27 फ़रवरी 2024

Ganesh Vasudev Mavalankar ji | Freedom Fighter | First Speaker of the Lok Sabha | स्वतंत्रता सेनानी | लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष | गणेश वासुदेव मावलंकर जी

 


🇮🇳 गुजराती भाषा में लिखी गई उनकी पुस्तक "मनावतना झरना" में उन कैदियों की कुछ सच्ची कहानियां हैं जिनसे वे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान 1942 से 1944 की अवधि के दौरान अपनी जेल यातना के दौरान उनसे मिले थे और उनका मार्ग निर्देशन किया था। 🇮🇳

🇮🇳 यदि कोई यह पूछे कि लोक सभा के किस अध्यक्ष ने हमारी संसदीय संस्थाओं को सर्वाधिक प्रभावित किया तो निश्चित रूप से इस प्रश्न का उत्तर होगा - श्री गणेश वासुदेव मावलंकर, जिन्हें प्यार से #दादा_साहब #मावलंकर के नाम से याद किया जाता है तथा जिन्हें स्वयं पंडित जवाहर लाल नेहरू ने "लोक सभा के जनक" की उपाधि से सम्मानित किया था।

🇮🇳 नवोदित राष्ट्र की पहली लोक सभा के प्रथम अध्यक्ष के रूप में मावलंकर जी की भूमिका लोक सभा की कार्यवाही दक्षतापूर्वक संचालन करने तक ही सीमित नहीं थी अपितु एक ऐसे राजनेता और जनक की थी जिसे देश के लोकाचार के अनुरूप नियम, प्रक्रियाएं, रूढ़ियां और परपरायें निर्धारित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। 

🇮🇳 उन्होंने अपनी इस जिम्मेदारी को धैर्य, पूरी लगन तथा बुद्धिमत्तापूर्वक और इन सबसे बढ़कर उल्लेखनीय इतिहास बोध के साथ अंजाम दिया। वे स्वयं भी सदन की मान-मर्यादाओं का पालन करते थे तथा दूसरों से भी इनका अनुपालन सुनिश्चित करवाते थे। निस्संदेह वे एक आदर्श अध्यक्ष थे- दृढ़ किन्तु लचीले, सख्त किन्तु सहृदय और दयालु तथा वे सदैव सदन के समस्त वर्गों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करते थे।

🇮🇳 गणेश वासुदेव मावलंकर का जन्म 27 नवम्बर, 1888 को वर्तमान #गुजरात राज्य के #बड़ौदा नगर में हुआ था। उनका परिवार तत्कालीन #बम्बई राज्य के #रत्नागिरी जिले में #मावलंग नामक स्थान का मूल निवासी था। मावलंकर तत्कालीन बम्बई राज्य में विभिन्न स्थानों पर अपनी आरम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए 1902 में #अहमदाबाद आ गये। उन्होंने 1908 में गुजरात कालेज, अहमदाबाद से विज्ञान विषय में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। कानून की शिक्षा आरंभ करने से पहले वे 1909 में एक वर्ष इस कालेज के "दक्षिण फेलो " रहे। 1912 में उन्होंने कानून की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की।

🇮🇳 मावलंकर ने 1913 में वकालत शुरू की और वे बहुत ही कम समय में एक अग्रणी तथा प्रतिष्ठित वकील बन गए। यद्यपि, उनकी वकालत खूब चलती थी, तथापि, उन्होंने इसके साथ-साथ सामाजिक कार्यों में भी गहन रूचि ली जिसके कारण वे #सरदार_वल्लभभाई_पटेल और #महात्मा_गॉंधी जैसे प्रतिष्ठित राष्ट्रीय नेताओं के संपर्क में आये। मावलंकर बीस-बाईस वर्ष की उम्र से ही एक पदाधिकारी के रूप में या एक सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में गुजरात के अनेक प्रमुख सामाजिक संगठनों के साथ जुड़ गए। वे 1913 में गुजरात शिक्षा सोसाइटी के मानद सचिव रहे और 1916 में गुजरात सभा के भी सचिव रहे।

🇮🇳 #मावलंकर बहुत छोटी उम्र से ही भारतीय #राष्ट्रीय #कांग्रेस, जो #महात्मा_गॉंधी के नेतृत्व में देश की स्वतंत्रता के लिए आन्दोलन चला रही थी, के साथ सक्रिय रूप से जुड़ गये। उन्होंने इस शताब्दी के तीसरे और चौथे दशक में गुजरात में स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। वे #स्वतंत्रता_आन्दोलन के दौरान अनेक बाद जेल गये और लगभग छह वर्ष जेल में रहे। 

🇮🇳 जब भी कभी प्राकृतिक आपदा आती थी या अकाल पड़ता था अथवा कोई अन्य सामाजिक अथवा राजनीतिक संकट उत्पन्न होता था तो मावलंकर अपनी फलती-फूलती वकालत को पूरी तरह छोड़कर लोगों की सहायता के लिए आगे आ जाते थे। उनके नेतृत्व संबंधी गुणों और उनके योगदान को पहचानते हुये उन्हें 1921-22 के दौरान #गुजरात प्रादेशिक कांग्रेस समिति का सचिव नियुक्त किया गया। वे दिसम्बर, 1921 में अहमदाबाद में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 36वें अधिवेशन की स्वागत समिति के महासचिव भी थे। उन्होंने "खेरा-नो-रेंट " आन्दोलन में अति सक्रिय भूमिका निभायी और बाद में अनेक अवसरों पर अकाल और बाढ़ राहत कार्यों में भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया।

🇮🇳 मावलंकर शक्तियों के विकेन्द्रीकरण और #पंचायती संस्था में पूर्ण विश्वास रखते थे तथा उन्होंने अहमदाबाद नगर निगम के लिए लगभग दो दशक तक निष्ठापूर्वक कार्य किया। वे 1919 से लेकर 1937 तक #अहमदाबाद नगर निगम के सदस्य रहे। वे 1930-33 और 1935-36 के दौरान दो बार इसके अध्यक्ष रहे। उनके कार्यकाल के दौरान अहमदाबाद ने अभूतपूर्व प्रगति की। नगर निगमों तथा स्थानीय निकायों के क्रियाकलापों में उनकी रूचि जीवनपर्यन्त बनी रही।

🇮🇳 मावलंकर राष्ट्रीय राइफल संघ और इंस्टीटय़ूट फॉर एफ्रो-एशियन रिलेशन्स के संस्थापक चेयरमैन थे। उन्होंने गुजरात में शैक्षिक और साहित्यिक गतिविधियों में काफी रूचि ली। उन्होंने कुछ समय तक गुजरात विद्यापीठ में विधि के प्रोफेसर के रूप में भी कार्य किया। वे अहमदाबाद एजुकेशन सोसाइटी तथा गुजरात वर्नाक्यूलर सोसाइटी के संस्थापक-सदस्य और बाद में उनके अध्यक्ष भी रहे। जिन अन्य समितियों में विभिन्न पदों पर कार्य करते हुए उनसे जुड़े रहे वे हैं-गुजरात लॉ सोसाइटी और चारोतर एजुकेशन सोसाइटी। वे गुजरात विश्वविद्यालय संघ के कार्यकारी अध्यक्ष और गुजरात विश्वविद्यालय संबंधी समिति के अध्यक्ष भी रहे और इन पदों पर रहकर उन्होंने गुजरात विश्वविद्यालय के लिए वित्त और अन्य आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध करवाने के लिए काफी मेहनत की।

🇮🇳 मावलंकर की कई साहित्यिक उपलब्धियां भी थीं। गुजराती भाषा में लिखी गई उनकी पुस्तक "मनावतना झरना" में उन कैदियों की कुछ सच्ची कहानियां हैं जिनसे वे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान 1942 से 1944 की अवधि के दौरान अपनी जेल यातना के दौरान उनसे मिले थे और उनका मार्गनिर्देशन किया था। यह पुस्तक बहुत लोकप्रिय हुई। बाद में इसका कुछ अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी किया गया। गुजराती भाषा में लिखी एक अन्य पुस्तक "संस्मरणों" में उन्होंने गॉंधी जी के साथ अपने संस्मरणों को वर्णित किया है। अंग्रेजी में लिखी गई उनकी पुस्तक "माई लाइफ एट दि बार" में उनके 25 वर्षों के कानून से जुड़े सक्रिय जीवन के संस्मरण हैं।

