22 फ़रवरी 2024

Swami Sahajanand Saraswati | स्वामी सहजानन्द सरस्वती | 22 फरवरी 1889 - 26 जून 1950


 

#अप्रतिम_योद्धा  स्वामी_सहजानंद_सरस्वती जी

Swami Sahajanand Saraswati | स्वामी सहजानन्द सरस्वती (22 फरवरी 1889 - 26 जून 1950) | भारत के राष्ट्रवादी नेता एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे।

Swami Sahajanand Saraswati (22 February 1889 – 26 June 1950) was an Indian nationalist leader and freedom fighter.

🇮🇳 जिन किसानों की खुशहाली और शोषण से मुक्ति के लिए स्वामी सहजानंद ने जीवन के आखिरी साँस तक संघर्ष किया, उनकी हालत दिन-ब-दिन बदतर होती गयी. आज किसानों की बात तो खूब होती है, लेकिन उनके हक और अधिकार को लेकर आवाज उठाने वाला नेता दूर-दूर तक नहीं दिखता. ऐसी स्थिति में स्वामी सहजानंद सरस्वती की कमी अखरती है. उनकी याद बरबस ही आ जाती है.

🇮🇳 ऐसे किसान हितैषी महात्मा का जन्म उत्तरप्रदेश के #गाजीपुर जिले के #देवा ग्राम में सन 1889 में महाशिवरात्रि के दिन हुआ था. घर वालों ने नाम रखा था #नौरंग_राय. पिता #बेनी_राय सामान्य किसान थे. बचपन में ही माँ का छाया उठ गया. लालन-पालन चाची ने किया. आरंभिक शिक्षा #जलालाबाद में हुई. मेधावी नौरंग राय ने मिडिल परीक्षा में पूरे यूपी, जो तब संयुक्तप्रांत कहलाता था, में सातवाँ स्थान प्राप्त किया. सरकार से छात्रवृति मिली तो आगे की पढ़ाई सुगम हुई. पढ़ाई के दौरान ही मन अध्यात्म की ओर रमने लगा. घर वालों को बच्चे की प्रवृति देख डर हुआ तो जल्दी ही शादी करा दी. लेकिन साल भर के भीतर ही पत्नी भी चल बसी. दूसरी शादी की बात चली तो वे घर से भाग गये और काशी चले गये. ठौर मिला #अपारनाथ_मठ में.

🇮🇳 काशी प्रवास ने उनके जीवन की राह बदल दी. शंकराचार्य की परंपरा के एक संन्यासी #अच्युतानंद से दीक्षा लेकर वे संन्यासी बन गये. बाद के दो वर्ष उन्होंने तीर्थो के भ्रमण, देवदर्शन और सदगुरु की खोज में बिताये. 1909 में फिर से काशी आए और #स्वामी_अद्वैतानंद से दीक्षा ग्रहणकर दंड धारण किया. अब उनका नाम हो गया दंडी स्वामी सहजानंद सरस्वती. कहते हैं बहुत समय तक स्वामी जी का ठिकाना रहा शिवाला घाट का राजगुरु मठ,  जहाँ अभी युवा संन्यासी दंडी #स्वामी_अनंतानंद_सरस्वती जी पीठाधीश्वर हैं. वे राजगुरु मठ के गौरवशाली इतिहास को ध्यान में रख इसकी खोयी गौरव को परम्परानुसार पुनर्प्रतिष्ठापित करने में लगे हैं.

🇮🇳 स्वामीजी के समग्र जीवन पर दृष्टि डालें तो मोटे तौर पर उसे तीन खंडों में बांटा जा सकता है. पहला खंड है- जब वे #संन्यास धारण करते हैं. काशी में रहते हुए धर्म की कुरीतियों और बाह्याडम्बरों के विरुद्ध मोर्चा खोलते हैं. जातीय गौरव को प्रतिष्ठापित करने के लिए भूमिहार-ब्राह्मण महासभा के आयोजनों में शामिल होते हैं. भूमिहार ब्राह्मणों को पुरोहित्य कर्म के लिए तैयार करते हैं. संस्कृत पाठशालाएं खोलकर संस्कृत और कर्मकांड की शिक्षा प्रदान करते हैं. लोगों के विशेष आग्रह पर शोधोपरांत ‘भूमिहार-ब्राह्मण परिचय’ नामक ग्रंथ लिखते हैं, जो बाद में ‘ब्रह्मर्षि वंश विस्तर’ नाम से प्रकाशित होता है. बाद के कुछ वर्ष काशी औऱ फिर दरभंगा में रहकर संस्कृत साहित्य, व्याकरण, न्याय और मीमांसा दर्शनों के गहन अध्ययन में बिताते हैं.

🇮🇳 यह क्रम सन् 1909 से 1920 तक चलता है. उनका मुख्य कार्यक्षेत्र बक्सर जिले का सिमरी और गाजीपुर जिले का #विश्वम्भरपुर गाँव रहता है. अपने अभियान को गति देने और उसको संस्थानिक स्वरुप देने के उद्देश्य से #काशी से उन्होंने भूमिहार-ब्राह्मण नामक अखबार भी निकाला. लेकिन बाद में एक सहयोगी ने प्रेस और अखबार को हड़प लिया. उऩकी किताबों की बिक्री से मिले पैसे भी खा गया. स्वामीजी को इस घटना से गहरी पीड़ा भी हुई. मेरा जीवन संघर्ष नामक जीवनी में उन्होंने इसकी चर्चा की है. अपने स्वजातीय लोगों की स्वार्थपरायणता से स्वामीजी को बाद तक काफी पीड़ा मिली.

एक बार तो बिहार के बेहद प्रभावी नेता सर गणेशदत्त के चालाकी भरे बर्ताव से स्वामीजी इतने दुखी हुए कि उनसे सारा संबंध तोड़ लिया और जब मुंगेर में जातीय सम्मेलन कर सर गणेशदत्त को सभापति चुनने की कोशिश हुई तो स्वामीजी ने भूमिहार-ब्राह्मण महासभा को सदा के लिए भंग कर दिया. यह सन् 1929 की बात है I

🇮🇳 स्वामी सहजानंद के जीवन का दूसरा चरण #आजादी की लड़ाई में कूदने और #गॉंधीजी के अनन्य सहयोगी के तौर पर काम करने, कई बार जेल जाने और गाँधीजी से विवाद होने पर अलग  हो जाने, के कालखंड को माना जा सकता है. महात्मा गांधी से उनकी पहली मुलाकात 5 दिसम्बर, 1920 को पटना में हुई थी. स्थान था #मौलाना_मजहरुल_हक का आवास, जो अब पटना का सदाकत आश्रम है, जिसमें अभी कांग्रेस का प्रदेश मुख्यालय है. गाँधीजी के अनुरोध पर स्वामीजी कांग्रेस में शामिल हो गये. साल भर के भीतर ही वे गाजीपुर जिला कांग्रेस के अध्यक्ष बन गये और दल-बल के साथ अहमदाबाद में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में शामिल हुए.

