07 मार्च 2024

Shri Shri Paramahansa Yogananda | श्री श्री परमहंस योगानन्द | 5 जनवरी 1893 - 7 मार्च 1952

 


🇮🇳🔶#अध्यात्म_और_योग #spirituality_and_yoga 🔶🇮🇳

🇮🇳🔶 श्री श्री परमहंस योगानन्द #Shri_Shri_Paramahansa_Yogananda  का जन्म, 5 जनवरी 1893 को, उत्तर प्रदेश के शहर #गोरखपुर में एक धर्म-परायण व समृद्ध बंगाली परिवार में हुआ था। माता-पिता ने उनका नाम #मुकुन्द_लाल_घोष रखा। उनके सगे-संबंधियों को यह स्पष्ट दिखता था कि बचपन से ही उनकी चेतना की गहराई एवं आध्यात्म का अनुभव साधारण से कहीं अधिक था।

🇮🇳🔶 #योगानन्दजी के माता-पिता प्रसिद्ध गुरु, #लाहिड़ी_महाशय, के शिष्य थे जिन्होंने आधुनिक भारत में क्रियायोग के पुनरुत्थान में प्रमुख भूमिका निभायी थी। जब योगानन्दजी अपनी माँ की गोद में ही थे, तब लाहिड़ी महाशय ने उन्हें आशीर्वाद दिया था और भविष्यवाणी की थी, “छोटी माँ, तुम्हारा पुत्र एक योगी बनेगा। एक आध्यात्मिक इंजन की भाँति, वह कई आत्माओं को ईश्वर के साम्राज्य में ले जाएगा।”

🇮🇳🔶 अपनी युवावस्था में मुकुन्द ने एक ईश्वर-प्राप्त गुरु को पाने की आशा से, भारत के कई साधुओं और सन्तों से भेंट की। सन् 1910 में, सत्रह वर्ष की आयु में वे पूजनीय सन्त, श्री श्री #स्वामी_श्रीयुक्तेश्वर_गिरि के शिष्य बने। इस महान गुरु के आश्रम में उन्होंने अपने जीवन के अगले दस वर्ष बिताए, और उनसे कठोर परन्तु प्रेमपूर्ण आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त की।

🇮🇳🔶 पहली भेंट पर ही, और उसके पश्चात कई बार, श्रीयुक्तेश्वरजी ने अपने युवा शिष्य को बताया कि उसे ही प्राचीन क्रियायोग के विज्ञान को अमेरिका तथा पूरे विश्व भर में प्रसार करने के लिए चुना गया था।

🇮🇳🔶 मुकुन्द द्वारा कोलकाता विश्वविद्यालय से सन् 1915 में स्नातक की डिग्री प्राप्त करने के बाद, उनके गुरु ने उन्हें गरिमामय संन्यास परंपरा के अनुसार संन्यास की दीक्षा दी, और तब उन्हें #योगानन्द नाम दिया गया (जिसका अर्थ है दिव्य योग के द्वारा परमानन्द की प्राप्ति)। अपने जीवन को ईश्वर-प्रेम तथा सेवा के लिए समर्पित करने की उनकी इच्छा इस प्रकार पूर्ण हुई।

🇮🇳🔶 योगानन्दजी ने 1917 में, लड़कों के लिए एक “जीवन कैसे जियें” स्कूल की स्थापना के साथ अपना जीवन कार्य आरंभ किया। इस स्कूल में आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ योग एवं आध्यात्मिक आदर्शों में प्रशिक्षण भी दिया जाता था। कासिमबाज़ार के महाराजा ने स्कूल को चलाने के लिए रांची (जो कि कोलकाता से लगभग 250 मील दूर है) में स्थित अपना ग्रीष्मकालीन महल उपलब्ध कराया था। कुछ साल बाद स्कूल को देखने आए महात्मा गाँधी ने लिखा: “इस संस्था ने मेरे मन को गहराई से प्रभावित किया है।”

🇮🇳🔶 सन् 1920 में एक दिन, रांची स्कूल में ध्यान करते हुए, योगानन्दजी को एक दिव्य अनुभव हुआ जिस से उन्होंने समझा कि अब पश्चिम में उनका कार्य आरंभ करने का समय आ गया है। वे तुरंत कोलकाता के लिए रवाना हो गए, जहां अगले दिन उन्हें बोस्टन में उस साल आयोजित होने वाले धार्मिक नेताओं के एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए निमन्त्रण मिल गया। श्री युक्तेश्वरजी ने योगानन्दजी के इस संकल्प की पुष्टि करते हुए कहा कि वह सही समय था, और आगे कहा: “सभी दरवाज़े तुम्हारे लिए खुले हैं। अभी नहीं तो कभी नहीं जा सकोगे।”

🇮🇳🔶 अमेरिका प्रस्थान करने से कुछ समय पहले, योगानन्दजी को #महावतार_बाबाजी के दर्शन प्राप्त हुए। महावतार बाबाजी क्रिया योग को इस युग में पुनःजीवित करने वाले मृत्युंजय परमगुरु हैं। बाबाजी ने योगानन्दजी से कहा, “तुम ही वह हो जिसे मैंने पाश्चात्य जगत में क्रिया योग का प्रसार करने के लिए चुना है। बहुत वर्ष पहले मैं तुम्हारे गुरु युक्तेश्वर से कुंभ मेले में मिला था और तभी मैंने उनसे कह दिया था कि मैं तुम्हें उनके पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजूंगा। ईश्वर-साक्षात्कार की वैज्ञानिक प्रणाली, क्रिया योग, का अंततः सभी देशों में प्रसार हो जायेगा और मनुष्य को अनंत परमपिता का व्यक्तिगत इन्द्रियातीत अनुभव कराने के द्वारा यह राष्ट्रों के बीच सौहार्द्र स्थापित करने में सहायक होगा।”

🇮🇳🔶 युवा स्वामी सितंबर 1920 में बोस्टन पहुँचे। उन्होंने अपना पहला व्याख्यान, धार्मिक उदारतावादियों के अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में “#धर्म-विज्ञान” पर दिया, जिसे उत्साहपूर्वक सुना गया। उसी वर्ष उन्होंने भारत के योग के प्राचीन विज्ञान और दर्शन एवं इसकी कालजयी ध्यान की परंपरा पर अपनी शिक्षाओं का प्रसार करने के लिए सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप (एसआरएफ़) की स्थापना की। पहला एसआरएफ़ ध्यान केंद्र बोस्टन में #डॉ_एम_डब्लयू_लुईस और #श्रीमती_एलिस_हैसी (जो परवर्ती काल में सिस्टर योगमाता बनी) की मदद से शुरू किया गया था, जो आगे चलकर योगानन्दजी के आजीवन शिष्य बने।

🇮🇳🔶 अगले कई वर्षों तक, वे अमेरिका के पूर्वतटीय क्षेत्रों में रहे जहाँ पर उन्होंने व्याख्यान दिये और योग सिखाया; सन 1924 में उन्होंने पूरे अमेरिका का दौरा किया और कई शहरों में योग पर व्याख्यान दिये । सन 1925 की शुरूआत में लॉस एंजेलिस पहुँचकर उन्होंने माउंट वाशिंगटन के ऊपर सेल्फ़-रियलाइजेशन फ़ेलोशिप के अंतरराष्ट्रीय मुख्यालय की स्थापना की, जो कि आगे चल कर उनके बढ़ते काम का आध्यात्मिक और प्रशासनिक केंद्र बन गया।

