10 मार्च 2024

Savitribai Phule | सावित्रीबाई फुले | Marathi poetess | मराठी कवयित्री | January 3, 1831 - March 10, 1897

 



 ज्ञान के बिना सब खो जाता है, #ज्ञान के बिना हम जानवर बन जाते हैं इसलिए, खाली ना बैठो, जाओ, जाकर शिक्षा लो। 🇮🇳

🇮🇳 उन्नीसवीं सदी के दौर में भारतीय महिलाओं की स्थिति बड़ी ही दयनीय थीं। जहाँ एक ओर महिलाएं पुरुषवादी वर्चस्व की मार झेल रही थीं, तो दूसरी ओर समाज की रूढ़िवादी सोच के कारण तरह-तरह की यातनाएं व अत्याचार सहने को विवश थीं। हालात इतने बदतर थे कि घर की देहरी लाँघकर महिलाओं के लिए सिर से घूँघट उठाकर बात करना भी आसान नहीं था। लंबे समय तक दोहरी मार से घायल हो चुकी महिलाओं का आत्मगौरव और स्वाभिमान पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका था। समाज के द्वारा उनके साथ किये जा रहे गलत बर्ताव को वे अपनी किस्मत मान चुकी थीं। इन विषम हालातों में दलित महिलाएं तो अस्पृश्यता के कारण नरक का जीवन भुगत रही थीं। ऐसे विकट समय में सावित्रीबाई फुले ने समाज सुधारक बनकर महिलाओं को सामाजिक शोषण से मुक्त करने व उनके समान शिक्षा व अवसरों के लिए पुरजोर प्रयास किया। 

🇮🇳 गौरतलब है कि देश की पहली महिला शिक्षक, समाज सेविका, मराठी की पहली कवयित्री और वंचितों की आवाज बुलंद करने वाली क्रांतिज्योति सावित्रीबाई का जन्म 3 जनवरी, 1831 को महाराष्ट्र के पुणे-सतारा मार्ग पर स्थित #नैगाँव में एक दलित कृषक परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम #खण्डोजी_नेवसे और माता का नाम #लक्ष्मीबाई था। 1840 में मात्र 9 साल की उम्र में सावित्रीबाई का विवाह 13 साल के #ज्योतिराव_फुले के साथ हुआ। 

🇮🇳 विवाह के बाद अपने नसीब में संतान का सुख नहीं होते देख उन्होंने आत्महत्या करने जाती हुई एक विधवा ब्राह्मण महिला #काशीबाई की अपने घर में डिलीवरी करवा उसके बच्चे को दत्तक पुत्र के रूप में गोद ले लिया और उसका नाम #यशंवत_राव रख दिया। बाद में उन्होंने यशवंत राव को पाल-पोसकर व पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनाया। 

🇮🇳 सावित्रीबाई फुले और उनके पति ज्योतिराव फुले ने वर्ष 1848 में मात्र 9 विद्यार्थियों को लेकर एक स्कूल की शुरुआत की। ज्योतिराव ने अपनी पत्नी को घर पर ही पढ़ाया और एक शिक्षिका के तौर पर शिक्षित किया। बाद में उनके मित्र #सखाराम_यशवंत_परांजपे और #केशव_शिवराम_भावलकर ने उनकी शिक्षा की जिम्मेदारी संभाली। उन्होंने महिला शिक्षा और दलित उत्थान को लेकर अपने पति ज्योतिराव के साथ मिलकर छुआछूत, बाल विवाह, सती प्रथा को रोकने व विधवा पुनर्विवाह को प्रारंभ करने की दिशा में कई उल्लेखनीय कार्य किये। उन्होंने शूद्र, अति शूद्र एवं स्त्री शिक्षा का आरंभ करके नये युग की नींव रखने के साथ घर की देहरी लाँघकर बच्चों को पढ़ाने जाकर महिलाओं के लिए सार्वजनिक जीवन का उदय किया। 

🇮🇳 ज्योतिराव फुले ने 28 जनवरी, 1853 को गर्भवती बलात्कार पीड़ितों के लिए बाल हत्या प्रतिबंधक गृह और 24 सितंबर, 1873 को #सत्यशोधक_समाज की स्थापना की। इस सत्यशोधक समाज की सावित्रीबाई फुले एक अत्यंत समर्पित कार्यकर्ता थीं। यह संस्था कम से कम खर्च पर दहेज मुक्त व बिना पंडित-पुजारियों के विवाहों का आयोजन कराती थी। इस तरह का पहला विवाह सावित्रीबाई की मित्र #बाजूबाई की पुत्री राधा और सीताराम के बीच 25 दिसंबर, 1873 को संपन्न हुआ। इस ऐतिहासिक क्षण पर शादी का समस्त खर्च स्वयं सावित्रीबाई फुले ने उठाया। 4 फरवरी, 1879 को उन्होंने अपने दत्तक पुत्र का विवाह भी इसी पद्धति से किया, जो आधुनिक भारत का पहला अंतरजातीय विवाह था। दरअसल, इस प्रकार के विवाह की पद्धति पंजीकृत विवाहों से मिलती-जुलती होती थी। जो आज भी कई भागों में पाई जाती है। इस विवाह का पूरे देश के पुजारियों ने विरोध किया और कोर्ट गए। जिससे फुले दंपति को कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। लेकिन, वे इससे विचलित नहीं हुए। 

