणों से कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से निष्कासित कर दिया गया। दिसंबर 1930 में वह भारत लौट आए और उन्हें कानपुर कम्युनिस्ट षडयंत्र मामले में उनकी भूमिका के लिए छह साल की कैद की सजा सुनाई गई।

🇮🇳 रॉय की वास्तविक दार्शनिक खोज उनके जेल के वर्षों के दौरान शुरू हुई, जिसका उपयोग उन्होंने 'आधुनिक विज्ञान के दार्शनिक परिणामों' का एक व्यवस्थित अध्ययन लिखने के लिए करने का निर्णय लिया, जो कि मार्क्सवाद की पुन: परीक्षा और पुन: सूत्रीकरण होगा, जिसकी उन्होंने 1919 से सदस्यता ली थी। रिफ्लेक्शन्स, जिसे रॉय ने पांच साल की अवधि में जेल में लिखा, नौ कठोर खंडों में विकसित हुआ। 'जेल पांडुलिपियाँ' अभी तक अपनी समग्रता में प्रकाशित नहीं हुई हैं, और वर्तमान में नई दिल्ली में नेहरू मेमोरियल संग्रहालय और पुस्तकालय अभिलेखागार में संरक्षित हैं। हालाँकि, पांडुलिपि के चयनित अंश 1930 और 1940 के दशक में अलग-अलग पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किए गए थे।

🇮🇳 अपने दार्शनिक कार्यों में रॉय ने दर्शन और धर्म के बीच स्पष्ट अंतर किया है। रॉय के अनुसार, कोई भी दार्शनिक उन्नति तब तक संभव नहीं है जब तक हम रूढ़िवादी धार्मिक विचारों और धार्मिक हठधर्मिता से छुटकारा नहीं पा लेते। दूसरी ओर, रॉय ने दर्शन और विज्ञान के बीच बहुत घनिष्ठ संबंध की परिकल्पना की है। इसके अलावा, रॉय ने अपने दर्शन में बौद्धिक और दार्शनिक क्रांति को केंद्रीय स्थान दिया है। रॉय का कहना था कि सामाजिक क्रांति से पहले एक दार्शनिक क्रांति अवश्य होनी चाहिए। इसके अलावा, रॉय ने अठारहवीं सदी के फ्रांसीसी भौतिकवादी होलबैक की परंपरा में, बीसवीं सदी के वैज्ञानिक विकास के आलोक में भौतिकवाद को संशोधित और पुनर्स्थापित किया है। भारतीय दर्शन के संदर्भ में, रॉय को प्राचीन भारतीय भौतिकवाद - लोकायत और चार्वाक दोनों की परंपरा में रखा जा सकता है।

🇮🇳 एमएन रॉय का मूल नाम नरेंद्र नाथ भट्टाचार्य था। उनका जन्म 21 मार्च 1887 को #बंगाल के 24 परगना जिले के एक गाँव #अर्बलिया में हुआ था। उनके पिता, #दीनबंधु_भट्टाचार्य, एक स्थानीय स्कूल के प्रधान पंडित थे। उनकी माता का नाम #बसंता_कुमारी था।

🇮🇳 25 जनवरी 1954 को आधी रात से दस मिनट पहले एमएन रॉय की दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई। उस समय उनकी उम्र लगभग 67 वर्ष थी।

साभार: iep.utm.edu

🇮🇳 वर्तमान शताब्दी के भारतीय दार्शनिकों में क्रान्तिकारी विचारक तथा मानवतावाद के प्रबल समर्थक क्रांतिकारी #स्वतंत्रतासेनानी #मानवेन्द्र_नाथ_रॉय जी को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

#FreedomFighter #Manvendra_Nath_Roy

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. 