🇮🇳🔶 सन् 1924 से 1935 तक योगानन्दजी ने व्यापक रूप से भ्रमण किया और व्याख्यान दिए। इस दौरान उन्होंने अमेरिका के कई सबसे बड़े सभागारों – न्यूयॉर्क के कार्नेगी हॉल से लेकर लॉस एंजिलिस के फिल्हार्मोनिक सभागृह तक – में व्याख्यान दिये, जो श्रोताओं  की भीड़ से खचाखच भर जाते थे। लॉस एंजिलिस टाइम्स ने लिखाः “फिल्हार्मोनिक सभागृह में एक अद्भुत दृश्य देखने को मिला जब हज़ारों लोगों को व्याख्यान शुरू होने से एक घण्टा पहले वापिस जाने को बोल दिया गया क्योंकि 3000 सीट का वह हॉल पूरी तरह भर गया था।”

🇮🇳🔶 योगानन्दजी ने दुनिया के महान धर्मों की अंतर्निहित एकता पर ज़ोर दिया, और भगवान के प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुभव को प्राप्त करने के लिए सार्वभौमिक रूप से उपयुक्त तरीकों को सिखाया। जो शिष्य साधना में गहरी रुचि दिखाते थे, उनहें वे आत्म-जागृति प्रदान करने वाली क्रियायोग की तकनीक सिखाते थे, और इस तरह पश्चिम में तीस वर्षों के दौरान उन्होंने 1,00,000 से भी अधिक पुरुषों और महिलाओं को क्रिया योग की दीक्षा दी।

🇮🇳🔶 जो उनके शिष्य बने, उनमें विज्ञान, व्यवसाय और कला के कई प्रमुख व्यक्ति थे, जैसे बागवानी विशेषज्ञ लूथर बरबैंक, ओपेरा गायिका अमेलिता गली कुर्चि, जॉर्ज ईस्टमैन (कोडक कैमरा के आविष्कारक), कवि एडविन मार्खम, और ऑर्केस्ट्रा निर्देशक लियोपोल्ड स्टोकोव्स्की। सन 1927 में अमेरिका के राष्ट्रपति केल्विन कूलिज ने उन्हें औपचारिक रूप से व्हाइट हाउस में आमंत्रित किया।वे समाचार पत्रों में योगानन्दजी की गतिविधियों के बारे में पढ़कर, उनमें रुचि लेने लगे थे।

🇮🇳🔶 सन् 1929 में, मैक्सिको की दो महीने की यात्रा के दौरान, उन्होंने लैटिन अमेरिका में अपने कार्य के भविष्य के बीज बोए। मेक्सिको के राष्ट्रपति, डॉ एमिलियो पोरटेस गिल ने उनका स्वागत किया। वे योगानन्दजी की शिक्षाओं के आजीवन प्रशंसक बन गए।

🇮🇳🔶 1930 के दशक के मध्य तक, #परमहंसजी के वे आरंभिक शिष्य उनके संपर्क में आ चुके थे, जो आगे चलकर उन्हें सेल्फ-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप कार्य का विस्तार करने और उनके जीवनकाल समाप्त होने के बाद क्रिया योग मिशन को आगे बढ़ाने में मदद करने वाले थे। इन शिष्यों में वे दो भी शामिल थे, जिन्हें उन्होंने अपने आध्यात्मिक उत्तराधिकारी के रूप में सेल्फ-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के अध्यक्ष के पद के लिए नियुक्त किया था: #राजर्षि_जनकानंद (जेम्स जे लिन), जो 1932 में कंसास शहर में गुरुजी से मिले; और #श्री_दया_माता, जिन्होंने एक वर्ष पूर्व साल्ट लेक सिटी में उनकी कक्षाओं में भाग लिया था।

🇮🇳🔶 अन्य शिष्य जिन्होंने 1920 और 1930 के दशकों के दौरान उनके व्याख्यान कार्यक्रमों में भाग लिया और एसआरएफ़ के कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित करने के लिए आगे आये, वे थे डॉ और श्रीमती एम डब्ल्यू लुईस, जिन्होंने 1920 में बोस्टन में उनसे मुलाकात की; ज्ञानमाता (सिएटल, 1924); तारा माता (सैन फ्रांसिस्को, 1924); दुर्गा माता (डेट्रॉइट, 1929); आनंद माता (साल्ट लेक सिटी, 1931); श्रद्धा माता (टैकोमा, 1933); और शैलसुता माता (सांता बारबरा, 1933)।

🇮🇳🔶 इस प्रकार, योगानन्दजी के शरीर छोड़ने के कई वर्षों बाद तक भी सेल्फ-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप को उन शिष्यों का निर्देशन प्राप्त होता रहा जिन्होंने परमहंस योगानन्दजी से व्यक्तिगत आध्यात्मिक प्रशिक्षण प्राप्त किया था।

🇮🇳🔶 उनके कार्य के शुरुआती वर्षों में योगानन्दजी के कुछ ही व्याख्यान और कक्षाएं अभिलेखित की गईं। लेकिन, 1931 में जब #श्री_दया_माता (जो बाद में उनके विश्वव्यापी संगठन की अध्यक्षा बनीं) उनके आश्रम में शामिल हुईं, उन्होंने योगानन्द जी के सैकड़ों व्याख्यानों, कक्षाओं और अनौपचारिक बातचीतों को ईमानदारी से अभिलेखित करने का पवित्र कार्य किया, ताकि उनके ज्ञान और प्रेरणा को उनकी मूल शक्ति और पवित्रता के साथ संरक्षित रखा जा सके और आने वाली पीढ़ियों के लिए सेल्फ-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप द्वारा प्रकाशित किया जा सके।

🇮🇳🔶 सन् 1935 में, योगानन्दजी अपने महान गुरु के अंतिम दर्शन के लिए भारत लौटे (बायें)। श्री युक्तेश्वर जी ने 9 मार्च, 1936 को अपना शरीर छोड़ा।) यूरोप, फिलिस्तीन और मिस्र के रास्ते जहाज़ और कार से यात्रा करते हुए, वे 1935 की गर्मियों में मुंबई पहुंचे।

🇮🇳🔶 अपनी जन्मभूमि के साल भर की यात्रा के दौरान योगानन्दजी ने भारत के अनेक शहरों में व्याख्यान दिये और क्रियायोग की दीक्षा दी। उन्हें कई महापुरुषों से मिलने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ, जैसे : महात्मा गाँधी, जिन्होंने क्रियायोग की दीक्षा लेने का अनुरोध किया; नोबेल पुरस्कार विजेता, भौतिक-शास्त्री सर #सी_वी_रमन; और भारत की कुछ सुविख्यात आध्यात्मिक विभूतियाँ, जैसे #रमण_महर्षि और #आनन्दमयी_माँ।

