26 फ़रवरी 2024

Vinayak Damodar Savarkar | Freedom Fighter | स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर | विनायक दामोदर सावरकर | 28 मई 1883 - 26 फरवरी 1966

 



🇮🇳विनायक दामोदर सावरकर (जन्म: 28 मई 1883 - मृत्यु: 26 फरवरी 1966) भारत के क्रांतिकारी, स्वतंत्रता सेनानी, समाजसुधारक, इतिहासकार, राजनेता तथा विचारक थे। उनके समर्थक उन्हें वीर सावरकर के नाम से सम्बोधित करते हैं।। हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीतिक विचारधारा 'हिन्दुत्व' को विकसित करने का बहुत बड़ा श्रेय सावरकर को जाता है।

🇮🇳 विनायक दामोदर सावरकर यानी स्वातंत्र्यवीर सावरकर पर एक विचारधारा विशेष के लोग आरोप लगाते रहे हैं। उनका आरोप है कि वीर सावरकर ने तत्कालीन ब्रितानी हुकूमत से माफ़ी माँगी थी और उनकी शान में क़सीदे पढ़े थे। यद्यपि राजनीतिक क्षेत्र में आरोप लगाओ और भाग जाओ की प्रवृत्ति प्रचलित रही है। उसके लिए आवश्यक प्रमाण प्रस्तुत करने का दृष्टांत कोई सामने नहीं रखता। परंतु प्रश्न यह उठता है कि क्या उन आरोपों से उनका महात्म्य कम हो जाता है? आइए, उन पर लगे आरोपों के आईने में उनका अवलोकन-मूल्यांकन करें।

🇮🇳 उनकी माफ़ी उनकी रणनीतिक योजना का हिस्सा भी तो हो सकती है! क्या शिवाजी द्वारा औरंगज़ेब से माफ़ी माँग लेने से उनका महत्त्व कम हो जाता है? कालेपानी की सज़ा भोगते हुए गुमनाम अँधेरी कोठरी में तिल-तिलकर मरने की प्रतीक्षा करने से बेहतर तो यही होता कि बाहर आ सक्रिय-सार्थक-सोद्देश्य जीवन जिया जाय| कोरोना-काल में हम सबने यह अनुभव किया है कि सभी सुविधाओं के मध्य भी घर में बंद रहना यातनाप्रद है, फिर वीर सावरकर को तो भयावह यातनाओं के अंतहीन दौर से गुजरना पड़ा था।

🇮🇳 जहाँ तक ब्रितानी हुकूमत की तारीफ़ की बात है तो अधिकांश स्वतंत्रता-सेनानियों ने अलग-अलग समयों पर किसी-न-किसी मुद्दे पर ब्रिटिश शासन की तारीफ़ में वक्तव्य ज़ारी किए हैं। इन तारीफों को उनकी राजनीतिक समझ का हिस्सा या तत्कालीन परिस्थितियों का परिणाम माना गया। फिर सावरकर जी के साथ यह अन्याय क्यों? गाँधी जी ने समय-समय पर ब्रिटिश सरकार को पत्र लिखकर उनके प्रति आभार प्रदर्शित किया है, उनके प्रति निष्ठा जताई है। उन्होंने सार्वजनिक रूप से ऐसे पत्र लिखे हैं, जिसमें भारतीयों को अंग्रेजों का वफ़ादार बनने की नसीहत दी है, ब्रिटिशर्स द्वारा शासित होने को भारतीयों का सौभाग्य बताया है। वे अंग्रेजों के अनेक उपकारों का ज़िक्र करते हुए भाव-विभोर हए हैं। बल्कि गाँधी ऐसे चिंतक रहे हैं जिनका चिंतन काल-प्रवाह के साथ सबसे ज़्यादा परिवर्तित हुआ है। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान गाँधी द्वारा तत्कालीन वायसराय को लिखे पत्रों को पढ़िए। आप जानेंगे कि गाँधी वहाँ अंग्रेजों की चापलूसी-सी करते प्रतीत होते हैं। वे अंग्रेजों की ओर से भारतीय सैनिकों की भागीदारी को उनका फ़र्ज़ बताते नहीं थकते! तो क्या इन सबसे स्वतंत्रता-संग्राम में उनका महत्त्व कम हो जाता है? क्या यह सत्य नहीं कि किसी एक पत्र, माफ़ीनामे या स्वीकारोक्ति से किसी राष्ट्रनायक का महत्त्व या योगदान कम नहीं होता?

🇮🇳 एक ओर जहाँ गाँधी जी स्वतंत्रता-पश्चात की धार्मिक-सामुदायिक एकता का काल्पनिक-वायवीय स्वप्न संजोते रहे और मज़हबी कट्टरता से आसन्न संकट को भाँप नहीं पाए, वहीं सावरकर जी यथार्थ का परत-दर-परत उघाड़कर देख सके कि इस्लाम का मूल चरित्र ही हिंसक, आक्रामक, विस्तारवादी और अन्यों के प्रति अस्वीकार्य-बोध से भरा है। गाँधी राजनीतिज्ञ की तुलना में एक भावुक संत अधिक नज़र आते हैं, जो स्वयं को और अपनों को दंड देकर भी महान बने रहना चाहते हैं, जबकि पूज्य सावरकर इतिहास का विद्यार्थी होने के कारण सभ्यताओं के संघर्ष और उसके त्रासद परिणामों को देख पा रहे थे| इसीलिए वे विभाजन के पश्चात किसी भी एकपकक्षीय, बनावटी, लिजलिजी, पिलपिली एकता को सिरे से ख़ारिज कर रहे थे।