अगले साल उनकी गिरफ्तारी और साल भर की कैद हुई. आजादी के संघर्ष के दौरान उनको गाजीपुर, वाराणसी, आजमगढ़, फैजाबाद, लखनऊ आदि जेल में रहना पड़ा. पहली बार जब जेल से छूटे तो बक्सर के सिमरी और आसपास के गाँवों में चरखे से खादी का उत्पादन कराया और आजादी की लौ को गाँवों-किसानों तक पहुँचाया. #सिमरी में रहते हुए स्वामीजी का सृजन कार्य भी चलता रहा. सिमरी में रहते हुए ही उन्होंने #सनातन_धर्म के जन्म से मृत्यु तक के संस्कारों पर आधारित #कर्मकलाप नामक 1200 पृष्ठों के विशाल ग्रंथ की रचना की, जिसका प्रकाशन काशी से हुआ. सिमरी के #पंडित_सूरज_नारायण_शर्मा ने उनकी विरासत को बाद तक सँभाला.

उन्होंने अपने गाँव सिमरी में #स्वामी_सहजानंद और #संत_विनोबा के नाम पर कॉलेज खोला. स्वामीजी जिस कुटिया में रहते थे, उसे पुस्तकालय बना दिया. दुर्भाग्य से पिछली सदी में नब्बे के दशक के शुरुआती दिनों में उनकी रहस्यमय ढंग से #आरा में हत्या कर दी गयी. ठीक वैसे ही जैसा #पंडित_दीनदयाल_उपाध्याय के साथ हुआ था. रेलवे ने पंडित सूरज शर्मा की मौत को हादसा बताकर मामले को रफा-दफा कर दिया.

🇮🇳 आजादी की लड़ाई में गॉंधीजी का असहयोग आंदोलन जब बिहार में जोर पकड़ा तो स्वामीजी उसके केन्द्र में थे. उन्होंने गाँव-गाँव घूमकर अंग्रेजी शासन के खिलाफ लोगों को खड़ा किया. ग्रामीण समस्याओं को नजदीक से जाना. लोग यह देख अचरज में पड़ जाते थे कि यह कैसा संन्यासी है, जो मठ में जप, तप, साधना करने की बजाए दलितों-वंचितों की बस्तियों में घूम रहा है, उनके दुख-दर्द को समझने में अपनी ऊर्जा को खपा रहा है.

यह वो समय था जब स्वामीजी भारत को समझ रहे थे. वे बिहटा के पास सीताराम आश्रम से आजादी की लड़ाई और किसान आंदोलन की गतिविधियों को संचालित करते रहे. अमहारा गाँव के पास नमक बनाकर सत्याग्रह किया. गिरफ्तार हुए. पटना के बांकीपुर जेल भेजे गये. अंतिम बार वे अप्रैल 1940 में हजारीबाग जेल गये, जहाँ दो साल तक सश्रम सजा काटने के बाद 8 मार्च, 1942 को रिहा हुए. तब उस जेल में #जयप्रकाश_नारायण समेत देश के कई शीर्ष नेता बंद थे.

🇮🇳 आजादी की लड़ाई में कांग्रेस में काम करते हुए उनको एक अजूबा अनुभव हुआ. उन्होंने पाया कि अंग्रेजी शासन की आड़ में जमींदार और उनके कारिंदे गरीब खेतिहर किसानों पर जुल्म ढा रहे हैं. गरीब लोग तो अंग्रेजों से ज्यादा उनकी सत्ता के दलालों से आतंकित है. किसानों की हालत तो गुलामों से भी बदतर है. युवा संन्यासी का मन एक नये संघर्ष की ओर उन्मुख हुआ. उन्होंने #किसानों को गोलबंद करना शुरू किया.

🇮🇳 सोनपुर में बिहार प्रांतीय किसान सभा का उनको अध्यक्ष चुना गया. यह नवंबर, 1928 की बात है. इसी मंच से उन्होंने किसानों की कारुणिक स्थिति को उठाया. उन्होंने कांग्रेस के मंच से जमींदारों के शोषण से मुक्ति दिलाने और जमीन पर रैयतों का मालिकाना हक दिलाने की मुहिम शुरू की. करीब आठ साल बाद अप्रैल 1936 में कांग्रेस के लखनऊ सम्मेलन में उनके ही सभापतित्व में अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना हुई.

🇮🇳 1934 में बिहार में प्रलयंकारी भूकंप आया. भूकंप से केन्द्र था मुंगेर. जानमाल की भारी क्षति हुई थी. किसानों की तो कमर टूट गयी थी. स्वामी सहजानंद राहत कार्य में जी जान से लगे थे. लेकिन इस दौरान उनको जमींदारों द्वारा किसानों पर लगान वसूलने और जुल्म करने की खबरें लगातार मिल रही थी. राजेन्द्र प्रसाद से लेकर तमाम चोटी के नेता भूकंप राहत के काम में लगे थे.

🇮🇳 पटना का पीली कोठी तब रिलीफ कमेटी का दफ्तर था. गाँधीजी भी आते तो वहीं ठहरते थे. एक दिन स्वामीजी ने गाँधीजी को बिहार के किसानों की स्थिति से अवगत कराना चाहा. मेरा जीवन संघर्ष में स्वामीजी ने लिखा है कि गाँधीजी पहले तो किसानों की स्थिति से अनभिज्ञ थे फिर जमींदारों और उनके कांग्रेसी मैनेजरों पर उनको बहुत भरोसा था.

🇮🇳 किसानों की मदद के सवाल पर जब गाँधीजी ने दरभंगा महाराज के पास जाने और उनसे सहायता माँगने की बात कही तो स्वामीजी आग बबूला हो गये और गाँधीजी को खरी-खोटी सुनाते हुए चले गये. जेल में गॉंधीजी के चेलों की कथनी-करनी में अंतर और खिलाफत आंदोलन के दौरान उनके रुख को स्वामीजी पहले ही देख चुके थे. पटना की घटना के बाद उन्होंने गाँधीजी के साथ 14 साल पुराना अपना संबंध तोड़ लिया.

🇮🇳 स्वामी सहजानंद सरस्वती को भारत में संगठित किसान आंदोलन का जनक माना जाता है. उन्होंने अंग्रेजी शासन के दौरान शोषण से कराहते किसानों को संगठित किया और उऩको जमींदारों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए संघर्ष किया, लेकिन बिल्कुल अहिंसक तरीके से. लाठी के बल पर. कहते थे- कैसे लोगे मालगुजारी, लठ हमारा जिंदाबाद.

स्वामीजी ने नारा दिया था, जो किसान आंदोलन के दौरान चर्चित हुआ-

‘’जो अन्न-वस्त्र उपजाएगा, अब सो कानून बनायेगा.