🇮🇳 मावलंकर का विधायी जीवन 1937 में आरम्भ हुआ जब वह अहमदाबाद नगर का प्रतिनिधित्व करते हुए तकालीन बंबई विधान सभा के लिए चुने गए। एक सुविख्यात वकील के रूप में मावलंकर की प्रतिष्ठा और विभिन्न पदों पर रहकर उनके द्वारा की गई गुजरात की जनता की 25 वर्षों तक सेवा से अर्जित सुदीर्घ अनुभव को देखते हुए बम्बई लेजिसलेटिव एसेम्बली द्वारा उन्हें सहज ही अध्यक्ष के रूप में स्वीकार कर लिया। इस प्रकार उन्हें अपना विधायी जीवन अध्यक्ष के पद से ही प्रारंभ करने का विशिष्ट सौभाग्य प्राप्त हुआ। वर्षों बाद, राष्ट्रीय स्तर पर भी उन्हें यही विशिष्ट सौभाग्य तब प्रापत हुआ, जब उन्हें 1946 में सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली का अध्यक्ष चुना गया। मावलंकर वर्ष 1937 से 1946 तक बंबई लेजिस्लेटिव एसेम्बली के अध्यक्ष रहे।

🇮🇳 बम्बई लेजिस्लेटिव एसेम्बली के अध्यक्ष के रूप में उनकी सफलता को देखते हुए कांग्रेस पार्टी ने जनवरी 1946 में उन्हें छठी केन्द्रीय विधान सभा के प्रेजिडेंटशिप के लिए सहज प्रत्याशी बनाया। विपक्षी कांग्रेस पार्टी द्वारा उनका नामनिर्देशन किया जाना ही एसेम्बली में उनका निर्वाचन सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त नहीं था क्योंकि एसेम्बली के अधिकांश सदस्य सरकार के पक्षधर थे और इस पद के लिए उनका भी अपना एक प्रत्याशी था। तथापि काँटे की चुनौती वाले उस चुनाव में मावलंकर विजयी हुए। उनकी इस विजय से यही सिद्ध होता है कि वे एसेम्बली के सभी दलों के सदस्यों में बहुत लोकप्रिय थे।

🇮🇳 मावलंकर 14-15 अगस्त, 1947 को मध्यरात्रि तक, जब भारतीय स्वाधीनता अधिनियम, 1947 के अंतर्गत सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली और "काउंसिल आफ स्टेट" का अस्तित्व समाप्त हो गया और भारत की संविधान सभा ने देश का शासन चलाने के लिए सभी शक्तियां प्राप्त कर लीं, सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली के अध्यक्ष रहे। भारत के स्वतंत्र होने पर, मावलंकर ने 20 अगस्त, 1947 को गठित एक समिति की अध्यक्षता की जिसका कार्य संविधान सभा की संविधान-निर्माणकारी भूमिका को उसकी विधायी भूमिका से अलग करने की आवश्यकता का अध्ययन करना और उसके संबंध में रिपोर्ट देना था। बाद में, इसी समिति की सिफारिश पर संविधान सभा की विधायी और संविधान निर्माणकारी भूमिकाओं को अलग-अलग कर दिया गया और यह निर्णय किया गया कि जब यह सभा देश के विधायी निकाय के रूप में कार्य करे तो इसकी अध्यक्षता के लिए एक अध्यक्ष होना चाहिए और पुनः संविधान सभा (विधायी) के सत्र की अध्यक्षता के लिए मावलंकर को चुना गया तथा तदनुसार उन्हें 17 नवम्बर, 1947 को अध्यक्ष चुन लिया गया।

🇮🇳 26 नवंबर, 1949 को स्वतंत्र भारत का संविधान स्वीकार किये जाने तथा उसके परिणामस्वरूप संविधान सभा (विधायी) का नाम बदलकर अंतरिम संसद रखे जाने पर मावलंकर की हैसियत में भी तदनुसार परिवर्तन हुआ। इस प्रकार, मावलंकर 26 नवम्बर, 1949 को अंतरिम संसद के अध्यक्ष बने।

🇮🇳 मावलंकर अंतरिम संसद की पूरी अवधि तक अर्थात् 1952 में प्रथम लोक सभा के गठन होने तक उसके अध्यक्ष बने रहे। वास्तव में, यह भारतीय विधान मण्डल के इतिहास में बहुत ही महत्वपूर्ण दौर था क्योंकि इसी अवधि के दौरान एक औपनिवेशिक संस्था के स्वतंत्र भारत के संविधान के अंतर्गत एक सप्रभुता सम्पन्न संसद के रूप में परिणत होने की प्रक्रिया पर नजर रखा जाना था। इसके अलावा, इस काल में एक पूर्ण जिम्मेदार सरकार के नये युग का भी सूत्रपात हुआ।

🇮🇳 नई स्थिति के अनुरूप संसद की कार्य प्रणाली में कई प्रक्रियात्मक नवीनताएं और परिवर्तन करना जरूरी था। इन परिवर्तनों को लाने और सुगम बनाने का काम मुख्यतया अध्यक्ष मावलंकर का ही था। संसद और देश की उनसे जो अपेक्षाएं थीं उन पर वे खरे उतरे। 1951-52 में देश में प्रथम लोक सभा की चुनाव प्रक्रिया पूरी होने तक, मावलंकर देश में एक प्रतिनिधिक संसद को सुचारू रूप से चलाने के लिए आवश्यक नियमों, व्यवहारों, प्रक्रियाओं और प्रथाओं के साथ तैयार थे। इसीतिए 15 मई, 1952 को जब प्रधान मंत्री #जवाहर_लाल_नेहरू ने स्वतंत्र भारत की प्रथम लोक सभा के अध्यक्ष पद के लिए मावलंकर का नाम प्रस्तावित किया तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। सदन ने प्रस्ताव को 55 के मुकाबले 394 मतों से स्वीकार किया।

🇮🇳 अगले चार वर्षों में जब मावलंकर ने लोक सभा की अध्यक्षता की तो देश ने संस्था निर्माता के रूप में उनकी विलक्षण योग्यताओं को देखा। चूंकि उन्होंने पूर्वोदाहरणों को नई आवश्यकताओं के अनुरूप जोड़ा तथा परिवर्तन करते हुए निरन्तरता बनाये रखी, इसलिए अध्यक्ष के रूप में उनका कार्यकाल भारत में संसदीय प्रक्रियाओं के विकास के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ। 

🇮🇳 उन्होंने न केवल कई नये नियमों और प्रक्रियाओं को शुरू किया वरन् वर्तमान नियमों को नई परिस्थतियों के अनुरूप परिवर्तित भी किया। उनकी पहल पर "प्रश्न काल" आधुनिक संदर्भ में सत्रों का एक नियमित एवं सार्थक भाग बन गया। सरकार से जानकारी हासिल करने के लिए संसदीय प्रक्रिया में "अल्प सूचना प्रश्न" और आधे घंटे की चर्चा" जैसे उपायों को समाविष्ट किया गया ताकि इनके माध्यम से वस्तुतः सरकार को संसद के प्रति जवाबदेह बनाया जा सके। नई राजनीतिक स्थितियों के अनुरूप ढल सकें। अनेक नई समितियों का गठन भी किया गया।

🇮🇳 नियम समिति, विशेषाधिकार समिति, कार्यमंत्रणा समिति, गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों तथा संकल्पों संबंधी समिति, अधीनस्थ विधान संबंधी समिति, सरकारी आश्वासनों संबंधी समिति, सभा की बैठकों से सदस्यों की अनुपस्थिति संबंधी समिति, संसद सदस्यों के वेतन तथा भत्तों संबंधी संयुक्त समिति, सामान्य प्रयोजन समिति आदि जैसी समितियों का भारतीय संसद में गठन माननीय अध्यक्ष मावलंकर की पहल पर ही किया गया। मौजूदा समितियों के संचालन में सुधार लाने तथा उन्हें समयानुकूल संगत बनाने के लिए उन्होंने विभिन्न उपाय किए।

🇮🇳 मावलंकर द्वारा दिये गए विभिन्न विनिर्णयों का न केवल सभा के संचालन में बल्कि देश में अन्य लोकतांत्रिक संस्थाओं के भी संचालन में अपना दूरगामी महत्व है। वास्तव में, उनके विनिर्णय लोक सभा में प्रक्रिया और कार्य संचालन संबंधी नियमों में अनेक प्रविष्टियों अनुक प्रतिविष्टयों के आधार हैं। अपने कार्यकाल के दौरान अपने समक्ष आए पर विनिर्णय देने हेतु अपने विवेक का बुद्धिमत्तापूर्ण प्रयोग करके उन्होंने कई महत्वपूर्ण प्रक्रियात्मक मुद्दों का समाधान किया तथा कई सिद्धांत निर्धारित किए। उक्त मुद्दों में प्रस्ताव में सम्पूर्ण संसदीय गतिविधियां तथा एक तरह से राष्ट्र के पूरे जीवन का समावेश हो जाता है।