🇮🇳🔶 उसी वर्ष श्री युक्तेश्वर जी ने उन्हें भारत की सर्वोच्च आध्यात्मिक उपाधि, परमहंस से विभूषित किया। परमहंस का शाब्दिक अर्थ “सर्वोत्तम हंस” है। (हंस आध्यात्मिक प्रज्ञा का प्रतीक माना जाता है)। यह उपाधि उसे दी जाती है जो परमात्मा के साथ एकत्व की चरम अवस्था में स्थापित हो चुका है।

🇮🇳🔶 भारत में बिताए समय के दौरान, योगानन्दजी ने इस देश में उनके द्वारा स्थापित संस्था, योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया, के लिए एक सुदृढ़ आर्थिक नींव बनाई। संस्था का कार्य क्षिणेश्वर में स्थित मुख्यालय और रांची में स्थित मूल आश्रम के द्वारा आज भी वृद्धि पर है, और पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में इसके कई सारे स्कूल, आश्रम, और ध्यान केंद्र हैं, और कई सारे धर्मार्थ कार्य आयोजित किए जाते हैं।

🇮🇳🔶 सन् 1936 के अंतिम भाग में वे अमेरिका वापिस लौट गए, जहाँ वे जीवनपर्यंत रहे।

🇮🇳🔶 1930 के दशक में, परमहंस योगानंदजी ने देश भर में दिए जा रहे अपने सार्वजनिक व्याख्यानों को कम कर दिया ताकि वे अपना अधिकतर समय भावी पीढ़ियों तक अपना सन्देश पहुँचाने के लिए लेख लिखने में, और योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के आध्यात्मिक तथा लोकोपकारी कार्य की एक सुदृढ़ नींव रखने में बिता सकें।

🇮🇳🔶 जो व्यक्तिगत मार्गदर्शन और निर्देश उन्होंने अपनी कक्षाओं के छात्रों को दिया था, उसे उनके निर्देशन में योगदा सत्संग पाठमाला की एक व्यापक श्रृंखला में व्यवस्थित किया गया था।

🇮🇳🔶 जब वे भारत की यात्रा पर थे, उस दौरान उनके प्रिय शिष्य श्री श्री राजर्षि जनकानंद ने अपने गुरु के लिए कैलिफ़ोर्निया के एन्सिनीटस में प्रशांत महासागर के साथ सटा हुआ एक सुंदर आश्रम बनवाया था। यहाँ गुरुदेव ने अपनी आत्मकथा और अन्य लेखन पर काम करते हुए कई साल बिताए, और रिट्रीट कार्यक्रम शुरू किया जो आज भी जारी है।

🇮🇳🔶 उन्होंने कई सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप मंदिरों (एन्सिनीटस, हॉलीवुड और सैन डिएगो) की भी स्थापना की, जहाँ वे नियमित रूप से बहुविविध आध्यात्मिक विषयों पर एसआरएफ़ के श्रद्धालु सदस्यों और मित्रों के समूहों कों प्रवचन देते थे। बाद में इनमें से कई प्रवचन, जिन्हें श्री श्री दया माता ने स्टेनोग्राफी शैली में दर्ज किया था, योगानन्दजी के तीन खंडों में “संकलित प्रवचन एवं आलेख” के रूप में तथा योगदा सत्संग पत्रिका में वाइएसएस/एसआरएफ़ द्वारा प्रकाशित किये गए हैं।

🇮🇳🔶 योगानन्दजी की जीवन कथा, योगी कथामृत, 1946 में प्रकाशित हुई थी (और बाद के संस्करणों में उनके द्वारा इसका विस्तार किया गया था)। अपने प्रथम प्रकाशन के समय से, यह पुस्तक एक सदाबहार सर्वश्रेष्ठ पाठकगण की प्रिय बनकर, निरंतर प्रकाशन में रही है और इसका 50 भाषाओं में अनुवाद किया गया है। इसे व्यापक रूप से आधुनिक आध्यात्मिक गौरव ग्रन्थ माना जाता है।

🇮🇳🔶 1950 में, परमहंसजी ने लॉस एंजिल्स में अपने अंतर्राष्ट्रीय मुख्यालय में पहला सेल्फ़-रियलाइज़शन फ़ेलोशिप विश्व सम्मेलन आयोजित किया। यह एक सप्ताह का कार्यक्रम आज भी हर साल दुनिया भर से हज़ारों लोगों को आकर्षित करता है। उन्होंने उसी वर्ष पैसिफ़िक पैलिसैड्स, लॉस एंजिल्स में एसआरएफ़ लेक श्राइन आश्रम का लोकार्पण भी किया, जो एक झील के किनारे दस एकड़ के ध्यान के उद्यानों में बनाया गया एक सुंदर आश्रम है जहाँ #महात्मा_गाँधी की अस्थिओं का एक भाग भी संजो कर रखा गया है। आज एसआरएफ़ लेक श्राइन कैलिफ़ोर्निया के सबसे प्रमुख आध्यात्मिक स्थलों में से एक बन गया है।

🇮🇳🔶 परमहंस योगानन्द जी के अंतिम वर्ष काफी हद तक एकांत में बिताए गए थे, क्योंकि उन्होंने अपने लेखन को पूरा करने के लिए गहनता से काम किया — जिसमें #भगवद्गीता तथा जीसस क्राइस्ट के चार गोस्पेल्स में दी गयी शिक्षाओं पर उनकी विस्तृत टीका शामिल हैं, और पहले के कार्यों जैसे कि Whispers from Eternity और योगदा सत्संग पाठमाला का पुनःअवलोकन। उन्होंने श्री श्री दया माता, #श्री_श्री_मृणालिनी_माता, और उनके कुछ अन्य घनिष्टतम शिष्यों को आध्यात्मिक और संगठनात्मक मार्गदर्शन प्रदान करने का काम भी किया, जो उनके चले जाने के बाद दुनिया भर में उनका काम करने में सक्षम होंगे ।

🇮🇳🔶 गुरूजी ने उनसे कहा:

“मेरा शरीर नहीं रहेगा, लेकिन मेरा काम चलता रहेगा। और मेरी आत्मा जीवित रहेगी। यहां तक कि मेरे यहाँ से चले जाने के बाद भी मैं आप सभी के साथ मिलकर भगवान के संदेश की सहायता से संसार के उद्धार के लिए काम करूंगा।

“जो लोग सेल्फ़-रियलाइजे़शन फे़लोशिप में वास्तव में आन्तरिक आध्यात्मिक सहायता हेतु आये हैं वह उसे प्राप्त करेंगे जो वो ईश्वर से चाहते हैं। चाहे वे मेरे शरीर में रहते हुए आयें, या बाद में, एस आर एफ् गुरुओं के माध्यम से भगवान की शक्ति उसी भांति उन भक्तों में प्रवाहित होगी, और उनके उद्धार का कारण बनेगी …. अमरगुरु बाबाजी ने सभी सच्चे एस आर एफ भक्तों की प्रगति की रक्षा और मार्गदर्शन करने का वचन दिया है। लाहिड़ी महाशय और श्रीयुक्तेश्वरजी, जिन्होंने अपने शरीरों को त्याग दिया है, और मैं स्वयं, अपना शरीर छोड़ने के बाद भी —सभी वाई एस एस-एस आर एफ के सच्चे सदस्यों की सदा रक्षा और निर्देशन करेंगे। “