यह भारतवर्ष उसी का है, अब शासन भी वही चलायेगा’’..

🇮🇳 गाँधीजी से अलग होने के बाद स्वामी सहजानंद सरस्वती के जीवन का तीसरा चरण शुरू होता है. उन्होंने देशभर में घूम घूमकर किसानों की रैलियाँ की. स्वामीजी के नेतृत्व में सन् 1936 से लेकर 1939 तक बिहार में कई लड़ाईयां किसानों ने लड़ीं. इस दौरान जमींदारों और सरकार के साथ उनकी छोटी-मोटी सैकड़ों भिड़न्तें भी हुई. उनमें बड़हिया, रेवड़ा और मझियावां के बकाश्त सत्याग्रह ऐतिहासिक हैं.

🇮🇳 इस कारण बिहार के किसान सभा की पूरे देश में प्रसिद्धि हुई. दस्तावेज बताते हैं कि स्वामीजी की किसान सभाओं में जुटने वाली भीड़ तब कांग्रेस की रैलियों से ज्यादा होती थी. किसान सभा की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1935 में इसके सदस्यों की संख्या अस्सी हजार थी जो 1938 में बढ़कर दो लाख पचास हजार हो गयी.

🇮🇳 गाँधीजी से मोहभंग होने और किसान आंदोलन में मन प्राण से जुटे स्वामी सहजानंद की #नेताजी_सुभाषचंद्र_बोस से निकटता रही. दोनों ने साथ मिलकर समझौता विरोधी कई रैलियां की. स्वामीजी फारवॉर्ड ब्लॉक से भी निकट रहे. एक बार जब स्वामीजी की गिरफ्तारी हुई तो नेताजी ने 28 अप्रैल को ऑल इंडिया स्वामी सहजानंद डे घोषित कर दिया.

सीपीआई जैसी वामपंथी पार्टियां भी स्वामीजी को वैचारिक दृष्टि से अपने करीब मानते रही. यह स्वामीजी का प्रभामंडल ही था कि तब के समाजवादी और कांग्रेस के पुराने शीर्ष नेता मसलन, एमजी रंगा, ई एम एस नंबूदरीपाद, पंडित कार्यानंद शर्मा, पंडित यमुनाकार्यी, आचार्य नरेन्द्र देव, राहुल सांकृत्यायन, राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, पंडित यदुनंदन शर्मा, पी सुंदरैया, भीष्म साहनी, बंकिमचंद्र मुखर्जी जैसे तब के नामी चेहरे किसान सभा से जुड़े थे.

🇮🇳 जेल में नियमित तौर पर उनका गीता के पठन-पाठन का काम चलता था. अपने साथी कैदियों की प्रार्थना पर उन्होंने गीता भी पढ़ाई. जेल की सजा काटते हुए स्वामीजी ने मेरा जीवन संघर्ष के अलावे किसान कैसे लड़ते हैं, क्रांति और संयुक्त मोर्चा, किसान-सभा के संस्मरण, खेत-मजदूर, झारखंड के किसान और गीता ह्रदय नामक छह पुस्तकें लिखी. स्वामीजी ने दो दर्जन से ज्यादा पुस्तकें लिखीं, जिसमें सामाजिक व्यवस्था पर भूमिहार-ब्राह्मण परिचय, झूठा भय-मिथ्या अभिमान, ब्राह्मण कौन, ब्राह्मण समाज की स्थिति आदि. उनकी आजादी की लड़ाई और किसान संघर्षों की दास्तान- किसान सभा के संस्मरण, महारुद्र का महातांडव, जंग और राष्ट्रीय आजादी, अब क्या हो, गया जिले में सवा मास आदि पुस्तकों में दर्ज है. उन्होंने श्रीमदभागवद का भाष्य ‘गीता ह्रदय’ नाम से लिखा.

सपनों का हिन्दुस्तान अभी दूर की कौड़ी

🇮🇳 मेरा जीवन संघर्ष नामक  जीवनी में स्वामीजी ने लिखा है – “मैं कमाने वाली जनता के हाथ में ही, सारा शासन सूत्र औरों से छीनकर, देने का पक्षपाती हूँ. उनसे लेकर या उनपर दबाव डालकर देने-दिलवाने की बात मैं गलत मानता हूँ. हमें लड़कर छीनना होगा. तभी हम उसे रख सकेंगे. यों आसानी से मिलने पर फिर छिन जाएगा यह ध्रुव सत्य है. यों मिले हुए को मैं सपने की संपत्ति मानता हूँ” . स्वामीजी कहते थे कि इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए हमें पक्के कार्यकर्ताओं और नये नेताओं का दल तैयार करना होगा.

यही सपना संजोये वह शाश्वत विद्रोही संन्यासी 26 जून, 1950 को बिहार के मुजफ्फरपुर में महाप्रयाण कर गये. आज देश में स्वामीजी के नाम पर दर्जनों स्कूल, कॉलेज, पुस्कालय हैं. अनेक स्मारक हैं और उन सबसे ज्यादा देशभर में उनके नाम पर चलने वाले सामाजिक संगठन हैं. लेकिन स्वामीजी के सपनों का हिन्दुस्तान अभी दूर की कौड़ी है. जिस किसान को उन्होंने भगवान माना और रोटी को भगवान से भी बड़ा बताया था. उसकी दुर्दशा जगजाहिर है.

साभार: news18.com

🇮🇳 #किसान_आंदोलन के पर्याय एवं #स्वतंत्रता संग्राम सेनानी #स्वामी_सहजानंद_सरस्वती जी को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

#Swami_Sahajanand_Saraswati #आजादी_का_अमृतकाल  #22February  #independence #movement #देशभक्त

Swami Shraddhanand ji | अमर बलिदानी स्वामी श्रद्धानंद जी | 22 फ़रवरी, 1856 - 23 दिसम्बर, 1926

 



🇮🇳🔶 अपने #धर्म, #संस्कृति और #देश के लिए दिया था स्वामी श्रद्धानंद जी ने बलिदान 🔶🇮🇳

🇮🇳🔶 भारत में अनेक दिव्य पुरुषों ने जन्म लिया। किसी ने धर्म के लिए अपने जीवन का उत्सर्ग किया, किसी ने देश के लिए, किसी ने जाति के लिए अपना जीवन लगा दिया परंतु #देश, #धर्म, #संस्कृति, #सभ्यता, #राष्ट्रीय, #शिक्षा आदि समग्र क्षेत्रों में संतुलित एवं सर्वाग्रणी किसी का स्वरूप है तो वह अमर बलिदानी स्वामी श्रद्धानंद जी का है। वह धार्मिक नेता थे और राष्ट्र नेता भी। वह सामाजिक नेता भी थे और आध्यात्मिक नेता भी।

