23 फ़रवरी 2024

Film Actress | Madhubala | मधुबाला | 14 February 1933- 23 February 1969



 Film Actress | Madhubala | मधुबाला | 14 February 1933- 23 February 1969 


मधुबाला (जन्म: 14 फ़रवरी 1933, दिल्ली - निधन: 23 फ़रवरी 1969, मुंबई) भारतीय हिन्दी फ़िल्मों की एक अभिनेत्री थी उनके अभिनय में एक आदर्श भारतीय नारी को देखा जा सकता है| 


मधुबाला का जन्म 14 फ़रवरी 1933 को दिल्ली में एक मुस्लिम पठान परिवार में हुआ था. उनका नाम रखा गया था मुमताज़ बेगम जहाँ देहलवी.


मधुबाला अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जानी जाती थीं, और उन्होंने कभी भी भारी मेकअप या कॉस्मेटिक सर्जरी के साथ अपनी विशेषताओं को बदलने की कोशिश नहीं की। उन्होंने अपनी प्राकृतिक सुंदरता को अपनाया और इसने उन्हें उद्योग में अलग पहचान दिलाई।


मधुबाला का करियर उनके समकालीनों में सबसे छोटा था, लेकिन जब तक उन्होंने अभिनय छोड़ दिया, तब तक उन्होंने 70 से अधिक फिल्मों में सफलतापूर्वक अभिनय किया था।


मधुबाला का जन्म वेंट्रिकुलर सेप्टल दोष के साथ हुआ था, जो एक जन्मजात हृदय विकार था जिसका उस समय कोई इलाज नहीं था। मधुबाला ने अपना अधिकांश बचपन दिल्ली में बिताया और बिना किसी स्वास्थ्य समस्या के बड़ी हुईं।


मुगल-ए-आज़म में उनका अभिनय विशेष उल्लेखनीय है। इस फ़िल्म मे सिर्फ़ उनका अभिनय ही नही बल्कि 'कला के प्रति समर्पण' भी देखने को मिलता है। इसमें 'अनारकली' की भूमिका उनके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही। उनका लगातार गिरता हुआ स्वास्थ्य उन्हें अभिनय करने से रोक रहा था लेकिन वो नहींं रूकीं। उन्होने इस फ़िल्म को पूरा करने का दृढ निश्चय कर लिया था।


अगस्त 1960  को जब #मुगले-ए-आज़म प्रदर्शित हुई तो फ़िल्म समीक्षकों तथा दर्शकों को भी ये मेहनत और लगन साफ़-साफ़ दिखाई पड़ी। असल मे यह मधुबाला की मेहनत ही थी जिसने इस फ़िल्म को सफ़लता के चरम तक पँहुचाया। इस फ़िल्म के लिये उन्हें फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार के लिये नामित किया गया था। हालांकि यह #पुरस्कार उन्हें नहीं मिल पाया।


इस फ़िल्म की लोकप्रियता के वजह से ही इस फ़िल्म को 2004 मे पुनः रंग भर के पूरी दुनिया मे प्रदर्शित किया गया।


महज 36 साल की उम्र में इस दुनिया से विदा लेने वाली मधुबाला ने 16 अक्टूबर 1960 को किशोर कुमार से  से अदालत में शादी की,  लेकिन अपना अधिकांश समय अपने पिता के घर में बिताया। धार्मिक मतभेदों के कारण अपने ससुराल वालों की कड़वाहट से बचने के लिए, मधुबाला बाद में बांद्रा के क्वार्टर डेक में किशोर के नए खरीदे गए फ्लैट में चली गईं। इसके 9 साल बाद 23 फरवरी 1969 को वह चल बसीं।


उनके मृत्यु के २ साल बाद यानि 1971  मे उनकी एक #फ़िल्म जिसका नाम ज्वाला था प्रदर्शित हो पायी थी।

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था  #Film #Actress  #Madhubala  #मधुबाला | #14_February  #23February 

Dr. Mahendralal Sarkar | डॉ. महेन्द्रलाल सरकार | November 2, 1833-February 23, 1904

 


🇮🇳 बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, रामकृष्ण परमहंस और त्रिपुरा के महाराजा जैसे दिग्गजों के चिकित्सक रहे डॉ. महेन्द्रलाल सरकार एलोपैथी की शिक्षा लेकर भी होम्योपैथी को अपनाकर और उसी के माध्यम से चिकित्सा करने वाले #चिकित्सक थे। 🇮🇳

🇮🇳 #महेन्द्रलाल सरकार (जन्म- 2 नवंबर, 1833; मृत्यु- 23 फ़रवरी, 1904) भारत में #होम्योपैथी को अहम चिकित्सा विधा के तौर पर स्थापित करने वालों में अग्रणी थे। वह एक #चिकित्सक, #समाज_सुधारक तथा #वैज्ञानिक चेतना के प्रसारक नेता थे। 'इण्डियन एसोसियेशन फॉर द कल्टिवेशन ऑफ साईन्स' की स्थापना महेन्द्रलाल सरकार ने ही की थी। वह कलकता मेडिकल कॉलेज के दूसरे स्नातक मेडिकल डॉक्टर थे। यद्यपि उन्होंने एलोपैथी की शिक्षा ली थी, फिर भी होम्योपैथी को अपनाया और उसी के माध्यम से चिकित्सा की।

Mahendralal Sarkar (2nd November 1833 - 23rd February 1904) was a medical doctor (MD), the second MD graduated from the #Calcutta #Medical College, social reformer, and propagator of #scientific studies in nineteenth-century India. He was the founder of the #Indian #Association for the #Cultivation of Science (#IACS).

🇮🇳 महेन्द्रलाल सरकार का जन्म 2 नवंबर, 1833 को #कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के पास #पाइकपाड़ा (मुसिरहाट) नामक गाँव में हुआ था, जो हावड़ा ज़िला के अन्तर्गत आता था। उनके पिता का नाम #तारकनाथ_सरकार था। महेन्द्रलाल सरकार जब पाँच वर्ष के थे, तब उनके पिता का देहान्त हो गया और जब वह नौ वर्ष के थे, तब उनकी माता का निधन हो गया। उनकी माँ उनके मामा के घर कोलकाता में आ गयीं थीं और उनकी मृत्यु के पश्चात उनका पालन-पोषण अपने मामा के घर ही हुआ, जो कलकाता के #नेबूतला में था।

🇮🇳 उन्हें कई बार कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में पढ़ाई के दौरान कई विषयों पर लेक्चर देने का मौका मिला।

🇮🇳 डॉ. महेन्द्रलाल सरकार ने ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन की एक बैठक में #होम्योपैथी को पश्चिमी इलाज से बेहतर बताया था।

🇮🇳 उन्होंने दवाओं से जुड़कर पारंपरिक यूरोपीय अध्ययन करने के बावजूद होम्योपैथी में ज्यादा यकीन दिखाया।