🇮🇳🔶 7 मार्च, सन् 1952, को परमहंस जी ने महासमाधि में प्रवेश किया, एक ईश्वर प्राप्त गुरु का मृत्यु के समय शरीर से सचेतन प्रस्थान। उन्होंने लॉस एंजेलिस के बिल्टमोर होटल में संयुक्त राज्य अमेरिका में भारत के राजदूत डॉ बिनय आर सेन के सम्मान में एक भोज में एक लघु भाषण देना समाप्त ही किया था।

🇮🇳🔶 उनके शरीर छोड़ने के समय एक असाधारण घटना हुई । फारेस्ट लॉन मेमोरियल-पार्क के निदेशक द्वारा हस्ताक्षरित एक प्रमाणित पत्र के अनुसार : “उनकी मृत्यु के बीस दिन बाद भी उनके शरीर में किसी प्रकार की विक्रिया नहीं दिखाई पड़ी….शवागार के वृत्ति-इतिहास से हमें जहाँ तक विदित है, पार्थिव शरीर के ऐसे परिपूर्ण संरक्षण की अवस्था अद्वितीय है …. योगानन्दजी की देह निर्विकारता की अद्भुत अवस्था में थी। ”

🇮🇳🔶 वर्षों पूर्व, परमहंस योगानन्दजी के गुरु, स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी ने उन्हें दिव्य प्रेम के अवतार के रूप में संदर्भित किया था। बाद में, उनके शिष्य और पहले आध्यात्मिक उत्तराधिकारी, राजर्षि जनकानंद ने उन्हें प्रेमावतार या “दिव्य प्रेम का अवतार” की उपाधि दी।

🇮🇳🔶 परमहंस योगानन्दजी की महासमाधि की पच्चीसवीं वर्षगाँठ के अवसर पर, मानवता के आध्यात्मिक उत्थान में उनके दूरगामी योगदान को भारत सरकार द्वारा औपचारिक मान्यता दी गई। उनके सम्मान में एक विशेष स्मारक डाक टिकट जारी किया गया था, साथ में एक श्रद्धांजलि जिसमें यह भी लिखा था:

🇮🇳🔶 “ईश्वर प्रेम तथा मानव-सेवा के आदर्श ने परमहंस योगानन्द के जीवन में सम्पूर्ण अभिव्यक्ति पाई….यद्यपि उनके जीवन का अधिकतर भाग भारत से बाहर व्यतीत हुआ, फिर भी उनका स्थान हमारे महान् सन्तों में है। उनका कार्य हर जगह परमात्मा प्राप्ति के मार्ग पर लोगों को आकर्षित करता हुआ, निरन्तर वृद्धि एवं अधिकाधिक दीप्तिमान हो रहा है।”

साभार: yssofindia.org

🇮🇳 विश्वप्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरू, योगी और संत #परमहंस_योगानन्द जी के महासमाधि दिवस की वर्षगाँठ के अवसर पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि !

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 



सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. 


Pandit Govind Ballabh Pant | पंडित गोविंद बल्‍लभ पंत | 10 September 1887 – 7 March 1961 | उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री

 



🇮🇳#पंडित_गोविंद_बल्लभ_पंत (10 सितंबर 1887 - 7 मार्च 1961) एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री थे।

🇮🇳#Pandit_Govind_Ballabh_Pant (10 September 1887 – 7 March 1961) was an Indian #freedom_fighter and the first Chief Minister of Uttar Pradesh.


🇮🇳#उत्तर प्रदेश के प्रथम #मुख्यमंत्री एवं #स्वतंत्रता_सेनानी थे। इनका मुख्यमंत्री कार्यकाल 15 अगस्त, 1947 से 27 मई, 1954 तक रहा। बाद में ये भारत के गृहमंत्री भी (1955 -1961) बने।


🇮🇳पं. गोविंद वल्लभ पंत जी का जन्म 10 सितंबर, 1887 को #उत्तराखंड राज्य के #अल्मोडा जिले के खूंटे (धामस) नामक गांव में पं. के घर हुआ था। इनकी माँ का नाम गोविन्दी बाई और पिता का नाम मनोरथ पन्त था। बचपन में ही पिता की मृत्यु हो जाने के कारण उनकी परवरिश उनके दादा बद्री दत्त जोशी ने की। 


🇮🇳1905 में उन्होंने अल्मोड़ा छोड़ दिया और इलाहाबाद चले गये।। रामसे कॉलेज से 10वीं तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद पंडित ने 12 साल की उम्र में बाल दत्त जोशी की बेटी गंगा से शादी कर ली थी। 


उन्होंने आगे की शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राप्त की जो पंडित जवाहरलाल नेहरू, पं. जवाहरलाल नेहरू जैसी 'भारत की महान हस्तियों' का अद्भुत संगम था। मोतीलाल नेहरू, सर तेज बहादुर सप्रू, श्री सतीश चंद्र बनर्जी और सुंदर लाल!'


🇮🇳अध्ययन के साथ-साथ वे #कांग्रेस के #स्वयंसेवक का कार्य भी करते थे। 1907 में बी. ए. और 1 909 में कानून की डिग्री सर्वोच्च अंकों के साथ हासिल की। इसके उपलक्ष्य में उन्हें कॉलेज की ओर से “#लैम्सडेन अवार्ड” दिया गया।


🇮🇳#पंडित_जवाहरलाल_नेहरू के सान्निध्य में पंडित गोविंद बल्लभ पंत इस तरह प्रभावित हुए कि एक बार काशीपुर में रहते हुए पंत जी धोती कुर्ता और #महात्मा_गांधी टोपी पहनकर कोर्ट में चले गये। ब्रिटिश मजिस्ट्रेट ने उनके ड्रेस-कोड पर आपत्ति जताई, जिसका जवाब पंत जी ने दिया। उस समय पंत जी 500 रूपये प्रति माह कमाते थे!


🇮🇳ब्रिटिश सरकार पंडित पंत से इतनी डरती थी कि स्वतंत्रता आंदोलन के कारण काशीपुर को काली सूची में डाल दिया गया था और पंत जी के कारण 'अंग्रेजी सरकार काशीपुर को 'गोविंद गढ़' के नाम से संबोधित करती थी!'


🇮🇳1914 से समाज सुधारक के रूप में उभरे पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने #भूमि_सुधार, #मुफ्त अनिवार्य #शिक्षा, #हिंदू हाई स्कूल की स्थापना के लिए काम किया। इसके साथ ही उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ महात्मा गांधी के #असहयोग_आंदोलन के तहत कुमाऊं में स्वदेशी का प्रचार-प्रसार करने का काम किया।


 🇮🇳विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के अलावा उन्होंने 'लगान बंदी' के खिलाफ आंदोलनों का नेतृत्व किया। 1928 में पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने पंडित 'जवाहरलाल नेहरू' के नेतृत्व में लखनऊ में साइमन कमीशन का बहिष्कार किया!


🇮🇳#लाहौर में #साइमन-कमीशन का विरोध करते समय अंग्रेजों के आदेश पर लाठीचार्ज के कारण लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई!