🇮🇳 इसके अलावा सावित्रीबाई फुले जब पढ़ाने के लिए अपने घर से निकलती थी, तब लोग उन पर कीचड़, कूड़ा और गोबर तक फेंकते थे। इसलिए वह एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थी और स्कूल पहुँचकर गंदी हुई साड़ी को बदल लेती थी। महात्मा ज्योतिराव फुले की मुत्यु 28 नवंबर, 1890 को हुई, तब सावित्रीबाई ने उनके अधूरे कार्यों को पूरा करने का संकल्प लिया। 

🇮🇳 लेकिन, 1897 में प्लेग की भयंकर महामारी फैल गई। पुणे के कई लोग रोज इस बीमारी से मरने लगे। तब सावित्रीबाई ने अपने पुत्र यशवंत को अवकाश लेकर आने को कहा और उन्होंने उसकी मदद से एक अस्पताल खुलवाया। इस नाजुक घड़ी में सावित्रीबाई स्वयं बीमारों के पास जाती और उन्हें इलाज के लिए अपने साथ अस्पताल लेकर आती। यह जानते हुए भी यह एक संक्रामक बीमारी है, फिर भी उन्होंने बीमारों की देखभाल करने में कोई कमी नहीं रखी। एक दिन जैसे ही उन्हें पता चला कि #मुंडवा गाँव में म्हारो की बस्ती में #पांडुरंग_बाबाजी_गायकवाड का पुत्र प्लेग से पीड़ित हुआ है तो वह वहाँ गई और बीमार बच्चे को पीठ पर लादकर अस्पताल लेकर आयी। इस प्रक्रिया में यह महामारी उनको भी लग गई और 10 मार्च, 1897 को रात को 9 बजे उनकी साँसें थम गईं। 

🇮🇳 निश्चित ही सावित्रीबाई फुले का योगदान 1857 की क्रांति की अमर नायिका झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई से कम नहीं आँका जा सकता, जिन्होंने अपनी पीठ पर बच्चे को लादकर उसे अस्पताल पहुँचाया। उनका पूरा जीवन गरीब, वंचित, दलित तबके व महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष करने में बीता। 

🇮🇳 समाज में नई जागृति लाने के लिए कवयित्री के रूप में सावित्रीबाई फुले ने 2 काव्य पुस्तकें 'काव्य फुले', 'बावनकशी सुबोधरत्नाकर' भी लिखीं। उनके योगदान को लेकर 1852 में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सम्मानित भी किया। साथ ही केंद्र और महाराष्ट्र सरकार ने सावित्रीबाई फुले की स्मृति में कई पुरस्कारों की स्थापना की और उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया। उनकी एक मराठी कविता की हिंदी में अनुवादित पंक्तियां हैं- 'ज्ञान के बिना सब खो जाता है, ज्ञान के बिना हम जानवर बन जाते हैं इसलिए, खाली ना बैठो, जाओ, जाकर शिक्षा लो।'

साभार: amarujala.com

स्त्री अधिकारों एवं शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने वाली भारत की प्रथम महिला #शिक्षिका, #समाज_सुधारिका एवं मराठी #कवयित्री क्रांतिज्योति #सावित्रीबाई_फुले जी #Teacher, #social_reformer and #Marathi poetess #Savitribai_Phuleको उनकी पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि !
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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 



सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. 

Mukund Ramrao Jayakar | मुकुन्द रामाराव जयकर | November 13, 1873 - March 10, 1959

 



मुकुंद रामराव जयकर का जन्म 13 नवंबर, 1873 को #नासिक में एक मराठी पाथरे प्रभु परिवार में हुआ था। उनकी शिक्षा बंबई के एलफिंस्टन हाई स्कूल में हुई। बाद में सरकारी लॉ स्कूल में आगे की पढ़ाई की। वर्ष 1902 में बॉम्बे से और वर्ष 1905 में लंदन से बैरिस्टर की पढ़ाई की। उन्होंने वर्ष 1905 में बॉम्बे हाईकोर्ट में वकालत शुरू की। वह जिन्ना के साथ बॉम्बे क्रॉनिकल के निदेशक भी रहे थे। वर्ष 1907 से 1912 तक उन्होंने लॉ स्कूल में कानून पढ़ाने लगे। जब स्कूल में उनसे भी कम अनुभवी यूरोपीय अध्यापक को उनसे उच्च पद पर नियुक्त कर दिया गया तो उन्होंने इसका विरोध करते हुए त्यागपत्र दे दिया।

🇮🇳 एम.आर. जयकर वर्ष 1919 में #जलियांवाला_बाग #Jallianwala_Bagh हत्याकांड पर बनी कांग्रेस की ओर से जाँच समिति के सदस्य थे। वे वर्ष 1923 से 1925 के मध्य बॉम्बे विधान परिषद के सदस्य थे और स्वराज पार्टी के प्रमुख नेताओं में थे। मुकुंद रामराव जयकर केंद्रीय विधान सभा के सदस्य भी बने। वर्ष 1937 में उन्हें दिल्ली में भारत के संघीय न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किए गए। उन्हें वर्ष 1927 में गठित भारतीय सड़क विकास समिति के अध्यक्ष बनाया गया था, जिन्होंने राजमार्ग विकास में कुछ सिफारिशों की रिपोर्ट भी प्रस्तुत की। वह #अखिल_भारतीय_हिंदू_महासभा के सदस्य थे।

