22 फ़रवरी 2024

Mukund Das | मुकुन्द दास | 22 February, 1878-18 May, 1934 | Bengali Language Poet, Lyricist, Musician and Patriot

 



Mukund Das (22 February, 1878-18 May, 1934) Bengali Language Poet, Lyricist, Musician and Patriot.

🇮🇳 मुकुन्द दास ने अपनी उत्कृष्ट कृति #मातृपूजा #Matripuja की रचना की। उनके नाटक का प्राथमिक विषय देशभक्ति और #स्वतंत्रता_आंदोलन था। स्वतंत्रता आंदोलन का लक्ष्य भारतमाता को #ब्रिटिश साम्राज्यवाद के जुए से मुक्त कराना था। 🇮🇳

🇮🇳 मुकुन्द दास (जन्म- 22 फ़रवरी, 1878; मृत्यु- 18 मई, 1934) भारतीय बांग्ला भाषा के #कवि, #गीतकार, #संगीतकार और #देशभक्त थे। उन्होने ग्रामीण स्वदेशी आंदोलन के प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया था।

#Mukunda_Das (#Bengali: মুকুন্দদাস; #22_February 1878 – 18 May 1934) was a #Bengali #poet, #ballad #singer, #composer and #patriot, who contributed to the spread of #Swadeshi #movement in #rural #Bengal

🇮🇳 सन 1905 में #अश्विनी_कुमार_दत्त ने #बंगाल के प्रस्तावित विभाजन के खिलाफ #बारीसाल टाउन हॉल में एक प्रेरक भाषण दिया था। संदेश को दूर-दूर तक फैलाने की आवश्यकता पर बल देते हुए उन्होंने कामना की कि नाटकों और नाटकों के माध्यम से नेताओं के संदेश को गाँवों तक पहुँचाया जा सके। तब मुकुन्द दास अश्विनी कुमार दत्त के भाषण से बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने महान देशभक्त की इच्छा को पूरा करने का संकल्प लिया।

🇮🇳 तीन महीने के भीतर मुकुन्द दास ने अपनी उत्कृष्ट कृति 'मातृपूजा' की रचना की। उनके नाटक का प्राथमिक विषय देशभक्ति और स्वतंत्रता आंदोलन था। स्वतंत्रता आंदोलन का लक्ष्य #भारतमाता को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के जुए से मुक्त कराना था।

🇮🇳 भारतमाता के बच्चों ने आजादी पाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। उन्होंने बंगाल के गाँवों में नाटकों का मंचन करने के लिए एक स्वदेशी थिएटर समूह बनाया।

🇮🇳 सन 1906 में मुकुन्द दास ने बारीसाल के विभिन्न स्थानों पर अपने नाटकों का मंचन किया और फिर #नोआखली और #त्रिपुरा की यात्रा की और मानसून से पहले बारीसाल लौट आए।

🇮🇳 जून 1906 में उन्होंने बारीसाल में स्वदेशी उत्सव में अपने नाटक का मंचन किया, जहाँ उनके नाटक की राष्ट्रीय नेतृत्व ने बहुत प्रशंसा की। 

🇮🇳 अक्टूबर में उन्होंने अपने समूह के साथ #फरीदपुर जिले के #मदारीपुर की यात्रा की और वहाँ से कई स्थानों पर। अंततः अप्रैल 1907 में बारीसाल लौट आए। 

🇮🇳 16 अप्रैल को उन्होंने राय बहादुर के महल में नाटक का मंचन किया।

🇮🇳 दो साल की दौड़ के बाद 'मातृपूजा' बंगाल की जनता की देशभक्ति की भावनाओं को जगाने में सफल रही। नाटक को प्रेस द्वारा और अधिक लोकप्रिय बनाया गया। 

🇮🇳 #बंदे_मातरम, #युगान्तर, #संध्या, #नवशक्ति, #प्रबासी और #आधुनिक_समीक्षा, उनमें से प्रत्येक ने नाटक को लोकप्रिय बनाने में भूमिका निभाई।

🇮🇳 सन 1908 में मुकुन्द दास ने #खुलना जिले में कुछ स्थानों पर, फिर छोटे-छोटे #बंगाल में नाटक का मंचन किया, लेकिन जब उन्होंने #बागेरहाट में नाटक का मंचन करने की कोशिश की तो उन्हें पुलिस ने रोक दिया।