🇮🇳 मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, गोपाल कृष्ण गोखले जैसे काँग्रेसी नेताओं या राजा राममोहन राय जैसे अनेकानेक समाज सुधारकों ने खुलकर ब्रिटिश शासन और उनकी जीवन-शैली की पैरवी की, यदि इस आधार पर उनके योगदान को कम करके नहीं देखा जाता तो इनके बरक्स राष्ट्र के लिए तिल-तिल जीने वाले पूज्य सावरकर जी पर सवाल उठाने वालों की मानसिकता समझी जा सकती है। आंबेडकर भी अनेक अवसरों पर ब्रिटिशर्स की पैरवी कर चुके थे, यहाँ तक कि स्वतंत्रता-पश्चात दलित समाज को वांछित अधिकार दिलाने को लेकर वे स्वतंत्रता का तात्कालिक विरोध कर चुके थे। तो क्या इससे उनका महत्त्व और योगदान कम हो जाता है? उन्होंने भी इस्लाम के आक्रामक, असहिष्णु, विघटनकारी, विस्तारवादी प्रवृत्तियों से तत्कालीन नेताओं को सावधान और सचेत किया था। वे विभाजन के पश्चात ऐसी किसी भी कृत्रिम-काल्पनिक-लिजलिजी-पिलपिली एकता के मुखर आलोचक थे, जो थोड़े से दबाव या चोट से बिखर जाय, रक्तरंजित हो उठे। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि इस्लाम का भाईचारा केवल उसके मतानुयायियों तक सीमित है। मुसलमान कभी भारत को अपनी मातृभूमि नहीं मानेगा, क्योंकि वह स्वयं को आक्रांताओं के साथ अधिक जोड़कर देखता है। उनका मानना था कि मुसलमान कभी स्थानीय स्वशासन को नहीं आत्मसात करता, क्योंकि वह कुरान और शरीयत से निर्देशित होता है और उसकी सर्वोच्च आस्था इस्लामिक मान्यता एवं प्रतीकों-स्थलों के प्रति रहती है, जो उसे शेष सबसे पृथक करती है। आंबेडकर इस्लाम की विभाजनकारी प्रवृत्तियों से भली-भाँति परिचित थे।

🇮🇳 पूज्य सावरकर जी की मातृभूमि-पुण्यभूमि वाली अवधारणा पर प्रश्न उछालने वाले क्षद्म बुद्धिजीवी क्या आंबेडकर को भी कटघरे में खड़े करेंगें? सच यह है कि ये दोनों राजनेता यथार्थ के ठोस धरातल पर खड़े होकर वस्तुपरक दृष्टि से अतीत, वर्तमान और भविष्य का आकलन कर पा रहे थे। यह उनकी दूरदृष्टि थी, न कि संकीर्णता। पूज्य सावरकर जी मानते थे कि जब तक भारत में हिंदू बहुसंख्यक हैं, तभी तक भारत का मूल चरित्र धर्मनिरपेक्ष रहने वाला है। कोरी व भावुक धर्मनिरपेक्षता की पैरवी करने वाले कृपया बताएँ कि भारत से पृथक हुआ पाकिस्तान या बांग्लादेश क्या गैर इस्लामिक तंत्र दे पाया? वहाँ की मिट्टी, आबो-हवा, लबो-लहज़ा, तहज़ीब- कुछ भी तो हमसे बहुत भिन्न न थी? छोड़िए इन दोनों मुल्कों को, क्या कोई  ऐसा राष्ट्र है जो इस्लामिक होते हुए भी धर्मनिरपेक्ष शासन दे पाने में पूरी तरह कामयाब रहा हो? तुर्की का उदाहरण हमारे सामने है, जिसकी बुनियाद में धर्मनिरपेक्षता थी, पर आज मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे संगठन या वहाबी विचारधारा वहाँ केंद्रीय धुरी है।

🇮🇳 सच तो यह है कि स्वातंत्र्यवीर सावरकर का महत्त्व न तो उन पर लगाए गए आरोपों से कम होता है, न उनके हिंदू-हितों की पैरोकारी से। उनका रोम-रोम राष्ट्र को समर्पित था। उनकी राष्ट्रभक्ति अक्षुण्ण और अनुकरणीय थी। राष्ट्र की बलिवेदी पर उन्होंने तिल-तिल होम कर दिया। वे अखंड भारत के पैरोकार व पक्षधर थे। उन्होंने अपनी प्रखर मेधा शक्ति के बल पर 1857 के विद्रोह को 'ग़दर' के स्थान पर 'प्रथम स्वतंत्रता संग्राम'' की संज्ञा दिलवाई। उनका समग्र व वस्तुपरक इतिहास-बोध व विवेचना उन्हें किसी भी इतिहासकार से अभूतपूर्व इतिहासकार सिद्ध करता है। उन्होंने मुंबई में पतित पावन मंदिर की स्थापना कर एक अनूठी पहल की। वे छुआछूत के घोर विरोधी रहे। उन्होंने धर्मांतरित जनों के मूल धर्म में लौटने का पुरज़ोर अभियान चलाया। समाज-सुधार के लिए वे आजीवन प्रयत्नशील रहे| तत्कालीन सभी बड़े राजनेताओं में उनका बड़ा सम्मान था। गाँधी-हत्या के मिथ्या आरोपों से भी न्यायालय ने उन्हें अंततः ससम्मान बरी किया। राष्ट्र उन्हें सदैव एक सच्चे देशभक्त, प्रखर चिंतक, दृष्टिसंपन्न इतिहासकार, समावेशी संगठक और कुशल राजनेता के रूप में याद रखेगा। आज आवश्यकता अपने राष्ट्रनायकों के प्रति कृतज्ञता के भाव व्यक्त करने की है, न कि उनके प्रति अविश्वास और अनास्था के बीज बोने की।

(प्रणय कुमार)

साभार: punjabkesari.in

🇮🇳 महान चिंतक, विचारक, विपुल लेखक, ओजस्वी वक्ता, प्रसिद्ध समाज सुधारक, प्रखर राष्ट्रवादी और प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी #स्वातंत्र्यवीर #विनायक_दामोदर_सावरकर जी की पुण्यतिथि पर उन्हें कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से कोटि-कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि !

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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Rajnarayan Mishra | Freedom Fighter | क्रांतिवीर राजनारायण मिश्र

 



🇮🇳 राजनारायण मिश्र - आज़ादी के आंदोलन का सशक्त क्रांतिवीर जिसके नाम हुई ब्रिटिश साम्राज्य की आखिरी फाँसी 🇮🇳

🇮🇳 राजनारायण मिश्र ने कहा था कि हमें दस आदमी ही चाहिए, जो त्यागी हों और देश की ख़ातिर अपनी जान की बाज़ी लगा सकें. कई सौ आदमी नहीं चाहिए जो लंबी-चौड़ी हाँकते हों और अवसरवादी हों। 🇮🇳

🇮🇳 चाहे जितनी तरह से कही जाए, और जितनी बार, भारत की आज़ादी की कहानी से कुछ छूट ही जाता है। हमारे देश की आज़ादी के किस्सों में कितने ही उत्सर्ग ऐसे हैं जिनकी ध्वनि लोगों तक नहीं पहुँची, कितने ही पन्ने अधखुले हैं, कितने बलिदान अकथ रह गये हैं। 9 दिसंबर, 1944 को लखनऊ में ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ का उद्घोष करते हुए वीरगति का वरण करने वाले क्रांतिकारी राजनारायण मिश्र को उनकी बलिदान का सिला मिला होता तो आज आप उन्हें जानते होते। ब्रिटिश साम्राज्य में सबसे नौजवान फाँसी थी खुदीराम बोस की और विराम लगा राजनारायण मिश्र जी की फाँसी से।

🇮🇳 आईये जानते हैं राजनारायण मिश्र किन अवधारणाओं और अंग्रेज़ शासन के हाथों किन शोषित परिस्थतियों में बड़े हुए होंगे कि 24 वर्ष की छोटी उम्र में ही उन्हें अपने प्राणों की बलि चढ़ानी पढ़ी।

🇮🇳 #लखनऊ में बलिवेदी पर चढे राजनारायण मिश्र का जन्म #लखीमपुर_खीरी जिले के #कठिना नदी के तटवर्ती #भीषमपुर गाँव में साल 1919 की #बसंत_पंचमी को हुआ था। #बलदेवप्रसाद_मिश्र के इस पुत्र ने दो साल के होते-होते अपनी माँ #तुलसी_देवी को खो दिया था और होश सँभाला तो पाया कि पूरा देश ही दुर्दशाग्रस्त है और इसका सबसे बड़ा कारण गुलामी है।

🇮🇳 फिर, 23 मार्च, 1931 को #सरदार_भगत_सिंह की शहादत के बाद राजनारायण ने उनको अपना आदर्श मानकर जो सशस्त्र साम्राज्यवाद विरोधी प्रतिरोध संगठित करना शुरू किया तो फाँसी पर चढ़ने तक लगे रहे, बिना थके और बिना पराजित हुए। 

🇮🇳 पाँच भाइयों में सबसे छोटे, उन्होंने केवल 22 साल की उम्र में हथियार इकट्ठा करके अंग्रेजों को भगाने की कोशिश की। उनके आंतरिक उत्साह ने उन्हें आश्वस्त किया कि औपनिवेशिक ब्रिटिश साम्राज्य से लड़ने के लिए सशस्त्र प्रतिरोध की आवश्यकता है।

🇮🇳 राजनारायण मिश्र ने कहा था कि हमें दस आदमी ही चाहिए, जो त्यागी हों और देश की ख़ातिर अपनी जान की बाज़ी लगा सकें. कई सौ आदमी नहीं चाहिए जो लंबी-चौड़ी हाँकते हों और अवसरवादी हों।

🇮🇳 पर मेरी तो यह अभिलाष, चिता-नि‍कट भी पहुँच सकूँ मैं अपने पैरों-पैरों चलकर 🇮🇳

🇮🇳 1942 में हथियार लूटने की कोशिश में, लखीमपुर खीरी के उपायुक्त फायरिंग में मारे गए, जिसके बाद उन्होंने गाँव छोड़ दिया। इस घटना के बाद अंग्रेजों ने उनके परिवार को प्रताड़ित किया। घर गिराकर हल चलवा दिया। घर में रखे सारे सामानों को भी लूट लिया। आखिरकार, औपनिवेशिक अधिकारियों ने मिश्रा को स्वतंत्रता कार्यकर्ता #नसीरुद्दीन_मौज़ी के साथ गोली मारने के आरोप में पकड़ लिया। मिश्रा को अक्टूबर 1943 में #मेरठ के गाँधी आश्रम से गिरफ्तार किया गया और 27 जून 1944 को महज़ 24 साल के राजनारायण मिश्र को मौत की सजा सुनाई गई। पहली जुलाई को उन्हें लखनऊ जेल भेज दिया गया और बाद में चीफ कोर्ट ने भी उनकी सजा पर मोहर लगा दी।

🇮🇳 "शीघ्र ही आप लोगों के बीच से जा रहा । मेरे हृदय में किसी प्रकार का दु:ख नहीं है। आजादी के लिए मरने वाले किसी के प्रति द्वेष-भाव नहीं रखते हैं। हॅंसते-हँसते बलिवेदी पर चढ़ जाते हैं। किसी के प्रति कोई कटु वाक्य नहीं कहते हैं। जाने वाले का कौन साथ देता है। आप लोग किसी तरह की चिंता न करें। माँ ने मुझे हँसने के लिए ही पैदा किया था। अंतिम समय में भी हँसता ही रहूँगा।"

-- राजनारायण मिश्र ने जेल से झारखंडे राय को लिखे पत्र की चंद पंक्तियाँ

🇮🇳 बेशक, उन्हें प्रिवी कौंसिल में अपील की मोहलत मिली, लेकिन परिवार की गरीबी और समाज की कृतघ्नता के कारण वह अपील हो ही नहीं पाई। तब माफी माँग लेने की गोरों के प्रस्ताव का जवाब, उन्होंने अपनी इस अंतिम इच्छा से दिया था - एक यह कि वह स्वयं अपने गले में फंदा लटकाएंगे और फाँसी पर लटक जाने के बाद उनके पार्थिव शरीर को उनके जेल में बंद स्वतंत्रता सेनानी ही फंदे से मुक्त करेंगे।

~ आस्था सिंह

साभार: knocksense.com

ब्रिटिश साम्राज्य की आखिरी फाँसी पाने वाले राजनारायण मिश्र का जन्म वर्ष 1919 में बसंत पंचमी के दिन हुआ था और 9 दिसम्बर 1944 को प्रातः 4 बजे उन्होंने हँसते-हँसते फाँसी का फंदा चूम लिया था।

माँ भारती के अमर सपूत क्रांतिवीर को कोटि-कोटि नमन !