स्वामी श्रद्धानन्द (अंग्रेज़ी: Swami Shraddhanand; जन्म- 22 फ़रवरी, 1856, जालंधर, पंजाब; मृत्यु- 23 दिसम्बर, 1926, दिल्ली) को भारत के प्रसिद्ध महापुरुषों में गिना जाता है। वे ऐसे महान् राष्ट्रभक्त संन्यासियों में अग्रणी थे, जिन्होंने अपना सारा जीवन वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दिया था।

🇮🇳🔶 22 फरवरी 1856 को जन्मे स्वामी श्रद्धानंद ने शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने जिस #गुरुकुल शिक्षा प्रणाली को स्थापित किया था उससे पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली का खोखलापन प्रकट हो गया था और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को जन्म दिया था। स्वामी श्रद्धानंद जी एक पूर्ण नेता थे। सम्पूर्ण क्रांति के प्रतीक थे। वीरता, अदम्य उत्साह, बलिदान उनके रोम-रोम में व्याप्त थे। निर्भयता की भावना, वाणी में अपूर्व ओज, दीन दुखियों के प्रति दया की भावना स्वामी श्रद्धानंद में सदा दृष्टिगोचर होती थी।

🇮🇳🔶 स्वामी श्रद्धानंद जी ने ब्रिटिश शासन काल में दिल्ली के चाँदनी चौक में क्रूर अंग्रेजी शासक के सैनिकों की संगीनों के सामने अपनी छाती तान कर देश की स्वतंत्रता के लिए अपने आपको बलि के रूप में प्रस्तुत करके देश के प्रति जनता में बलिदान करने की भावना जागृत की। साहस एवं निर्भीकता का ऐसा उदाहरण अपूर्व था। 

🇮🇳🔶 स्वामी श्रद्धानंद जी महात्मा थे, ऋषि थे, तपस्वी थे और योगी थे। उन्होंने देश का भविष्य देखा। तत्कालीन नेताओं की तुष्टीकरण की नीति और ब्रिटिश शासन की कूटनीति को अंतर्दृष्टि से देखा। भारत की राष्ट्रीयता का भविष्य खंडित प्रतीत हुआ तो भारत में एक राष्ट्रीयता के संगठन के लिए एक जाति, एक धर्म, एक भाषा के प्रचार के लिए शुद्धि आंदोलन एवं शुद्धि का कार्य प्रारंभ किया। 

🇮🇳🔶 भारत की राष्ट्रीय भावना की रक्षा के लिए महर्षि स्वामी दयानंद जी ने एक धर्म, एक भाषा, एक जाति, ऊंच-नीच भाव, गरीब-अमीर भेद शून्य समभाव की जो महती रूपरेखा प्रसारित की थी उसी को विशेष रूप से स्वामी श्रद्धानंद जी ने शुद्धि कार्य के द्वारा क्रियान्वित किया था। स्वामी श्रद्धानंद जी का बलिदान शुद्धि कार्य के कारण हुआ। यह राष्ट्र कार्य के लिए बलिदान था और धर्म कार्य के लिए भी था। अत: यह बलिदान इतिहास में अपूर्व था। 

🇮🇳🔶 स्वामी श्रद्धानंद जी ने राष्ट्रीयता के निर्माण के लिए  स्वधर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए अपने प्राचीन इतिहास की रक्षा एवं प्रचार के लिए भारतीयों को सच्चे अर्थों में भारतीय बनाने के लिए तथा जन्म जातिगत भेदभाव गरीब और अमीर का भेदभाव मिटाकर सबको समान स्तर पर लाने के लिए जिस आदर्श गुरुकुल को जन्म दिया था, उसने मैकाले की शिक्षा पद्धति का प्रखरता से बिना शासन से सहायता लिए प्रबल सामना किया।

🇮🇳🔶 हर वर्ष 23 दिसम्बर आर्य जगत को उस महान बलिदानी स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज का बलिदान स्मरण करवाता है जिसने अपने धर्म, संस्कृति और देश के लिए अपना बलिदान दिया था। स्वामी श्रद्धानंद जी ने देश, धर्म और जाति के लिए अपना बलिदान दिया था। उन्होंने अपने हित को त्याग कर राष्ट्रहित को अपनाया। मुंशी राम से महात्मा मुंशीराम और महात्मा मुंशीराम से स्वामी श्रद्धानंद तक का उनका सफर बहुत ही प्रेरणादायक है।

साभार: punjabkesari.in

🇮🇳 स्वराज, शिक्षा और वैदिक धर्म के निमित्त अपने प्राणों की आहुति देने वाले, आर्य समाज के प्रख्यात संत श्रद्धेय #स्वामी_श्रद्धानंद जी की जयंती पर उन्हें कोटि-कोटि नमन !

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

#Swami Shraddhanand ji #आजादी_का_अमृतकाल  #22February  #independence #movement #देशभक्त

First Freedom Fighter | Uyyalawada Narasimha Reddy | प्रथम_स्वतंत्रता सेनानी | उय्यलावडा नरसिम्हा रेड्डी | Born- November 24, 1806; Death- February 22, 1847




First Freedom Fighter | Uyyalawada Narasimha Reddy  प्रथम_स्वतंत्रता सेनानी | उय्यलावडा नरसिम्हा रेड्डी | Born- November 24, 1806; Death- February 22, 1847

#प्रथम_स्वतंत्रता सेनानी | उय्यलावडा नरसिम्हा रेड्डी | जन्म- 24 नवंबर, 1806; मृत्यु- 22 फ़रवरी, 1847

🇮🇳 उन्हें सार्वजनिक रूप से जुर्रेती बैंक, कोइलकुंटला, जिला कुर्नूल में सुबह 7 बजे, सोमवार, 22 फ़रवरी, 1847 को फाँसी दी गई। उनकी फाँसी को देखने के लिए करीब दो हजार लोग उपस्थित थे। 🇮🇳

🇮🇳 #कोइलकुंतला #Koilkuntla में उनके पकड़े जाने के बाद उन्हें बुरी तरह से पीटा गया, उनको मोटी-मोटी जंजीरों से बाँधा गया था और कोइलकुंतला की सड़कों पर खून से सने हुए कपड़े में ले जाया गया ताकि किसी अन्य व्यक्ति को #ब्रिटिश के खिलाफ #विद्रोह करने की हिम्मत ना हो सके। 🇮🇳


🇮🇳 नरसिम्हा रेड्डी का जन्म 24 नवंबर, 1806 में #उय्यालवडा, जिला #कुर्नूल, #आंध्र_प्रदेश के एक सैन्य परिवार में हुआ था। उनके दादा का नाम #जयारामी_रेड्डी, पिता का नाम #उय्यलावडा_पेडडामल्ला_रेड्डी था। नरसिम्हा रेड्डी सेना में गवर्नर थे। #कदपा, #अनंतपुर, #बेल्लारी और #कुर्नूल जैसे 66 गाँवों की कमान उनके हाथ में रहती थी। वह 2000 की सेना को नियंत्रित किया करते थे।