🇮🇳 वर्ष 1930 में #नमक_सत्याग्रह #namak_Satyagrahaके दौरान मोतीलाल नेहरू और कांग्रेस के अन्य सदस्य गिरफ्तार कर लिए गए थे, तो #मुकुंद_रामराव_जयकर और #तेज_बहादुर_सप्रू ने कांग्रेस और सरकार के बीच बातचीत कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इनकी वजह से मार्च, 1931 में गांधी-इरविन के बीच समझौता हो पाया था, जिसके अंतर्गत ही कांग्रेस सदस्यों को सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान गिरफ्तार लोगों को रिहा किया गया और नमक कर हटा लिया गया। साथ ही कांग्रेस ने अगले गोलमेज सम्मेलन में अपने प्रतिनिधि के रूप में #गाँधीजी को भेजा। जयकर लंदन में न्यायिक प्रिवी काउंसिल के सदस्य थे और 1931 में लंदन गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया था।

🇮🇳 एम.आर. जयकर को उनके #शिक्षा और #परोपकारी कार्य के लिए भी जाना जाता था। उन्हें वर्ष 1938 में ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय ने मानद उपाधि डीसीएल से सम्मानित किया था। जयकर को बंबई से कांग्रेस के टिकट पर संविधान सभा के लिए चुना गया था। दिसंबर 1946 में वह भारतीय संविधान सभा में शामिल हुए थे, लेकिन वर्ष 1947 में उन्होंने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। प्रीवी काउन्सिल की ज्युडीशियल कमिटी के भी मुकुन्द रामाराव जयकर सदस्य थे, पर 1942 में उन्होंने इस पद से त्यागपत्र दे दिया। वह वर्ष 1948 से 1955 तक पूना विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर रहे थे।

🇮🇳 मुकुंद रामराव जयकर का 10 मार्च, 1959 को 86 वर्ष की उम्र में बॉम्बे में निधन हो गया था।

साभार: chaltapurza.com

🇮🇳 प्रसिद्ध #शिक्षाशास्त्री, #समाजसेवक, #न्यायाधीश, #विधि_विशारद तथा #संविधानशास्त्रज्ञ #मुकुन्द_रामाराव_जयकर जी #Educationist, #Social worker, #Judge, #Legal expert and #Constitutionalist #Mukund_Ramarao_Jaykar.को उनकी पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि !

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 



सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

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Gabar Singh Negi | गबर सिंह नेगी | Indian soldier | भारतीय सैनिक | 21 April, 1895 -10 March, 1915


 



गबर सिंह नेगी (जन्म- 21 अप्रॅल, 1895; मृत्यु- 10 मार्च, 1915) भारतीय #सैनिक थे। वह प्रथम विश्वयुद्ध में मरणोपरान्त 'विक्टोरिया क्रास' प्राप्त करने वाले #गढ़वाल, #उत्तराखण्ड के वीर सपूत थे। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान गबर सिंह नेगी 39वें गढ़वाल राइफल्स की दूसरी बटालियन में राइफलमैन (बंदूकधारी) थे। 10 मार्च, 1915 को फ्रांस में न्यूवे चैपल नामक स्थान पर जर्मन सेना के विरुद्ध लड़ते हुए युद्ध के मोर्चे पर असीम साहस, वीरता और कर्तव्यपरायणता के लिए गबर सिंह नेगी को ब्रिटिश सरकार ने सर्वोच्च सैन्य पदक 'विक्टोरिया क्रास' से मरणोपरान्त सम्मानित किया था। भारत सरकार के 20 अप्रॅल, 1915 के गजट में इसका उल्लेख है।

🇮🇳 गबर सिंह नेगी का जन्म 21 अप्रैल, 1895 को उत्तराखंड राज्य के #टिहरी जिले के #चंबा के पास #मज्यूड़ गाँव में एक गरीब परिवार में हुआ था। उन्हें बचपन से ही देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा था। इसी जज्बे से वह अक्टूबर 1913 में गढ़वाल रायफल में भर्ती हो गये।

🇮🇳 भर्ती होने के कुछ ही समय बाद गढ़वाल रायफल के सैनिकों को प्रथम विश्व युद्ध के लिए फ्रांस भेज दिया गया, जहाँ 1915 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान न्यू शैपल में लड़ते-लड़ते 20 साल की अल्पायु में ही गबर सिंह नेगी शहीद हो गए।

🇮🇳 मरणोपरांत गबर सिंह नेगी को ब्रिटिश सरकार के सबसे बड़े सम्मान "विक्टोरिया क्रॉस" से उन्हें सम्मानित किया। सबसे कम उम्र में विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित होने वाले पहले सैनिक शहीद गबर सिंह नेगी थे। उनके मरणोपरांत से 21 अप्रैल उनके जन्मदिवस के मौके पर हर साल चंबा में स्थित उनके स्मारक पर गढ़वाल राइफल द्वारा रेतलिंग परेड कर उन्हें सलामी दी जाती है। उनके गृह नगर चम्बा में उन्हें प्रतिवर्ष 20 अप्रैल या 21अप्रैल को आयोजित होने वाले गबर सिंह नेगी मेला के द्वारा याद किया जाता है।

साभार: bharatdiscovey.org

🇮🇳 युद्ध के मोर्चे पर असीम #साहस, #वीरता और #कर्तव्यपरायणता के लिए प्रथम विश्वयुद्ध में मरणोपरान्त #विक्टोरिया_क्रास  #Victoria_Cross प्राप्त करने वाले गढ़वाल, उत्तराखण्ड के वीर सपूत



भारतीय सैनिक #राइफलमैन_गबर_सिंह_नेगी #Rifleman_Gabar_Singh_Negiजी को उनके बलिदान दिवस पर विनम्र श्रद्धांजलि !