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

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25 फ़रवरी 2024

Radhacharan Goswami | राधाचरण गोस्वामी जी | 25 फरवरी 1859-12 दिसंबर 1925




राधाचरण गोस्वामी (Radhacharan Goswami, जन्म- 25 फरवरी, 1859, मृत्यु- 12 दिसंबर, 1925) ब्रज के निवासी एक साहित्यकार, नाटककार और संस्कृत के उच्च कोटि के विद्वान थे। आपने ब्रज भाषा का समर्थन किया। राधाचरण गोस्वामी खड़ी बोली पद्य के विरोधी थे। उनको यह आशंका थी कि खड़ी बोली के बहाने उर्दू का प्रचार हो जाएगा।

 🇮🇳 राधाचरण गोस्वामी का जन्म 25 फरवरी 1859 ई० को उत्तर प्रदेश के #वृंदावन (#मथुरा) में हुआ था। राधाचरण गोस्वामी के पिता का नाम #गल्लू_जी_महाराज (गुणमंजरी दास जी) था। गल्लू जी महाराज सन 1827 ईस्वी से 1890 ईसवी तक भक्त कवि रहे थे। आपके पिता धार्मिक प्रवृत्ति वाले व्यक्ति नहीं थे, आपके पिता के भाव राष्ट्रीयता, सामाजिक चेतना, प्रगतिशीलता तथा सामाजिक क्रांतिवादी की प्रज्वलित चिंगारियां थी। गोस्वामी जी भारतेंदु युग के कवि थे।


🇮🇳 राधाचरण गोस्वामी जी 1885 ई० में वृंदावन (मथुरा) नगर पालिका के सदस्य पहली बार निर्वाचित हुए थे। तथा दूसरी बार भी आप ही निर्वाचित हुए। वर्ष 1897 ई० को गोस्वामी जी तीसरी बार नगर पालिका सदस्य निर्वाचित हुए। अपने कार्यकाल में आपने वृंदावन की सड़कों में छह पक्की सड़कों का निर्माण कराया था। गोस्वामी जी कांग्रेस के आजीवन सदस्य तथा प्रमुख कार्यकारिणी सदस्य थे। 

🇮🇳 वर्ष 1888 ई० से 1894 ई० तक गोस्वामी जी वृंदावन की कांग्रेस समिति के सचिव रहे। गोस्वामी जी द्वारा रचित ग्रंथ में लिखा है, देश की उन्नति, नेशनल कांग्रेस, समाज संशोधन, स्त्री स्वतंत्रता, यह मेरी प्राण प्रिय वस्तुएं हैं। आपके अन्दर राजनीतिक चेतना भरी हुई थी। आपने राजनीतिक विषयों पर पत्रिकाएं भी लिखनी शुरू कर दी थी। गोस्वामी जी के प्रयासों से मथुरा रेल का संचालन हुआ था।

🇮🇳 राधाचरण गोस्वामी की रचनाएं– सती चंद्रावती, सुदामा, अमर सिंह राठौर, तन मन धन श्री गोसाई जी को अर्पण आदि।

पत्रिका– भारतेंदु (मासिक पत्रिका)

उपन्यास– बाल विधवा, विधवा विपत्ति, सर्वनाश, जावित्र, अलकचंद, वीरबाला, दीप निर्वाण, कल्पलता, सौदामिनी, विरजा आदि।

🇮🇳 राधाचरण गोस्वामी जी ने समस्या प्रधान उपन्यास, ऐतिहासिक उपन्यास, मौलिक सामाजिक उपन्यास आदि लिखे हैं। आप हिंदी के प्रथम समस्या मूलक उपन्यासकार थे।

🇮🇳 राधाचरण गोस्वामी जी हिंदी के भारतेंदु मंडल के साहित्यकार थे। आपके अंदर राष्ट्रवादी राजनीति की प्रखर चेतना थी। गोस्वामी जी की भारतीय राजनीतिक और राष्ट्रीय चेतना की पकड़ मजबूत थी। नवजागरण की मुख्यधारा में आपकी सक्रिय नीति तथा प्रमुख भूमिका थी। वर्ष 1883 ई० को गोस्वामी जी ने पश्चिमोत्तर तथा अवध में आत्म शासन की माँग की। 22 मई 1883 ई० में आपकी मासिक पत्रिका भारतेंदु में ‘पश्चिमोत्तर और अवध में आत्म शासन’ शीर्षक में संपादकीय अग्रलेख लिखा। 

🇮🇳 गोस्वामी जी भारत वासियों की सहायता से मातृभाषा हिंदी की उन्नति करना चाहते थे। वर्ष 1882 ई० में देश की मातृभाषा की उन्नति के लिए #अलीगढ़ में भाषा वर्धिनी सभा को आपने अपना समर्थन प्रदान करते हुए कहा, यदि हमारे देशवासियों की सहायता मिले तो इस सभा से भी हमारी देश भाषा की उन्नति होगी। 

🇮🇳 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में वाराणसी, इलाहाबाद, पटना, कोलकाता तथा वृंदावन (मथुरा) नवजागरण के पाँच प्रमुख केंद्र थे। गोस्वामी जी वृंदावन के एकमात्र प्रतिनिधि थे गोस्वामी जी सामाजिक रूढ़िवादियों के उग्र किन्तु अहिंसक विरोधी थे‌‌। आप सदा सामाजिक बुराइयों का कड़ा विरोध करते थे।

🇮🇳 राधाचरण गोस्वामी जी का क्रांतिकारियों के प्रति आस्था और विश्वास था। आपके उनसे बहुत अच्छे संबंध भी रहे। जब पंजाब केसरी #लाला_लाजपत_राय का आगमन दो बार वृंदावन (मथुरा) में हुआ था। तब दोनों बार गोस्वामी जी ने लाला लाजपत राय का शानदार स्वागत किया था। ब्रज माधव गौड़ीय संप्रदाय के श्रेष्ठ आचार्य होने के बावजूद उनकी बग्गी के घोड़ों के स्थान पर स्वयं ही उनकी बग्गी खींचकर आपने भारत के क्रांतिकारियों तथा राष्ट्र नेताओं के प्रति अपने उदांत भावना को सार्वजनिक परिचय से अवगत कराया। 22 नवंबर 1911 ईस्वी को महान क्रांतिकारी #रासबिहारी_बोस और #योगेश_चक्रवर्ती आपसे मिलने आपके घर पर आए थे। आपने उनका गर्मजोशी तथा प्रेम पूर्ण स्वागत किया था।