🇮🇳 देश में विभिन्न संसदीय कार्यों के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करने के बावजूद माननीय अध्यक्ष मावलंकर ने भारत की संसद तथा अन्य देशों की संसदों और अन्तरराष्ट्रीय संसदीय संघों के बीच सक्रिय अन्तर-संसदीय सम्पर्क बनाए रखने के महत्व की अनदेखी नहीं की। दूसरे देशों की संसदों से भारतीय संसद के संबंधों को मधुर बनाने एवं सुदृढ़ करने के उद्देश्य से मावलंकर ने संसदों के बीच शिष्टमंडलों की परस्पर बातचीत को प्रोत्साहित किया तथा इस प्रकिया को सुगम बनाया । स्वयं उन्होंने कई शिष्टमंडलों का नेतृत्व किया और कई शिष्टमंडलों की भारत में अगवानी की। 

🇮🇳 उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान विश्व के विभिन्न भागों में हुए अन्तर-संसदीय संघ और राष्ट्रमंडल संसदीय संघ के अनेक सम्मेलनों में भाग लिया। उन्होंने 26 अक्टूबर 1950 को लन्दन में नए "हाउस आफ कॉमन्स" के उद्घाटन समारोह में भारत का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने 1953 में महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के राज्यभिषेक समारोह में भाग लिया और उस समय लन्दन में आयोजित राष्ट्र मंडल संसदीय संघ की केन्द्रीय परिषद की बैठक में भी भाग लिया।

🇮🇳 मावलंकर ने भारत में विधान सभाओं के पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलनों के आयोजन की प्रथा को भी अत्यधिक प्रोत्साहन दिया और समर्थन प्रदान किया। 1946 में केन्द्रीय विधान सभा के प्रेजिडेंट बनने की अवधि से लेकर 1956 में निधन की अवधि तक वे इस महत्वपूर्ण सम्मेलन के अध्यक्ष रहे। इन सम्मेलनों ने देश की विधान सभाओं के सभा पीठासीन अधिकारियों को आपस में एक-दूसरे के अनुभवों और दृष्टिकोण को जानने तथा पूरे देश में कतिपय समान प्रथा और प्रक्रिया स्थापित करने तथा संसदीय लोकतंत्र की स्वस्थ और बहुमूल्य परम्परायें स्थापित करने के अवसर प्रदान किये।

🇮🇳 प्रथम लोक सभा के अध्यक्ष के रूप में एक अन्य पहलू जिस पर मावलंकर का विशेष ध्यान गया वह था लोक सभा सचिवालय। मावलंकर का यह स्पष्ट विचार था कि हमारी शासन प्रणाली में संसद की सर्वोच्चता और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए यह महत्वपूर्ण है कि पीठासीन अधिकारियों के सीधे नियंत्रण में संसद का एक स्वतंत्र सचिवालय हो। उनका दृढ़ मत था कि विधानमंडल के अध्यक्ष और प्रतिनिधि के रूप में अध्यक्ष को ऐसे व्यक्तियों की सहायता और परामर्श मिलना चाहिए जो कार्यपालिका का दबाव महसूस किए बिना निष्पक्ष रूप से परामर्श दे सके। उनके अनुसार संसद के सचिवालय में सेवारत अधिकारियों का मार्गदर्शन केवल स्वतंत्रता, विश्वास, यथार्थता और तत्परता के सिद्धांतों से ही होना चाहिए।

🇮🇳 मावलंकर संसद सदस्यों को एक उपयुक्त कार्य परिवेश प्रदान करने के इच्छुक थे और इसीलिए कार्य करने के लिए अधिकतम संभव सुविधएं उपलब्ध कराने की मांग की गई, जिससे कि सदस्य प्रभावी सांसद बन सकें। उनका विश्वास था कि तथ्यपरक और तत्काल सूचना सांसद के लिए आवश्यक आदान है। इसी भावना से प्रेरित होकर उन्होंने लोक सभा सचिवालय के अंग के रूप में संसद में एक भरी-पूरी अनुसंधान और संदर्भ सेवा स्थापित की। उन्होंने सदस्यों के लिए पुस्तकालय सुविधाओं में सुधार में भी पूरी रूचि ली।

🇮🇳 जब तक मावलंकर लोक सभा के अध्यक्ष रहे उन्होंने राजनीति में सक्रिय रूप से भाग नहीं लिया। यद्यपि उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से अपना संबंध विच्छेद नहीं किया था तथापि इससे संसद में उनका अपना आचरण प्रभावित नहीं हुआ। वे सदैव निष्पक्ष बने रहे और इस प्रकार अध्यक्ष के रूप में अपने पूरे कार्यकाल के दौरान उन्हें सम्पूर्ण सभा का आदर और सम्मान प्राप्त हुआ।

🇮🇳 मावलंकर का अध्यक्ष के रूप में कार्यकाल 1956 की शुरूआत में उनके आकस्मिक निधन के साथ ही समाप्त हो गया। अध्यक्ष के रूप में कार्य करते हुए भी मावलंकर सेवा ग्राम विकास और उपेक्षित वर्गों के विकास के लिए समर्पित अनेक अन्य संगठनों और न्यासों में विभिन्न पदों पर कार्य करके उनसे जुड़े रहे। इनमें #साबरमती में महात्मा गॉंधी का हरिजन आश्रम, कस्तूरबा गाँधी राष्ट्रीय स्मारक कोष और गाँधी स्मारक न्यास शामिल हैं। दिस्म्बर, 1950 में मावलंकर सरदार पटेल के उत्तराधिकारी के रूप में गॉंधी स्मारक न्यास के अध्यक्ष बने। कस्तूरबा गाँधी राष्ट्रीय स्मारक कोष और गाँधी स्मारक न्यास के कार्य के सिलसिले में मावलंकर ने भारत के सभी भागों की यात्रा की क्योंकि वे सभी केन्द्रों के कार्यकरण को व्यक्तिगत रूप से देखने और साधारण कार्यकर्ताओं से मिलने के उत्सुक थे। उन्होंने अपने स्वास्थ्य और व्यक्तिगत आराम की परवाह न करते हुए लम्बी और दुसाध्य यात्राएं जारी रखीं। जनवरी, 1956 में ऐसी ही एक यात्रा के दौरान मावलंकर को दिल का दौरा पड़ा और अन्ततः 27 फरवरी, 1956 को अहमदाबाद में उनका निधन हो गया।

🇮🇳 उनके निधन पर कृतज्ञ राष्ट्र और उसकी संसद ने अपने सम्माननीय अध्यक्ष को, जिन्होंने भारत में गणतंत्र के अन्य संस्थापकों के साथ संसदीय लोकतंत्र की ठोस एवं पक्की बुनियाद रखी, भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की। एँच दशकों की अपनी नि:स्वार्थ सेवा के जरिये गणेश वासुदेव मावलंकर ने अपने से जुड़े सभी क्षेत्रों में अपने व्यक्तित्व की गहरी छाप छोड़ी। इस बात पर कोई विवाद नहीं कि उनके व्यक्तित्व का सर्वाधिक प्रभाव अध्यक्ष के पद और संसद पर पड़ा।

🇮🇳 दस वर्षों से अधिक अवधि (1946-56) तक मावलंकर ने भारत की संसद में वाद-विवाद का गरिमा, ईमानदारी और निष्पक्षता के साथ मार्ग-निर्देशन किया। अध्यक्ष पद की स्वतंत्र भूमिका और कृत्यों, विधान 

मंडल का एक स्वतंत्र सचिवालय जो केवल अध्यक्ष के प्रति उत्तरदायी हो, के होने की आवश्यकता, जन प्रतिनिधियों के विशेषाधिकारों के प्रश्न, सरकारी व्यय की संवीक्षा के लिए संसदीय समितियों के गठन की आवश्यकता, संसद के कार्यकरण में शालीनता और गरिमा बनाए रखने की आवश्यकता तथा संसदीय प्रणाली की सरकार के अन्य सभी बुनियादी और मूलभूत मानदण्डों के बारे में अध्यक्ष मावलंकर का दृष्टिकोण बहुत ही स्पष्ट था और उन्हें वर्तमान प्रणाली का एक अभिन्न अंग बनाने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। 

🇮🇳 जब भारत के प्रधान मंत्री और सदन के नेता पंडित जवाहर लाल नेहरू ने मावलंकर के पीठासीन होने पर उन्हें लोक सभा का जनक कहा था तो शायद वे संपूर्ण राष्ट्र की भावनाओं को अभिव्यक्त कर रहे थे, और जब विपक्ष के दिग्गज नेताओं ने, जिनमें से कई नेताओं की योग्यता और हैसियत सत्ता पक्ष के नेताओं के समान ही थी, उन्हें "संसदीय लोकतंत्र का तारनहार" और "विपक्ष के अधिकारों का वास्तविक अभिरक्षक" कहा तो यह स्वयं अध्यक्ष के पद और दादा साहिब मावलंकर के राजकौशल के प्रति अभिव्यक्त प्रशंसा थी।

साभार: loksabhadocs.nic.in

🇮🇳 प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष #गणेश_वासुदेव_मावलंकर जी को उनकी पुण्यतिथि पर कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से कोटि-कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि !

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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Chandrashekhar 'Azad | Freedom Fighter | 23 July 1906 – 27 February 1931| चन्द्रशेखर 'आजाद स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी


 

Chandrashekhar 'Azad | Freedom  Fighter | 23 July 1906 – 27 February 1931| चन्द्रशेखर 'आजाद  स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी 

🇮🇳 चन्द्रशेखर 'आजाद (23 जुलाई 1906 — 27 फ़रवरी 1931) भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के स्वतंत्रता सेनानी थे।

🇮🇳 "मैं एक ऐसे धर्म में विश्वास करता हूँ जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा सिखाता है।" 

🇮🇳 स्वतंत्र सेनानियों में से एक थे चंद्रशेखर आजाद 🇮🇳

🇮🇳 चंद्रशेखर का जन्म 23 जुलाई, 1906 को मध्य प्रदेश के #भाबरा में #पंडित_सीताराम_तिवारी और #जागरानी_देवी के घर हुआ था। भाबरा में उन्होंने अपनी बुनियादी शिक्षा प्राप्त की और उच्च अध्ययन के लिए वे #वाराणसी में संस्कृत पाठशाला गए। उन्होंने बहुत कम उम्र में कट्टरपंथी गतिविधियों में भाग लेना शुरू कर दिया था। वे सबसे प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे, जिन्होंने बहुत कम उम्र में भारत की स्वतंत्रता के लिए संग्राम में भाग लिया था।

🇮🇳 आजाद की लोकप्रियता 13 अप्रैल, 1919 को #जलियांवाला_बाग की घटना से प्रभावित हुई। फिर चंद्रशेखर आजाद जल्द ही 1920 में #महात्मा_गाँधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन का हिस्सा बन गए, और यहाँ तक कि 15 साल की छोटी उम्र में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।

🇮🇳 "दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे। आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे।"

🇮🇳 "मैं एक ऐसे धर्म में विश्वास करता हूँ जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा सिखाता है।"

🇮🇳 "मेरा नाम आजाद है, पिता का नाम स्वतंत्रता और पता जेल है।"

🇮🇳 "दूसरों को अपने से बेहतर करते हुए न देखें, हर दिन अपने रिकॉर्ड को तोड़ें क्योंकि सफलता आपके और खुद के बीच की लड़ाई है।"

🇮🇳 "अगर आपके लहू में रोष नहीं है, तो ये पानी है जो आपकी रगों में बह रहा है. ऐसी जवानी का क्या मतलब अगर वो #मातृभूमि के काम ना आए।"

🇮🇳 माँ भारती के सच्चे सपूत प्रसिद्ध #स्वतंत्रतासेनानी, अमर #क्रांतिकारी #चंद्रशेखर_आज़ाद जी के #बलिदान_दिवस पर उन्हें कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से कोटि-कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

 #आजादी_का_अमृतकाल  #27February #देशभक्त #प्रेरणादायी_व्यक्तित्व,  #Karmayogi,   #Chandrashekhar '#Azad | #Freedom  #Fighter | #23July   #चन्द्रशेखर #आजाद  #स्वतन्त्रता_संग्राम_सेनानी

Nanaji Deshmukh ji | 11 October, 1916-27 February, 2010 | चंडिकादास अमृतराव | नानाजी देशमुख | प्रख्यात समाजसेवक

 



Nanaji Deshmukh ji | 11 October, 1916-27 February, 2010 | चंडिकादास अमृतराव | नानाजी देशमुख | प्रख्यात समाजसेवक

#एक_निष्काम_कर्मयोगी #ग्रामोदय_से_राष्ट्रोदय

🇮🇳 संस्कारहीन वातावरण देखकर उन्होंने गोरखपुर में 1950 में पहला #सरस्वती_शिशु_मंदिर स्थापित किया। 🇮🇳

🇮🇳 उन्होंने अपने 81वें जन्मदिन पर #देहदान का #संकल्प पत्र भर दिया था। अतः देहांत के बाद उनका शरीर चिकित्सा विज्ञान के छात्रों के शोध हेतु दिल्ली के आयुर्विज्ञान संस्थान को दे दिया गया। 🇮🇳

🇮🇳 ग्राम #कडोली (जिला #परभणी, #महाराष्ट्र) में 11 अक्तूबर, 1916 (शरद पूर्णिमा) को श्रीमती #राजाबाई की गोद में जन्मे #चंडिकादास_अमृतराव (नानाजी) देशमुख ने भारतीय राजनीति पर अमिट छाप छोड़ी। 1967 में उन्होंने विभिन्न विचार और स्वभाव वाले नेताओं को साथ लाकर उ.प्र. में सत्तारूढ़ कांग्रेस का घमंड तोड़ दिया। अतः कांग्रेस वाले उन्हें नाना फड़नवीस कहते थे। छात्र जीवन में निर्धनता के कारण अपनी पुस्तकों के लिए वे सब्जी बेचकर पैसे जुटाते थे। 1934 में #डॉ_हेडगेवार द्वारा निर्मित और प्रतिज्ञित स्वयंसेवक नानाजी ने 1940 में उनकी चिता के सम्मुख प्रचारक बनने का निर्णय लेकर घर छोड़ दिया।

🇮🇳 उन्हें उत्तर प्रदेश में पहले आगरा और फिर गोरखपुर भेजा गया। उन दिनों संघ की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। नानाजी जिस धर्मशाला में रहते थे, वहाँ हर तीसरे दिन कमरा बदलना पड़ता था। अन्ततः एक कांग्रेसी नेता ने उन्हें इस शर्त पर स्थायी कमरा दिलाया कि वे उसका खाना बना दिया करेंगे। नानाजी के प्रयास से तीन साल में गोरखपुर जिले में 250 शाखाएं खुल गयीं। विद्यालयों की पढ़ाई तथा संस्कारहीन वातावरण देखकर उन्होंने गोरखपुर में 1950 में पहला #सरस्वती_शिशु_मंदिर स्थापित किया। आज तो ‘विद्या भारती’ संस्था के अन्तर्गत ऐसे विद्यालयों की संख्या 50,000 से भी अधिक है।

🇮🇳 1947 में रक्षाबन्धन के शुभ अवसर पर लखनऊ में #राष्ट्रधर्म_प्रकाशन की स्थापना हुई, तो नानाजी इसके प्रबन्ध निदेशक बनाये गये। वहाँ से मासिक #राष्ट्रधर्म, साप्ताहिक #पांचजन्य तथा दैनिक #स्वदेश अखबार निकाले गये। 1948 में #गॉंधीजी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबन्ध लगने से प्रकाशन संकट में पड़ गया। ऐसे में नानाजी ने छद्म नामों से कई पत्र निकाले। 1952 में जनसंघ की स्थापना होने पर उ.प्र. में यह कार्य उन्हें सौंपा गया। 1957 तक प्रदेश के सभी जिलों में जनसंघ का काम पहुँच गया। 1967 में वे राष्ट्रीय संगठन मंत्री बनकर दिल्ली आ गये। #दीनदयाल जी की हत्या के बाद 1968 में उन्होंने दिल्ली में ‘दीनदयाल शोध संस्थान’ की स्थापना की। 

🇮🇳 #विनोबा_भावे के भूदान यज्ञ तथा 1974 में #इंदिरा_गाँधी के कुशासन के विरुद्ध #जयप्रकाश जी के नेतृत्व में हुए आन्दोलन में वे खूब सक्रिय रहे। पटना में जब पुलिस ने जयप्रकाश जी पर लाठी बरसायीं, तो नानाजी ने उन्हें अपनी भुजा पर झेल लिया। इससे उनकी भुजा टूट गयी; पर जयप्रकाश जी बच गये। 

🇮🇳 1975 में आपातकाल के विरुद्ध बनी ‘लोक संघर्ष समिति’ के वे पहले महासचिव थे। 1977 के चुनाव में इंदिरा गाँधी हार गयीं और जनता पार्टी की सरकार बनी। नानाजी भी उ.प्र. में #बलरामपुर से सांसद बने। प्रधानमंत्री #मोरारजी_देसाई उन्हें मंत्री बनाना चाहते थे; पर नानाजी ने सत्ता के बदले संगठन को महत्व दिया। अतः उन्हें जनता पार्टी का महामन्त्री बनाया गया।


🇮🇳 1978 में नानाजी ने सक्रिय राजनीति छोड़कर ‘दीनदयाल शोध संस्थान’ के माध्यम से गोंडा, नागपुर, बीड़ और अहमदाबाद में ग्राम विकास के कार्य किये। 1991 में उन्होंने #चित्रकूट में देश का पहला #ग्रामोदय_विश्वविद्यालय स्थापित कर आसपास के 500 गाँवों का जन भागीदारी द्वारा सर्वांगीण विकास किया। इसी प्रकार मराठवाड़ा, बिहार आदि में भी कई गॉंवों का पुननिर्माण किया। 1999 में वे राज्यसभा में मनोनीत किये गये। अपनी सांसद निधि का उपयोग उन्होंने इन सेवा प्रकल्पों के लिए ही किया। नानाजी ने 27 फरवरी, 2010 को अपनी कर्मभूमि चित्रकूट में अंतिम साँस ली। 