🇮🇳उय्यलावडा नरसिम्हा रेड्डी पहले #देशभक्त थे, जिन्होंने #ब्रिटिश_शासन के ख़िलाफ़ विद्रोह किया। नरसिम्हा रेड्डी ने वर्ष 1847 में किसानों पर हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध आवाज़ उठाई और अंग्रेज़ों से लोहा लिया। उन्हें #अल्लागड्डा क्षेत्र से अपने दादा से कर वसूलने की जिम्मेदारी मिली थी। किसानों पर अंग्रेज़ों के जुल्म बढ़ते जा रहे थे। इन्हीं जुल्मों और अत्याचारों के विरुद्ध नरसिम्हा रेड्डी उठ खड़े हुए थे।

🇮🇳 नरसिम्हा रेड्डी का जन्म 24 नवंबर, 1806 में #उय्यालवडा, जिला #कुर्नूल, #आंध्र_प्रदेश के एक सैन्य परिवार में हुआ था। उनके दादा का नाम #जयारामी_रेड्डी, पिता का नाम #उय्यलावडा_पेडडामल्ला_रेड्डी था। नरसिम्हा रेड्डी सेना में गवर्नर थे। #कदपा, #अनंतपुर, #बेल्लारी और #कुर्नूल जैसे 66 गाँवों की कमान उनके हाथ में रहती थी। वह 2000 की सेना को नियंत्रित किया करते थे।

🇮🇳 रायलसीमा के क्षेत्र पर ब्रिटिशों के अधिकार करने के बाद नरसिम्हा रेड्डी ने अंग्रेजों के साथ इस क्षेत्र की आय को साझा करने से इनकार कर दिया था। वह एक सशस्त्र विद्रोह के पक्ष में थे। वह युद्ध में गोरिल्ला रणनीति का इस्तेमाल किया करते थे। 10 जून, 1846 को उन्होंने #कोइलकुंटला में खजाने पर हमला किया और #कंबम (जिला प्रकाशम्) की तरफ प्रस्थान किया। उन्होंने वन रेंजर रूद्राराम को मारकर विद्रोह किया। जिला कलेक्टर ने विद्रोह को बड़ी गंभीरता से लिया और कैप्टन नॉट और वाटसन को नरसिम्हा रेड्डी को पकड़ने का आदेश दिया। वह अपने प्रयास में असफल रहे।

🇮🇳 ब्रिटिश सरकार ने नरसिम्हा रेड्डी की सूचना देने वाले को 5000 रुपये और उनके सिर के लिए 10000 रुपये देने की घोषणा की, जो उन दिनों में एक बड़ी रकम थी। 23 जुलाई, 1846 को नरसिम्हा रेड्डी ने अपनी सेना के साथ #गिद्दलूर में ब्रिटिश सेना के ऊपर आक्रमण कर दिया और उन्हें हरा दिया। नरसिम्हा रेड्डी को पकड़ने के लिए ब्रिटिश सेना ने उनके परिवार को कदपा में बन्दी बना लिया। अपने परिवार को मुक्त करने के प्रयास में वह #नल्लामला वन चले गए। जब अंग्रेजों को पता लगा कि वह नल्लामला वन में छिपे हैं, तब अंग्रेजों ने अपनी गतिविधियों को और ज्यादा मजबूत कर दिया, जिसके बाद नरसिम्हा रेड्डी #कोइलकुंतला क्षेत्र में वापस आ गए और गाँव #रामबाधुनीपल्ले के पास #जगन्नाथ_कोंडा में मौके का इंतजार करने लगे।

🇮🇳 ब्रिटिश अधिकारियों को उनके कोइलकुंतला के ठिकाने की जानकारी मिली, जिसके बाद ब्रिटिश अधिकारियों ने वह क्षेत्र रातों-रात घेर लिया। 6 अक्टूबर, 1846 को आधी रात के समय उन्हें गिरफ़्तार करके बन्दी बना लिया गया। कोइलकुंतला में उनके पकड़े जाने के बाद उन्हें बुरी तरह से पीटा गया, उनको मोटी-मोटी जंजीरों से बाँधा गया था और कोइलकुंतला की सड़कों पर खून से सने हुए कपड़े में ले जाया गया ताकि किसी अन्य व्यक्ति को ब्रिटिश के खिलाफ विद्रोह करने की हिम्मत ना हो सके।

🇮🇳 नरसिम्हा रेड्डी के साथ विद्रोह करने लिए 901 लोगों पर भी आरोप लगाया गया। बाद में उनमें से 412 लोगों को बरी कर दिया गया और 273 लोगों को जमानत पर रिहा किया गया। 112 लोगों को दोषी ठहराया गया। उन्हें 5 से 14 साल के लिए कारावास की सजा सुनाई गई। कुछ को तो #अंडमान द्वीप समूह की एक जेल में भेज दिया गया। नरसिम्हा रेड्डी पर हत्या और राजद्रोह करने का आरोप लगाया गया और उन्हें मौत की सजा सुनाई गई। छ: सप्ताह बाद उन्हें सार्वजनिक रूप से #जुर्रेती बैंक,#Jurreti_Bank #कोइलकुंटला,#Koilkuntla जिला #कुर्नूल #District_Kurnool में सुबह 7 बजे, सोमवार, 22 फ़रवरी, 1847 को फाँसी दी गई। उनकी फाँसी को देखने के लिए करीब दो हजार लोग उपस्थित थे।  #District_Kurnool

🇮🇳 नरसिम्हा रेड्डी द्वारा बनाए गए किले आज भी उय्यलावडा, रूपनगुड़ी, वेल्ड्रथी और गिद्दलुर जैसे स्थानों पर मौजूद हैं। प्रथम स्वतंत्रता सेनानी उय्यालवडा नरसिम्हा रेड्डी की 170वीं पुण्यतिथि मनाने के लिए 22 फ़रवरी, 2017 को उय्यालवडा में एक विशेष आवरण जारी किया गया था।

साभार: bharatdiscovery.org

🇮🇳 वर्ष 1847 में आंध्र प्रदेश के किसानों पर हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध आवाज़ उठा कर ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ विद्रोह करने वाले भारत के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी देशभक्त #उय्यलावडा_नरसिम्हा_रेड्डी जी को उनके #बलिदान_दिवस पर विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

#आजादी_का_अमृतकाल

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

#Jurreti_Bank #Koilkuntla #District_Kurnool #आजादी_का_अमृतकाल #Uyyalawada_Narasimha_Reddy #22February #First_Freedom_Fighter   #independence #movement #देशभक्त

Mukund Das | मुकुन्द दास | 22 February, 1878-18 May, 1934 | Bengali Language Poet, Lyricist, Musician and Patriot

 



Mukund Das (22 February, 1878-18 May, 1934) Bengali Language Poet, Lyricist, Musician and Patriot.