🇮🇳'1921, 1930, 1932 और 1934 - स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गोविंद बल्लभ पंत को लगभग सात साल की कैद हुई!'


🇮🇳7 मार्च, 1961 को पंडित गोविंद बल्लभ पंत की हृदय गति रुकने से मृत्यु हो गई।


🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 



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Sachchidanand Hiranand Vatsyayan "Agyeya" | सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" | 7 March, 1911- 4 April, 1987





🇮🇳 सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" (7 मार्च,1911-4 अप्रैल,1987) कवि, कथाकार, ललित-निबन्धकार, सम्पादक और सफल अध्यापक थे। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के #देवरिया जिले के #कुशीनगर में हुआ। बचपन लखनऊ, कश्मीर, बिहारऔर मद्रास में बीता।

🇮🇳 प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा पिता की देख रेख में घर पर ही संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी और बांग्ला भाषा व साहित्य के अध्ययन के साथ हुई। बी.एस.सी. करके अंग्रेजी में एम.ए. करते समय क्रांतिकारी आन्दोलन से जुड़ गये। 

🇮🇳 1930 से 1936 तक विभिन्न जेलों में कटे। आप पत्र, पत्रिकाओं से भी जुड़े रहे । 1964 में आँगन के पार द्वार पर उन्हें साहित्य अकादमी का और 1978 में कितनी नावों में कितनी बार पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला । 

🇮🇳 आप की प्रमुख कृतियां हैं; 

★ कविता संग्रह: भग्नदूत 1933, चिन्ता 1942, इत्यलम् 1946, हरी घास पर क्षण भर 1949, बावरा अहेरी 1954, इन्द्रधनुष रौंदे हुये ये 1957, अरी ओ करुणा प्रभामय 1959, आँगन के पार द्वार 1961, कितनी नावों में कितनी बार (1967), क्योंकि मैं उसे जानता हूँ (1970), सागर मुद्रा (1970), पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ (1974), महावृक्ष के नीचे (1977), नदी की बाँक पर छाया (1981), ऐसा कोई घर आपने देखा है (1986), प्रिज़न डेज़ एण्ड अदर पोयम्स (अंग्रेजी में,1946)। 



★ कहानियाँ: विपथगा 1937, परम्परा 1944, कोठरी की बात 1945, शरणार्थी 1948, जयदोल 1951; 

★ चुनी हुई रचनाओं के संग्रह: पूर्वा (1965), सुनहरे शैवाल (1965), अज्ञेय काव्य स्तबक (1995), सन्नाटे का छन्द, मरुथल; 

★ संपादित संग्रह: तार सप्तक, दूसरा सप्तक, तीसरा सप्तक, पुष्करिणी (1953) ।

🇮🇳 आपने उपन्यास, यात्रा वृतान्त, निबंध संग्रह, आलोचना, संस्मरण, डायरियां, विचार गद्य: और नाटक भी लिखे ।

साभार: hindi-kavita.com

🇮🇳 साहित्य अकादमी पुरस्कार और भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित; स्वतंत्रता सेनानी तथा हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि, कथाकार, ललित-निबन्धकार, सम्पादक और सफल अध्यापक  #साहित्यकार #सच्चिदानंद_हीरानंद_वात्स्यायन_अज्ञेय जी को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

 #Sahitya_Akademi_Award,  and #Bharatiya_gyanpith_Award,  #freedom_fighter and famous #Hindi_poet, #storyteller, #essayist, #editor, #teacher, #Literature #Sachchidanand_Hiranand_Vatsyayan_Agyeya 

सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. 



Lieutenant Keishing Clifford Nongrum | लेफ्टिनेंट कीशिंग क्लिफोर्ड नोंग्रुम | कारगिल युद्ध के नायक | Kargil War Hero | 7 मार्च, 1975-26 जुलाई, 1999

 


Lieutenant Keishing Clifford Nongrum | लेफ्टिनेंट कीशिंग क्लिफोर्ड नोंग्रुम | कारगिल युद्ध के नायक | Kargil War Hero

🇮🇳 इस गुमनाम नायक के असाधारण साहस के कार्य ने कारगिल युद्ध में भारतीय सेना को जीत दिलाई 🇮🇳

🇮🇳 महत्वपूर्ण पॉइंट 4812 पर कब्जा करने के लिए अपनी यूनिट को बहुमूल्य समय देते हुए, लेफ्टिनेंट नोंग्रुम ने फायर ज़ोन के माध्यम से हमला किया, अकेले ही बंकरों को नष्ट कर दिया और दुश्मन के छह सैनिकों को मार डाला। गंभीर रूप से घायल होने के बाद भी, उन्होंने अपनी अंतिम साँस तक लड़ने का फैसला किया और युद्ध के मैदान में उन्होंने दम तोड़ दिया।

🇮🇳 26 जुलाई, 1999 को , भारतीय सशस्त्र बलों ने पाकिस्तान के खिलाफ एक गंभीर और निर्णायक युद्ध जीता। क्रूर लड़ाई में, कई बहादुर युवा सैनिकों ने कारगिल के दुर्गम युद्ध के मैदान में अपने देश की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी।

🇮🇳 तब से चौबीस साल हो गए हैं, लेकिन कारगिल बहादुरों की अतुलनीय वीरता और बलिदान आज भी देश की सामूहिक स्मृति में अंकित है। हालांकि, लेफ्टिनेंट कीशिंग क्लिफर्ड नोंग्रम और उनके असाधारण साहस के कार्य के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं, जिनकी कारगिल युद्ध में भारतीय सेना को एक महत्वपूर्ण बढ़त दिलाने में महत्वपूर्ण भमिका थी।

🇮🇳 #मेघालय में #शिलांग के रहने वाले लेफ्टिनेंट कीशिंग क्लिफोर्ड नोंग्रुम का जन्म 7 मार्च, 1975 को हुआ था। उनके पिता #कीशिंग_पीटर भारतीय स्टेट बैंक में काम करते थे, जबकि उनकी माँ #बेली_नोंग्रुम एक गृहिणी थीं। एक बच्चे के रूप में, नोंग्रुम एक ईमानदार और आज्ञाकारी छात्र, एक उत्साही संगीत प्रेमी और स्कूल फुटबॉल टीम के कप्तान थे। उन्होंने खुद को फिट रखने के लिए नियमित रूप से फुटबॉल खेला ताकि वह सेना में शामिल हो सकें।

🇮🇳 राजनीति विज्ञान में स्नातक करने के बाद, सशस्त्र बलों के लिए उनके जुनून ने उन्हें 1996 में अधिकारी प्रशिक्षण अकादमी में 64वें एसएससी पाठ्यक्रम में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। प्रशिक्षण पूरा होने पर, नोंग्रुम को जेएके लाइट इन्फैंट्री की 12वीं बटालियन में नियुक्त किया गया। लेफ्टिनेंट कीशिंग क्लिफोर्ड नोंग्रुम सिर्फ 24 साल के थे जब कारगिल युद्ध शुरू हुआ था। युद्ध में, उनकी बटालियन (12 JAK लाइट इन्फैंट्री) बटालिक सेक्टर में तैनात थी।