🇮🇳 उन्होंने अपने 81वें जन्मदिन पर देहदान का संकल्प पत्र भर दिया था। अतः देहांत के बाद उनका शरीर चिकित्सा विज्ञान के छात्रों के शोध हेतु दिल्ली के आयुर्विज्ञान संस्थान को दे दिया गया। ‘पद्म विभूषण’ से वे अलंकृत हो चुके थे; पर राष्ट्र के प्रति उनकी सेवाओं का सम्मान करते हुए भारत सरकार ने 25 जनवरी, 2019 को उन्हें मरणोपरांत ‘भारत रत्न’ देने की घोषणा की।

- विजय कुमार

साभार: prabhasakshi.com

🇮🇳 #पद्मविभूषण और #भारत_रत्न से सम्मानित; प्रख्यात समाजसेवक, निष्काम कर्मयोगी #राष्ट्रऋषि #नानाजी_देशमुख जी की पुण्यतिथि पर उन्हें कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से कोटि-कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

 #आजादी_का_अमृतकाल  #27February #Nanaji_Deshmukh   #देशभक्त #प्रेरणादायी_व्यक्तित्व, #Padmavibhushan, #Bharat_Ratna, #Inspirational_Personality, #Vande_Mataram, #social_worker, #Karmayogi, 

26 फ़रवरी 2024

Pankaj Udhas | Indian Ghazal and Playback Singer | पंकज उधास - गज़ल गायक | 17 May 1951 – 26 February 2024





Pankaj Udhas (17 May 1951 – 26 February 2024) was an Indian ghazal and playback singer known for his works in Hindi cinema, and Indian pop. He started his career with a release of a ghazal album titled Aahat in 1980 and subsequently recorded many hits like Mukarar in 1981, Tarrannum in 1982, Mehfil in 1983, Pankaj Udhas Live at Royal Albert Hall in 1984, Nayaab in 1985 and Aafreen in 1986


पंकज उधास भारत के एक गज़ल गायक थे। भारतीय संगीत उद्योग में उनको तलत अज़ीज़ और जगजीत सिंह जैसे अन्य संगीतकारों के साथ इस शैली को लोकप्रिय संगीत के दायरे में लाने का श्रेय दिया जाता है। उदास को फिल्म नाम में गायकी से प्रसिद्धि मिली, जिसमें उनका एक गीत "चिठ्ठी आई है" काफी लोकप्रिय हुआ था जो तुरंत हिट हो गया। इसके बाद उन्होंने कई हिंदी फिल्मों के लिए पार्श्वगायन किया। दुनिया भर में एल्बम और लाइव कॉन्सर्ट ने उन्हें एक गायक के रूप में प्रसिद्धि दिलाई। 2006 में, पंकज उधास को भारत के चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म श्री से सम्मानित किया गया। उनके भाई निर्मल उदास  और मनहर  उदास भी गायक हैं।


पंकज  का जन्म गुजरात के जेतपुर में हुआ था। वह तीन भाइयों में सबसे छोटे हैं। उनके माता-पिता केशुभाई उधास और जितुबेन उधास हैं। उनके सबसे बड़े भाई मनहर उधास ने बॉलीवुड फिल्मों में हिंदी पार्श्व गायक के रूप में कुछ सफलता हासिल की । उनके दूसरे बड़े भाई निर्मल उधास भी एक प्रसिद्ध ग़ज़ल गायक हैं और परिवार में गायन शुरू करने वाले तीन भाइयों में से वह पहले थे। उन्होंने सर बीपीटीआई भावनगर से पढ़ाई की थी. उनका परिवार मुंबई चला गया और पंकज ने मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज में दाखिला लिया । [ प्रशस्ति - पत्र आवश्यक ]


उधास का परिवार राजकोट के पास चरखड़ी नामक कस्बे का रहने वाला था और जमींदारथा। उनके दादा गाँव के पहले स्नातक थे और भावनगर राज्य के दीवान बने । उनके पिता, केशुभाई उधास, एक सरकारी कर्मचारी थे और उनकी मुलाकात प्रसिद्ध वीणा वादक अब्दुल करीम खान से हुई थी, जिन्होंने उन्हें दिलरुबा बजाना सिखाया था ।  जब उधास बच्चे थे, तो उनके पिता दिलरुबा , एक तार वाला वाद्ययंत्र बजाते थे। उनकी और उनके भाइयों की संगीत में रुचि देखकर उनके पिता ने उनका दाखिला राजकोट की संगीत अकादमी में करा दिया । उधास ने शुरुआत में तबला सीखने के लिए खुद को नामांकित किया लेकिन बाद में गुलाम कादिर खान साहब से हिंदुस्तानी गायन शास्त्रीय संगीत सीखना शुरू किया। इसके बाद उधास ग्वालियर घराने के गायक नवरंग नागपुरकर के संरक्षण में प्रशिक्षण लेने के लिए मुंबई चले गए। 


चाँदी जैसा रंग है तेरा, सोने जैसे बाल  नामक गीत पंकज उधास द्वारा गाया गया था। पंकज उधास के बड़े भाई, मनहर उधास एक मंच कलाकार थे, जिन्होंने पंकज को संगीत प्रदर्शन से परिचित कराने में सहायता की। उनका पहला मंच प्रदर्शन चीन-भारत युद्ध के दौरान था , जब उन्होंने " ऐ मेरे वतन के लोगो " गाया था और उन्हें रु। 51 एक दर्शक सदस्य द्वारा पुरस्कार के रूप में। [


उधास का पहला गाना फिल्म "कामना" में था, जो उषा खन्ना द्वारा संगीतबद्ध और नक्श लायलपुरी द्वारा लिखा गया था, यह फिल्म फ्लॉप रही लेकिन उनके गायन को बहुत सराहा गया। इसके बाद, उधास ने ग़ज़लों में रुचि विकसित की और ग़ज़ल गायक के रूप में अपना करियर बनाने के लिए उर्दू सीखी। उन्होंने कनाडा और अमेरिका में ग़ज़ल संगीत कार्यक्रम करते हुए दस महीने बिताए और नए जोश और आत्मविश्वास के साथ भारत लौट आए। उनका पहला ग़ज़ल एल्बम, आहट , 1980 में रिलीज़ हुआ था। यहीं से उन्हें सफलता मिलनी शुरू हुई और 2011 तक उन्होंने पचास से अधिक एल्बम और सैकड़ों संकलन एल्बम जारी किए हैं। 1986 में, उधास को फिल्म नाम में अभिनय करने का एक और मौका मिला , जिससे उन्हें प्रसिद्धि मिली। 1990 में, उन्होंने फिल्म घायल के लिए लता मंगेशकर के साथ मधुर युगल गीत "महिया तेरी कसम" गाया ।


 इस गाने ने जबरदस्त लोकप्रियता हासिल की. 1994 में, उधास ने साधना सरगम ​​के साथ फिल्म मोहरा का उल्लेखनीय गीत, "ना कजरे की धार" गाया, जो बहुत लोकप्रिय भी हुआ। उन्होंने पार्श्व गायक के रूप में काम करना जारी रखा और साजन , ये दिल्लगी , नाम और फिर तेरी कहानी याद आयी जैसी फिल्मों में कुछ ऑन-स्क्रीन उपस्थिति दर्ज की । दिसंबर 1987 में म्यूजिक इंडिया द्वारा लॉन्च किया गया उनका एल्बम शगुफ्ता भारत में कॉम्पैक्ट डिस्क पर रिलीज़ होने वाला पहला एल्बम था। बाद में, उधास ने सोनी एंटरटेनमेंट टेलीविजन पर आदाब आरज़ है नामक एक प्रतिभा खोज टेलीविजन कार्यक्रम शुरू किया । 26 फरवरी 2024 को पंकज का निधन हो गया। हुआ था

India's First Woman Doctor | Anandi Gopal Joshi | भारत की पहली महिला डॉक्टर | आनंदी_गोपाल_जोशी | 31 मार्च 1865-26 फरवरी 1887

 



India's first woman doctor #Anandi_Gopal_Joshi on her death anniversary!

भारत की पहली महिला डॉक्टर #आनंदी_गोपाल_जोशी की पुण्य तिथि पर!