🇮🇳 राधाचरण गोस्वामी जी का निधन 12 दिसंबर 1925 को हुआ था।

साभार: gyanlight.com

🇮🇳 ब्रज माधव गौड़ीय संप्रदाय के श्रेष्ठ आचार्य, संस्कृत भाषा के उच्च कोटि के विद्वान, #समाजसुधारक, #देशप्रेमी तथा ब्रजभाषा समर्थक #कवि रहे, भारतेंदु युग के हिंदी #साहित्यकार, #उपन्यासकार, #निबंधकार, #पत्रकार, #नाटककार तथा #लेखक #राधाचरण_गोस्वामी जी को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था  #Radhacharan #Goswami  #Radhacharan_Goswami  #राधाचरण_गोस्वामी_जी  #25_February  


Modi Govt vs Supreme Court | मोदी से टकराने वाले का बर्बाद होना तय होता है | लेखक : सुभाष चन्द्र




CJI चंद्रचूड़ सत्ता के नशे में मत भूलना, #मोदी से टकराने वाले का  बर्बाद होना तय होता है और आप सब सीधे मोदी से टकरा रहे हो -

ये कोई नई बात नहीं है जब #CJI #चंद्रचूड़ के ऐसे बयान और आचरण सामने आते  हैं जिनसे पता चलता है वह प्रधानमंत्री मोदी को सहन ही नहीं कर पा रहे और वक्त वक्त पर जलील करने की कोशिश करते हैं लेकिन ऐसा करते हुए चंद्रचूड़ भूल जाते हैं कि मोदी से टकराने वाले का बर्बाद होना तय होता है क्योंकि मोदी ठंडी करके खाते हैं और आप उबलती खिचड़ी में मुंह मारते हो - 


पूर्व सैनिकों के #OROP केस में CJI चंद्रचूड़ ने #प्रधानमंत्री_मोदी को जलील करने की कोशिश की जब सरकार गोपनीय जानकारी #Sealed_Cover में देना चाहती थी लेकिन चंद्रचूड़ ने जलील करते हुए कहा कि सब कुछ खुला होना चाहिए - मणिपुर मामले में तो मोदी को सीधी धमकी दे दी थी कि सरकार कुछ नहीं करेगी तो हम करेंगे जबकि सरकार सब कुछ कर रही थी परंतु लक्ष्य मोदी को नीचा दिखाना था -


अब देखिए, 18 फरवरी को प्रधानमंत्री मोदी ने भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी के अधिवेशन का समापन करते हुए विस्तार से बताया कि महिला उत्थान के लिए पिछले 10 वर्ष में क्या किया गया - लेकिन अगले दिन 19 फरवरी को #Costal_Guards_Services में महिलाओं को #Permanent #Commission देने के लिए एक महिला अधिकारी प्रियंका त्यागी की याचिका सुनते हुए CJI चंद्रचूड़ ने सीधा प्रधानमंत्री मोदी को चुनौती देते हुए कहा 


“आप बहुत नारी शक्ति नारी शक्ति, अब यहां दिखाओ नारी शक्ति” 

"You speak of '#NariShakti Nari Shakti,' now show it here. You are at the deep end of the sea here. I don't think the Coast Guard can say they can fall out of line when the #Army and #Navy have done it all.


चंद्रचूड़ ने पहले भी सरकार, सेना और सेना प्रमुख को अवमानना की धमकी देकर #आर्मी में कुछ महिला अधिकारियों के Permanent Commission दिलाने का काम किया था और सच्चाई यह है कि देश की रक्षा करने वाली सेना का घोर अपमान किया था -


चंद्रचूड़ की मंशा जितनी Coastal Guard Services में महिलाओं को Permanent Commission दिलाने की थी उससे ज्यादा मक्कार नीयत प्रधानमंत्री मोदी को “बेइज़्ज़त” करने की थी - 

"You speak of 'Nari Shakti Nari Shakti,' now show it here - यह वाक्य कह कर चंद्रचूड़ ने मोदी को प्रमाणपत्र दे दिया कि उसने नारी शक्ति के लिए कुछ नहीं किया 


यह कह कर चंद्रचूड़ ने किसी विपक्षी दल के नेता से बदतर भूमिका निभाने का काम किया है और मोदी को सीधे ललकारा है - इससे बड़ी निर्लज्जता #चंद्रचूड़ और उसके साथी #जज बेंच में बैठ कर नहीं दिखा सकते -


इतना ही नहीं, चंद्रचूड़ की बेंच ने संदेशखाली मामले में सांसद सुकान्त मजूमदार के अपमान के मामले में संसद की अवमानना कार्रवाई पर रोक लगा दी वह भी #कपिल_सिब्बल की दलील पर जिसमे उसने कहा कि यह विषय #संसद के काम से सम्बंधित नहीं है और इसलिए #Privilege_Issue नहीं बनता क्योंकि सांसद ने अपनी शक्ति का अतिक्रमण किया है - 


चंद्रचूड़, उनके साथी जजों, #सिब्बल और #सिंघवी को पता नहीं कि इसका मतलब यह भी निकलता है कि जजों के खिलाफ सड़कों पर कुछ भी बोला जा सकता है जिस पर अदालत की अवमानना केस नहीं बनेगा क्योंकि वह केवल #अदालत में कुछ करने पर ही बन सकता है 


यही चंद्रचूड़ #मणिपुर के लिए उबाल खा रहे थे और यहां #संदेशखाली में महिलाओं के साथ हुए दुर्व्यवहार पर इन्हें सांप सूंघ गया है क्योंकि #जस्टिस #नागरत्ना ने दूसरी बेंच में कहा है कि #संदेशखाली और #मणिपुर में कोई समानता नहीं है -