🇮🇳 जहाँ भारत में आज भी अंग्रेजी दवाईयों का दबदबा है, वहाँ डॉ. महेन्द्रलाल सरकार ने अंग्रेजी दवाइयों के सामने होम्योपैथी को बढ़ावा दिया। वह मानते थे कि जो असर होम्योपैथी दवाइयों में हैं, वह किसी अंग्रेजी दवा में नहीं है। आज भी ऐसी कई बीमारियां है, जिनका इलाज होम्योपैथिक दवाइयों से किया जाता है।

🇮🇳 डॉ. महेन्द्रलाल सरकार ने साल 1876 में फादर यूजेन लफॉ के साथ मिलकर 'इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्टिवेशन ऑफ साइंस' की नींव रखी। यह देश का सबसे पुराना शोध संस्थान है।

साभार: bharatdiscovery.org

🇮🇳 एलोपैथी की शिक्षा लेकर भी होम्योपैथी को अपनाकर और उसी के माध्यम से चिकित्सा करने वाले #चिकित्सक, #समाजसुधारक तथा वैज्ञानिक चेतना के प्रसारक #डॉ_महेन्द्रलाल_सरकार जी को उनकी पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि !

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

#Dr_Mahendralal_Sarkar #February_23  #आजादी_का_अमृतकाल  #23February  #independence #movement #देशभक्त #Freedom_Fighter 

Sardar Ajit Singh | क्रांतिकारी सरदार अजीत सिंह (शहीद भगत सिंह के चाचा ) | February 23, 1881- August 15, 1947

 



Sardar Ajit Singh (February 23, 1881- August 15, 1947)

🇮🇳 #भारत के #स्वतंत्रता संघर्ष में #अतुलनीय योगदान है #Freedom_Fighter #सरदार_अजीत_सिंह का। 🇮🇳

🇮🇳 देश निकाले का दण्ड के बाद लगभग 40 वर्षों तक विदेश में रहकर 40 भाषाओं पर अधिकार; ईरान के रास्ते तुर्की, जर्मनी, ब्राजील, स्विट्जरलैंड, इटली, जापान आदि देशों में रहकर क्रांति का बीजारोपण करते रहे। 🇮🇳

🇮🇳 14 अगस्त 1947 की शाम भारत की #आजादी की खबर सुनकर हुए खुश और भारत विभाजन की खबर से व्यथित होकर 15 अगस्त 1947 को सुबह 4 बजे त्याग दिया शरीर 🇮🇳

🇮🇳 सरदार अजीत सिंह (जन्म- 23 फ़रवरी, 1881, जालंधर ज़िला, पंजाब; मृत्यु- 15 अगस्त, 1947) भारत के सुप्रसिद्ध राष्ट्रभक्त एवं क्रांतिकारी थे। ये प्रख्यात शहीद सरदार भगत सिंह के चाचा थे।

🇮🇳 सरदार अजीत सिंह का जन्म पंजाब के #जालंधर ज़िले के एक गॉंव #खटकड़_कलां में 23 फ़रवरी, सन 1881 को हुआ था। उन्होंने जालंधर और #लाहौर से शिक्षा ग्रहण की। 40 साल तक एकाकी और तपस्वी जीवन बिताने वाली सरदार अजीत सिंह की पत्नी श्रीमती #हरनाम_कौर भी वैसे ही जीवंत व्यक्तित्व वाली महिला थीं।



🇮🇳 सरदार अजीत सिंह को राजनीतिक 'विद्रोही' घोषित कर दिया गया था। उनका अधिकांश जीवन जेल में बीता। 1906 ई. में #लाला_लाजपत_राय जी के साथ ही साथ उन्हें भी देश निकाले का दण्ड दिया गया था। सरदार अजीत सिंह ने 1907 के भू-संबंधी आन्दोलन में हिस्सा लिया तथा इन्हें गिरफ्तार कर #बर्मा की #माण्डले जेल में भेज दिया गया। 

🇮🇳 इन्होंने कुछ पत्रिकाएं निकाली तथा भारतीय स्वाधीनता के अग्रिम कारणों पर अनेक पुस्तकें लिखी। सरदार अजीत सिंह ने हिटलर और मुसोलिनी से मुलाकात की। मुसोलिनी तो उनके व्यक्तित्व के मुरीद थे। इन दिनों में सरदार अजीत सिंह ने 40 भाषाओं पर अधिकार प्राप्त कर लिया था।

🇮🇳 अजीत सिंह के बारे में कभी श्री #बाल_गंगाधर_तिलक ने कहा था ये स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति बनने योग्य हैं। जब तिलक ने ये कहा था तब सरदार अजीत सिंह की उम्र केवल 25 वर्ष थी। 

🇮🇳 1909 में सरदार अपना घर बार छोड़ कर देश सेवा के लिए विदेश यात्रा पर निकल चुके थे, उस समय उनकी उम्र 27 वर्ष की थी। ईरान के रास्ते तुर्की, जर्मनी, ब्राजील, स्विट्जरलैंड, इटली, जापान आदि देशों में रहकर उन्होंने क्रांति का बीज बोया और आजाद हिन्द फौज की स्थापना की। अजीत सिंह ने भारत और विदेशों में होने वाली क्रांतिकारी गतिविधियों में पूर्ण रूप से सहयोग दिया। उन्होंने भारत में ब्रिटिश शासन को चुनौती दी तथा भारत के औपनिवेशिक शासन की आलोचना की और खुलकर विरोध भी किया। रोम रेडियो को तो अजीत सिंह ने नया नाम दे दिया था, '#आजाद_हिन्द_रेडियो' तथा इसके मध्यम से क्रांति का प्रचार प्रसार किया। अजीत सिंह परसिया, रोम तथा दक्षिणी अफ्रीका में रहे तथा सन 1947 को भारत वापिस लौट आए। भारत लौटने पर पत्नी ने पहचान के लिए कई सवाल पूछे, जिनका सही जवाब मिलने के बाद भी उनकी पत्नी को विश्वास नहीं हुआ। अजीत सिंह इतनी भाषाओं के ज्ञानी हो चुके थे कि उन्हें पहचानना बहुत ही मुश्किल था।


🇮🇳 जिस दिन भारत आजाद हुआ उस दिन सरदार अजीत सिंह की आत्मा भी शरीर से मुक्त हो गई। भारत के विभाजन से वे इतने व्यथित थे कि 15 अगस्त, 1947 के सुबह 4 बजे उन्होंने अपने पूरे परिवार को जगाया, और जय हिन्द कह कर दुनिया से विदा ले ली।