🇮🇳 मात्र 22 वर्ष की अल्पायु में दुनिया के इतिहास में अमर हुई #भारत_की_बेटी की जीवन-गाथा 🇮🇳

🇮🇳 महज 14 दिनों में उनकी खुशियां छिन गईं. उन्होंने बेटे को जन्म दिया था लेकिन किसी बीमारी से ग्रसित होने की वजह से उनका बच्चा दस दिनों के भीतर ही मर गया. बच्चे की मौत से भीतर ही भीतर टूट टुकी आनंदी ने यह तय किया था कि अब वह किसी भी बच्चे को इलाज के अभाव में मरने नहीं देंगी. 🇮🇳

🇮🇳 पढ़ना लिखना तो महिलाओं के लिए भारत में कभी आसान नहीं था. हाँ अपनी रूचि के अनुसार राजा-महाराजा और बड़े परिवार वाले बेटियों को अस्त्र-शस्त्र का ज्ञान दिया करते थे. लेकिन आज हम बताएंगे कि उस जमाने में जब महिलाओं को बचपन में ही ब्याह दिया जाता था #आनंदीबेन_जोशी को कैसे गर्व प्राप्त हुआ देश की #पहली महिला डॉक्टर बनने का और कैसे वह अपनी पढ़ाई को पूरा करने सात समंदर पार भी पहुँची. और उनके इस सपने में साथ था भारतीय समाज.

🇮🇳 आज महिलाओं की गिनती आधी आबादी के रूप में की जाती है…पर्दे और घर की चारदिवारी से बाहर निकलकर महिलाएं अंतरिक्ष तक पहुंच चुकी हैं..विज्ञान का क्षेत्र हो या शासन का महिलाएं हर जगह अपना परचम लहरा रही हैं. वैसे आंकड़े जो भी कहते हों लेकिन भारत में महिलाओं की स्थिति पहले से बेहतर हो चुकी है. महिलाएं अपनी आवाज बुलंद कर रही हैं लेकिन 18 वीं शताब्दी में शायद ही महिलाएं घर से बाहर निकलती थीं, या शिक्षा थी भी तो कुछ गिने चुने परिवारों तक ही सिमित थी. आठ और नौ साल की बच्चियों की शादी कर दी जाती थी. ऐसी परिस्थिति में इक्का दुक्का ही नाम सामने आता है जिसने न केवल देश में पढ़ाई की हो बल्कि विदेश जाकर भी पढ़ाई की हो. ऐसी ही एक भारतीय महिला हैं आनंदीबाई गोपाल जोशी. 14 साल की उम्र में अपने नवजात को खो चुकी इस #किशोरी बाला ने तय किया था कि वह डॉक्टर बनेगी और वह सात समंदर पार जाकर डॉक्टर बनी लेकिन 22 साल की उम्र में ही इस दुनिया को अलविदा कह दिया.

🇮🇳 आनंदीबाई जोशी का जन्म 31 मार्च 1865 को #पुणे में हुआ था. फिलहाल पुणे का वो हिस्सा #कल्याण महाराष्ट्र के #थाणे का हिस्सा है. जमींदार परिवार में जन्मी आनंदी का मायके का नाम #यमुना था. उनका परिवार एक रुढ़िवादी परिवार था जो सिर्फ संस्कृत पढ़ना जानता था. बताते हैं कि ब्रिटिश शासकों ने महाराष्ट्र में जमींदारी प्रथा समाप्त कर दी जिसके बाद उनके परिवार की स्थिति खराब होती चली गई, परिवार का गुजर-बसर भी मुश्किल हो गया. परिवार को वित्तीय संकट से गुजरना पड़ रहा था. इसी दौरान महज़ नौ साल की उम्र में यमुना (आनंदी ) की शादी अपने से 20 साल बड़े #गोपालराव_जोशी से हुई. गोपालराव की आयु उस समय 30 वर्ष थी और उनकी पत्नी की मौत हो चुकी थी. पहले जमाने में जब महिला की शादी हो जाती थी तो उनका सिर्फ सरनेम ही नहीं बल्कि उनका नाम भी बदल दिया जाता था अब यमुना आनंदी बेन गोपालराव जोशी हो चुकी थीं.

🇮🇳 14 साल की उम्र में माँ बनी

किशोरी उम्र में आनंदी जब माँ बनीं तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा लेकिन महज 14 दिनों में उनकी खुशियां छिन गईं. उन्होंने बेटे को जन्म दिया था लेकिन किसी बीमारी से ग्रसित होने की वजह से उनका बच्चा दस दिनों के भीतर ही मर गया. बच्चे की मौत से उन्हें गहरा सदमा लगा और यही उनके जीवन का टर्निंग प्वाइंट था. बच्चे की मौत से भीतर ही भीतर टूट टुकी आनंदी असल में मजबूत हो चुकी थीं और उन्होंने यह तय किया था कि अब वह किसी भी बच्चे को इलाज के अभाव में मरने नहीं देंगी. उन्होंने अपनी यह इच्छा अपने पति को बताई.. पति गोपालराव ने उनकी इस इच्छा का साथ दिया और उन्होंने आगे की पढ़ाई के लिए उनका साथ दिया और जब उन्होंने डॉक्टर बनने का निश्चय लिया तब भारत में एलोपैथिक डॉक्टरी की पढ़ाई नहीं होती थी इसलिए गोपालराव जोशी ने उन्हें पढ़ने के लिए विदेश जाने की तैयारी शुरू कर दी.

🇮🇳 विरोध के बीच पहुँची अमेरिका

आनंदी की पढ़ाई के लिए गए फैसले पर परिवार से लेकर समाज तक में खूब चूं-चूं हुई लेकिन दोनों पति-पत्नी के दृढ़ निश्चय के आगे एक न चली. समाज मानने को तैयार नहीं था कि एक हिंदू शादी-शुदा महिला विदेश जाकर पढ़ाई करे. आनंदी के जीवनकाल और संघर्ष को दूरदर्शन और जी स्टूडियो ने भी फिल्म का आकार दिया है. समाज में बढ़ते विरोध के बाद आनंदी ने कहा मैं सिर्फ डॉक्टरी की शिक्षा के लिए अमेरिका जा रही हूँ, मेरी इच्छा नौकरी करने की नहीं बल्कि लोगों की जान बचाने की है. मेरा मकसद भारत की सेवा करना और भारतीयों को असमय हो रही मौत से बचाना है.

🇮🇳 आनंदी के भाषण का उनके समाज पर बहुत बड़ा असर हुआ और फिर पूरा समाज एकजुट होकर आनंदी को पढ़ाई में मदद करने के लिए आगे आया. आनंदी जोशी ने कोलकाता से पानी की जहाज के माध्यम से न्यूयॉर्क की यात्रा की थी. न्यूयॉर्क में थियोडिसिया काप्रेंटर ने उनकी जून 1883 में आगवानी की. आनंदी ने पेंसिल्वेनिया की वूमन मेडिकल कॉलेज से डॉक्टरी की पढ़ाई की. अपनी पढ़ाई के लिए आनंदी ने केवल अपने सारे गहने बेच दिए बल्कि उन्हें समाज ने भी सहायता दी. इसमें वाइसराय भी शामिल हैं जिन्होंने 200 रुपये की सहायता राशि दी.

🇮🇳 आनंदी तीक्ष्ण बुद्धि वाली महिला थीं और वह देश की रूढिवादी परंपरा के बीच अमेरिका पहुंची थीं इसे देखते हुए कॉलेज के सुपरीटेंडेंट और सेक्रेटरी एस बात से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने तीन साल की पढ़ाई के लिए 600 डॉलर की स्कॉलरशिप भी मंजूर की. लेकिन आनंदी की परेशानी सिर्फ अपने समाज से लड़ना नहीं था बल्कि अजनबी शहर में खुद को स्थापित करना भी था. भाषा रहन-सहन और खान पान…वह सभी से जूझती रहीं इसमें उनकी मदद दी कॉलेज के डीन की पत्नी मिसेज कारपेंटर ने.

🇮🇳 ठंडे देश में आनंदी की मुश्किलें बढ़ती गईं. महाराष्ट्रियन साड़ी पहनने वाली की तबियत बिगड़ी और उन्हें तपेदिक (टीबी) हो गया था फिर भी उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की और 1885 में एमडी से स्नातक किया. उन्होंने अपने थीसिस का चयन किया ‘आर्यन हिंदुओं के बीच प्रसूती.’ आनंदी को रानी विक्टोरिया ने भी उनकी पढ़ाई के लिए बधाई दी. 1886 के अंत में आनंदी डॉ. आनंदी बन कर भारत लौटीं जहां उनका भव्य स्वागत हुआ. कोल्हापुर की रियासत ने उन्हें स्थानीय अल्बर्ड एडवर्ड अस्पताल में महिला वार्ड की चिकित्सक प्रभारी का प्रभार सौंपा. लेकिन देश की पहली महिला एकबार फिर तपेदिक की शिकार हुईं और महज 22 साल की उम्र में उसने दुनिया को अलविदा कह दिया. जिस दिन उन्होंने दुनिया को विदा कहा वह दिन था 26 फरवरी 1887 .