🇮🇳 30 जून, 1999 की रात को लेफ्टिनेंट नोंग्रुम की यूनिट को प्वाइंट 4812 की सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गई थी, एक चोटी जिसकी रणनीतिक स्थिति ने इसे सेना के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता दी थी। इस ऑपरेशन में, लेफ्टिनेंट कीशिंग क्लिफोर्ड नोंग्रम को प्वाइंट 4812 की चट्टान पर हमले को अंजाम देने का काम सौंपा गया था। दक्षिण पूर्वी दिशा से खड़ी चोटी पर चढ़ना लगभग असंभव था, लेकिन लेफ्टिनेंट नोंग्रुम और उनकी दृढ़ पलटन ने चुनौती स्वीकार की। वे दुश्मन के बंकरों तक पहुँचने के लिए तेजी से और चुपके से खड़ी ढलानों पर चढ़ गए।

🇮🇳 चोटी पर, पाकिस्तानी घुसपैठियों ने बोल्डर से खुदी हुई आपस में जुड़े बंकरों में खुद को फँसा लिया था। इसने उन्हें तोपखाने की फायरिंग से भी मुक्त कर दिया था। नतीजतन, अपनी चढ़ाई पूरी करने पर, लेफ्टिनेंट नोंग्रुम और उनकी बटालियन को दुश्मन के भारी मोर्टार और स्वचालित मशीन गन की फायरिंग के रूप में मजबूत विरोध का सामना करना पड़ा।

🇮🇳 भारी और लगातार गोलीबारी से लगभग दो घंटे तक नीचे टिके रहने के बाद, लेफ्टिनेंट नोंग्रुम ने कुछ ऐसा करने का फैसला किया जो उनकी पलटन के लिए ज्वार को बदल देगा। अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा की बिल्कुल भी परवाह न करते हुए, उन्होंने फायर जोन से होते हुए दुश्मन के बंकरों पर फायरिंग और ग्रेनेड दागे। उनके ग्रेनेड ने बंकरों में छिपे दुश्मन के छह सैनिकों को मार डाला, लेकिन उन्हें फेंकते समय लेफ्टिनेंट नोंग्रुम को कई गोलियां लगीं।

🇮🇳 गंभीर रूप से घायल लेफ्टिनेंट नोंग्रुम ने बचे हुए बंकर में मशीन गन छीनने के प्रयास में पाकिस्तानी सैनिकों के साथ हाथ से हाथ मिलाना जारी रखा (वह एक मुक्केबाज़ भी थे)। एक सर्वोच्च बलिदान में, उन्होंने अपनी आखिरी साँस तक लड़ने का फैसला किया और बचाए जाने से इनकार कर दिया। वह तब तक बहादुरी से लड़ते रहे जब तक कि अंत में युद्ध के मैदान में उनकी चोटों के कारण दम नहीं तोड़ दिया।

🇮🇳 लेफ्टिनेंट नोंग्रुम के इस असाधारण बहादुरीपूर्ण कदम ने दुश्मन को स्तब्ध कर दिया, जिससे उसके सैनिकों को बहुमूल्य समय मिला, जो अंततः स्थिति को साफ करने के लिए बंद हो गए। लेफ्टिनेंट नोंग्रुम और उनकी टीम की बदौलत भारतीय सेना ने आखिरकार प्वाइंट 4812 पर कब्जा कर लिया था।

🇮🇳 दुश्मन के सामने अपनी नि:स्वार्थता, दृढ़ संकल्प और कच्चे साहस के लिए, लेफ्टिनेंट कीशिंग क्लिफर्ड नोंग्रम को मरणोपरांत 15 अगस्त, 1999 को देश के दूसरे सर्वोच्च युद्धकालीन वीरता पुरस्कार, महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था।



🇮🇳 2011 में, लेफ्टिनेंट नोंग्रुम के पिता, पीटर कीशिंग ने उस स्थान की व्यक्तिगत तीर्थयात्रा की, जहाँ उनके बेटे ने अंतिम साँस लेने से पहले अकेले दम पर छह दुश्मन सैनिकों को मार डाला था। वह वापस लौटे और अपने बेटे पर गर्व महसूस किया, जिसने अपने राष्ट्र की सेवा में सर्वोच्च बलिदान दिया था।

🇮🇳 2015 में, उनके माता-पिता की एक लंबी पोषित इच्छा भी पूरी हो गई जब शिलॉन्ग में राइनो संग्रहालय में JAK लाइट इन्फैंट्री रेजिमेंट के लेफ्टिनेंट जनरल आरएन नायर द्वारा युद्ध नायक की प्रतिमा का अनावरण किया गया। अनावरण समारोह स्थानीय सेना इकाई द्वारा आयोजित किया गया था और इसमें कई गणमान्य व्यक्तियों के साथ-साथ लेफ्टिनेंट नोंगरुम के गौरवशाली परिवार, दोस्तों, पड़ोसियों और शिक्षकों ने भाग लिया था।

🇮🇳 हम इस वीर योद्धा को याद करते हैं और नमन करते हैं, जिन्होंने अपने देश और अपने साथी देशवासियों की रक्षा के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। समय आ गया है कि हम इन गुमनाम नायकों और उनके परिवारों को वह पहचान और सम्मान दें जिसके वे हकदार हैं।

साभार: thebetterindia.com

🇮🇳 अपनी नि:स्वार्थता, दृढ़ संकल्प और साहस के लिए मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित; कारगिल युद्ध के नायक, भारतीय सेना के अधिकारी #लेफ्टिनेंट_कीशिंग_क्लिफोर्ड_नोंग्रुम जी को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

🇮🇳 जय हिन्द, जय हिन्द की सेना 🇮🇳

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 



सूचना:  यंहा दी गई  जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की  कोई गारंटी नहीं है। सूचना के  लिए विभिन्न माध्यमों से संकलित करके लेखक के निजी विचारो  के साथ यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह  की जिम्मेदारी स्वयं निर्णय लेने वाले पाठक की ही होगी।' हम या हमारे सहयोगी  किसी भी तरह से इसके लिए जिम्मेदार नहीं है | धन्यवाद। ... 

Notice: There is no guarantee of authenticity or reliability of the information/content/calculations given here. This information has been compiled from various mediums for information and has been sent to you along with the personal views of the author. Our aim is only to provide information, readers should take it as information only. Apart from this, the responsibility of any kind will be of the reader himself who takes the decision. We or our associates are not responsible for this in any way. Thank you. 