साभार : bharatdiscovery.org

🇮🇳 शहीद-ए-आजम भगत सिंह के चाचा #देशभक्त सरदार अजीत सिंह का #डलहौजी से गहरा नाता रहा है। वर्ष 1947 में अजीत सिंह डलहौजी में गाँधी चौक के समीप स्थित #बसंत_कोठी में रहते थे। 14 अगस्त को जब उन्होंने डलहौजीवासियों के साथ रेडियो पर भारत के आजाद होने का समाचार सुना तो अन्य लोगों के साथ खुशी से झूम उठे थे, परंतु साथ ही देश के विभाजन की खबर सुनने के बाद उन्हें बहुत दु:ख हुआ और वह चुपचाप बसंत कोठी में चले गए। #15_अगस्त की सुबह जब वह कमरे से बाहर नहीं निकले तो लोगों ने कमरा खोला। देखा कि अजीत सिंह मृत पड़े थे। 15 अगस्त को #डलहौजी के #पंजपुला में ही उनका अंतिम संस्कार किया गया था। अजीत सिंह के अंतिम संस्कार में मानो पूरा पंजाब उमड़ आया था। पंजपुला से डलहौजी के बस स्टैंड तक करीब पाँच किलोमीटर तक हजारों लोगों की भीड़ जुट गई थी।

🇮🇳 अमर बलिदानी #सरदार #भगत_सिंह के चाचा, भारत के सुप्रसिद्ध #राष्ट्रभक्त एवं #क्रांतिकारी #सरदार_अजीत_सिंह जी को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

#Sardar_Ajit_Singh #February_23  #आजादी_का_अमृतकाल  #23February  #independence #movement #देशभक्त #Freedom_Fighter #bhagat_singh

22 फ़रवरी 2024

Kamala Choudhary | कमला चौधरी | Born- February 22, 1908 | Indian writer and Member of Parliament (1908–1970)

 



🇮🇳🔰 कमला चौधरी (जन्म- 22 फ़रवरी, 1908, #लखनऊ; मृत्यु- 1970, #मेरठ) उन महिला समाज-सुधारकों और लेखिकाओं में से एक थीं, जिन्होंने महिलाओं के जीवन स्तर में सुधार लाने के लिए सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक स्तर पर प्रयास किया। शाही सरकार के लिए अपने परिवार की निष्ठा से दूर जाने से कमला चौधरी राष्ट्रवादियों में शामिल हो गईं और साल 1930 में #गॉंधीजी द्वारा शुरू किये गए 'नागरिक अवज्ञा आंदोलन' में उन्होंने सक्रियता से हिस्सा लिया। वह अपने 50वें सत्र में 'अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी' की उपाध्यक्ष थीं और सत्तर के उत्तरार्ध में लोकसभा के सदस्य के रूप में चुनी गयी थीं। कमला चौधरी एक प्रसिद्ध कथा लेखिका भी थीं। उनकी कहानियां आमतौर पर महिलाओं की आंतरिक दुनिया या आधुनिक राष्ट्र के रूप में भारत के उद्भव से निपटाती थीं।

🇮🇳🔰 उत्तर प्रदेश के #लखनऊ में 22 फ़रवरी, 1908 को डिप्टी कलेक्टर पिता #राय_मनमोहन_दयाल के घर कमला चौधरी का जन्म हुआ। लड़की होने के कारण पढ़ाई-लिखाई करने के लिए उनको परिवार में काफी संघर्ष करना पड़ा। अलग-अलग शहरों में पली-बढ़ी कमला चौधरी ने पंजाब विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में रत्न और प्रभाकर की उपाधि हासिल की। साहित्य के प्रति उनकी रूचि स्कूली जीवन के समय से ही थी। महिलाओं के सामाजिक स्थिति के बारे में लेखन भी उन्होंने स्कूली जीवन के समय शुरु कर दिया था। 1927 को कमला चौधरी का विवाह #जे_एम_चौधरी से हुआ और वह कमला चौधरी हो गईं।

🇮🇳🔰 कमला चौधरी का राजनीतिक सफर 1930 से शुरू हुआ, अपनी पारिवारिक परंपरा को तोड़ने हुए वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गईं। महात्मा गांधी के शुरू किए गए सविनय अवज्ञा आंदोलन से देश के आजादी मिलने तक कमला चौधरी ने देश के स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष में कारावास तक का सफर किया।

🇮🇳🔰 सन 1947 के बाद कमला चौधरी ने भारत के #संविधान_बोर्ड के एक निर्वाचित सदस्य के रूप भारत के संविधान को प्रारूपित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसका गठन 1950 में हुआ। बाद में 1952 में उन्होंने भारत की प्रांतीय सरकार के सदस्य के रूप में कार्य किया। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के पचासवें सत्र में वह वरिष्ठ उपाध्यक्ष थीं।

🇮🇳🔰 अपने पूरे राजनीतिक कॅरियर के दौरान कमला चौधरी उत्तर प्रदेश राज्य समाज कल्याण सलाहकार बोर्ड की सदस्य होने के अलावा ज़िला काँग्रेस कमेटी, शहर काँग्रेस कमेटी से लेकर प्रांतीय महिला काँग्रेस कमेटी के विभिन्न पदों पर काम करती रहीं। 1962 में वह हापुड़ से आम चुनाव जीतीं और तीसरी लोकसभा की सदस्य बनीं, उस दौर में हापुड़ लोकसभा में गाजियाबाद के क्षेत्र आते थे। एक सांसद के तौर कमला चौधरी पाँच साल लोकसभा में काफी मुखर रहीं। एक समाज सुधारक के रूप में, दिल के बहुत करीब होने का कारण महिलाओं का उत्थान था। कमला चौधरी ने लड़कियों की शिक्षा के लिए सक्रिय रूप से काम किया।

🇮🇳🔰 हिंदी साहित्य से अपने प्यार को लेकर कमला चौधरी ने महिलाओं के आंतरिक दुनिया के चारों तरह घूमने वाली कहानियों पर लिखना शुरू किया। उनके विषय विशिष्ट रूप से नारीवादी रहे और उन्हें आकर्षक और बोल्ड माना जाता था। उनके लेखन में उनके दौर की महिलाओं के सामाजिक-सांस्कृतिक स्थितियों का पता चलता है जिसका प्रभाव बचपन से ही उनके जीवन पर भी पड़ता रहा। लैंगिक भेदभाव, विधवापन, महिला इच्छाओं, महिला मजदूरों के शोषण और महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव जैसे विषयों पर कमला चौधरी का लेखन देखने को मिलता है। उनके लेखन में महिलाओं के जीवन से जुड़ी वह सच्चाई देखने को मिलती है। हालांकि विषयों की संवेदनशीलता के बाद भी उनके लेखन साहित्य को उस दौर में अधिक प्रमुखता नहीं मिली। 'उन्माद' (1934), 'पिकनिक' (1936) 'यात्रा' (1947), 'बेल पत्र' और 'प्रसादी कमंडल' उनकी प्रमुख रचनाएं हैं। फिर भी उन्होंने महिलाओं के जीवन में सुधार के लिए एक सामाजिक कार्यकर्त्ता के रूप में कार्य करना जारी रखा।

🇮🇳🔰 सन 1970 में कमला चौधरी का निधन मेरठ में हुआ। एक लेखिका और राजनीतिक कार्यकर्त्ता रूप में उनका जीवन बेमिसाल रहा। फिर भी उनकी साहित्यिक उपेक्षा ही नहीं, राजनीतिक उपेक्षा भी निराशा पैदा करती है।