Kushal Konwar | कुशल कोंवर | Revolutionary | क्रांतिकारी

 



फाँसी से पहले जेल में बचे उनके शेष समय के दौरान उन्होंने अपना समय गीता पढ़ कर बिताया। कुशल ने लगभग 112 दिन जेल में बिताए। 🇮🇳

🇮🇳 कुशल कोंवर जो ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ भारत छोड़ो आन्दोलन का हिस्सा रहे। उसी दौरान आन्दोलन ने कुछ क्षेत्रों में हिंसक रूप ले लिया। कुशल कोंवर को एक ऐसे गुनाह के लिए गिरफ्तार किया जो उन्होंने किया भी नहीं था। इस गुनाह के लिए उन्हें फाँसी की सजी दी गई। बिना किसी गलती और गुनाह के बाद भी उन्होंने फाँसी की इस सजा को स्वीकार किया। 

🇮🇳 कुशल कोंवर का जन्म 21 मार्च 1905 में हुआ था। कुशल का जन्म #असम के #गोलाघाट जिले में हुआ था। वह एक शाही परिवार से थे। #अहोम_साम्राज्य के शाही परिवार से होने पर उन्होंने कोंवर सरनेम का प्रयोग किया था। जिसे बाद में उन्होंने छोड़ भी दिया था। कुशल एक ऐसे व्यक्ति थे, जो शांत थे और सच्चाई से प्यार करने वाले थे। ये गुण उन्हें उनके माता-पिता #कनकेश्वरी_कोंवर और #सोनाराम_कोंवर से मिले थे।

🇮🇳 कुशल ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा #बेजबरुआ स्कूल से हासिल की। अपनी प्रारंभिक शिक्षा के बाद कुशल ने 1918 में गोलाघाट के गवर्नमेंट हाई स्कूल में आगे की शिक्षा प्राप्त की। 1921 के समय की बात है उस दौरान वह स्कूल में थे। गॉंधी जी का #असहयोग_आन्दोलन चल रहा था और उनके इस आन्दोलन से कुशल बहुत प्रभावित हुए जिसके बाद से उन्होंने इस आन्दोलन में सक्रिय रूप से भूमिका निभाई।

🇮🇳 1919 में जब ब्रिटिश सरकार ने #जलियांवाला_बाग हत्याकांड और रॉलेट एक्ट जारी किया उस दौरान कुशल केवल 17 वर्ष के थे। इस एक्ट का असल जलियांवाला बाग तक ही सीमित नहीं था। इसका असर पूरे भारत में देखने को मिला था। इस हत्याकांड के विरोध में असहयोग आन्दोलन की शुरूआत हुई और इस आन्दोलन का प्रभाव असम तक पहुँचा और कुशल और अन्य युवा सेनानी इस आन्दोलन में सक्रिय रूप से उतरे।

🇮🇳 कुशल का जीवन गाँधी जी के विचारों से अधिक प्रभावित था। गॉंधी जी के स्वराज, सत्य और अहिंसा से वाले आदर्शों से वह इस कदर प्रभावित हुए की उन्होंने #बेंगमई में एक प्राथमिक विद्यालय की स्थापना की और वहाँ एक शिक्षक के रूप में कार्य किया। इसके बाद वह एक क्लर्क के रूप में बालीजन टी एस्टेट में शामिल हुए, जहाँ उन्होंने कुछ समय के लिए काम किया। इस प्रकार गॉंधी जी के स्वतंत्रता के आह्वान और दिल में स्वतंत्र भारत को देखने की उनकी इच्छा में उन्होंने अपना जीवन देश के नाम समर्पित कर दिया। उन्होंने सत्याग्रह और अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग आंदोलन में #सरूपथर क्षेत्र के लोगों का नेतृत्व किया और कांग्रेस पार्टी को संगठित किया। इसके बाद वे सरुपथर कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष चुने गए।

🇮🇳 10 अक्टूबर 1942 में स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले कार्यकर्ताओं ने सरूपथर की रेलवे की पटरी से स्लीपरों हटा दिए थे जिसकी वजह से वहाँ से गुजरने वाली सैन्य रेल गाड़ी पटरी से उतर गई। जिसमें हजारों की तादाद में अंग्रेजी सैनिक मारे गए। पुलिस ने इलाके को तुरंत घेर लिया और इस घटना को अंजाम देने वालों को ढूँढना शुरू किया।

🇮🇳 इस घटना के लिए कुशल को आरोपी माना गया था। जबकि इस घटना में उनका कोई हाथ नहीं था। पुलिस कर्मियों के पास उनके गुनहगार होने का कोई सबूत नहीं था लेकिन फिर भी कुशल को रेलवे की तोड़फोड़ का मुख्य आरोपी माना गया और उनको इसके लिए गिरफ्तार किया गया।