साभार: hindi.theprint.in

🇮🇳 भारत की प्रथम महिला डॉक्टर #आनंदी_गोपाल_जोशी जी को उनकी पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

#India's_First_Woman_Doctora #आजादी_का_अमृतकाल  #26February #First_Woman_Doctora   #independence #Anandi_Gopal_Joshi  #देशभक्त

Iran is bombing and India has cut off Pakistan's water supply | ईरान बम मार रहा है और भारत ने पाकिस्तान का पानी बंद कर दिया | चुनाव में फिर मामला गोल हो गया - लेखक : सुभाष चन्द्र



ईरान  बम मार रहा है और 

भारत ने पाकिस्तान का पानी बंद कर दिया,

चुनाव में फिर मामला गोल हो गया -

एटम बम कहां गए ?


#दारुल #उलूम #देवबंद #फतवा दे रहा है भारत को #गज़वा-ए -हिंद  बनाने का जबकि यह नहीं देखते कि 75 साल पहले गज़वा-ए-पाकिस्तान लेकर क्या कर लिया, आज लोगों को खाने के लाले पड़े हैं और पूरा मुल्क पाकिस्तान “कटोरा” हाथ में लिए भीख मांगता फिर रहा है - यही हालत भारत की भी करना चाहते हैं यहां के  #मुसलमान जो सब कुछ सुविधाएं मिलने पर भी कह रहे है कि बस किसी तरह #मोदी को हराना है -

पाकिस्तान पर  फिर ईरान ने #सर्जिकल_स्ट्राइक कर दी और जैश - ए -अदल के वरिष्ठ कमांडर इस्माइल शाहबख्श को पाकिस्तान के क्षेत्र में ही हमला कर उसके कई साथियों समेत 72 हूरों के पास भेज दिया - इसके पहले भी ईरान ने जनवरी में ऐसा ही हमला किया था - उधर #अफगानिस्तान का #TTP जब मर्जी पाकिस्तान को पेल देता है -

लेकिन पाकिस्तान की फितरत थी कि भारत को धमकी दिया करता था कि “हमारे पास एटम बम है” और वो किसी शबे बारात के लिए नहीं हैं लेकिन कभी भारत पर एटम बम चलाने की सोच भी नहीं सका पाकिस्तान क्योंकि बम फटने से पहले भारत का बम पाकिस्तान का नामोनिशान मिटा देता -

लेकिन सवाल यह उठता है कि आज #पाकिस्तान #ईरान को #एटम_बम की धमकी क्यों नहीं दे रहा - अरे रोज रोज के कलेश झेलने से बेहतर है एक बम मार दे ईरान पर और कहानी ख़त्म कर दे क्योंकि ईरान से तो किसी एटम बम पेलने की उम्मीद भी नहीं है जैसी भारत से है -

दरअसल केंद्र सरकार के सहयोग से बन रहे शाहपुर कंडी बांध बनकर तैयार हो गया है। इस बांध के बनने के बाद रावी नदी का जो पानी बहकर पाकिस्तान जाता था वो अब हमारी जमीनों को उपजाऊ बनाएगा। इस पानी का उपयोग किसान सिंचाई के लिए करेंगे।

एक तरफ ईरान ने रगड़ा तो दूसरी तरफ #भारत ने #पाकिस्तान को रावी नदी का जाने वाला पानी पंजाब के शाहपुर कंडी बांध के गेट बंद करके रोक दिया और इसका फायदा अब #जम्मू कश्मीर की 32 हज़ार हेक्टेयर और पंजाब की 5000 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई में होगा क्योंकि जम्मू कश्मीर को 1150 और पंजाब को 200 क्यूसेक पानी मिलेगा - यह है भारत की तरफ से छोड़ा हुआ “पानी बम” - लोग पानी पिला पिला के मारते हैं लेकिन हम प्यासा रख के मार देंगे - 

जिसे भारत में पाकिस्तान से हमदर्दी है वो पाकिस्तान चला जाए - वैसे भी ऐसे लोगों को भारत में उत्पात मचाने से बेहतर है पाकिस्तान के लिए जाकर ईरान और #अफगानिस्तान और #बलूच_विद्रोहियों से लड़ना चाहिए -

पाकिस्तान की एक और मुसीबत खड़ी हो गई जो चुनाव के बाद भी सरकार का गठन नहीं हो पा रहा - #नवाज़ शरीफ उछलता कूदता आया था लेकिन #प्रधानमंत्री बनने का सपना पूरा होता नहीं लग रहा और अब उसका भाई #शाहबाज़ शरीफ की प्रधानमंत्री बनेगा लेकिन कब तक #सत्ता में रहेगा पता नहीं क्योंकि #PPP कब तक साथ देगी कह नहीं सकते और बिलावल भुट्टो भी तो अपनी किस्म का #पप्पू है - मजे की बात है शाहबाज़ शरीफ अपने पहले कार्यकाल में दुनिया भर के मुल्कों से “भीख” ही मांगता रहा था -

भारत में जो मुसलमान मोदी को हराने के लिए पागल हुए जा रहे हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि मोदी विदेशों से मिले सभी उपहार नीलामी में बेच कर पैसा “नमामि गंगे प्रोजेक्ट” में लगा देता है जबकि इमरान खान को ऐसे ही उपहारों को चोरी से बेच खाने के आरोप में 14 साल की सजा हुई है - इतना फर्क भी न दिखाई दे तो आपसे बड़े अंधे कोई हो नहीं सकते - "लेखक के निजी विचार हैं "


 लेखक : सुभाष चन्द्र | “मैं वंशज श्री राम का” 26/02/2024 

#Iran #bombing  #India  #Pakistan's #water_supply #Kejriwal  #judiciary #ed #cbi #delhi #sharabghotala #Rouse_Avenue_court #liquor_scam #aap  #FarmerProtest2024  #KisanAndolan2024  #SupremeCourtofIndia #Congress_Party  #political_party #India #movement #indi #gathbandhan #Farmers_Protest  #kishan #Prime Minister  #Rahulgandhi  #PM_MODI #Narendra _Modi #BJP #NDA #Samantha_Pawar #George_Soros #Modi_Govt_vs_Supreme_Court



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Vinayak Damodar Savarkar | Freedom Fighter | स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर | विनायक दामोदर सावरकर | 28 मई 1883 - 26 फरवरी 1966

 



🇮🇳विनायक दामोदर सावरकर (जन्म: 28 मई 1883 - मृत्यु: 26 फरवरी 1966) भारत के क्रांतिकारी, स्वतंत्रता सेनानी, समाजसुधारक, इतिहासकार, राजनेता तथा विचारक थे। उनके समर्थक उन्हें वीर सावरकर के नाम से सम्बोधित करते हैं।। हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीतिक विचारधारा 'हिन्दुत्व' को विकसित करने का बहुत बड़ा श्रेय सावरकर को जाता है।

🇮🇳 विनायक दामोदर सावरकर यानी स्वातंत्र्यवीर सावरकर पर एक विचारधारा विशेष के लोग आरोप लगाते रहे हैं। उनका आरोप है कि वीर सावरकर ने तत्कालीन ब्रितानी हुकूमत से माफ़ी माँगी थी और उनकी शान में क़सीदे पढ़े थे। यद्यपि राजनीतिक क्षेत्र में आरोप लगाओ और भाग जाओ की प्रवृत्ति प्रचलित रही है। उसके लिए आवश्यक प्रमाण प्रस्तुत करने का दृष्टांत कोई सामने नहीं रखता। परंतु प्रश्न यह उठता है कि क्या उन आरोपों से उनका महात्म्य कम हो जाता है? आइए, उन पर लगे आरोपों के आईने में उनका अवलोकन-मूल्यांकन करें।

🇮🇳 उनकी माफ़ी उनकी रणनीतिक योजना का हिस्सा भी तो हो सकती है! क्या शिवाजी द्वारा औरंगज़ेब से माफ़ी माँग लेने से उनका महत्त्व कम हो जाता है? कालेपानी की सज़ा भोगते हुए गुमनाम अँधेरी कोठरी में तिल-तिलकर मरने की प्रतीक्षा करने से बेहतर तो यही होता कि बाहर आ सक्रिय-सार्थक-सोद्देश्य जीवन जिया जाय| कोरोना-काल में हम सबने यह अनुभव किया है कि सभी सुविधाओं के मध्य भी घर में बंद रहना यातनाप्रद है, फिर वीर सावरकर को तो भयावह यातनाओं के अंतहीन दौर से गुजरना पड़ा था।