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 



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Graham Bell | ग्राहम बेल | 10 मार्च 1876 को दो व्यक्तियों के बीच पहली बार टेलीफोन , Telephone, दूरभाषी यंत्र पर बात हुई थी।

 



10 मार्च 1876 को दो व्यक्तियों के बीच पहली बार #टेलीफोन #telephone (#दूरभाषी_यंत्र) पर बात हुई थी। 

इस बातचीत में #ग्राहम_बेल अपने सहायक #टॉमस_वॉटसन को कहते हैं कि “Mr. Watson Come here … I Want To See You” यानी कि मिस्टर वॉटसन, यहाँ आओ मुझे तुम्हारी जरूरत है।

#हैलो, स्कॉटिश वैज्ञानिक अलेक्जेंडर ग्राहम बेल !

आपको हमारा धन्यवाद !

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#आजादी_का_अमृतकाल

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 



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Wajid khan | वाजिद ख़ान |आयरन नेल आर्टिस्ट | Iron Nail Artist | 10 मार्च, 1981, मंदसौर, मध्य प्रदेश




विलक्षण प्रतिभाशाली वाजिद ख़ान का नाम 

'गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स', 

'गोल्डन बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स', 

'लिम्का बुक ऑफ़ रिकार्ड्स', 

'इंडिया बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स', 

'एशिया बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स' में दर्ज हो चुका है। 🇮🇳

🇮🇳 वाजिद ख़ान (जन्म- 10 मार्च, 1981, मंदसौर, मध्य प्रदेश) भारत के प्रसिद्ध #चित्रकार और अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त #आयरन_नेल_आर्टिस्ट #iron_nail_artist, पेटेंट धारक तथा आविष्कारक हैं। नेल आर्ट को पूरी दुनिया में पहुँचाने वाले वाजिद ख़ान ने इस कला का इस्तेमाल करते हुए मशहूर हस्तियों, जैसे- फ़िल्म अभिनेता सलमान ख़ान, महात्मा गाँधी, पूर्व राष्ट्रपति ए. पी. जे. अब्दुल कलाम और धीरूभाई अंबानी जैसी बड़ी हस्तियों के पोर्ट्रेट बनाये हैं। इसके इलावा वह औद्योगिक कचरे और गोलियों से भी कला पीस बनाते हैं। उन्होंने अपनी इस कला को पेटेंट भी करवाया है, जिस कारण उनकी इस कला की उनकी इजाज़त के बिना कोई भी नकल नहीं कर सकता है।

🇮🇳 वाजिद ख़ान का जन्म 10 मार्च, 1981 को #मध्य_प्रदेश के ज़िले #मंदसौर के बेहद छोटे से गाँव #सोनगिरी में हुआ था। सुदूर अंचल में बसे इस गॉंव के लोग खेती और मजदूरी से अपना जीवन यापन करते हैं। कला के क्षेत्र में नाम कमाने से पहले वाजिद इसी गॉंव में रहा करते थे। पाँच भाईयों और दो बहनों के साथ शुरुआती जीवन आम बच्चों की तरह ही बीता। लेकिन मन चंचल और सोच कलात्मक थी। साधारण वस्तुओं से वे असाधारण प्रस्तुति देने की कोशिश करते थे। थोड़े और बड़े हुए तो कुछ अलग करने की चाह ने कला के क्षेत्र में कदम रखवाया।

🇮🇳 पढ़ाई के मामले में वाजिद ख़ान पाँचवीं फेल हैं, जिसके बाद उन्होंने कुछ घर के हालातों और पढ़ाई में ध्यान न होने की वजह से पढ़ाई से नाता तोड़ लिया। वाजिद ख़ान के अनुसार, पैसों की तंगी और पढ़ाई में ध्यान न होने की वजह से उन्होंने फेल होने के बाद पढ़ाई छोड़ने का फैसला किया था। 

🇮🇳 उनकी माँ ने उन्हें 1300 रुपये देकर अपना नाम बनाने के लिए घर से विदा कर दिया था, क्योंकि उस गाँव में जहाँ वे रहते थे, वहाँ वह सहूलियतें नहीं थीं जो उनकी सोच को असलियत में उतार सकें। घर छोड़ने के बाद वाजिद ख़ान #अहमदाबाद पहुँच गये और पेंटिंग और इनोवेशन के काम में जुट गए। वहाँ वे रोबोट बनाते थे। यहीं पर उनके हुनर को पहचाना आई.आई.एम. अहमदाबाद के #प्रोफेसर_अनिल_गुप्ता ने। अनिल गुप्ता को वाजिद ख़ान अपना गुरु मानते हैं और बताते हैं कि "उन्होंने मेरा काम देखकर मुझे 17500 रुपये दिए और कहा कि तुम्हारी जगह यहाँ नहीं है। तुम कला के क्षेत्र में जाओ, वही तुम्हारे लिए सही राह है।" इस बात को मानकर वाजिद ख़ान आगे बढ़े और फिर बुलंदियां छूने से उन्हें कोई नहीं रोक पाया।



🇮🇳 वाजिद ख़ान ने 14 वर्ष की आयु तक आते-आते पानी में चलने वाला सबसे छोटा जहाज़ बना दिया। ज़मीन, पानी के बाद आसमान नापने की बारी थी और कलाकृति में बनाया हैलीकॉप्टर। जब इन कलाकृतियों पर तारीफें मिलीं तो उनके सपनों को भी पंख लगने लगे और युवावस्था तक आते-आते पानी चोरी रोकने की मशीन सहित 200 आविष्कार कर दिए। इन आविष्कारों को जिसने भी देखा, वह हैरान था। लेकिन मार्गदर्शन न मिल पाने से इन आविष्कारों को वह स्थान नहीं मिला, जिसके वाजिद ख़ान हकदार थे। वर्ष 2003 में उन्होंने एक प्रकाश संवेदक और गियर लॉक का आविष्कार किया। वाजिद ख़ान को 140 अविष्कारों के लिए श्रेय प्राप्त है।