सच्च यही है चंद्रचूड़ प्रधानमंत्री मोदी से सीधे टकराने की कोशिश कर रहे हैं - ये सत्ता में बैठ कर कुछ भी बोल सकते हैं चाहे भाषा की मर्यादा ही क्यों न टूट जाए जबकि मोदी इनसे बड़ी सत्ता में होते हुए भी मर्यादा नहीं लांघ सकते - लेकिन यह निश्चित है मोदी से “नाहक” टकराने वाले की दुर्गति होना तय है - कैसे हुई है लोगों की विगत में, चंद्रचूड़ को उस पर ध्यान देना चाहिए - "लेखक के निजी विचार हैं "


 लेखक : सुभाष चन्द्र | “मैं वंशज श्री राम का” 25/02/2024 

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24 फ़रवरी 2024

Guru Ravidas Jayanti | संत शिरोमणि गुरु रविदास जयंती | माघ मास की पूर्णिमा




गुरू रविदास जी (रैदास)  का जन्म काशी में माघ पूर्णिमा दिन रविवार को संवत 1377 को हुआ था उनका एक दोहा प्रचलित है। चौदह सौ तैंतीस कि माघ सुदी पन्दरास। दुखियों के कल्याण हित प्रगटे श्री गुरु रविदास जी । उनके पिता संतोख दास तथा माता का नाम कलसांं देवी था। उनकी पत्नी का नाम लोना देवी बताया जाता है। 


रविदाजी पंजाब में रविदास कहा। उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान में उन्हें रैदास के नाम से ही जाना जाता है। गुजरात और महाराष्ट्र के लोग 'रोहिदास' और बंगाल के लोग उन्हें 'रुइदास' कहते हैं। कई पुरानी पांडुलिपियों में उन्हें रायादास, रेदास, रेमदास और रौदास के नाम से भी जाना गया है। कहते हैं कि माघ मास की पूर्णिमा को जब रविदास जी ने जन्म लिया वह रविवार का दिन था जिसके कारण इनका नाम रविदास रखा गया। उनका जन्म माघ माह की पूर्णिमा को हुआ था।

संत शिरोमणि कवि रविदास का जन्म माघ पूर्णिमा को 1376 ईस्वी को उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर

गोबर्धनपुर गांव में हुआ था। उनकी माता का नाम कर्मा देवी (कलसा) तथा पिता का नाम संतोख दास (रग्घु) था। उनके दादा का नाम श्री कालूराम जी, दादी का नाम श्रीमती लखपती जी, पत्नी का नाम श्रीमती लोनाजी और पुत्र का नाम श्रीविजय दास जी है। रैदास ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त ज्ञान प्राप्त किया था। रविदासजी चर्मकार कुल से होने के कारण  संत रविदास जी जूते बनाने का काम किया करते थे औऱ ये उनका व्यवसाय था और अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे। कई लोगों का मानना है कि संत रविदास जी का कोई गुरु नहीं था लेकिन उन्होंने स्वामी रामानंद जी महाराज से दीक्षा ली थी तथा उन्हें के द्वारा बताए हुए मार्ग पर वह साधना किया करते थे |

और वे पूरी लगन तथा परिश्रम से अपना कार्य करते थे।

उनका जन्म ऐसे समय में हुआ था जब उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में मुगलों का शासन था चारों ओर अत्याचार, गरीबी, भ्रष्टाचार व अशिक्षा का बोलबाला था। उस समय मुस्लिम शासकों द्वारा प्रयास किया जाता था कि अधिकांश हिन्दुओं को मुस्लिम बनाया जाए। संत रविदास की ख्याति लगातार बढ़ रही थी जिसके चलते उनके लाखों भक्त थे जिनमें हर जाति के लोग शामिल थे। यह सब देखकर एक परिद्ध मुस्लिम 'सदना पीर' उनको मुसलमान बनाने आया था। उसका सोचना था कि यदि रविदास मुसलमान बन जाते हैं तो उनके लाखों भक्त भी मुस्लिम हो जाएंगे। ऐसा सोचकर उनपर हर प्रकार से दबाव बनाया गया था लेकिन संत रविदास तो संत थे उन्हें किसी हिन्दू या मुस्लिम से नहीं मानवता से मतलब था ।

संत रविदासजी बहुत ही दयालु और दानवीर थे। संत रविदास ने अपने दोहों व पदों के माध्यम से समाज में जातिगत भेदभाव को दूर कर सामाजिक एकता पर बल दिया और मानवतावादी मूल्यों की नींव रखी। रविदासजी ने सीधे-सीधे लिखा कि रैदास जन्म के कारने होत न कोई नीच, नर कूं नीच कर

है, ओछे करम की नीच' यानी कोई भी व्यक्ति सिर्फ अपने कर्म से नीच होता है। जो व्यक्ति गलत काम करता है वो नीच होता है । कोई भी व्यक्ति जन्म के हिसाब से कभी नीच नहीं होता । संत रविदास

अपनी कविताओं के लिए जनसाधारण की ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। साथ ही इसमें अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली और रेख्ता यानी उर्दू-फारसी के शब्दों का भी मिश्रण है। रविदासजी के लगभग चालीस पद सिख धर्म के पवित्र धर्मग्रंथ 'गुरुग्रंथ साहब' में भी सम्मिलित किए गए है।

कहते हैं कि स्वामी रामानंदाचार्य वैष्णव भक्तिधारा के महान संत हैं। संत रविदास उनके शिष्य थे। संत रविदास तो संत कबीर के समकालीन व गुरूभाई माने जाते हैं। स्वयं कबीरदास जी ने 'संतन में रविदास' कहकर इन्हें मान्यता दी है। राजस्थान की कृष्णभक्त कवयित्री मीराबाई उनकी शिष्या थीं। यह भी कहा जाता है कि चित्तौड़ के राणा सांगा की पत्नी झाली रानी उनकी शिष्या बनीं थीं। वहीं चित्तौड़ में संत रविदास की छतरी बनी हुई है। मान्यता है कि वे वहीं से स्वर्गारोहण कर गए थे। हालांकि इसका कोई आधिकारिक विवरण नहीं है लेकिन कहते हैं कि वाराणसी में 1540 ईस्वी में उन्होंने देह छोड़ दी थी।