🇮🇳 अक्टूबर 1908 में नाटक ने चौथे सीज़न में कदम रखा। 1908 में मुकुन्द दास को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया और तीन साल के लिए जेल में डाल दिया गया।

🇮🇳 1921 में #मोहनदास_गाँधी ने #असहयोग_आंदोलन का आह्वान किया। मुकुन्द दास नाटक के अपने सिद्ध प्रदर्शनों की सूची के साथ आंदोलन में शामिल हुए। 

🇮🇳 1923 के आसपास आंदोलन को बंद कर दिया गया और मुकुन्द दास #कोलकाता में अपने समूह के साथ बस गए। उस समय सरकार ने 'मातृपूजा' पर प्रतिबंध लगा दिया था। प्रतिबंधित होने से बचने के लिए उन्होंने सामाजिक नाटकों की रचना करना शुरू कर दिया। 

🇮🇳 1932 में सरकार ने उनके सभी नाटकों पर प्रतिबंध लगा दिया।

साभार: bharatdiscovery.org

🇮🇳 भारतीय #बांग्ला भाषा के #कवि, #गीतकार, #संगीतकार और #देशभक्त #मुकुन्द_दास जी (जन्म- 22 फ़रवरी, 1878; मृत्यु- 18 मई, 1934) को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व 🇮🇳💐🙏

🇮🇳 वंदे मातरम् 🇮🇳

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व 🇮🇳🌹🙏

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

#आजादी_का_अमृतकाल #Mukund_Das #22February #Bengali #Language #Poet #Lyricist #Musician  #Patriot #independence #movement #देशभक्त



21 फ़रवरी 2024

International Mother Language Day | अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस | 21 फरवरी



#मातृभाषा दिवस 21फरवरी को मनाया जाता है। 17 नवंबर, 1999 को यूनेस्को ने इसे स्वीकृति दी। इस दिवस को मनाने का उद्देश्य है कि विश्व में भाषायी एवं सांस्कृतिक विविधता और बहुभाषिता को बढ़ावा मिले

यूनेस्को द्वारा अन्तरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की घोषणा से बांग्लादेश के भाषा आन्दोलन दिवस को अन्तरराष्ट्रीय स्वीकृति मिली, जो बांग्लादेश में सन 1952  से मनाया जाता रहा है। बांग्लादेश में इस दिन एक राष्ट्रीय अवकाश होता है।

2008  को अन्तरराष्ट्रीय भाषा वर्ष घोषित करते हुए, संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने अन्तरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के महत्त्व को फिर दोहराया है।
#International #Mother #Language 3Day is a #worldwide annual observance held on #21_February to promote awareness of linguistic and #cultural #diversity and to promote #multilingualism


एक जनगणना के नवीनतम विश्लेषण के अनुसार, भारत में 19,500 या बोलियाँ मातृभाषा के रूप में बोली जाती हैं। यह 121 भाषाएँ हैं जो भारत में 10,000 या अधिक लोगों द्वारा बोली जाती हैं, जिनकी जनसंख्या 121 करोड़ है।

According to the latest analysis of a census, 19,500 languages or dialects are spoken as #mother_tongue in India. These are 121 #languages that are #spoken by 10,000 or more people in #India, which has a #population of 121 crores. 
प्रथम भाव - मातृभाव ! प्रथम भाषा - मातृभाषा !! #मातृभाषा का प्रयोग गर्व के साथ करें। 🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳 आप सभी मित्रों को #अन्तर्राष्ट्रीय_मातृभाषा_दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ ! 🇮🇳🌹🙏 जय मातृभूमि 🇮🇳
साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

Suryakant Tripathi Nirala | सूर्यकांत त्रिपाठी निराला | 21 फ़रवरी 1896-15 अक्टूबर 1961

 



Suryakant Tripathi Nirala  | सूर्यकांत त्रिपाठी निराला |  21 फ़रवरी 1896-15 अक्टूबर 1961 