🇮🇳 मुकुन्द दास ने अपनी उत्कृष्ट कृति #मातृपूजा #Matripuja की रचना की। उनके नाटक का प्राथमिक विषय देशभक्ति और #स्वतंत्रता_आंदोलन था। स्वतंत्रता आंदोलन का लक्ष्य भारतमाता को #ब्रिटिश साम्राज्यवाद के जुए से मुक्त कराना था। 🇮🇳

🇮🇳 मुकुन्द दास (जन्म- 22 फ़रवरी, 1878; मृत्यु- 18 मई, 1934) भारतीय बांग्ला भाषा के #कवि, #गीतकार, #संगीतकार और #देशभक्त थे। उन्होने ग्रामीण स्वदेशी आंदोलन के प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया था।

#Mukunda_Das (#Bengali: মুকুন্দদাস; #22_February 1878 – 18 May 1934) was a #Bengali #poet, #ballad #singer, #composer and #patriot, who contributed to the spread of #Swadeshi #movement in #rural #Bengal

🇮🇳 सन 1905 में #अश्विनी_कुमार_दत्त ने #बंगाल के प्रस्तावित विभाजन के खिलाफ #बारीसाल टाउन हॉल में एक प्रेरक भाषण दिया था। संदेश को दूर-दूर तक फैलाने की आवश्यकता पर बल देते हुए उन्होंने कामना की कि नाटकों और नाटकों के माध्यम से नेताओं के संदेश को गाँवों तक पहुँचाया जा सके। तब मुकुन्द दास अश्विनी कुमार दत्त के भाषण से बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने महान देशभक्त की इच्छा को पूरा करने का संकल्प लिया।

🇮🇳 तीन महीने के भीतर मुकुन्द दास ने अपनी उत्कृष्ट कृति 'मातृपूजा' की रचना की। उनके नाटक का प्राथमिक विषय देशभक्ति और स्वतंत्रता आंदोलन था। स्वतंत्रता आंदोलन का लक्ष्य #भारतमाता को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के जुए से मुक्त कराना था।

🇮🇳 भारतमाता के बच्चों ने आजादी पाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। उन्होंने बंगाल के गाँवों में नाटकों का मंचन करने के लिए एक स्वदेशी थिएटर समूह बनाया।

🇮🇳 सन 1906 में मुकुन्द दास ने बारीसाल के विभिन्न स्थानों पर अपने नाटकों का मंचन किया और फिर #नोआखली और #त्रिपुरा की यात्रा की और मानसून से पहले बारीसाल लौट आए।

🇮🇳 जून 1906 में उन्होंने बारीसाल में स्वदेशी उत्सव में अपने नाटक का मंचन किया, जहाँ उनके नाटक की राष्ट्रीय नेतृत्व ने बहुत प्रशंसा की। 

🇮🇳 अक्टूबर में उन्होंने अपने समूह के साथ #फरीदपुर जिले के #मदारीपुर की यात्रा की और वहाँ से कई स्थानों पर। अंततः अप्रैल 1907 में बारीसाल लौट आए। 

🇮🇳 16 अप्रैल को उन्होंने राय बहादुर के महल में नाटक का मंचन किया।

🇮🇳 दो साल की दौड़ के बाद 'मातृपूजा' बंगाल की जनता की देशभक्ति की भावनाओं को जगाने में सफल रही। नाटक को प्रेस द्वारा और अधिक लोकप्रिय बनाया गया। 

🇮🇳 #बंदे_मातरम, #युगान्तर, #संध्या, #नवशक्ति, #प्रबासी और #आधुनिक_समीक्षा, उनमें से प्रत्येक ने नाटक को लोकप्रिय बनाने में भूमिका निभाई।

🇮🇳 सन 1908 में मुकुन्द दास ने #खुलना जिले में कुछ स्थानों पर, फिर छोटे-छोटे #बंगाल में नाटक का मंचन किया, लेकिन जब उन्होंने #बागेरहाट में नाटक का मंचन करने की कोशिश की तो उन्हें पुलिस ने रोक दिया।

🇮🇳 अक्टूबर 1908 में नाटक ने चौथे सीज़न में कदम रखा। 1908 में मुकुन्द दास को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया और तीन साल के लिए जेल में डाल दिया गया।

🇮🇳 1921 में #मोहनदास_गाँधी ने #असहयोग_आंदोलन का आह्वान किया। मुकुन्द दास नाटक के अपने सिद्ध प्रदर्शनों की सूची के साथ आंदोलन में शामिल हुए। 

🇮🇳 1923 के आसपास आंदोलन को बंद कर दिया गया और मुकुन्द दास #कोलकाता में अपने समूह के साथ बस गए। उस समय सरकार ने 'मातृपूजा' पर प्रतिबंध लगा दिया था। प्रतिबंधित होने से बचने के लिए उन्होंने सामाजिक नाटकों की रचना करना शुरू कर दिया। 

🇮🇳 1932 में सरकार ने उनके सभी नाटकों पर प्रतिबंध लगा दिया।

साभार: bharatdiscovery.org

🇮🇳 भारतीय #बांग्ला भाषा के #कवि, #गीतकार, #संगीतकार और #देशभक्त #मुकुन्द_दास जी (जन्म- 22 फ़रवरी, 1878; मृत्यु- 18 मई, 1934) को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व 🇮🇳💐🙏

🇮🇳 वंदे मातरम् 🇮🇳

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व 🇮🇳🌹🙏

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

#आजादी_का_अमृतकाल #Mukund_Das #22February #Bengali #Language #Poet #Lyricist #Musician  #Patriot #independence #movement #देशभक्त



21 फ़रवरी 2024

International Mother Language Day | अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस | 21 फरवरी



#मातृभाषा दिवस 21फरवरी को मनाया जाता है। 17 नवंबर, 1999 को यूनेस्को ने इसे स्वीकृति दी। इस दिवस को मनाने का उद्देश्य है कि विश्व में भाषायी एवं सांस्कृतिक विविधता और बहुभाषिता को बढ़ावा मिले

यूनेस्को द्वारा अन्तरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की घोषणा से बांग्लादेश के भाषा आन्दोलन दिवस को अन्तरराष्ट्रीय स्वीकृति मिली, जो बांग्लादेश में सन 1952  से मनाया जाता रहा है। बांग्लादेश में इस दिन एक राष्ट्रीय अवकाश होता है।

2008  को अन्तरराष्ट्रीय भाषा वर्ष घोषित करते हुए, संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने अन्तरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के महत्त्व को फिर दोहराया है।
#International #Mother #Language 3Day is a #worldwide annual observance held on #21_February to promote awareness of linguistic and #cultural #diversity and to promote #multilingualism