वाराणसी में संत रविदास का भव्य मंदिर और मठ है। जहां सभी जाति के लोग दर्शन करने के लिए आते हैं। वाराणसी में श्री गुरु रविदास पार्क है जो नगवा में उनके यादगार के रुप में बनाया गया है जो उनके नाम पर 'गुरु रविदास स्मारक और पार्क' बना है।

साभार : webdunia.com

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था  #Guru_Ravidas _Jayanti  #Redas  #संत_शिरोमणि  #गुरु_रविदास_जयंती | #24_February  #पूर्णिमा


Anant Pai | Uncle Pai | Cartoonist | Educationist | अनंत पई | अंकल पई | 17 सितंबर 1929-24 फरवरी 2011

 



#Anant Pai  | #Uncle Pai | #Educationist   | #अनंत पई | #अंकल पई  | 17 सितंबर 1929-24 फरवरी 2011

🇮🇳 #संस्कृति_रक्षक इस #कार्टूनिस्ट का नाम था अनंत पई. बच्चों के बीच ऐसे #फेमस हुए कि अंकल पई बन गए. 🇮🇳

🇮🇳 फरवरी का महीना था. साल था 1967. दूरदर्शन पर एक कॉन्टेस्ट चल रहा था. उसमें सवाल आया “रामायण में भगवान की माता का नाम क्या था?” सारे पार्टिसिपेंट गच्चा खा गए. कोई बता नहीं पाया. टाइम्स ऑफ इंडिया के दफ्तर में कॉमिक्स का डिपार्टमेंट देखने वाला एक आदमी ये सब देख रहा था. उकताहट से भर गया. अपने देश के फ्यूचर को ऐसे पंगु होता देखना बर्दाश्त नहीं हो रहा था. उसने फैसला किया कि अपनी क्रिएटिविटी से वो इस पीढ़ी को #सामान्य_ज्ञान और #नैतिक_शिक्षा पढ़ाएगा. वो भी फुल मनोरंजन देकर, बिना बोर किए. नौकरी छोड़ दी और रची #अमर_चित्र_कथा. इस कार्टूनिस्ट का नाम था अनंत पई. बच्चों के बीच ऐसे फेमस हुए कि अंकल पई बन गए.

🇮🇳 अब से 15-20 साल पहले भारत में वो माहौल था जब बच्चों के पास मनोरंजन के लिए कॉमिक्स सबसे ऊपर थीं. क्योंकि उनको टीचर्स और पेरेंट्स से छिपाने की जरूरत नहीं पड़ती थी. #नागराज, #डोगा, #शक्ति, #परमाणु, #सुपर_कमांडो #ध्रुव, #भोगाल, #मोटू_पतलू सब ऐसे नहीं थे जिनसे घर वाले खार खाएं. इसलिए ये कॉमिक्स किराए पर चलती थीं. इन सबको रास्ता दिया अनंत पई ने. उन्होंने ऐसा रास्ता खोला जो इन सुपर हीरोज की शक्ल में स्कूली बस्तों में जाता था. हर शाम इनकी अदल बदल होती थी दोस्तों से. इसलिए अमर चित्र कथा से पहले बात उसके पापा अनंत पई की. जिसको भारत का वॉट डिजनी कहा जाता था.

🇮🇳 भारत में अंग्रेजों का राज था. टीपू सुल्तान का #मैसूर कब का उनके कब्जे में आ चुका था. वहाँ की राजधानी हुआ करती थी #कारकला. वहीं 17 सितंबर 1929 को #वेंकटराय और #सुशीला के घर पैदा हुए अनंत पई. पढ़ाई में अव्वल थे तो इंजीनियरिंग कर ली. तब इसके बारे में ये नहीं कहते थे कि “बहुत स्कोप है.” फिर भी कर ली लेकिन करियर जर्नलिज्म में बनाया.

🇮🇳 अब बात दुनिया भर में 8 लाख 86 हजार कॉपीज़ की महा सेलिंग वाली अमर चित्र कथा की. अमर चित्र कथा में रामायण से शुरू होकर भारत में फैली लगभग सारी माइथॉलजी, एपिक, इतिहास की कहानियां इसमें आ गईं. #भारत के उन बच्चों को जो अपनी परंपरा और संस्कृति से अनजान थे उनको उससे रूबरू कराने का लक्ष्य था.

🇮🇳 अमर चित्र कथा दरअसल शुरू सन 1965 में ही हो गई थी. वो भी कन्नड़ में. इसका आइडिया बैंगलोर के एक सेल्समैन ने दिया था जिसका नाम था #जी_के_अनंत_राम. इंगलिश में अमर चित्र कथा के नाम से 11वाँ अंक निकला, बाकी 10 कन्नड़ में थे. फिर इस आइडिया पर अनंत पई का हाथ लगा तो भयंकर चमक गया. उन्होंने प्रोफेशनल राइटर्स की टीम खड़ी की. जिसमें खास थे #मार्गी_शास्त्री, #सुब्बा_राव, #दिवरानी_मित्रा, #कमला_चंद्रकांत वगैरह. इन सबके साथ एडिटिंग और स्टोरी पर काम करते थे अनंत पई, तब इतने ऊँचे तक ये मुहिम पहुँच सकी.

🇮🇳 जब नई नई कॉमिक्स शुरू हुई तो टीम लंबी थी, बजट कम. सपने की उड़ान लंबी थी, पंख छोटे. इसलिए शुरुआती कॉमिक्स में रंग बहुत कम थे. सिर्फ पीला, नीला और हरा. हालांकि आगे जाकर प्रॉब्लम सॉल्व हो गई. फिर जो शुरू हुई तो #जातक_कथा, #पंचतंत्र, #रामायण, #महाभारत, #अकबर_बीरबल सबको लपेट लिया. थोड़ी कंट्रोवर्सी भी हुई. कहा गया कि इसमें हमारे पुराने स्टीरियो टाइप जारी रखे गए हैं जिनमें हीरो गोरा चिट्टा और राक्षस या विलेन काला रहता था. कभी ब्राह्मणवादी कल्चर को बढ़ावा देते. लेकिन इन आलोचनाओं के बाद भी अमर चित्र कथा की पापुलरिटी घटने की बजाय बढ़ती रही.