🇮🇳 सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जन्म 21 फ़रवरी 1896 को बंगाल की #महिषादल रियासत (ज़िला #मेदिनीपुर) में हुआ। इस जन्मतिथि को लेकर अनेक मत हैं, लेकिन इस पर विद्वतजन एकमत हैं कि 1930 से निराला वसंत पंचमी के दिन अपना जन्मदिन मनाया करते थे। ‘महाप्राण’ नाम से विख्यात निराला छायावादी दौर के चार स्तंभों में से एक हैं। उनकी कीर्ति का आधार ‘सरोज-स्मृति’, ‘राम की शक्ति-पूजा’ और ‘कुकुरमुत्ता’ सरीखी लंबी कविताएँ हैं; जो उनके प्रसिद्ध गीतों और प्रयोगशील कवि-कर्म के साथ-साथ रची जाती रहीं। उन्होंने पर्याप्त कथा और कथेतर-लेखन भी किया। बतौर अनुवादक भी वह सक्रिय रहे। वह हिंदी में मुक्तछंद के प्रवर्तक भी माने जाते हैं। वह मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति के पक्षधर हैं। वर्ष 1930 में प्रकाशित अपने कविता-संग्रह ‘परिमल’ की भूमिका में उन्होंने लिखा : ‘‘मनुष्यों की मुक्ति कर्म के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छंदों के शासन से अलग हो जाना है।’’

🇮🇳 निराला के बचपन में उनका नाम सुर्जकुमार रखा गया। उनके पिता #पंडित_रामसहाय_तिवारी #उन्नाव (#बैसवाड़ा) ज़िले #गढ़ाकोला गाँव के रहने वाले थे। वह महिषादल में सिपाही की नौकरी करते थे। निराला की शिक्षा हाई स्कूल तक हुई। हिंदी, संस्कृत और बांग्ला भाषा और साहित्य का ज्ञान उन्होंने स्वाध्याय से  अर्जित किया। 

🇮🇳 उनका जीवन उनके ही शब्दों में कहें तो दुःख की कथा-सा है। तीन वर्ष की आयु में उनकी माँ का और बीस वर्ष के होते-होते उनके पिता का देहांत हो गया। बेहद अभावों में संयुक्त परिवार की ज़िम्मेदारी उठाते हुए निराला पर एक और आघात तब हुआ, जब पहले महायुद्ध के बाद फैली महामारी में उनकी पत्नी मनोहरा देवी का भी निधन हो गया। इस महामारी में उनके चाचा, भाई और भाभी का भी देहांत हो गया। इसके बाद की उनकी जीवन-स्थिति को उनकी काव्य-पंक्तियों से समझा जा सकता है :

‘‘धन्ये, मैं पिता निरर्थक का,

कुछ भी तेरे हित न कर सका!

जाना तो अर्थागमोपाय,

पर रहा सदा संकुचित-काय

लख कर अनर्थ आर्थिक पथ पर

हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।’’  

ये पंक्तियाँ निराला की कालजयी कविता ‘सरोज-स्मृति’ से हैं। यह कविता उन्होंने मात्र उन्नीस वर्ष आयु में मृत्यु को प्राप्त हुई अपनी बेटी सरोज की स्मृति में लिखी।

🇮🇳 निराला का व्यक्तित्व घनघोर सिद्धांतवादी और साहसी था। वह सतत संघर्ष-पथ के पथिक थे। यह रास्ता उन्हें विक्षिप्तता तक भी ले गया। उन्होंने जीवन और रचना अनेक संस्तरों पर जिया, इसका ही निष्कर्ष है कि उनका रचना-संसार इतनी विविधता और समृद्धता लिए हुए है। हिंदी साहित्य संसार में उनके आक्रोश और विद्रोह, उनकी करुणा और प्रतिबद्धता की कई मिसालें और कहानियाँ प्रचलित हैं। 

🇮🇳 सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के जीवन का अंतिम समय अस्वस्थता के कारण प्रयागराज के दारागंज मोहल्ले में एक छोटे से कमरे में बीता तथा इसी कमरे में 15 अक्टूबर 1961 को कवि निराला जी की मृत्यु हुई।