🇮🇳 नेल आर्ट को पूरे विश्व में पहुँचाने का श्रेय वाजिद ख़ान को दिया जा सकता है। उनके द्वारा निर्मित माँ-बेटे का प्यार दिखाती नेल आर्ट की एक कलाकृति में उमड़ी भावनाओं ने दर्शकों को भावुक किया था। कीलों से बने इन चेहरों की कशिश दिनोंदिन बढ़ती गई। इसकी प्रसिद्धि ने रफ्तार पकड़ ली और प्रदर्शनी का दौर शुरू हुआ। हालांकि जब किसी कलाकार की कला मुकम्मल कहलाने लगती है तो कलाकार को नया प्रयोग करने का खतरा उठाना ही पड़ता है। वाजिद ख़ान यह खतरा बहुत जल्द उठाने को तैयार हो गए और युवावस्था में ही उन्होंने नेल आर्टिस्ट के जमे हुए ओहदे से खुद को बाहर निकालकर 2012 में ऑटोमोबाइल आर्ट लांच कर दिया। बी.एम.डब्ल्यू., मर्सिडीज़ और बुलेट के पार्ट्स से यह ऑटोमोबाइल आर्ट तैयार किया गया था। इन्हें मिलाकर दीवार पर एक घोड़ा बनाया गया था, जो दूर से देखने पर जॉकी के साथ दौड़ता हुआ नजर आता है। इसके थ्री डी इफेक्ट्स आज भी इंदौर शहर के एक मशहूर बंगले की दीवार पर कायम हैं।

🇮🇳 इन सभी के बीच मुंबई से लेकर दुबई और लंदन में कला प्रदर्शित होते रहे। वाजिद ख़ान ने अपनी कला को सिर्फ लोगों को खुशी देने या अपने जज्बात जाहिर करने का जरिया नहीं बनाया बल्कि समाज को जागरुक करने में भी अहम भूमिका निभाई। 2014 में 'बेटी बचाओ आंदोलन' में शामिल हुए और चिकित्सा क्षेत्र में इस्तेमाल किए जाने वाले उपकरणों से रोती हुई एक मासूम बच्ची की कलाकृति बनाई। यह बताती है कि जो कैंची लोगों के जख्मों को सिलने के काम आती है, जो स्टेथेस्कोप दिल की धड़कने नापता है, अकसर वही किसी मासूम को दुनिया में आने से पहले मौत के मुँह में पहुँचा देती है। मेडिकल उपकरणों के इस्तेमाल से इसी हकीकत को वाजिद ख़ान ने निडरता से दिखाया और भ्रूण हत्या रोकने का संदेश दिया। श्रीलंका के आर्किटेक्ट बाबा का गिट्टी से फोटो बनाकर अपना हुनर दिखाया।

🇮🇳 वाजिद ख़ान ने ‘नेल आर्ट’ से महात्मा गाँधी का चित्र भी बनाया। इस चित्र की चर्चा होने पर मुंबई से ‘गोल्डन बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स’ के विशेषज्ञों का एक दल इंदौर पहुंचा तथा बारीकी से उसकी कला का अध्ययन करने के उपरांत उसे वर्ष 2012 में ‘गोल्डन बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड’ बनाने वालों में शामिल किया।

🇮🇳 इसके अतिरिक्त वाजिद ख़ान ने नेल आर्ट से मदर मैरी, ईसा मसीह, काबा शरीफ़, साईं बाबा, रिलायंस इंडस्ट्रीज के संस्थापक उद्योगपति धीरूभाई अंबानी, मशहूर फ़िल्म अभिनेता सलमान ख़ान, राहुल गाँधी, संयुक्त अरब अमीरात के वज़ीर-ए-आलम मोहम्मद बिन राशिद अल मकतूम और उनके पुत्र हामदान बिन मोहमे बिन राशिद अल मकतूम का चित्र बनाया।

🇮🇳 वे भारत के पहले ऐसे कलाकार हैं, जिन्हें आयरन नेल आर्ट और मेडिकल इक्विपमेंट आर्ट हेतु पेटेंट प्राप्त हैं।

🇮🇳 उन्हें जहाज़ के आर्ट के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार के लिए भी नामांकित किया गया था। भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति ए. पी. जे. अब्दुल कलाम से प्रशंसा एवं प्रोत्साहन व राष्ट्रीय नवप्रवर्तन संस्थान में डॉ. कलाम के साथ समय व्यतीत करने का गौरव व सौभाग्य उन्हें मिला था।

साभार : bharatdiscovery.org

140 से अधिक अविष्कारों के लिए श्रेय प्राप्त, विश्वकीर्तिमान धारक प्रसिद्ध #चित्रकार और अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त #आयरन_नेल_आर्टिस्ट, पेटेंट धारक तथा #आविष्कारक #वाजिद_ख़ान जी को जन्मदिवस की वर्षगाँठ के शुभ अवसर पर ढेरों बधाई एवं शुभकामनाऍं !

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 



सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. 