🇮🇳 5 नवंबर 1942 में उन्हें गोलाघाट लाया गया और वहाँ की #जोरहाट जेल में बंद कर दिया गया। सीएम हम्फ्री की अदालत में उन्हें दोषी करार किया गया और उन्हें फाँसी की सजा दी गई। जबकि उन्होंने ये गुनाह किया भी नहीं था। लेकिन फिर भी कुशल ने गरिमा के साथ इस फैसले को स्वीकार किया।

🇮🇳 जेल में जब उनकी पत्नी #प्रभावती उनसे मिलने गई तो उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि उन्हें गर्व है कि भगवान ने देश के लिए सर्वोच्च बलिदान के लिए हजारों लोगों में से उन्हें चुना।

🇮🇳 फाँसी से पहले जेल में बचे उनके शेष समय के दौरान उन्होंने अपना समय गीता पढ़ कर बिताया। कुशल ने लगभग 112 दिन जेल में बिताए। 6 जून 1943 में उन्हे फाँसी की सजा सुनाई गई। और फाँसी देने की तिथि 15 जून 1943 की थी। 15 जून 1943 को शाम 4:30 बजे कुशल कोंवर को फाँसी दी गई।

साभार: careerindia.com


🇮🇳 भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर सेनानी क्रांतिकारी #कुशल_कोंवर  #kushal_konwar जी को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

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वन्दे मातरम् 🇮🇳

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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World puppet day | विश्व कठपुतली दिवस

 



#विश्व_कठपुतली_दिवस

#world_puppet_day

भारत में पारंपरिक पुतली नाटकों की कथावस्तु में पौराणिक साहित्य, लोककथाएँ और किवदंतियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। पहले अमर सिंह राठौड़, पृथ्वीराज, हीर-रांझा, लैला-मजनूं और शीरीं-फ़रहाद की कथाएँ ही कठपुतली खेल में दिखाई जाती थीं।

🇮🇳 विश्व कठपुतली दिवस प्रत्येक वर्ष 21 मार्च को मनाया जाता है। 'कठपुतली' का खेल अत्यंत प्राचीन नाटकीय खेल है, जो समस्त सभ्य संसार में प्रशांत महासागर के पश्चिमी तट से पूर्वी तट तक-व्यापक रूप प्रचलित रहा है। यह खेल गुड़ियों अथवा पुतलियों (पुत्तलिकाओं) द्वारा खेला जाता है। गुड़ियों के नर मादा रूपों द्वारा जीवन के अनेक प्रसंगों की, विभिन्न विधियों से, इसमें अभिव्यक्ति की जाती है और जीवन को नाटकीय विधि से मंच पर प्रस्तुत किया जाता है। कठपुतलियाँ या तो लकड़ी की होती हैं या पेरिस-प्लास्टर की या काग़ज़ की लुग्दी की। उसके शरीर के भाग इस प्रकार जोड़े जाते हैं कि उनसे बँधी डोर खींचने पर वे अलग-अलग हिल सकें।

साभार: bharatdiscovery.org

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20 मार्च 2024

Rohit Mehta | रोहित मेहता

 



रोहित मेहता (जन्म- 3 अगस्त, 1908, सूरत; मृत्यु- 20 मार्च, 1995, वाराणसी) प्रसिद्ध साहित्यकार, विचारक, लेखक‍, दार्शनिक, भाष्यकार और स्वतंत्रता सेनानी थे। वे निरंतर प्रयत्नशील जीवन में आस्था रखने वाले इंसान थे। कई बार जेल भी गये। उन्होंने यूरोप, एशिया, अफ्रीका, अमेरिका आदि देशों का भ्रमण किया और दर्शन पर प्रभावशाली व्याख्यान दिए।

🇮🇳 प्रसिद्ध विचारक, लेखक और स्वतंत्रता सेनानी रोहित मेहता का जन्म 3 अगस्त, 1908 ईस्वी को #सूरत (#गुजरात) में हुआ था। सूरत, #अहमदाबाद और #मुंबई में उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी की। विद्यार्थी जीवन से ही वे सार्वजनिक कार्यों में भाग लेने लगे थे। 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने गुजरात कॉलेज, अहमदाबाद की 3 महीने तक चली हड़ताल का नेतृत्व किया था। स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण उन्होंने 5 बार जेल की सजा काटी। वे कांग्रेस में समाजवादी विचारों के समर्थक थे। 