🇮🇳 कृतियाँ--

‘अनामिका’ (1923), ‘परिमल’ (1930), ‘गीतिका’ (1936), ‘तुलसीदास’ (1939), ‘कुकुरमुत्ता’ (1942), ‘अणिमा’ (1943), ‘बेला’ (1946), ‘नए पत्ते’ (1946), ‘अर्चना’ (1950), ‘आराधना’ (1953), ‘गीत कुंज’ (1954), ‘सांध्य काकली’

और ‘अपरा’ निराला की प्रमुख काव्य-कृतियाँ हैं। ‘लिली’, ‘सखी’, ‘सुकुल की बीवी’ उनके प्रमुख कहानी-संग्रह और ‘कुल्ली भाट’, ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ उनके चर्चित उपन्यास हैं। ‘चाबुक’ शीर्षक से उनके निबंधों की एक पुस्तक भी प्रसिद्ध है।


🇮🇳 वर्ष 1976 में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला पर भारत सरकार द्वारा डाक टिकट जारी किया जा चुका है।

साभार: hindwi.org

🇮🇳 प्रसिद्ध छायावादी #हिंदी #कवि, #उपन्यासकार, #निबन्धकार और #कहानीकार #सूर्यकान्त_त्रिपाठी_निराला जी की जयंती पर उन्हें साहित्यप्रेमियों की ओर से हार्दिक श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व 🇮🇳💐🙏

🇮🇳 वंदे मातरम् 🇮🇳

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व 🇮🇳🌹🙏

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था 

#कवि, #उपन्यासकार, #निबन्धकार  #कहानीकार #सूर्यकान्त_त्रिपाठी_निराला #Poet, #Novelist, #Essayist  #Storyteller #Suryakant_Tripathi_Nirala

First Female Freedom Fighter of Bharat | Kittur Rani Chennamma | कित्तूर की रानी, वीरांगना रानी चेन्नम्मा | 23 अक्टूबर, 1778 -21 फरवरी 1829

 



Queen of Kittur, #Veerangana Rani Chennamma कित्तूर की रानी, वीरांगना  रानी चेन्नम्मा

#First_Female_Freedom_Fighter of #Bharat |  #Kittur #Rani #Chennamma

🇮🇳 19वीं सदी की शुरुआत में देश के बहुत से शासक अंग्रेजों की बदनीयत को समझ नहीं पाए थे। लेकिन उस समय भी कित्तूर की रानी, रानी चेन्नम्मा ने ब्रिटिश सेना के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी थी। 🇮🇳

🇮🇳 रानी चेन्नम्मा की कहानी लगभग झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की तरह है। इसलिए उनको 'कर्नाटक की लक्ष्मीबाई' भी कहा जाता है। वह पहली भारतीय शासक थीं जिन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह किया। भले ही अंग्रेजों की सेना के मुकाबले उनके सैनिकों की संख्या कम थी और उनको गिरफ्तार किया गया लेकिन ब्रिटिश शासन के खिलाफ बगावत का नेतृत्व करने के लिए उनको अब तक याद किया जाता है।

🇮🇳 चेन्नम्मा का जन्म 23 अक्टूबर, 1778 को #ककाती में हुआ था। यह #कर्नाटक के #बेलगावी जिले में एक छोटा सा गॉंव है। उनकी शादी देसाई वंश के राजा #मल्लासारजा से हुई जिसके बाद वह कित्तूर की रानी बन गईं। कित्तूर अभी कर्नाटक में है। उनको एक बेटा हुआ था जिनकी 1824 में मौत हो गई थी। अपने बेटे की मौत के बाद उन्होंने एक अन्य बच्चे #शिवलिंगप्पा को गोद ले लिया और अपनी गद्दी का वारिस घोषित किया। लेकिन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी 'हड़प नीति' के तहत उसको स्वीकार नहीं किया। हालांकि उस समय तक हड़प नीति लागू नहीं हुई थी फिर भी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1824 में कित्तूर पर कब्जा कर लिया।