Priyanka Goswami | प्रियंका गोस्वामी | महिला एथलीट | Female Athlete | जन्म- 10 मार्च, 1996

 



प्रियंका गोस्वामी (जन्म- 10 मार्च, 1996) भारतीय #महिला_एथलीट  #female_ athleteहैं। उन्होंने बर्मिघम, इंग्लैंड में आयोजित कॉमनवेल्थ गेम्स, 2022 में कमाल का प्रदर्शन करते हुए महिलाओं की 10 हजार मीटर रेस वॉक (पैदल चाल) में भारत के लिये रजत पदक जीता है। इस खिलाड़ी ने अपना सबसे बेहतरीन प्रदर्शन करते हुए देश को पदक दिलाया। प्रियंका गोस्वामी ने 43:38.82 समय में रेस पूरी की। इस जीत के साथ ही प्रियंका गोस्वामी ने इतिहास रच दिया है। वह पहली भारतीय महिला खिलाड़ी हैं, जिसने कॉमनवेल्थ गेम्स में पैदल चाल में पदक हासिल किया है। प्रियंका गोस्वामी ने टोक्यो ओलिंपिक में भी भारत का प्रतिनिधित्व किया था, लेकिन तब वह 17वें स्थान पर रही थीं।

🇮🇳 #प्रियंका गोस्वामी भारतीय रेलवे में कार्यरत हैं। वह मूल रूप से #मेरठ, #उत्तर_प्रदेश की रहने वाली हैं। उन्होंने 20 किलोमीटर वॉक रेस में देश के लिए कई पदक जीते हैं। उन्होंने 2021 में टोक्यो ओलिंपिक में भी भारत का प्रतिनिधित्व किया था। प्रियंका गोस्वामी के पिता #मदनपाल_गोस्वामी यूपी रोडवेज में कंडक्टर की नौकरी करते थे, पर किसी कारण से उनकी नौकरी चली गई। जिसके बाद घर की आर्थिक स्थिति खराब हो गई।

🇮🇳 प्रियंका गोस्वामी ने मेरठ के गर्ल्स स्कूल और बीके माहेश्वरी से स्कूली शिक्षा पूरी की। बीए की पढ़ाई पटियाला में की। इस दौरान पिता टैक्सी चलाकर, आटा चक्की और छोटे-मोटे कामकर जैसे-तैसे चार से पाँच हजार रुपये भेजते थे।

🇮🇳 प्रियंका गोस्वामी ने कॉमनवेल्थ गेम्स, 2022 की 10000 मीटर पैदल चाल स्पर्धा में रजत पदक जीता। उन्होंने अपना निजी सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया और इस लंबी दूरी को 49 मिनट 38 सेकंड में पूरा किया। इसी के साथ उन्होंने #मुरली_श्रीशंकर (लम्बी कूद में रजत) और #तेजस्विन_शंकर (ऊँची कूद में कांस्य) की लिस्ट में अपना नाम शामिल करा लिया, जिन्होंने इन खेलों की ट्रैक एंड फील्ड स्पर्धाओं में पदक जीते।

🇮🇳 टोक्यो ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुकीं प्रियंका गोस्वामी ने वॉक के पहले चरण में बहुत तेजी से बढ़त बना ली और खुद को 4000 मीटर (4 कि.मी.) के निशान के बाद पहले स्थान पर बनाए रखा। इसके बाद ऑस्ट्रेलिया की जेमिमा मोंटाग और केन्या की एमिली वामुसी एनजी से वह पीछे रह गईं। 8 कि.मी. के बाद प्रियंका गोस्वामी तीसरे स्थान पर खिसक गई थीं, लेकिन अंतिम मिनट में 2 कि.मी. की दूरी तय करने के बाद भारतीय एथलीट को फायदा हुआ।

🇮🇳 #जेमिमा_मोंटाग ने 42:38 का समय लेकर स्वर्ण पदक जीता, जबकि प्रियंका गोस्वामी दूसरे स्थान पर रहीं। प्रतियोगिता में शामिल अन्य भारतीय #भावना_जाट 8वें स्थान पर रहीं। इसके साथ ही प्रियंका गोस्वामी कॉमनवेल्थ गेम्स की रेस-वॉक स्पर्धा में पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला बन गई हैं। वह कॉमनवेल्थ गेम्स में पदक जीतने वाली दूसरी रेसवॉकर भी हैं। उनसे पहले #हरमिंदर_सिंह ने 2010 खेलों में 20 मीटर रेसवॉक में कांस्य पदक जीता था।

🇮🇳 वर्ष 2007 में प्रियंका गोस्वामी ने जिमनास्टिक में भाग लेना शुरू कर दिया था। उनके माता-पिता और शिक्षकों ने उनका काफी सपोर्ट किया।

🇮🇳 जिमनास्टिक की ट्रेनिंग के लिए प्रियंका को राज्य सरकार द्वारा संचालित छात्रावास लखनऊ भेजा जा रहा था लेकिन उन्होंने मेरठ के ही स्टेडियम में प्रशिक्षण प्राप्त करने का फैसला लिया। कुछ समय तक जिमनास्टिक की ट्रेनिंग लेने के बाद जिमनास्टिक से उनकी रूचि खत्म हो गई और उन्होंने मेरठ छात्रावास छोड़ दिया।

🇮🇳 उन्होंने खेलों से 3-4 साल का ब्रेक लिया। हालांकि उन्होंने अपना साहस सँभाला और स्टेडियम में दोबारा से लौटने का फैसला किया। लगातार दो महीने तक कोच से कठोर शारीरिक प्रशिक्षण प्राप्त किया।

🇮🇳 पटियाला से ग्रेजुएशन करने के बाद प्रियंका गोस्वामी को बेंगलूरू साईं सेंटर में निःशुल्क प्रशिक्षण मिलना शुरू हुआ।