🇮🇳 रोहित मेहता योग्य व्यक्ति थे। उनमें क्षमताएं थीं, वे विचारक थे, दार्शनिक थे, भाष्यकार थे, लेखक थे और विख्यात वक्ता थे। उन्होंने यूरोप, एशिया, अफ्रीका, अमेरिका आदि देशों का भ्रमण किया और दर्शन पर प्रभावशाली व्याख्यान दिये। मेहता का मानना था कि वास्तविक रहस्य कभी न समाप्त होने वाली यात्रा में ही है। वे 1941 में #अडयार, #तमिलनाडु गए। मेहता ने 3 वर्षों तक #थियोसोफिकल_सोसाइटी में अंतर्राष्ट्रीय सेक्रेटरी का काम किया और 15 वर्षों तक इस संस्था की भारतीय शाखा के महामंत्री रहे।

🇮🇳 रोहित मेहता बहुत ही प्रखर लेखक‍ थे। उन्होंने दर्शन पर 25 से अधिक पुस्तकें लिखीं।

🇮🇳 प्रसिद्ध विचारक लेखक और स्वतंत्रता सेनानी रोहित मेहता का 20 मार्च, 1995 को #वाराणसी में निधन हो गया।

साभार: bharatdiscovery.org

🇮🇳 प्रसिद्ध साहित्यकार, विचारक, लेखक‍, दार्शनिक, भाष्यकार और स्वतंत्रता सेनानी #रोहित_मेहता  #Rohit_Mehta जी को उनकी पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि ! 

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S. Satyamurthy | एस. सत्यमूर्ति

 


एस. सत्यमूर्ति ( जन्म: 19 अगस्त, 1887, ज़िला तिरुचिराप्पल्ली, तमिलनाडु; मृत्यु: 20 मार्च, 1943) भारत के #क्रांतिकारी नेता थे, जिन्होंने सविनय अवज्ञा आन्दोलन और भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लिया तथा जेल की सजाएं भोगीं।

🇮🇳 एस. सत्यमूर्ति का जन्म #तमिलनाडु के #तिरुचिराप्पल्ली ज़िले में, 19 अगस्त, 1887 में हुआ था। ये एक मध्यवर्गीय ब्राह्मण परिवार से थे। इन्होंने गाँव में ही अपनी प्रारंभिक शिक्षा तथा मद्रास से उच्च शिक्षा प्राप्त की। इन्होंने विधि में अध्ययन किया तथा मद्रास से अपनी वकालत शुरू कर दी।

🇮🇳 एस. सत्यमूर्ति सन 1919 में कांग्रेस में सक्रिय रूप से शामिल हुए और सन 1923 में स्वराज पार्टी के उम्मीदवार के रूप में मद्रास विधानसभा में चुने गये। सत्यमूर्ति ने 1930 के सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भाग लिया, जिस कारण इन्हें सन 1931 और 1932 में जेल की सजा हुई। दिल्ली में इन्हें भारतीय विधान परिषद के लिए चुना गया तथा बाद में कांग्रेस पार्टी के उपनेता चुने गये। सन 1940 में इन्होंने व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लिया, जिसमें इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इन्होंने भारत छोड़ो आन्दोलन में भी हिस्सा लिया, जिसमें इन्हें जेल की सजा हुई।

🇮🇳 एस. सत्यमूर्ति का निधन 20 मार्च, 1943 में हो गया। यह एक महान वक्ता, शिक्षाविद और कला के पारखी थे, जो बाद में बहुत से राजनीतिज्ञों के पितामह भी रहे।

साभार: shiksha bharti network.com

🇮🇳 #भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के #क्रांतिकारी, महान वक्ता, शिक्षाविद और कला के पारखी #एस_सत्यमूर्ति जी को उनकी पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि !

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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Jaipal Singh Munda | जयपाल सिंह मुंडा

 



हर साल 20 मार्च को झारखंड के महान नेता, शिक्षाविद और हॉकी के अभूतपूर्व खिलाड़ी रहे 'मरांग गोमके' जयपाल सिंह मुंडा को उनकी परिनिर्वाण दिवस के मौके पर याद किया जाता है। मरांग गोमके एक उपाधि है, आदिवासी परंपरा में इसे सबसे बड़ा नेता कहा जाता है। यह उनकी प्रासंगिकता आज भी आदिवासी जीवन में जल, जंगल, जमीन के संघर्ष ‘आबुआ दिसुम आबुआ राज’ से जुड़ा है।

🇮🇳 जयपाल सिंह मुंडा का जन्म #झारखंड (सन् 2000 के पूर्व बिहार) की राजधानी #रांची से करीब 18 किलोमीटर दक्षिण, #खूंटी जिले के #टकरा_पाहनटोली में हुआ था। खूंटी से मात्र पाँच मील अर्थात आठ किलोमीटर दूरी पर अवस्थित टकरा पाहनटोली (सरना धर्म के पुजारियों का टोला) है, जो अब लगभग ईसाई गाँव में तब्दील हो गया है। यहाँ एक चर्च और प्राइमरी स्कूल है। जयपाल सिंह मुंडा का प्रारम्भिक नाम #प्रमोद_पाहन था। जयपाल सिंह ने अपनी जीवनी में लिखा है– “मेरा नाम किसने और कब बदला, मुझे नहीं मालूम। वह 1911 की 3 जनवरी थी, जिस दिन मेरा नाम बदल गया होगा। तब मैं 8-10 साल का रहा होउँगा। घर के लोग मुझे प्रमोद कहते थे और 3 जनवरी के पहले तक यही नाम था। लेकिन, 3 जनवरी, 1911 को जब मैं अपने बाबा (पिता) #अमरू_पाहन की उंगली थामे, सकुचाते हुए रांची के संत पॉल स्कूल पहुँचा तो न सिर्फ मेरी पैदाइश की तारीख बदल गयी, बल्कि मेरा नाम ही बदल गया।”

🇮🇳 संत पॉल स्कूल नाम लिखाने से पहले ही टकरा के प्राइमरी स्कूल के शिक्षक लूकस सर से हिंदी और गणित की शिक्षा प्राप्त कर चुके थे। संत पॉल स्कूल के तत्कालीन प्रधानाध्यपक कैनन कॉसग्रोव थे। उन्होंने अपनी पारखी नजरों से जयपाल सिंह की प्रतिभा को परख लिया था। छात्र जयपाल पढ़ाई में जितने तेज थे, उतने ही खेलकूद और अन्य गतिविधियों में अग्रणी थे। कॉसग्रोव उनकी इस बहुमुखी प्रतिभा से प्रभावित थे, बल्कि उन्हें अपना सर्वप्रिय छात्र बना लिया था। जयपाल सिंह को संत पॉल में पढ़ते हुए छह साल हो गए थे कि 1918 में कॉसग्रोव सेवानिवृत होकर इंग्लैंड चले गए।

🇮🇳 कॉसग्रोव लौटते वक्त अपने साथ छात्र जयपाल सिंह को भी इंग्लैंड ले जा रहे थे। “जब चारों ओर खबर फैल गई कि कॉसग्रोव भारत छोड़कर इंग्लैंड अपने देश वापस जा रहे हैं… लेकिन, जिस बात की चर्चा ज्यादा थी और जिस बात से लोग हैरत में थे, वह यह थी कि कॉसग्रोव अपने संग मुझे ले जा रहे थे।”

🇮🇳 रांची में रहते हुए जयपाल सिंह को सबसे ज्यादा अपनी माँ की याद आती थी। वह अक्सर अपनी माँ को यादकर भावुक हो जाते थे। माँ को याद करते हुए वे लिखते हैं– “मैं माँ का बहुत प्यारा था।… माँ एक साधारण आदिवासी औरत थी। ममत्व और दयालुता से भरी-पूरी बहुत ही सुंदर, पर एक रूढ़िवादी स्त्री थी। दस-पन्द्रह दिनों के भीतर वह एक बार जरूर रांची आती थी, मुझसे मिलने। आने पर मुर्गा बनाती। वह कॉसग्रोव को बहुत पसंद नहीं करती थी। इस बात से हमेशा सशंकित रहती थी कि कॉसग्रोव मुझे ईसाई बना देगा। शायद इसलिए कॉसग्रोव भी दूरी बरतते थे। लेकिन, मैं माँ की इच्छा का सम्मान नहीं रख सका। मेरी नजदीकियां कॉसग्रोव के साथ लगातार बढ़ती गईं और उसने मुझे ईसाई बना ही दिया।”