एक जनगणना के नवीनतम विश्लेषण के अनुसार, भारत में 19,500 या बोलियाँ मातृभाषा के रूप में बोली जाती हैं। यह 121 भाषाएँ हैं जो भारत में 10,000 या अधिक लोगों द्वारा बोली जाती हैं, जिनकी जनसंख्या 121 करोड़ है।

According to the latest analysis of a census, 19,500 languages or dialects are spoken as #mother_tongue in India. These are 121 #languages that are #spoken by 10,000 or more people in #India, which has a #population of 121 crores. 
प्रथम भाव - मातृभाव ! प्रथम भाषा - मातृभाषा !! #मातृभाषा का प्रयोग गर्व के साथ करें। 🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳 आप सभी मित्रों को #अन्तर्राष्ट्रीय_मातृभाषा_दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ ! 🇮🇳🌹🙏 जय मातृभूमि 🇮🇳
साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

Suryakant Tripathi Nirala | सूर्यकांत त्रिपाठी निराला | 21 फ़रवरी 1896-15 अक्टूबर 1961

 



Suryakant Tripathi Nirala  | सूर्यकांत त्रिपाठी निराला |  21 फ़रवरी 1896-15 अक्टूबर 1961 

🇮🇳 सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जन्म 21 फ़रवरी 1896 को बंगाल की #महिषादल रियासत (ज़िला #मेदिनीपुर) में हुआ। इस जन्मतिथि को लेकर अनेक मत हैं, लेकिन इस पर विद्वतजन एकमत हैं कि 1930 से निराला वसंत पंचमी के दिन अपना जन्मदिन मनाया करते थे। ‘महाप्राण’ नाम से विख्यात निराला छायावादी दौर के चार स्तंभों में से एक हैं। उनकी कीर्ति का आधार ‘सरोज-स्मृति’, ‘राम की शक्ति-पूजा’ और ‘कुकुरमुत्ता’ सरीखी लंबी कविताएँ हैं; जो उनके प्रसिद्ध गीतों और प्रयोगशील कवि-कर्म के साथ-साथ रची जाती रहीं। उन्होंने पर्याप्त कथा और कथेतर-लेखन भी किया। बतौर अनुवादक भी वह सक्रिय रहे। वह हिंदी में मुक्तछंद के प्रवर्तक भी माने जाते हैं। वह मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति के पक्षधर हैं। वर्ष 1930 में प्रकाशित अपने कविता-संग्रह ‘परिमल’ की भूमिका में उन्होंने लिखा : ‘‘मनुष्यों की मुक्ति कर्म के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छंदों के शासन से अलग हो जाना है।’’

🇮🇳 निराला के बचपन में उनका नाम सुर्जकुमार रखा गया। उनके पिता #पंडित_रामसहाय_तिवारी #उन्नाव (#बैसवाड़ा) ज़िले #गढ़ाकोला गाँव के रहने वाले थे। वह महिषादल में सिपाही की नौकरी करते थे। निराला की शिक्षा हाई स्कूल तक हुई। हिंदी, संस्कृत और बांग्ला भाषा और साहित्य का ज्ञान उन्होंने स्वाध्याय से  अर्जित किया। 

🇮🇳 उनका जीवन उनके ही शब्दों में कहें तो दुःख की कथा-सा है। तीन वर्ष की आयु में उनकी माँ का और बीस वर्ष के होते-होते उनके पिता का देहांत हो गया। बेहद अभावों में संयुक्त परिवार की ज़िम्मेदारी उठाते हुए निराला पर एक और आघात तब हुआ, जब पहले महायुद्ध के बाद फैली महामारी में उनकी पत्नी मनोहरा देवी का भी निधन हो गया। इस महामारी में उनके चाचा, भाई और भाभी का भी देहांत हो गया। इसके बाद की उनकी जीवन-स्थिति को उनकी काव्य-पंक्तियों से समझा जा सकता है :

‘‘धन्ये, मैं पिता निरर्थक का,

कुछ भी तेरे हित न कर सका!

जाना तो अर्थागमोपाय,

पर रहा सदा संकुचित-काय

लख कर अनर्थ आर्थिक पथ पर

हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।’’  

ये पंक्तियाँ निराला की कालजयी कविता ‘सरोज-स्मृति’ से हैं। यह कविता उन्होंने मात्र उन्नीस वर्ष आयु में मृत्यु को प्राप्त हुई अपनी बेटी सरोज की स्मृति में लिखी।

🇮🇳 निराला का व्यक्तित्व घनघोर सिद्धांतवादी और साहसी था। वह सतत संघर्ष-पथ के पथिक थे। यह रास्ता उन्हें विक्षिप्तता तक भी ले गया। उन्होंने जीवन और रचना अनेक संस्तरों पर जिया, इसका ही निष्कर्ष है कि उनका रचना-संसार इतनी विविधता और समृद्धता लिए हुए है। हिंदी साहित्य संसार में उनके आक्रोश और विद्रोह, उनकी करुणा और प्रतिबद्धता की कई मिसालें और कहानियाँ प्रचलित हैं। 

🇮🇳 सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के जीवन का अंतिम समय अस्वस्थता के कारण प्रयागराज के दारागंज मोहल्ले में एक छोटे से कमरे में बीता तथा इसी कमरे में 15 अक्टूबर 1961 को कवि निराला जी की मृत्यु हुई।

🇮🇳 कृतियाँ--

‘अनामिका’ (1923), ‘परिमल’ (1930), ‘गीतिका’ (1936), ‘तुलसीदास’ (1939), ‘कुकुरमुत्ता’ (1942), ‘अणिमा’ (1943), ‘बेला’ (1946), ‘नए पत्ते’ (1946), ‘अर्चना’ (1950), ‘आराधना’ (1953), ‘गीत कुंज’ (1954), ‘सांध्य काकली’

और ‘अपरा’ निराला की प्रमुख काव्य-कृतियाँ हैं। ‘लिली’, ‘सखी’, ‘सुकुल की बीवी’ उनके प्रमुख कहानी-संग्रह और ‘कुल्ली भाट’, ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ उनके चर्चित उपन्यास हैं। ‘चाबुक’ शीर्षक से उनके निबंधों की एक पुस्तक भी प्रसिद्ध है।


🇮🇳 वर्ष 1976 में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला पर भारत सरकार द्वारा डाक टिकट जारी किया जा चुका है।

साभार: hindwi.org

🇮🇳 प्रसिद्ध छायावादी #हिंदी #कवि, #उपन्यासकार, #निबन्धकार और #कहानीकार #सूर्यकान्त_त्रिपाठी_निराला जी की जयंती पर उन्हें साहित्यप्रेमियों की ओर से हार्दिक श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व 🇮🇳💐🙏