🇮🇳 प्रियंका गोस्वामी ने रेस के शुरुआती दिनों में 800 और 1500 मीटर रेस प्रतियोगिता में भाग लिया लेकिन इन प्रतियोगिताओं में सफल नहीं हुई। जिसके बाद उन्होंने वर्ष 2011 में जिला स्तर के रेस प्रतियोगिता में भाग लिया और तीसरा स्थान प्राप्त किया। इस प्रतियोगिता में तीसरा स्थान प्राप्त करने पर उन्हें इनाम स्वरूप स्कूल बैग भेंट किया गया।

🇮🇳 वर्ष 2011 में पहला पदक हासिल करने के बाद प्रियंका ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और एक के बाद एक रेस प्रतियोगिताओं में भाग लिया।

🇮🇳 वर्ष 2015 में उन्होंने तिरुअनंतपुरम में आयोजित नेशनल चैंपियनशिप रेस प्रतियोगिता में कांस्य पदक जीता।

🇮🇳 वर्ष 2017 में दिल्ली में आयोजित नेशनल रेस वॉकिंग चैंपियनशिप में करतब दिखाते हुए स्वर्ण पदक अपने नाम किया।

🇮🇳 वर्ष 2018 में स्पोर्ट कोटा के माध्यम से रेलवे विभाग में क्लर्क का पद हासिल किया।

🇮🇳 13 फरवरी, 2021 को उन्होंने रांची में 8वीं ओपन नेशनल और इंटरनेशनल रेस वॉकिंग चैंपियनशिप में राष्ट्रीय रिकॉर्ड बनाया।

🇮🇳 नेशनल और इंटरनेशनल दौड़ जीतने के बाद प्रियंका गोस्वामी ने टोक्यो ओलंपिक, 2020 और अमेरिका के ओरेगन में होने वाले विश्व एथलेटिक्स चैम्पियनशिप के लिए क्वालीफाई किया।

🇮🇳 प्रियंका गोस्वामी ने जूनियर, सीनियर और नेशनल लेवल पर अब तक 60 पदक भारत के नाम किये हैं, जिसमें से दो रजत पदक राष्ट्रीय स्तर पर और एक स्वर्ण पदक अखिल भारतीय रेलवे प्रतियोगिता स्तर पर प्राप्त किया है। इसके अलावा उन्होंने इटली में आयोजित वर्ल्ड वॉक चैंपियनशिप और जापान में आयोजित एशियन वॉक चैंपियनशिप में भी भाग लिया।

साभार: bharatdiscovery.org

🇮🇳 बर्मिघम, इंग्लैंड में आयोजित कॉमनवेल्थ गेम्स, 2022 में रजत पदक जीतकर इस खेल में पहली पदक विजेता बनी भारतीय महिला #एथलीट #रेसवॉकर (पैदल चालक) #प्रियंका_गोस्वामी जी को जन्मदिवस की वर्षगाँठ के शुभ अवसर पर ढेरों बधाई एवं शुभकामनाऍं !

🇮🇳🌹🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल


साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 



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Rifleman Jaswant Singh, awarded Mahavir Chakra in the India-China war of 1962, Sela and Noora | 1962 के भारत-चीन युद्ध में महावीर चक्र से सम्मानित राइफलमैन जसवंत सिंह, सेला और नूरा




🇮🇳 1962 के भारत-चीन युद्ध में #महावीर_चक्र से सम्मानित #राइफलमैन_जसवंत_सिंह ने #सेला और #नूरा  #Rifleman_Jaswant_Singh, #awarded #Mahavir_Chakra #India_China_war_1962, #Sela #Nooraके साथ चीनी सेना के साथ 72 घंटों तक बहादुरी से लड़ाई लड़ी और 300 से अधिक पीएलए सैनिकों को मार डाला।

🇮🇳#Jaswant_Singh_Rawat single-handedly had held off over 300 #Chinese_soldiers for 72 hours in the icy heights of #Arunachal_Pradesh with just one machine gun during the #1962 war before laying down his life. He was posthumously awarded the #Maha_Vir_Chakra

🇮🇳 मुझे पहाड़ों की यात्रा करना बहुत पसंद है. मेरे लिए पहाड़ों में सवारी करना एक बहुत ही प्रभावी उपचार तंत्र है। खूबसूरत प्राकृतिक खजानों के साथ-साथ इन पहाड़ों के साथ कुछ दिलचस्प कहानियाँ/लोककथाएँ भी जुड़ी हुई हैं। 

🇮🇳 एक मोटरसाइकिल चालक के रूप में #अरुणाचल_प्रदेश  #Arunachal_Pradesh ने मुझे हमेशा उत्साहित किया है और इस जनवरी में मैं लामाओं की इस भूमि में रहने के लिए भाग्यशाली रहा। शून्य से नीचे के तापमान में शक्तिशाली सेला दर्रे को पार करना एक रोमांचकारी अनुभव था। 

🇮🇳 #वेस्ट_कामेंग की मेरी यात्रा के दौरान, एक दिलचस्प कहानी सामने आई। जो साझा करने लायक है. 