🇮🇳 #तारा_बनर्जी राजनीतिक रूप से अत्यंत प्रतिष्ठित बंगाली परिवार की बेटी थीं। तारा के नाना #ओमेश_चंद्र_बनर्जी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सह-संस्थापक और पहले अध्यक्ष थे। माँ #एग्नेस_मजूमदार और पिता #जी_के_मजूमदार की बंगाली समाज में काफी प्रतिष्ठा थी। जयपाल सिंह ने तारा को शादी के लिए प्रस्ताव दिया और तारा तथा उसके परिवार से सहमति मिलते ही #दार्जिलिंग में दोनों का विवाह 1932 में ईसाई रीति से हो गया।

🇮🇳 जयपाल सिंह कुछ दिनों तक पारिवारिक जीवन का आनंद ले ही रहे थे कि ऑयल कंपनी ने उनकी नौकरी के कॉन्ट्रैक्ट का नवीनीकरण करने से मना कर दिया। आजीविका की तलाश में उन्हें अफ्रीका जाकर एक कॉलेज में शिक्षक की नौकरी करनी पड़ी। तारा कुछ दिन साथ रहकर दार्जिलिंग वापस लौट आईं। इसी बीच जयपाल सिंह एक अफ्रीकी महिला ग्रेस के मोहपाश में पड़ गए। यह बात 1934-36 की है।

सन् 1937 में वे रायपुर के राजकुमार कॉलेज में रहे। लेकिन, कॉलेज के प्रिंसिपल स्मिथ पीयर्स से ठन जाने के कारण जयपाल सिंह को कॉलेज की नौकरी त्यागनी पड़ी। जल्द ही उन्हें बीकानेर राज्य में नौकरी मिल गई। लेकिन, ईमानदारी के कारण वहाँ भी नौकरी छोड़नी पड़ी और फिर वे #कश्मीर #राजा_हरि_सिंह के बेटे #कर्ण_सिंह को पढ़ाने के लिए चले गए। कश्मीर की आबोहवा तारा को रास नहीं आई और वह बीमार हो गईं। अतः जयपाल सिंह को कश्मीर छोड़ना पड़ा।

🇮🇳 अफसोस है कि जयपाल सिंह मुंडा का मूल्यांकन निर्मम रूप से एकपक्षीय है। उनका सही मूल्यांकन समग्रता में होना चाहिए। एक महान आदिवासी नेता, झारखंड आंदोलन को बेहतर नेतृत्व देने वाला नेता और एक महान खिलाड़ी जिसके नेतृत्व में गुलाम भारत ने पहली दफा गोल्ड मेडल जीता। आईसीएस जैसी नौकरी को त्यागकर आंदोलन के लिए सब कुछ न्यौछावर कर देने वाला व्यक्ति और एक सरल, सहज आदिवासी, जो कांग्रेसियों के छल-कपट को समझ नहीं पाया। जैसे कि छल से एकलव्य से अँगूठा माँग लिया गया था।

🇮🇳 बहरहाल, आदिवासियों के लिए उनका संघर्ष संविधान सभा में उनके भाषण में साफ झलकता है। यही उन्हें मारंग गोमके यानी सबसे बड़े नेता के रूप में स्थापित करता है। इसके बावजूद वर्ष 2000 में झारखंड के अलग बनने के बाद उन्हें जो सम्मान मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया है।

प्रस्तुति: देवेंद्र शरण

(संपादन : समीक्षा सहनी/नवल/अनिल)

संदर्भ : मरङ गोमके जयपाल सिंह मुंडा, अश्विनी कुमार पंकज, प्रभात प्रकाशन, 2020 

साभार: forwardpress.in

#Dr_Jaipal_Singh_Munda

#death anniversary

🇮🇳 1928 में एम्सटर्डम (नेदरलैंड्स) में हुए #ओलिंपिक खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय #हॉकी टीम के कप्तान, संविधान बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले महान आदिवासी नेता, शिक्षाविद 'मरांग गोमके' #डॉ_जयपाल_सिंह_मुंडा जी को उनकी पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि !

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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