🇮🇳 वंदे मातरम् 🇮🇳

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व 🇮🇳🌹🙏

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

#कवि, #उपन्यासकार, #निबन्धकार  #कहानीकार #सूर्यकान्त_त्रिपाठी_निराला #Poet, #Novelist, #Essayist  #Storyteller #Suryakant_Tripathi_Nirala

First Female Freedom Fighter of Bharat | Kittur Rani Chennamma | कित्तूर की रानी, वीरांगना रानी चेन्नम्मा | 23 अक्टूबर, 1778 -21 फरवरी 1829

 



Queen of Kittur, #Veerangana Rani Chennamma कित्तूर की रानी, वीरांगना  रानी चेन्नम्मा

#First_Female_Freedom_Fighter of #Bharat |  #Kittur #Rani #Chennamma

🇮🇳 19वीं सदी की शुरुआत में देश के बहुत से शासक अंग्रेजों की बदनीयत को समझ नहीं पाए थे। लेकिन उस समय भी कित्तूर की रानी, रानी चेन्नम्मा ने ब्रिटिश सेना के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी थी। 🇮🇳

🇮🇳 रानी चेन्नम्मा की कहानी लगभग झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की तरह है। इसलिए उनको 'कर्नाटक की लक्ष्मीबाई' भी कहा जाता है। वह पहली भारतीय शासक थीं जिन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह किया। भले ही अंग्रेजों की सेना के मुकाबले उनके सैनिकों की संख्या कम थी और उनको गिरफ्तार किया गया लेकिन ब्रिटिश शासन के खिलाफ बगावत का नेतृत्व करने के लिए उनको अब तक याद किया जाता है।

🇮🇳 चेन्नम्मा का जन्म 23 अक्टूबर, 1778 को #ककाती में हुआ था। यह #कर्नाटक के #बेलगावी जिले में एक छोटा सा गॉंव है। उनकी शादी देसाई वंश के राजा #मल्लासारजा से हुई जिसके बाद वह कित्तूर की रानी बन गईं। कित्तूर अभी कर्नाटक में है। उनको एक बेटा हुआ था जिनकी 1824 में मौत हो गई थी। अपने बेटे की मौत के बाद उन्होंने एक अन्य बच्चे #शिवलिंगप्पा को गोद ले लिया और अपनी गद्दी का वारिस घोषित किया। लेकिन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी 'हड़प नीति' के तहत उसको स्वीकार नहीं किया। हालांकि उस समय तक हड़प नीति लागू नहीं हुई थी फिर भी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1824 में कित्तूर पर कब्जा कर लिया।

🇮🇳 ब्रिटिश शासन ने शिवलिंगप्पा को निर्वासित करने का आदेश दिया। लेकिन चेन्नम्मा ने अंग्रेजों का आदेश नहीं माना। उन्होंने बॉम्बे प्रेसिडेंसी के लेफ्टिनेंट गवर्नर लॉर्ड एलफिंस्टन को एक पत्र भेजा। उन्होंने कित्तूर के मामले में हड़प नीति नहीं लागू करने का आग्रह किया। लेकिन उनके आग्रह को अंग्रेजों ने ठुकरा दिया। इस तरह से ब्रिटिश और कित्तूर के बीच लड़ाई शुरू हो गई। अंग्रेजों ने कित्तूर के खजाने और आभूषणों के जखीरे को जब्त करने की कोशिश की जिसका मूल्य करीब 15 लाख रुपये था। लेकिन वे सफल नहीं हुए।

🇮🇳 अंग्रेजों ने 20,000 सिपाहियों और 400 बंदूकों के साथ कित्तूर पर हमला कर दिया। अक्टूबर 1824 में उनके बीच पहली लड़ाई हुई। उस लड़ाई में ब्रिटिश सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा। कलेक्टर और अंग्रेजों का एजेंट सेंट जॉन ठाकरे कित्तूर की सेना के हाथों मारा गया। चेन्नम्मा के सहयोगी #अमातूरबेलप्पा ने उसे मार गिराया था और ब्रिटिश सेना को भारी नुकसान पहुँचाया था। दो ब्रिटिश अधिकारियों सर वॉल्टर एलियट और स्टीवेंसन को बंधक बना लिया गया। अंग्रेजों ने वादा किया कि अब युद्ध नहीं करेंगे तो रानी चेन्नम्मा ने ब्रिटिश अधिकारियों को रिहा कर दिया। लेकिन अंग्रेजों ने धोखा दिया और फिर से युद्ध छेड़ दिया। इस बार ब्रिटिश अफसर चैपलिन ने पहले से भी ज्यादा सिपाहियों के साथ हमला किया। सर थॉमस मुनरो का भतीजा और सोलापुर का सब कलेक्टर मुनरो मारा गया। रानी चेन्नम्मा अपने सहयोगियों #संगोल्ली_रयन्ना और #गुरुसिदप्पा के साथ जोरदार तरीके से लड़ीं। लेकिन अंग्रेजों के मुकाबले कम सैनिक होने के कारण वह हार गईं। उनको #बेलहोंगल के किले में कैद कर दिया गया। वहीं 21 फरवरी 1829 को उनकी मौत हो गई।

🇮🇳 भले ही चेन्नम्मा आखिरी लड़ाई में हार गईं लेकिन उनकी वीरता को हमेशा याद किया जाएगा। उनकी पहली जीत और विरासत का जश्न अब भी मनाया जाता है। हर साल कित्तूर में 22 से 24 अक्टूबर तक कित्तूर उत्सव लगता है जिसमें उनकी जीत का जश्न मनाया जाता है। रानी चेन्नम्मा को बेलहोंगल तालुका में दफनाया गया है। उनकी समाधि एक छोटे से पार्क में है जिसकी देखरेख सरकार के जिम्मे है।

🇮🇳 उनकी एक प्रतिमा नई दिल्ली के पार्लियामेंट कांप्लेक्स में लगी है। कित्तूर की रानी चेन्नम्मा की उस प्रतिमा का अनावरण 11 सितंबर, 2007 को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने किया था। प्रतिमा को कित्तूर रानी चेन्नम्मा स्मारक कमिटी ने दान दिया था जिसे विजय गौड़ ने तैयार किया था।

साभार: navbharattimes.indiatimes.com

🇮🇳 झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के समान #कित्तूर_की_रानी, कर्नाटक की स्वतंत्रता सेनानी वीरांगना #रानी_चेन्नम्मा जी को उनके बलिदान दिवस पर कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

🇮🇳 वंदे मातरम् 🇮🇳

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व 🇮🇳🌹🙏

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था

#आजादी_का_अमृतकाल #veerangana #queen_chennamma_of_kittur  #वीरांगना #कित्तूर_की_रानी_चेन्नम्मा 

Makar Sankranti मकर संक्रांति

  #मकर_संक्रांति, #Makar_Sankranti, #Importance_of_Makar_Sankranti मकर संक्रांति' का त्यौहार जनवरी यानि पौष के महीने में मनाया जाता है। ...