साभार: bharatdiscovery.org

🇮🇳 महिला उत्थान को समर्पित; सुप्रसिद्ध #लेखिका, #स्वतंत्रतासेनानी और #समाजसुधारक #कमला_चौधरी जी को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

#Kamala_Choudhary  #आजादी_का_अमृतकाल  #22February  #independence #movement #देशभक्त

Swami Sahajanand Saraswati | स्वामी सहजानन्द सरस्वती | 22 फरवरी 1889 - 26 जून 1950


 

#अप्रतिम_योद्धा  स्वामी_सहजानंद_सरस्वती जी

Swami Sahajanand Saraswati | स्वामी सहजानन्द सरस्वती (22 फरवरी 1889 - 26 जून 1950) | भारत के राष्ट्रवादी नेता एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे।

Swami Sahajanand Saraswati (22 February 1889 – 26 June 1950) was an Indian nationalist leader and freedom fighter.

🇮🇳 जिन किसानों की खुशहाली और शोषण से मुक्ति के लिए स्वामी सहजानंद ने जीवन के आखिरी साँस तक संघर्ष किया, उनकी हालत दिन-ब-दिन बदतर होती गयी. आज किसानों की बात तो खूब होती है, लेकिन उनके हक और अधिकार को लेकर आवाज उठाने वाला नेता दूर-दूर तक नहीं दिखता. ऐसी स्थिति में स्वामी सहजानंद सरस्वती की कमी अखरती है. उनकी याद बरबस ही आ जाती है.

🇮🇳 ऐसे किसान हितैषी महात्मा का जन्म उत्तरप्रदेश के #गाजीपुर जिले के #देवा ग्राम में सन 1889 में महाशिवरात्रि के दिन हुआ था. घर वालों ने नाम रखा था #नौरंग_राय. पिता #बेनी_राय सामान्य किसान थे. बचपन में ही माँ का छाया उठ गया. लालन-पालन चाची ने किया. आरंभिक शिक्षा #जलालाबाद में हुई. मेधावी नौरंग राय ने मिडिल परीक्षा में पूरे यूपी, जो तब संयुक्तप्रांत कहलाता था, में सातवाँ स्थान प्राप्त किया. सरकार से छात्रवृति मिली तो आगे की पढ़ाई सुगम हुई. पढ़ाई के दौरान ही मन अध्यात्म की ओर रमने लगा. घर वालों को बच्चे की प्रवृति देख डर हुआ तो जल्दी ही शादी करा दी. लेकिन साल भर के भीतर ही पत्नी भी चल बसी. दूसरी शादी की बात चली तो वे घर से भाग गये और काशी चले गये. ठौर मिला #अपारनाथ_मठ में.

🇮🇳 काशी प्रवास ने उनके जीवन की राह बदल दी. शंकराचार्य की परंपरा के एक संन्यासी #अच्युतानंद से दीक्षा लेकर वे संन्यासी बन गये. बाद के दो वर्ष उन्होंने तीर्थो के भ्रमण, देवदर्शन और सदगुरु की खोज में बिताये. 1909 में फिर से काशी आए और #स्वामी_अद्वैतानंद से दीक्षा ग्रहणकर दंड धारण किया. अब उनका नाम हो गया दंडी स्वामी सहजानंद सरस्वती. कहते हैं बहुत समय तक स्वामी जी का ठिकाना रहा शिवाला घाट का राजगुरु मठ,  जहाँ अभी युवा संन्यासी दंडी #स्वामी_अनंतानंद_सरस्वती जी पीठाधीश्वर हैं. वे राजगुरु मठ के गौरवशाली इतिहास को ध्यान में रख इसकी खोयी गौरव को परम्परानुसार पुनर्प्रतिष्ठापित करने में लगे हैं.

🇮🇳 स्वामीजी के समग्र जीवन पर दृष्टि डालें तो मोटे तौर पर उसे तीन खंडों में बांटा जा सकता है. पहला खंड है- जब वे #संन्यास धारण करते हैं. काशी में रहते हुए धर्म की कुरीतियों और बाह्याडम्बरों के विरुद्ध मोर्चा खोलते हैं. जातीय गौरव को प्रतिष्ठापित करने के लिए भूमिहार-ब्राह्मण महासभा के आयोजनों में शामिल होते हैं. भूमिहार ब्राह्मणों को पुरोहित्य कर्म के लिए तैयार करते हैं. संस्कृत पाठशालाएं खोलकर संस्कृत और कर्मकांड की शिक्षा प्रदान करते हैं. लोगों के विशेष आग्रह पर शोधोपरांत ‘भूमिहार-ब्राह्मण परिचय’ नामक ग्रंथ लिखते हैं, जो बाद में ‘ब्रह्मर्षि वंश विस्तर’ नाम से प्रकाशित होता है. बाद के कुछ वर्ष काशी औऱ फिर दरभंगा में रहकर संस्कृत साहित्य, व्याकरण, न्याय और मीमांसा दर्शनों के गहन अध्ययन में बिताते हैं.

🇮🇳 यह क्रम सन् 1909 से 1920 तक चलता है. उनका मुख्य कार्यक्षेत्र बक्सर जिले का सिमरी और गाजीपुर जिले का #विश्वम्भरपुर गाँव रहता है. अपने अभियान को गति देने और उसको संस्थानिक स्वरुप देने के उद्देश्य से #काशी से उन्होंने भूमिहार-ब्राह्मण नामक अखबार भी निकाला. लेकिन बाद में एक सहयोगी ने प्रेस और अखबार को हड़प लिया. उऩकी किताबों की बिक्री से मिले पैसे भी खा गया. स्वामीजी को इस घटना से गहरी पीड़ा भी हुई. मेरा जीवन संघर्ष नामक जीवनी में उन्होंने इसकी चर्चा की है. अपने स्वजातीय लोगों की स्वार्थपरायणता से स्वामीजी को बाद तक काफी पीड़ा मिली.

एक बार तो बिहार के बेहद प्रभावी नेता सर गणेशदत्त के चालाकी भरे बर्ताव से स्वामीजी इतने दुखी हुए कि उनसे सारा संबंध तोड़ लिया और जब मुंगेर में जातीय सम्मेलन कर सर गणेशदत्त को सभापति चुनने की कोशिश हुई तो स्वामीजी ने भूमिहार-ब्राह्मण महासभा को सदा के लिए भंग कर दिया. यह सन् 1929 की बात है I

🇮🇳 स्वामी सहजानंद के जीवन का दूसरा चरण #आजादी की लड़ाई में कूदने और #गॉंधीजी के अनन्य सहयोगी के तौर पर काम करने, कई बार जेल जाने और गाँधीजी से विवाद होने पर अलग  हो जाने, के कालखंड को माना जा सकता है. महात्मा गांधी से उनकी पहली मुलाकात 5 दिसम्बर, 1920 को पटना में हुई थी. स्थान था #मौलाना_मजहरुल_हक का आवास, जो अब पटना का सदाकत आश्रम है, जिसमें अभी कांग्रेस का प्रदेश मुख्यालय है. गाँधीजी के अनुरोध पर स्वामीजी कांग्रेस में शामिल हो गये. साल भर के भीतर ही वे गाजीपुर जिला कांग्रेस के अध्यक्ष बन गये और दल-बल के साथ अहमदाबाद में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में शामिल हुए.