Ravindra Kelkar | Freedom Fighter | रवीन्द्र केलकर | कोंकणी साहित्यकार (March 7, 1925-August 27, 2010)

 



#Ravindra_Kelkar | #Freedom_Fighter |  #रवीन्द्र_केलकर | #कोंकणी_साहित्यकार  (March 7, 1925-August 27, 2010) 

🇮🇳 ‘कोंकणी साहित्य की ग्रंथसूची’ को कोंकणी, हिंदी और कन्नड़ में प्रस्तुत कर रवीन्द्र केलकर ने सिद्ध कर दिया था कि कोंकणी का महत्व स्वीकारा जाना चाहिए। 🇮🇳

🇮🇳 रवीन्द्र केलकर (जन्म- 7 मार्च, 1925; मृत्यु- 27 अगस्त, 2010) कोंकणी साहित्य के सबसे मजबूत स्तंभ थे। '#पद्म_भूषण से सम्मानित रवीन्द्र केलकर ने अंग्रेज़ी, हिंदी, कोंकणी, #मराठी और #गुजराती #भाषा में अनेक कृतियों की रचना की। इस महान हस्ती को वर्ष 2006 का 'ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया था। रवीन्द्र केलकर की प्रमुख रचनाओं में 'आमची भास कोंकणीच', 'बहुभाषिक भारतान्त भाषान्चे समाजशास्त्र' शामिल हैं। रवीन्द्र केलकर को 1977 में उनकी पुस्तक 'हिमालयवंत के लिए 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' भी मिला।

🇮🇳 रवींद्र केलकर का जन्म #दक्षिण_गोवा के #कोकुलिम में #डॉ_राजाराम_केलकर के यहाँ 7 मार्च, सन 1925 को हुआ। #पणजी में आरंभिक शिक्षा के दौरान ही रवींद्र केलकर 1946 में #गोवा_मुक्ति_संग्राम से जुड़ गए। इस दौरान वे कई स्थानीय और राष्ट्रीय नेताओं के संपर्क में थे। 

🇮🇳 शिक्षाविद, लेखक और स्वतंत्रता सेनानी #लक्ष्मण_राव_सरदेसाई ने उनके भीतर देशभक्ति को जगाया। उन्हीं दिनों स्वाधीनता सेनानियों ने एक सरकारी स्कूल को जला डाला था और इसमें रवीन्द्र केलकर की गिरफ्तारी हो सकती थी, इसलिए वो भागकर मुंबई आ गए। यहाँ वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं और #गॉंधीजी के संपर्क में आए।

🇮🇳 #राम_मनोहर_लोहिया का प्रभाव--

राम मनोहर लोहिया से मिलने के बाद रवीन्द्र केलकर ने जाना कि जनता को जगाने के लिए अपनी #मातृभाषा को माध्यम बनाकर कैसे लड़ा जा सकता है। बाद में वे #मुंबई से #वर्धा चले आए। छह साल तक वर्धा में रहते हुए एक पत्रिका का संपादन किया। 1949 में दिल्ली के गॉंधी स्मारक संग्रहालय में लाइब्रेरियन के रूप में काम करने लगे। देश आजाद हो चुका था, लेकिन गोवा पर अभी भी पुर्तगाली आधिपत्य था। रवींद्र केलकर ने एक साल में ही दिल्ली की नौकरी छोड़ दी और चले पड़े गोवा को आज़ाद कराने।

🇮🇳 गोवा की आज़ादी--

गोवा पहुँचकर उन्होंने गॉंधीवादी अहिंसक रास्ते से गोवा की मुक्ति के लिए संघर्ष आरंभ किया। उन्होंने जन जागरण के लिए हिंदी, मराठी और कोंकणी में लेख लिखे। मुंबई से उन्होंने ‘गोमांतभारती’ साप्ताहिक पत्रिका निकाली, जो रोमन लिपि में कोंकणी में प्रकाशित होती थी। 1961 में भारतीय सेना ने गोवा को आजाद करा लिया। इसके बाद उन्होंने कोंकणी भाषा और गोवा को महाराष्ट्र से अलग राज्य का दर्जा दिलाने के लिए संघर्ष शुरू कर दिया। उनके आंदोलन का ही परिणाम था कि भारत सरकार ने गोवा को महाराष्ट्र में शामिल करने के बजाय केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा दिया।

🇮🇳 पूर्ण राज्य के लिए आंदोलन--

कोंकणी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने और गोवा को पूर्ण राज्य बनाने के लिए रवीन्द्र केलकर का संघर्ष और योगदान अप्रतिम है। 1962 में प्रकाशित उनकी ‘आमची भास कोंकणिच’ पुस्तक से उन्होंने लोगों से कोंकणी भाषा की अस्मिता के लिए आह्वान किया। ‘कोंकणी साहित्य की ग्रंथसूची’ को कोंकणी, हिंदी और कन्नड़ में प्रस्तुत कर उन्होंने सिद्ध कर दिया कि कोंकणी का महत्व स्वीकारा जाना चाहिए। उन्हीं के संघर्षों के फलस्वरूप 1975 में साहित्य अकादेमी ने कोंकणी को स्वतंत्र भाषा के रूप में मान्यता दी। 1987 में जब गोवा को पृथक राज्य घोषित किया गया तो राज्य विधानसभा ने कोंकणी को राज्य की आधिकारिक भाषा स्वीकार किया। यही नहीं, उन्हीं के प्रयासों के फलस्वरूप 1992 में कोंकणी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया।

🇮🇳 सम्मान और पुरस्कार--

◆ रवींद्र केलकर संघर्षशील और जुझारू कलम के योद्धा थे। कोंकणी में उन्होंने महाभारत के दो खंडों का अनुवाद भी किया। उनके यात्रा संस्मरणों की पुस्तक ‘हिमालयांत’ को 1976 में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया।

◆ गुजराती निबंधकार झवेरचंद मेघानी की पुस्तक का कोंकणी में अनुवाद करने के लिए उन्हें 1990 में दोबारा साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया।

◆ उन्हें 2006 का ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिला, ऐसा पहली बार हुआ था जब कोंकणी भाषा में लिखने वाले लेखक को यह सम्मान प्राप्त हुआ था। अस्वस्थता के कारण उन्हें यह सम्मान 2010 में दिया जा सका।

◆ साल 2007 में उन्हें जीवनपर्यंत साहित्य सेवा के लिए साहित्य अकादमी का फैलो चुना गया।

◆ रवीन्द्र केलकर को 2008 में पद्म भूषण से नवाजा गया।

🇮🇳 रवीन्द्र केलकर की मृत्यु 27 अगस्त, 2010 को हुई।

साभार: bharatdiscovery.org

🇮🇳 साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार और #पद्मभूषण से सम्मानित; लेखनी के माध्यम से #गोवा_मुक्ति_संग्राम से जुडे #स्वतंत्रतासेनानी एवं कोंकणी, हिन्दी, मराठी व गुजराती साहित्य के क्षेत्र में कार्य करने वाले सुप्रसिद्ध #कोंकणी #साहित्यकार #रवीन्द्र_केलकर जी को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 



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International Women's Day March 8 | अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस | 8 मार्च



#International_Womens_Day | #अंतर्राष्ट्रीय #महिला_दिवस

8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विश्व स्तर पर मनाया जाता है। लेकिन महिलाओं को सशक्त बनाने वाले इस दिन को मनाने की शुरुआत सबसे पहले साल 1909 में हुई थी। दरअसल, साल 1908 में अमेरिका में एक मजदूर आंदोलन हुआ, जिसमें करीब 15 हजार महिलाएं भी शामिल हुई | 

International Women's Day is celebrated globally on #8March. But celebrating this day that empowers women was first started in the year 1909. In fact, in the year 1908, there was a #labor_movement in America, in which about 15 thousand women also participated.