🇮🇳 दुनिया जब डिजिटल होने लगी तो अमर चित्र कथा भी हुई. 2007 में नए कलेवर ACK मीडिया के रूप में आया. 2008 में इसकी वेबसाइट भी लॉन्च हो गई. 24 फरवरी को 2011 में अंकल पई की हार्ट अटैक से डेथ हो गई थी.  अब अंकल पई इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनका सपना रहती दुनिया तक रहेगा.

साभार: thelallantop.com

🇮🇳 बच्चों को परंपरागत भारतीय लोक कथाओं, पौराणिक कहानियाँ और ऐतिहासिक पात्रों की जीवनियों से अवगत कराने वाली श्रृंखला #अमर_चित्रकथा के संस्थापक, हिंदी साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित भारतीय शिक्षा शास्त्री #अनंत_पई जी को उनकी पुण्यतिथि पर साहित्यप्रेमियों की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि !

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था  #Film #Anant_Pai  #Uncle_Pai  #Cartoonist  #Educationist   #24February

Rukmini Devi Arundale | रुक्मिणी देवी अरुंडेल | प्रसिद्ध भारतीय_नृत्यांगना | 29 February, 1904-24 February, 1986

 


🇮🇳 #रुक्मिणी देवी अरुंडेल (जन्म- 29 फ़रवरी, 1904; मृत्यु- 24 फ़रवरी, 1986) प्रसिद्ध #भारतीय_नृत्यांगना थीं। 


#Rukmini_Devi_Arundale (born- #29February, 1904; died- #24February, 1986) was a f#amous #Indian_dancer. 


उन्होंने #भरतनाट्यम नृत्य में भक्तिभाव को भरा तथा नृत्य की अपनी एक परंपरा आरम्भ की। कला के क्षेत्र में रुक्मिणी देवी को 1956 में 'पद्म भूषण' से सम्मानित किया गया था। गौरतलब है कि 1920 के दशक में भरतनाट्यम को अच्छी नृत्य शैली नहीं माना जाता था और तब लोग इसका विरोध करते थे, बावजूद इसके रुक्मिणी देवी ने न केवल इसका समर्थन किया बल्कि इस कला को अपनाया भी।

🇮🇳 #रुक्मिणी_देवी का जन्म 29 फ़रवरी, 1904 को #तमिलनाडु के #मदुरै ज़िले में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पारंपरिक रीति-रिवाजों के बीच पली-बढ़ी रुक्‍मिणी देवी ने महान् संगीतकारों से भारतीय संगीत की शिक्षा ली। रुक्‍मिणी के पिता संस्कृत के विद्वान् और एक उत्साही #थियोसोफिस्‍ट थे। इनके समय में लड़कियों को मंच पर नृत्य करने की इजाजत नहीं थीं। ऐसे में नृत्य सीखने के साथ-साथ रुक्मिणी देवी ने तमाम विरोधों के बावजूद इसे मंच पर प्रस्तुत भी किया। सिर्फ यही नहीं, उन्‍होंने नृत्‍य की कई विधाओं को खुद बनाया भी और उन्‍हें अपने भाव में विकसित किया।

🇮🇳 रुक्मिणी देवी की रूचि बाल शिक्षा के क्षेत्र में भी थी। नई प्रणाली की शिक्षा का प्रशिक्षण देने के लिए उन्होंने हॉलेंड से मैडम मोंटेसरी को भारत आमंत्रित किया था।

🇮🇳 एक थियोसोफिकल पार्टी में रुक्‍मिणी देवी की मुलाकात #जॉर्ज_अरुंडेल से हुई। जॉर्ज अरुंडेल डॉ. श्रीमती #एनी_बेसेंट के निकट सहयोगी थे। यहाँ मुलाकात के दौरान जॉर्ज को रुक्‍मिणी से प्‍यार हो गया और उन्‍होंने 16 साल की उम्र में ही रुक्‍मिणी के सामने विवाह का प्रस्‍ताव रख दिया। उसके बाद 1920 में दोनों का विवाह हो गया। इसके बाद रुक्‍मिणी का नाम 'रुक्‍मिणी अरुंडेल' हो गया।

🇮🇳 रुक्मिणी देवी को जानवरों से बहुत प्‍यार था। #राज्‍यसभा_सांसद बनकर उन्‍होंने 1952 और 1956 में पशु क्रूरता निवारण के लिए एक विधेयक का भी प्रस्‍ताव रखा था। ये विधेयक 1960 में पास हो गया। रुक्मिणी देवी 1962 से 'एनिमल वेलफेयर बोर्ड' की चेयरमैन भी रही थीं।

🇮🇳 सन 1956 में कला के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए रुक्मिणी देवी को '#पद्म_भूषण' से सम्मानित किया गया था। 1957 में 'संगीत नाटक अवार्ड' और 1967 में 'संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप' मिला।

🇮🇳 1977 में #मोरारजी देसाई ने रुक्मिणी देवी को #राष्ट्रपति के पद की पेशकश की थी, पर इन्होंने राष्ट्रपति भवन से ज्यादा महत्त्व अपनी कला अकादमी को दिया तथा उनकी पेशकश को स्वीकार नहीं किया।

साभार: bharatdiscovery.org

🇮🇳 #पद्मभूषण से सम्मानित; #भरतनाट्यम की प्रसिद्ध भारतीय #नृत्यांगना #रुक्मिणी_देवी_अरुंडेल  जी को उनकी पुण्यतिथि पर कलाप्रेमियों की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि !

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था  #Film #Actress  #Madhubala  #मधुबाला | #14_February  #23February 

Makar Sankranti मकर संक्रांति

  #मकर_संक्रांति, #Makar_Sankranti, #Importance_of_Makar_Sankranti मकर संक्रांति' का त्यौहार जनवरी यानि पौष के महीने में मनाया जाता है। ...