अगले साल उनकी गिरफ्तारी और साल भर की कैद हुई. आजादी के संघर्ष के दौरान उनको गाजीपुर, वाराणसी, आजमगढ़, फैजाबाद, लखनऊ आदि जेल में रहना पड़ा. पहली बार जब जेल से छूटे तो बक्सर के सिमरी और आसपास के गाँवों में चरखे से खादी का उत्पादन कराया और आजादी की लौ को गाँवों-किसानों तक पहुँचाया. #सिमरी में रहते हुए स्वामीजी का सृजन कार्य भी चलता रहा. सिमरी में रहते हुए ही उन्होंने #सनातन_धर्म के जन्म से मृत्यु तक के संस्कारों पर आधारित #कर्मकलाप नामक 1200 पृष्ठों के विशाल ग्रंथ की रचना की, जिसका प्रकाशन काशी से हुआ. सिमरी के #पंडित_सूरज_नारायण_शर्मा ने उनकी विरासत को बाद तक सँभाला.

उन्होंने अपने गाँव सिमरी में #स्वामी_सहजानंद और #संत_विनोबा के नाम पर कॉलेज खोला. स्वामीजी जिस कुटिया में रहते थे, उसे पुस्तकालय बना दिया. दुर्भाग्य से पिछली सदी में नब्बे के दशक के शुरुआती दिनों में उनकी रहस्यमय ढंग से #आरा में हत्या कर दी गयी. ठीक वैसे ही जैसा #पंडित_दीनदयाल_उपाध्याय के साथ हुआ था. रेलवे ने पंडित सूरज शर्मा की मौत को हादसा बताकर मामले को रफा-दफा कर दिया.

🇮🇳 आजादी की लड़ाई में गॉंधीजी का असहयोग आंदोलन जब बिहार में जोर पकड़ा तो स्वामीजी उसके केन्द्र में थे. उन्होंने गाँव-गाँव घूमकर अंग्रेजी शासन के खिलाफ लोगों को खड़ा किया. ग्रामीण समस्याओं को नजदीक से जाना. लोग यह देख अचरज में पड़ जाते थे कि यह कैसा संन्यासी है, जो मठ में जप, तप, साधना करने की बजाए दलितों-वंचितों की बस्तियों में घूम रहा है, उनके दुख-दर्द को समझने में अपनी ऊर्जा को खपा रहा है.

यह वो समय था जब स्वामीजी भारत को समझ रहे थे. वे बिहटा के पास सीताराम आश्रम से आजादी की लड़ाई और किसान आंदोलन की गतिविधियों को संचालित करते रहे. अमहारा गाँव के पास नमक बनाकर सत्याग्रह किया. गिरफ्तार हुए. पटना के बांकीपुर जेल भेजे गये. अंतिम बार वे अप्रैल 1940 में हजारीबाग जेल गये, जहाँ दो साल तक सश्रम सजा काटने के बाद 8 मार्च, 1942 को रिहा हुए. तब उस जेल में #जयप्रकाश_नारायण समेत देश के कई शीर्ष नेता बंद थे.

🇮🇳 आजादी की लड़ाई में कांग्रेस में काम करते हुए उनको एक अजूबा अनुभव हुआ. उन्होंने पाया कि अंग्रेजी शासन की आड़ में जमींदार और उनके कारिंदे गरीब खेतिहर किसानों पर जुल्म ढा रहे हैं. गरीब लोग तो अंग्रेजों से ज्यादा उनकी सत्ता के दलालों से आतंकित है. किसानों की हालत तो गुलामों से भी बदतर है. युवा संन्यासी का मन एक नये संघर्ष की ओर उन्मुख हुआ. उन्होंने #किसानों को गोलबंद करना शुरू किया.

🇮🇳 सोनपुर में बिहार प्रांतीय किसान सभा का उनको अध्यक्ष चुना गया. यह नवंबर, 1928 की बात है. इसी मंच से उन्होंने किसानों की कारुणिक स्थिति को उठाया. उन्होंने कांग्रेस के मंच से जमींदारों के शोषण से मुक्ति दिलाने और जमीन पर रैयतों का मालिकाना हक दिलाने की मुहिम शुरू की. करीब आठ साल बाद अप्रैल 1936 में कांग्रेस के लखनऊ सम्मेलन में उनके ही सभापतित्व में अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना हुई.

🇮🇳 1934 में बिहार में प्रलयंकारी भूकंप आया. भूकंप से केन्द्र था मुंगेर. जानमाल की भारी क्षति हुई थी. किसानों की तो कमर टूट गयी थी. स्वामी सहजानंद राहत कार्य में जी जान से लगे थे. लेकिन इस दौरान उनको जमींदारों द्वारा किसानों पर लगान वसूलने और जुल्म करने की खबरें लगातार मिल रही थी. राजेन्द्र प्रसाद से लेकर तमाम चोटी के नेता भूकंप राहत के काम में लगे थे.

🇮🇳 पटना का पीली कोठी तब रिलीफ कमेटी का दफ्तर था. गाँधीजी भी आते तो वहीं ठहरते थे. एक दिन स्वामीजी ने गाँधीजी को बिहार के किसानों की स्थिति से अवगत कराना चाहा. मेरा जीवन संघर्ष में स्वामीजी ने लिखा है कि गाँधीजी पहले तो किसानों की स्थिति से अनभिज्ञ थे फिर जमींदारों और उनके कांग्रेसी मैनेजरों पर उनको बहुत भरोसा था.

🇮🇳 किसानों की मदद के सवाल पर जब गाँधीजी ने दरभंगा महाराज के पास जाने और उनसे सहायता माँगने की बात कही तो स्वामीजी आग बबूला हो गये और गाँधीजी को खरी-खोटी सुनाते हुए चले गये. जेल में गॉंधीजी के चेलों की कथनी-करनी में अंतर और खिलाफत आंदोलन के दौरान उनके रुख को स्वामीजी पहले ही देख चुके थे. पटना की घटना के बाद उन्होंने गाँधीजी के साथ 14 साल पुराना अपना संबंध तोड़ लिया.

🇮🇳 स्वामी सहजानंद सरस्वती को भारत में संगठित किसान आंदोलन का जनक माना जाता है. उन्होंने अंग्रेजी शासन के दौरान शोषण से कराहते किसानों को संगठित किया और उऩको जमींदारों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए संघर्ष किया, लेकिन बिल्कुल अहिंसक तरीके से. लाठी के बल पर. कहते थे- कैसे लोगे मालगुजारी, लठ हमारा जिंदाबाद.