🇮🇳 #सेला_दर्रा #तवांग को #दिरांग से जोड़ता है और तवांग की ओर आगे बढ़ने पर #नूरा_पोस्ट नामक एक सेना चौकी पड़ती है, जिसके बाद "#जसवंत_गढ़ नामक स्थान आता है। सेला, नूरा और जसवन्त नाम वास्तव में एक कहानी के वास्तविक पात्र हैं।

एसएसबी कैंप, तवांग में एक मूर्ति हमारे बहादुर भारतीय सैनिकों की वीरता का वर्णन करती है।


🇮🇳 यह 1962 का भारत-चीन युद्ध था। चौथी गढ़वाल राइफल्स के एक सैनिक राइफलमैन जसवन्त सिंह रावत (एमवीसी) तत्कालीन उत्तर पूर्वी सीमांत एजेंसी (एनईएफए) अरुणाचल में तैनात थे। चीन की पीएलए (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) को #नूरानांग की लड़ाई के दौरान भारतीय सेना द्वारा घुसपैठ के लिए दो बार हार मिली । अपनी तीसरी घुसपैठ के दौरान, चीनी जवान जसवन्त सिंह की पोस्ट (सेला पास से 21 किमी दूर) पर एमएमजी का उपयोग करके गोलीबारी कर रहे थे और लेकिन उन्होंने दो और राइफलमैन (#त्रिलोकी_सिंह और #गोपाल_गुसाई) के साथ पीएलए को कड़ी टक्कर दी। चीनियों की भारी गोलाबारी को देखते हुए उनके आदेश से उन्हें पोस्ट खाली करने का निर्देश दिया गया। स्थिति को समझते हुए और पद के महत्व को जानते हुए, उन्होंने अपने साथी राइफलमैन के साथ अपनी आखिरी साँस तक लड़ने का फैसला किया।

🇮🇳 पोस्ट पर जसवन्त सिंह की तैनाती के दौरान सेला नामक एक स्थानीय लड़की उनकी पोस्ट पार कर जाती थी। यहीं से जसवन्त सिंह और सेला का प्रेम प्रसंग शुरू हुआ। विभिन्न लोककथाओं में उनके रिश्ते के बारे में अलग-अलग आख्यान हैं। कुछ लोग कहते हैं कि उनका लिव इन रिलेशन शिप था। कुछ लोग कहते हैं कि जसवन्त सिंह के सेला और नूरा (सेला की बहन) दोनों के साथ संबंध थे और वे दोनों जसवन्त सिंह के साथ लिव इन में रहती थी। 

🇮🇳 नवंबर 1962 में, जसवन्त सिंह के दोनों साथी राइफलमैन शहीद हो गये। लेकिन वह अपना हौसला दिखाते रहे और विशाल पीएलए को अकेले ही ढेर कर दिया। वह अपनी लोकेशन बदलता रहा और अलग-अलग एंगल से फायरिंग करता रहा. पीएलए को यह भ्रम था कि सैनिकों का एक बड़ा समूह उनके खिलाफ गोलीबारी कर रहा है। 

🇮🇳 उनके वन मैन आर्मी एक्ट के दौरान, सेला और नूरा ने उन्हें भोजन और राशन देने के साथ-साथ चीनी सेना पर भी गोलीबारी की। एक और कहानी यह भी है कि सेला और नूरा के पिता की जसवंत सिंह से दुश्मनी हो गई थी और उन्होंने उनकी पोस्ट की जानकारी पीएलए को लीक कर दी थी। 

🇮🇳 इस लड़ाई के दौरान जसवन्त सिंह और सेला शहीद हो गए और नूरा को पीएलए द्वारा पकड़ लिया गया और चीन ले जाया गया और वह कभी वापस नहीं आई। 

🇮🇳 कुछ लोगों का मानना ​​है कि सेला के पिता जसवन्त सिंह के विश्वासघात के कारण मैत्रेड और सेला ने पहाड़ की चोटी से कूदकर आत्महत्या कर ली। 

🇮🇳 राइफलमैन जसवंत सिंह ने सेला और नूरा के साथ 72 घंटों तक बहादुरी से लड़ाई लड़ी और 300 से अधिक पीएलए #PLA सैनिकों को मार डाला। यह उनकी वीरता के कारण ही था कि भारतीय सेना पीएलए पर नियंत्रण रखने में कामयाब रही जो बैसाखी पोस्ट की ओर आगे बढ़ रही थी। 

स्टेन मशीन गन एमके-वी (नूरानंग की लड़ाई)।


🇮🇳 उनके वीरतापूर्ण कार्य के लिए, राइफलमैन जसवन्त सिंह रावत को दूसरे सर्वोच्च सैन्य सम्मान, #महावीर_चक्र (मरणोपरांत) से सम्मानित किया गया । उनकी यूनिट (चौथी गढ़वाल राइफल्स) को "बैटल ऑनर नूरानांग" से सम्मानित किया गया था । 

बाएँ-जसवंत सिंह रावत का स्मारक। दाएं-जसवंत सिंह रावत की फ़ाइल छवि।


🇮🇳 सेला के नाम पर ही पहाड़ी दर्रा और झील का नाम सेला दर्रा और सेला झील रखा गया । इसके आगे की सेना चौकी का नाम नूरा पोस्ट है और इन दोनों से आगे पड़ता है जसवन्त गढ़ ।

खूबसूरत जमी हुई सेला झील- सेला दर्रा, पश्चिम कामेंग, अरुणाचल प्रदेश।

जसवन्त गढ़ का नाम जसवन्त सिंह रावत (एमवीसी) के नाम पर रखा गया।


🇮🇳 जमे हुए सेला दर्रे से गुजरते समय, जसवन्त गढ़ के बर्फीले टुकड़ों पर चलते हुए और नूरा पोस्ट को देखते हुए आपके कानों को चुभने वाली ठंडी हवा वास्तव में सेला-नूरा-जसवंत सिंह की इस खूबसूरत कहानी को बयान करने की कोशिश करती है । 

साभार: lonelymusafir.com

बहादुर सैनिकों #brave_soldiers और उनकी सहयोगियों को शत् शत् नमन !

🇮🇳💐🙏

जय हिन्द 🇮🇳

#आजादी_का_अमृतकाल

 साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 



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