🇮🇳 जहाँ तक ब्रितानी हुकूमत की तारीफ़ की बात है तो अधिकांश स्वतंत्रता-सेनानियों ने अलग-अलग समयों पर किसी-न-किसी मुद्दे पर ब्रिटिश शासन की तारीफ़ में वक्तव्य ज़ारी किए हैं। इन तारीफों को उनकी राजनीतिक समझ का हिस्सा या तत्कालीन परिस्थितियों का परिणाम माना गया। फिर सावरकर जी के साथ यह अन्याय क्यों? गाँधी जी ने समय-समय पर ब्रिटिश सरकार को पत्र लिखकर उनके प्रति आभार प्रदर्शित किया है, उनके प्रति निष्ठा जताई है। उन्होंने सार्वजनिक रूप से ऐसे पत्र लिखे हैं, जिसमें भारतीयों को अंग्रेजों का वफ़ादार बनने की नसीहत दी है, ब्रिटिशर्स द्वारा शासित होने को भारतीयों का सौभाग्य बताया है। वे अंग्रेजों के अनेक उपकारों का ज़िक्र करते हुए भाव-विभोर हए हैं। बल्कि गाँधी ऐसे चिंतक रहे हैं जिनका चिंतन काल-प्रवाह के साथ सबसे ज़्यादा परिवर्तित हुआ है। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान गाँधी द्वारा तत्कालीन वायसराय को लिखे पत्रों को पढ़िए। आप जानेंगे कि गाँधी वहाँ अंग्रेजों की चापलूसी-सी करते प्रतीत होते हैं। वे अंग्रेजों की ओर से भारतीय सैनिकों की भागीदारी को उनका फ़र्ज़ बताते नहीं थकते! तो क्या इन सबसे स्वतंत्रता-संग्राम में उनका महत्त्व कम हो जाता है? क्या यह सत्य नहीं कि किसी एक पत्र, माफ़ीनामे या स्वीकारोक्ति से किसी राष्ट्रनायक का महत्त्व या योगदान कम नहीं होता?

🇮🇳 एक ओर जहाँ गाँधी जी स्वतंत्रता-पश्चात की धार्मिक-सामुदायिक एकता का काल्पनिक-वायवीय स्वप्न संजोते रहे और मज़हबी कट्टरता से आसन्न संकट को भाँप नहीं पाए, वहीं सावरकर जी यथार्थ का परत-दर-परत उघाड़कर देख सके कि इस्लाम का मूल चरित्र ही हिंसक, आक्रामक, विस्तारवादी और अन्यों के प्रति अस्वीकार्य-बोध से भरा है। गाँधी राजनीतिज्ञ की तुलना में एक भावुक संत अधिक नज़र आते हैं, जो स्वयं को और अपनों को दंड देकर भी महान बने रहना चाहते हैं, जबकि पूज्य सावरकर इतिहास का विद्यार्थी होने के कारण सभ्यताओं के संघर्ष और उसके त्रासद परिणामों को देख पा रहे थे| इसीलिए वे विभाजन के पश्चात किसी भी एकपकक्षीय, बनावटी, लिजलिजी, पिलपिली एकता को सिरे से ख़ारिज कर रहे थे।

🇮🇳 मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, गोपाल कृष्ण गोखले जैसे काँग्रेसी नेताओं या राजा राममोहन राय जैसे अनेकानेक समाज सुधारकों ने खुलकर ब्रिटिश शासन और उनकी जीवन-शैली की पैरवी की, यदि इस आधार पर उनके योगदान को कम करके नहीं देखा जाता तो इनके बरक्स राष्ट्र के लिए तिल-तिल जीने वाले पूज्य सावरकर जी पर सवाल उठाने वालों की मानसिकता समझी जा सकती है। आंबेडकर भी अनेक अवसरों पर ब्रिटिशर्स की पैरवी कर चुके थे, यहाँ तक कि स्वतंत्रता-पश्चात दलित समाज को वांछित अधिकार दिलाने को लेकर वे स्वतंत्रता का तात्कालिक विरोध कर चुके थे। तो क्या इससे उनका महत्त्व और योगदान कम हो जाता है? उन्होंने भी इस्लाम के आक्रामक, असहिष्णु, विघटनकारी, विस्तारवादी प्रवृत्तियों से तत्कालीन नेताओं को सावधान और सचेत किया था। वे विभाजन के पश्चात ऐसी किसी भी कृत्रिम-काल्पनिक-लिजलिजी-पिलपिली एकता के मुखर आलोचक थे, जो थोड़े से दबाव या चोट से बिखर जाय, रक्तरंजित हो उठे। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि इस्लाम का भाईचारा केवल उसके मतानुयायियों तक सीमित है। मुसलमान कभी भारत को अपनी मातृभूमि नहीं मानेगा, क्योंकि वह स्वयं को आक्रांताओं के साथ अधिक जोड़कर देखता है। उनका मानना था कि मुसलमान कभी स्थानीय स्वशासन को नहीं आत्मसात करता, क्योंकि वह कुरान और शरीयत से निर्देशित होता है और उसकी सर्वोच्च आस्था इस्लामिक मान्यता एवं प्रतीकों-स्थलों के प्रति रहती है, जो उसे शेष सबसे पृथक करती है। आंबेडकर इस्लाम की विभाजनकारी प्रवृत्तियों से भली-भाँति परिचित थे।

🇮🇳 पूज्य सावरकर जी की मातृभूमि-पुण्यभूमि वाली अवधारणा पर प्रश्न उछालने वाले क्षद्म बुद्धिजीवी क्या आंबेडकर को भी कटघरे में खड़े करेंगें? सच यह है कि ये दोनों राजनेता यथार्थ के ठोस धरातल पर खड़े होकर वस्तुपरक दृष्टि से अतीत, वर्तमान और भविष्य का आकलन कर पा रहे थे। यह उनकी दूरदृष्टि थी, न कि संकीर्णता। पूज्य सावरकर जी मानते थे कि जब तक भारत में हिंदू बहुसंख्यक हैं, तभी तक भारत का मूल चरित्र धर्मनिरपेक्ष रहने वाला है। कोरी व भावुक धर्मनिरपेक्षता की पैरवी करने वाले कृपया बताएँ कि भारत से पृथक हुआ पाकिस्तान या बांग्लादेश क्या गैर इस्लामिक तंत्र दे पाया? वहाँ की मिट्टी, आबो-हवा, लबो-लहज़ा, तहज़ीब- कुछ भी तो हमसे बहुत भिन्न न थी? छोड़िए इन दोनों मुल्कों को, क्या कोई  ऐसा राष्ट्र है जो इस्लामिक होते हुए भी धर्मनिरपेक्ष शासन दे पाने में पूरी तरह कामयाब रहा हो? तुर्की का उदाहरण हमारे सामने है, जिसकी बुनियाद में धर्मनिरपेक्षता थी, पर आज मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे संगठन या वहाबी विचारधारा वहाँ केंद्रीय धुरी है।

🇮🇳 सच तो यह है कि स्वातंत्र्यवीर सावरकर का महत्त्व न तो उन पर लगाए गए आरोपों से कम होता है, न उनके हिंदू-हितों की पैरोकारी से। उनका रोम-रोम राष्ट्र को समर्पित था। उनकी राष्ट्रभक्ति अक्षुण्ण और अनुकरणीय थी। राष्ट्र की बलिवेदी पर उन्होंने तिल-तिल होम कर दिया। वे अखंड भारत के पैरोकार व पक्षधर थे। उन्होंने अपनी प्रखर मेधा शक्ति के बल पर 1857 के विद्रोह को 'ग़दर' के स्थान पर 'प्रथम स्वतंत्रता संग्राम'' की संज्ञा दिलवाई। उनका समग्र व वस्तुपरक इतिहास-बोध व विवेचना उन्हें किसी भी इतिहासकार से अभूतपूर्व इतिहासकार सिद्ध करता है। उन्होंने मुंबई में पतित पावन मंदिर की स्थापना कर एक अनूठी पहल की। वे छुआछूत के घोर विरोधी रहे। उन्होंने धर्मांतरित जनों के मूल धर्म में लौटने का पुरज़ोर अभियान चलाया। समाज-सुधार के लिए वे आजीवन प्रयत्नशील रहे| तत्कालीन सभी बड़े राजनेताओं में उनका बड़ा सम्मान था। गाँधी-हत्या के मिथ्या आरोपों से भी न्यायालय ने उन्हें अंततः ससम्मान बरी किया। राष्ट्र उन्हें सदैव एक सच्चे देशभक्त, प्रखर चिंतक, दृष्टिसंपन्न इतिहासकार, समावेशी संगठक और कुशल राजनेता के रूप में याद रखेगा। आज आवश्यकता अपने राष्ट्रनायकों के प्रति कृतज्ञता के भाव व्यक्त करने की है, न कि उनके प्रति अविश्वास और अनास्था के बीज बोने की।

(प्रणय कुमार)

साभार: punjabkesari.in

🇮🇳 महान चिंतक, विचारक, विपुल लेखक, ओजस्वी वक्ता, प्रसिद्ध समाज सुधारक, प्रखर राष्ट्रवादी और प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी #स्वातंत्र्यवीर #विनायक_दामोदर_सावरकर जी की पुण्यतिथि पर उन्हें कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से कोटि-कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि !

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साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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