स्वामीजी ने नारा दिया था, जो किसान आंदोलन के दौरान चर्चित हुआ-

‘’जो अन्न-वस्त्र उपजाएगा, अब सो कानून बनायेगा.

यह भारतवर्ष उसी का है, अब शासन भी वही चलायेगा’’..

🇮🇳 गाँधीजी से अलग होने के बाद स्वामी सहजानंद सरस्वती के जीवन का तीसरा चरण शुरू होता है. उन्होंने देशभर में घूम घूमकर किसानों की रैलियाँ की. स्वामीजी के नेतृत्व में सन् 1936 से लेकर 1939 तक बिहार में कई लड़ाईयां किसानों ने लड़ीं. इस दौरान जमींदारों और सरकार के साथ उनकी छोटी-मोटी सैकड़ों भिड़न्तें भी हुई. उनमें बड़हिया, रेवड़ा और मझियावां के बकाश्त सत्याग्रह ऐतिहासिक हैं.

🇮🇳 इस कारण बिहार के किसान सभा की पूरे देश में प्रसिद्धि हुई. दस्तावेज बताते हैं कि स्वामीजी की किसान सभाओं में जुटने वाली भीड़ तब कांग्रेस की रैलियों से ज्यादा होती थी. किसान सभा की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1935 में इसके सदस्यों की संख्या अस्सी हजार थी जो 1938 में बढ़कर दो लाख पचास हजार हो गयी.

🇮🇳 गाँधीजी से मोहभंग होने और किसान आंदोलन में मन प्राण से जुटे स्वामी सहजानंद की #नेताजी_सुभाषचंद्र_बोस से निकटता रही. दोनों ने साथ मिलकर समझौता विरोधी कई रैलियां की. स्वामीजी फारवॉर्ड ब्लॉक से भी निकट रहे. एक बार जब स्वामीजी की गिरफ्तारी हुई तो नेताजी ने 28 अप्रैल को ऑल इंडिया स्वामी सहजानंद डे घोषित कर दिया.

सीपीआई जैसी वामपंथी पार्टियां भी स्वामीजी को वैचारिक दृष्टि से अपने करीब मानते रही. यह स्वामीजी का प्रभामंडल ही था कि तब के समाजवादी और कांग्रेस के पुराने शीर्ष नेता मसलन, एमजी रंगा, ई एम एस नंबूदरीपाद, पंडित कार्यानंद शर्मा, पंडित यमुनाकार्यी, आचार्य नरेन्द्र देव, राहुल सांकृत्यायन, राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, पंडित यदुनंदन शर्मा, पी सुंदरैया, भीष्म साहनी, बंकिमचंद्र मुखर्जी जैसे तब के नामी चेहरे किसान सभा से जुड़े थे.

🇮🇳 जेल में नियमित तौर पर उनका गीता के पठन-पाठन का काम चलता था. अपने साथी कैदियों की प्रार्थना पर उन्होंने गीता भी पढ़ाई. जेल की सजा काटते हुए स्वामीजी ने मेरा जीवन संघर्ष के अलावे किसान कैसे लड़ते हैं, क्रांति और संयुक्त मोर्चा, किसान-सभा के संस्मरण, खेत-मजदूर, झारखंड के किसान और गीता ह्रदय नामक छह पुस्तकें लिखी. स्वामीजी ने दो दर्जन से ज्यादा पुस्तकें लिखीं, जिसमें सामाजिक व्यवस्था पर भूमिहार-ब्राह्मण परिचय, झूठा भय-मिथ्या अभिमान, ब्राह्मण कौन, ब्राह्मण समाज की स्थिति आदि. उनकी आजादी की लड़ाई और किसान संघर्षों की दास्तान- किसान सभा के संस्मरण, महारुद्र का महातांडव, जंग और राष्ट्रीय आजादी, अब क्या हो, गया जिले में सवा मास आदि पुस्तकों में दर्ज है. उन्होंने श्रीमदभागवद का भाष्य ‘गीता ह्रदय’ नाम से लिखा.

सपनों का हिन्दुस्तान अभी दूर की कौड़ी

🇮🇳 मेरा जीवन संघर्ष नामक  जीवनी में स्वामीजी ने लिखा है – “मैं कमाने वाली जनता के हाथ में ही, सारा शासन सूत्र औरों से छीनकर, देने का पक्षपाती हूँ. उनसे लेकर या उनपर दबाव डालकर देने-दिलवाने की बात मैं गलत मानता हूँ. हमें लड़कर छीनना होगा. तभी हम उसे रख सकेंगे. यों आसानी से मिलने पर फिर छिन जाएगा यह ध्रुव सत्य है. यों मिले हुए को मैं सपने की संपत्ति मानता हूँ” . स्वामीजी कहते थे कि इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए हमें पक्के कार्यकर्ताओं और नये नेताओं का दल तैयार करना होगा.

यही सपना संजोये वह शाश्वत विद्रोही संन्यासी 26 जून, 1950 को बिहार के मुजफ्फरपुर में महाप्रयाण कर गये. आज देश में स्वामीजी के नाम पर दर्जनों स्कूल, कॉलेज, पुस्कालय हैं. अनेक स्मारक हैं और उन सबसे ज्यादा देशभर में उनके नाम पर चलने वाले सामाजिक संगठन हैं. लेकिन स्वामीजी के सपनों का हिन्दुस्तान अभी दूर की कौड़ी है. जिस किसान को उन्होंने भगवान माना और रोटी को भगवान से भी बड़ा बताया था. उसकी दुर्दशा जगजाहिर है.

साभार: news18.com

🇮🇳 #किसान_आंदोलन के पर्याय एवं #स्वतंत्रता संग्राम सेनानी #स्वामी_सहजानंद_सरस्वती जी को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

#Swami_Sahajanand_Saraswati #आजादी_का_अमृतकाल  #22February  #independence #movement #देशभक्त

Swami Shraddhanand ji | अमर बलिदानी स्वामी श्रद्धानंद जी | 22 फ़रवरी, 1856 - 23 दिसम्बर, 1926

 



🇮🇳🔶 अपने #धर्म, #संस्कृति और #देश के लिए दिया था स्वामी श्रद्धानंद जी ने बलिदान 🔶🇮🇳

🇮🇳🔶 भारत में अनेक दिव्य पुरुषों ने जन्म लिया। किसी ने धर्म के लिए अपने जीवन का उत्सर्ग किया, किसी ने देश के लिए, किसी ने जाति के लिए अपना जीवन लगा दिया परंतु #देश, #धर्म, #संस्कृति, #सभ्यता, #राष्ट्रीय, #शिक्षा आदि समग्र क्षेत्रों में संतुलित एवं सर्वाग्रणी किसी का स्वरूप है तो वह अमर बलिदानी स्वामी श्रद्धानंद जी का है। वह धार्मिक नेता थे और राष्ट्र नेता भी। वह सामाजिक नेता भी थे और आध्यात्मिक नेता भी।