यूरोप में महिलाओं ने 8 मार्च को पीस एक्टिविस्ट्स को सपोर्ट करने के लिए रैलियां निकाली थीं। इस वजह से 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की शुरुआत हुई। बाद में 1975 में संयुक्त राष्ट्र ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस को मान्यता दे दी।


Women in Europe took out rallies on March 8 to support peace activists. For this reason, celebration of International Women's Day started on March 8. Later in 1975, the United Nations recognized International Women's Day.


महिलाओं के अधिकारों और मताधिकार की वकालत करने के लिए, क्लारा ज़ेटकिन (जर्मनी में सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए 'महिला कार्यालय' की नेता)  ने 1910 में कोपेनहेगन में कामकाजी महिलाओं के लिए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान वार्षिक महिला दिवस की स्थापना का प्रस्ताव रखा।


To advocate for women's rights and suffrage, #Clara_Zetkin (leader of the 'Women's Office' for the Social Democratic Party in #Germany) proposed the establishment of an annual Women's Day during the International #Conference for #Working_Women in Copenhagen in 1910.


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06 मार्च 2024

Opposition is the Enemy of Sanatan | सनातन धर्म का शत्रु है विपक्ष | लेखक : सुभाष चन्द्र

 



अहसान फरामोश फर्जी गांधी, देश से बस मांगता फिरता है - सारा विपक्ष सनातन का शत्रु  बना हुआ है - उदयनिधि स्टालिन को सीधी सजा का ऐलान करे सुप्रीम कोर्ट |

समूचा विपक्ष सनातन धर्म और भगवान राम का शत्रु बना हुआ है - जिस किसी के मुंह में जो आ रहा है बक रहा है - आज ममता की #TMC के एक विधायक रामेंदु सिन्हा राय ने कह दिया कि श्रीराम मंदिर “अपवित्र” और कहा कि किसी हिन्दू को उस मंदिर में पूजा नहीं करनी चाहिए - #DMK का #A_Raja खुलकर बोला है कि हम राम के शत्रु हैं और पहले उसी ने उदयनिधि स्टालिन के सुर में सुर मिलाते हुए सनातन धर्म की तुलना #HIV और #Leprosy से की थी जबकि उदयनिधि स्टालिन ने #सनातन_धर्म को डेंगू मलेरिया और कोरोना कहते हुए कहा था कि इसका  विरोध नहीं होना चाहिए बल्कि इसे ख़त्म कर देना चाहिए  - 


इसके अलावा भी स्वामी प्रसाद मौर्य और #लालू की पार्टी और अन्य दलों के नेताओं ने सनातन धर्म, रामचरितमानस और भगवान राम के लिए अपमानजनक शब्द बोलने में कोई कसर नहीं छोड़ी - राहुल “कालनेमि” या उसके “फर्जी गांधी” परिवार के किसी सदस्य ने किसी बात का विरोध नहीं किया बल्कि राहुल ने तो कुछ दिन पहले यहां तक कहा कि “भारत माता की जय” और “जय श्रीराम” का नारा लगाने वाले एक दिन भूखे मर जाएंगे -


अभी एक नया वीडियो सामने आया है जिसमें राहुल कालनेमि लोगों से पूछ रहा है कि “ये जो सोने की चिड़िया है, जिसे भारत माता कहते हैं और दुनिया भी इसे सोने की चिड़िया कहती है उसमे से मुझे कितना सोना मिला”


यह अहसान फरामोश देश से केवल मांगना जानता है लेकिन कभी यह नहीं बताता कि इसने देश के लिए क्या किया - कितना सोना मिला यह जानने के लिए राहुल “कालनेमि” को पता होना चाहिए कि एक नाकाबिल निकम्मे आशिक व्यक्ति की वजह से देश के टुकड़े हुए और वह प्रधानमंत्री बन गया और उसी वजह से आज यह आवारा सा फर्जी गांधी मौज कर रहा है - 


राहुल “कालनेमि” बताएं कि पिछले चुनाव में उसने जो 15 करोड़ की संपत्ति घोषित की थी वह कहां से आई और जो सोनिया गांधी ने इस राज्यसभा के चुनाव में 12.80 करोड़ की संपत्ति घोषित की है वह कहां से आई - जीजा जी और बहन के पास करोड़ो की जमीन कहां से आई - समस्या यह है कि ये “फर्जी गांधी” खानदान देश को लूटना ही जानता है -


कल सुप्रीम कोर्ट में #उदयनिधि  #स्टालिन की तरफ से अभिषेक मनु सिंघवी ने अपील करते हुए कहा कि स्टालिन के खिलाफ 6 राज्यों में दायर सभी मुकदमों को एक जगह कर दिया जाए और इसके लिए उसने अर्नब गोस्वामी और नूपुर शर्मा के cases का हवाला दिया जबकि सच्चाई यह है कि दोनों के खिलाफ अलग अलग राज्यों में cases कांग्रेस ने ही दर्ज कराए थे और अर्नब के cases club करने का विरोध खुद अभिषेक #मनु_सिंघवी ने किया था -


कल सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजीव खन्ना और #जस्टिस दीपांकर दत्ता की बेंच ने #उदयनिधि_स्टालिन को बड़े संयमित अंदाज में कहा कि आप मंत्री हैं आपको पता होना चाहिए कि जो आपने कहा उसके परिणाम क्या हो सकते थे, बयान देते हुए सावधानी बरतनी चाहिए थी -


दूसरी तरफ यह शालीनता #नूपुर_शर्मा के लिए नहीं दिखाई गई, उसके लिए तो जस्टिस पारदीवाला और जस्टिस सूर्यकांत ने अदालत के इतिहास की सबसे भयंकर “#hate_speech” देते हुए उसे देश को आग लगाने के लिए जिम्मेदार कह दिया था -


अब सवाल उठता है कि 22 सितंबर, 2023 को जो नोटिस बहुत हीलाहवाली के बाद सुप्रीम कोर्ट ने उदयनिधि स्टालिन को दिया था, उसका जवाब देने की बजाय उसने cases को club करने की अपील की जिसका मतलब है वह अपने बयान को गलत नहीं बता रहा - इसलिए ऐसे में उस पर कहीं कोई case चलाने की बजाय सुप्रीम कोर्ट को सीधे सजा का ऐलान कर देना चाहिए - #सुप्रीम_कोर्ट ऐसा करने में सक्षम है अगर इच्छा शक्ति हो -

"लेखक के निजी विचार हैं "

 लेखक : सुभाष चन्द्र  | मैं हूं मोदी का परिवार | “मैं वंशज श्री राम का” 05/03/2024 

#Political, #sabotage,   #Congress,  #Kejriwal  #judiciary  #delhi #sharadpanwar, #laluyadav, #spa #uddavthakre, #aap  #FarmerProtest2024  #KisanAndolan2024  #SupremeCourtofIndia #Congress_Party  #political_party #India #movement #indi #gathbandhan #Farmers_Protest  #kishan #Prime Minister  #Rahulgandhi  #PM_MODI #Narendra _Modi #BJP #NDA #Samantha_Pawar #George_Soros #Modi_Govt_vs_Supreme_Court #Arvind_Kejriwal, #DMK  #A_Raja #Defamation_Case #top_stories#supreme_court #arvind_kejriwal #apologises #sharing #fake_video #against #bjp 


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Dark Oxygen | Deep Sea Ecosystems | Polymetallic Nodules

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