स्वामी श्रद्धानन्द (अंग्रेज़ी: Swami Shraddhanand; जन्म- 22 फ़रवरी, 1856, जालंधर, पंजाब; मृत्यु- 23 दिसम्बर, 1926, दिल्ली) को भारत के प्रसिद्ध महापुरुषों में गिना जाता है। वे ऐसे महान् राष्ट्रभक्त संन्यासियों में अग्रणी थे, जिन्होंने अपना सारा जीवन वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दिया था।

🇮🇳🔶 22 फरवरी 1856 को जन्मे स्वामी श्रद्धानंद ने शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने जिस #गुरुकुल शिक्षा प्रणाली को स्थापित किया था उससे पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली का खोखलापन प्रकट हो गया था और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को जन्म दिया था। स्वामी श्रद्धानंद जी एक पूर्ण नेता थे। सम्पूर्ण क्रांति के प्रतीक थे। वीरता, अदम्य उत्साह, बलिदान उनके रोम-रोम में व्याप्त थे। निर्भयता की भावना, वाणी में अपूर्व ओज, दीन दुखियों के प्रति दया की भावना स्वामी श्रद्धानंद में सदा दृष्टिगोचर होती थी।

🇮🇳🔶 स्वामी श्रद्धानंद जी ने ब्रिटिश शासन काल में दिल्ली के चाँदनी चौक में क्रूर अंग्रेजी शासक के सैनिकों की संगीनों के सामने अपनी छाती तान कर देश की स्वतंत्रता के लिए अपने आपको बलि के रूप में प्रस्तुत करके देश के प्रति जनता में बलिदान करने की भावना जागृत की। साहस एवं निर्भीकता का ऐसा उदाहरण अपूर्व था। 

🇮🇳🔶 स्वामी श्रद्धानंद जी महात्मा थे, ऋषि थे, तपस्वी थे और योगी थे। उन्होंने देश का भविष्य देखा। तत्कालीन नेताओं की तुष्टीकरण की नीति और ब्रिटिश शासन की कूटनीति को अंतर्दृष्टि से देखा। भारत की राष्ट्रीयता का भविष्य खंडित प्रतीत हुआ तो भारत में एक राष्ट्रीयता के संगठन के लिए एक जाति, एक धर्म, एक भाषा के प्रचार के लिए शुद्धि आंदोलन एवं शुद्धि का कार्य प्रारंभ किया। 

🇮🇳🔶 भारत की राष्ट्रीय भावना की रक्षा के लिए महर्षि स्वामी दयानंद जी ने एक धर्म, एक भाषा, एक जाति, ऊंच-नीच भाव, गरीब-अमीर भेद शून्य समभाव की जो महती रूपरेखा प्रसारित की थी उसी को विशेष रूप से स्वामी श्रद्धानंद जी ने शुद्धि कार्य के द्वारा क्रियान्वित किया था। स्वामी श्रद्धानंद जी का बलिदान शुद्धि कार्य के कारण हुआ। यह राष्ट्र कार्य के लिए बलिदान था और धर्म कार्य के लिए भी था। अत: यह बलिदान इतिहास में अपूर्व था। 

🇮🇳🔶 स्वामी श्रद्धानंद जी ने राष्ट्रीयता के निर्माण के लिए  स्वधर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए अपने प्राचीन इतिहास की रक्षा एवं प्रचार के लिए भारतीयों को सच्चे अर्थों में भारतीय बनाने के लिए तथा जन्म जातिगत भेदभाव गरीब और अमीर का भेदभाव मिटाकर सबको समान स्तर पर लाने के लिए जिस आदर्श गुरुकुल को जन्म दिया था, उसने मैकाले की शिक्षा पद्धति का प्रखरता से बिना शासन से सहायता लिए प्रबल सामना किया।

🇮🇳🔶 हर वर्ष 23 दिसम्बर आर्य जगत को उस महान बलिदानी स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज का बलिदान स्मरण करवाता है जिसने अपने धर्म, संस्कृति और देश के लिए अपना बलिदान दिया था। स्वामी श्रद्धानंद जी ने देश, धर्म और जाति के लिए अपना बलिदान दिया था। उन्होंने अपने हित को त्याग कर राष्ट्रहित को अपनाया। मुंशी राम से महात्मा मुंशीराम और महात्मा मुंशीराम से स्वामी श्रद्धानंद तक का उनका सफर बहुत ही प्रेरणादायक है।

साभार: punjabkesari.in

🇮🇳 स्वराज, शिक्षा और वैदिक धर्म के निमित्त अपने प्राणों की आहुति देने वाले, आर्य समाज के प्रख्यात संत श्रद्धेय #स्वामी_श्रद्धानंद जी की जयंती पर उन्हें कोटि-कोटि नमन !

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

#Swami Shraddhanand ji #आजादी_का_अमृतकाल  #22February  #independence #movement #देशभक्त

First Freedom Fighter | Uyyalawada Narasimha Reddy | प्रथम_स्वतंत्रता सेनानी | उय्यलावडा नरसिम्हा रेड्डी | Born- November 24, 1806; Death- February 22, 1847




First Freedom Fighter | Uyyalawada Narasimha Reddy  प्रथम_स्वतंत्रता सेनानी | उय्यलावडा नरसिम्हा रेड्डी | Born- November 24, 1806; Death- February 22, 1847

#प्रथम_स्वतंत्रता सेनानी | उय्यलावडा नरसिम्हा रेड्डी | जन्म- 24 नवंबर, 1806; मृत्यु- 22 फ़रवरी, 1847

🇮🇳 उन्हें सार्वजनिक रूप से जुर्रेती बैंक, कोइलकुंटला, जिला कुर्नूल में सुबह 7 बजे, सोमवार, 22 फ़रवरी, 1847 को फाँसी दी गई। उनकी फाँसी को देखने के लिए करीब दो हजार लोग उपस्थित थे। 🇮🇳

🇮🇳 #कोइलकुंतला #Koilkuntla में उनके पकड़े जाने के बाद उन्हें बुरी तरह से पीटा गया, उनको मोटी-मोटी जंजीरों से बाँधा गया था और कोइलकुंतला की सड़कों पर खून से सने हुए कपड़े में ले जाया गया ताकि किसी अन्य व्यक्ति को #ब्रिटिश के खिलाफ #विद्रोह करने की हिम्मत ना हो सके। 🇮🇳


🇮🇳 नरसिम्हा रेड्डी का जन्म 24 नवंबर, 1806 में #उय्यालवडा, जिला #कुर्नूल, #आंध्र_प्रदेश के एक सैन्य परिवार में हुआ था। उनके दादा का नाम #जयारामी_रेड्डी, पिता का नाम #उय्यलावडा_पेडडामल्ला_रेड्डी था। नरसिम्हा रेड्डी सेना में गवर्नर थे। #कदपा, #अनंतपुर, #बेल्लारी और #कुर्नूल जैसे 66 गाँवों की कमान उनके हाथ में रहती थी। वह 2000 की सेना को नियंत्रित किया करते थे।


🇮🇳उय्यलावडा नरसिम्हा रेड्डी पहले #देशभक्त थे, जिन्होंने #ब्रिटिश_शासन के ख़िलाफ़ विद्रोह किया। नरसिम्हा रेड्डी ने वर्ष 1847 में किसानों पर हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध आवाज़ उठाई और अंग्रेज़ों से लोहा लिया। उन्हें #अल्लागड्डा क्षेत्र से अपने दादा से कर वसूलने की जिम्मेदारी मिली थी। किसानों पर अंग्रेज़ों के जुल्म बढ़ते जा रहे थे। इन्हीं जुल्मों और अत्याचारों के विरुद्ध नरसिम्हा रेड्डी उठ खड़े हुए थे।

🇮🇳 नरसिम्हा रेड्डी का जन्म 24 नवंबर, 1806 में #उय्यालवडा, जिला #कुर्नूल, #आंध्र_प्रदेश के एक सैन्य परिवार में हुआ था। उनके दादा का नाम #जयारामी_रेड्डी, पिता का नाम #उय्यलावडा_पेडडामल्ला_रेड्डी था। नरसिम्हा रेड्डी सेना में गवर्नर थे। #कदपा, #अनंतपुर, #बेल्लारी और #कुर्नूल जैसे 66 गाँवों की कमान उनके हाथ में रहती थी। वह 2000 की सेना को नियंत्रित किया करते थे।

🇮🇳 रायलसीमा के क्षेत्र पर ब्रिटिशों के अधिकार करने के बाद नरसिम्हा रेड्डी ने अंग्रेजों के साथ इस क्षेत्र की आय को साझा करने से इनकार कर दिया था। वह एक सशस्त्र विद्रोह के पक्ष में थे। वह युद्ध में गोरिल्ला रणनीति का इस्तेमाल किया करते थे। 10 जून, 1846 को उन्होंने #कोइलकुंटला में खजाने पर हमला किया और #कंबम (जिला प्रकाशम्) की तरफ प्रस्थान किया। उन्होंने वन रेंजर रूद्राराम को मारकर विद्रोह किया। जिला कलेक्टर ने विद्रोह को बड़ी गंभीरता से लिया और कैप्टन नॉट और वाटसन को नरसिम्हा रेड्डी को पकड़ने का आदेश दिया। वह अपने प्रयास में असफल रहे।

🇮🇳 ब्रिटिश सरकार ने नरसिम्हा रेड्डी की सूचना देने वाले को 5000 रुपये और उनके सिर के लिए 10000 रुपये देने की घोषणा की, जो उन दिनों में एक बड़ी रकम थी। 23 जुलाई, 1846 को नरसिम्हा रेड्डी ने अपनी सेना के साथ #गिद्दलूर में ब्रिटिश सेना के ऊपर आक्रमण कर दिया और उन्हें हरा दिया। नरसिम्हा रेड्डी को पकड़ने के लिए ब्रिटिश सेना ने उनके परिवार को कदपा में बन्दी बना लिया। अपने परिवार को मुक्त करने के प्रयास में वह #नल्लामला वन चले गए। जब अंग्रेजों को पता लगा कि वह नल्लामला वन में छिपे हैं, तब अंग्रेजों ने अपनी गतिविधियों को और ज्यादा मजबूत कर दिया, जिसके बाद नरसिम्हा रेड्डी #कोइलकुंतला क्षेत्र में वापस आ गए और गाँव #रामबाधुनीपल्ले के पास #जगन्नाथ_कोंडा में मौके का इंतजार करने लगे।

🇮🇳 ब्रिटिश अधिकारियों को उनके कोइलकुंतला के ठिकाने की जानकारी मिली, जिसके बाद ब्रिटिश अधिकारियों ने वह क्षेत्र रातों-रात घेर लिया। 6 अक्टूबर, 1846 को आधी रात के समय उन्हें गिरफ़्तार करके बन्दी बना लिया गया। कोइलकुंतला में उनके पकड़े जाने के बाद उन्हें बुरी तरह से पीटा गया, उनको मोटी-मोटी जंजीरों से बाँधा गया था और कोइलकुंतला की सड़कों पर खून से सने हुए कपड़े में ले जाया गया ताकि किसी अन्य व्यक्ति को ब्रिटिश के खिलाफ विद्रोह करने की हिम्मत ना हो सके।

🇮🇳 नरसिम्हा रेड्डी के साथ विद्रोह करने लिए 901 लोगों पर भी आरोप लगाया गया। बाद में उनमें से 412 लोगों को बरी कर दिया गया और 273 लोगों को जमानत पर रिहा किया गया। 112 लोगों को दोषी ठहराया गया। उन्हें 5 से 14 साल के लिए कारावास की सजा सुनाई गई। कुछ को तो #अंडमान द्वीप समूह की एक जेल में भेज दिया गया। नरसिम्हा रेड्डी पर हत्या और राजद्रोह करने का आरोप लगाया गया और उन्हें मौत की सजा सुनाई गई। छ: सप्ताह बाद उन्हें सार्वजनिक रूप से #जुर्रेती बैंक,#Jurreti_Bank #कोइलकुंटला,#Koilkuntla जिला #कुर्नूल #District_Kurnool में सुबह 7 बजे, सोमवार, 22 फ़रवरी, 1847 को फाँसी दी गई। उनकी फाँसी को देखने के लिए करीब दो हजार लोग उपस्थित थे।  #District_Kurnool

🇮🇳 नरसिम्हा रेड्डी द्वारा बनाए गए किले आज भी उय्यलावडा, रूपनगुड़ी, वेल्ड्रथी और गिद्दलुर जैसे स्थानों पर मौजूद हैं। प्रथम स्वतंत्रता सेनानी उय्यालवडा नरसिम्हा रेड्डी की 170वीं पुण्यतिथि मनाने के लिए 22 फ़रवरी, 2017 को उय्यालवडा में एक विशेष आवरण जारी किया गया था।

साभार: bharatdiscovery.org

🇮🇳 वर्ष 1847 में आंध्र प्रदेश के किसानों पर हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध आवाज़ उठा कर ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ विद्रोह करने वाले भारत के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी देशभक्त #उय्यलावडा_नरसिम्हा_रेड्डी जी को उनके #बलिदान_दिवस पर विनम्र श्रद्धांजलि !

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

#Jurreti_Bank #Koilkuntla #District_Kurnool #आजादी_का_अमृतकाल #Uyyalawada_Narasimha_Reddy #22February #First_Freedom_Fighter   #independence #movement #देशभक्त

Makar Sankranti मकर संक्रांति

  #मकर_संक्रांति, #Makar_Sankranti, #Importance_of_Makar_Sankranti मकर संक्रांति' का त्यौहार जनवरी यानि पौष के महीने में मनाया जाता है। ...