🇮🇳 ब्रिटिश शासन ने शिवलिंगप्पा को निर्वासित करने का आदेश दिया। लेकिन चेन्नम्मा ने अंग्रेजों का आदेश नहीं माना। उन्होंने बॉम्बे प्रेसिडेंसी के लेफ्टिनेंट गवर्नर लॉर्ड एलफिंस्टन को एक पत्र भेजा। उन्होंने कित्तूर के मामले में हड़प नीति नहीं लागू करने का आग्रह किया। लेकिन उनके आग्रह को अंग्रेजों ने ठुकरा दिया। इस तरह से ब्रिटिश और कित्तूर के बीच लड़ाई शुरू हो गई। अंग्रेजों ने कित्तूर के खजाने और आभूषणों के जखीरे को जब्त करने की कोशिश की जिसका मूल्य करीब 15 लाख रुपये था। लेकिन वे सफल नहीं हुए।

🇮🇳 अंग्रेजों ने 20,000 सिपाहियों और 400 बंदूकों के साथ कित्तूर पर हमला कर दिया। अक्टूबर 1824 में उनके बीच पहली लड़ाई हुई। उस लड़ाई में ब्रिटिश सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा। कलेक्टर और अंग्रेजों का एजेंट सेंट जॉन ठाकरे कित्तूर की सेना के हाथों मारा गया। चेन्नम्मा के सहयोगी #अमातूरबेलप्पा ने उसे मार गिराया था और ब्रिटिश सेना को भारी नुकसान पहुँचाया था। दो ब्रिटिश अधिकारियों सर वॉल्टर एलियट और स्टीवेंसन को बंधक बना लिया गया। अंग्रेजों ने वादा किया कि अब युद्ध नहीं करेंगे तो रानी चेन्नम्मा ने ब्रिटिश अधिकारियों को रिहा कर दिया। लेकिन अंग्रेजों ने धोखा दिया और फिर से युद्ध छेड़ दिया। इस बार ब्रिटिश अफसर चैपलिन ने पहले से भी ज्यादा सिपाहियों के साथ हमला किया। सर थॉमस मुनरो का भतीजा और सोलापुर का सब कलेक्टर मुनरो मारा गया। रानी चेन्नम्मा अपने सहयोगियों #संगोल्ली_रयन्ना और #गुरुसिदप्पा के साथ जोरदार तरीके से लड़ीं। लेकिन अंग्रेजों के मुकाबले कम सैनिक होने के कारण वह हार गईं। उनको #बेलहोंगल के किले में कैद कर दिया गया। वहीं 21 फरवरी 1829 को उनकी मौत हो गई।

🇮🇳 भले ही चेन्नम्मा आखिरी लड़ाई में हार गईं लेकिन उनकी वीरता को हमेशा याद किया जाएगा। उनकी पहली जीत और विरासत का जश्न अब भी मनाया जाता है। हर साल कित्तूर में 22 से 24 अक्टूबर तक कित्तूर उत्सव लगता है जिसमें उनकी जीत का जश्न मनाया जाता है। रानी चेन्नम्मा को बेलहोंगल तालुका में दफनाया गया है। उनकी समाधि एक छोटे से पार्क में है जिसकी देखरेख सरकार के जिम्मे है।

🇮🇳 उनकी एक प्रतिमा नई दिल्ली के पार्लियामेंट कांप्लेक्स में लगी है। कित्तूर की रानी चेन्नम्मा की उस प्रतिमा का अनावरण 11 सितंबर, 2007 को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने किया था। प्रतिमा को कित्तूर रानी चेन्नम्मा स्मारक कमिटी ने दान दिया था जिसे विजय गौड़ ने तैयार किया था।

साभार: navbharattimes.indiatimes.com

🇮🇳 झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के समान #कित्तूर_की_रानी, कर्नाटक की स्वतंत्रता सेनानी वीरांगना #रानी_चेन्नम्मा जी को उनके बलिदान दिवस पर कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि !

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🇮🇳 वंदे मातरम् 🇮🇳

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व 🇮🇳🌹🙏

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था

#आजादी_का_अमृतकाल #veerangana #queen_chennamma_of_kittur  #वीरांगना #कित्तूर_की_रानी_चेन्नम्मा 

Scientist Dr. Shanti Swaroop Bhatnagar | वैज्ञानिक डॉ. शांति स्वरूप भटनागर | 21 फरवरी 1894 – 1 जनवरी 1955





 🇮🇳 Dr. Shanti Swarup Bhatnagar डॉ. शांति स्वरूप भटनागर वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) के संस्थापक निदेशक (और बाद में पहले महानिदेशक) थे, जिन्हें कई वर्षों में बारह राष्ट्रीय प्रयोगशालाएँ स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है। डॉ. भटनागर ने स्वतंत्र होने के बाद विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी बुनियादी ढाँचे के निर्माण और भारत की विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी नीतियों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

 🇮🇳  शांति स्वरूप भटनागर, (21 फरवरी 1894 – 1 जनवरी 1955) जाने माने भारतीय वैज्ञानिक थे। इनका जन्म शाहपुर (अब पाकिस्तान में) में हुआ था। इनके पिता परमेश्वरी सहाय भटनागर की मृत्यु तब हो गयी थी, जब ये केवल आठ महीने के ही थे। इनका बचपन अपने ननिहाल में ही बीता।

🇮🇳 डॉ. भटनागर ने सरकार में कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। 

वह विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के पहले अध्यक्ष थे। वह शिक्षा मंत्रालय के सचिव और सरकार के शैक्षिक सलाहकार थे। वह प्राकृतिक संसाधन और वैज्ञानिक अनुसंधान मंत्रालय के पहले सचिव और परमाणु ऊर्जा आयोग के सचिव भी थे। उन्होंने भारत के राष्ट्रीय अनुसंधान विकास निगम (एनआरडीसी) की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मैग्नेटो रसायन विज्ञान और इमल्शन के भौतिक रसायन विज्ञान के क्षेत्र में उनके शोध योगदान को व्यापक रूप से मान्यता मिली।

🇮🇳 1936 में, डॉ. भटनागर को ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश एम्पायर (ओबीई) से सम्मानित किया गया था। 1941 में उन्हें नाइट की उपाधि दी गई और 1943 में उन्हें रॉयल सोसाइटी, लंदन का फेलो चुना गया। उन्हें 1954 में भारत के राष्ट्रपति द्वारा पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।

🇮🇳 डॉ. भटनागर ने 1913 में पंजाब विश्वविद्यालय की इंटरमीडिएट परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और बीएससी की डिग्री के लिए फॉर्मन क्रिश्चियन कॉलेज में दाखिला लिया। 1916 में स्नातक की डिग्री लेने के बाद उन्होंने फॉर्मन क्रिश्चियन कॉलेज के भौतिकी और रसायन विज्ञान विभाग में प्रदर्शक के रूप में अपना पहला औपचारिक रोजगार करने का फैसला किया। बाद में वे दयाल सिंह कॉलेज में सीनियर डिमॉन्स्ट्रेटर बन गये। हालाँकि, रोजगार ने भटनागर के उच्च अध्ययन के प्रयासों में बाधा नहीं डाली। उन्होंने फॉर्मन क्रिश्चियन कॉलेज में रसायन विज्ञान में एमएससी पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया।

🇮🇳 अपनी मास्टर डिग्री पूरी करने के बाद वह 1921 में लंदन विश्वविद्यालय से डीएससी पूरा करने के लिए इंग्लैंड चले गए। भटनागर उसी वर्ष भारत लौट आए और 1928 में बीएचयू और बाद में पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर में शामिल हो गए, भटनागर ने डॉ. एन. माथुर के साथ संयुक्त रूप से एक उपकरण का आविष्कार किया जिसका नाम है बीएच-एमआईबी, जिसे लंदन की एक कंपनी द्वारा रॉयल सोसाइटी में प्रदर्शित किया गया था।

🇮🇳 डॉ. भटनागर ने कई औद्योगिक समस्याओं का नवीन समाधान प्रदान किया और विश्वविद्यालयों में व्यक्तिगत मौद्रिक लाभ अनुसंधान सुविधाओं को लगातार अस्वीकार कर दिया। 1 जनवरी 1955 को दिल का दौरा पड़ने से डॉ. भटनागर की मृत्यु हो गई।

🇮🇳 उनके सम्मान में प्रतिष्ठित पुरस्कार "शांति स्वरूप भटनागर (एसएसबी) विज्ञान और प्रौद्योगिकी पुरस्कार" की स्थापना की गई थी।


साभार: ssbprize.gov.in

🇮🇳 #पद्मभूषण से सम्मानित; प्रयोगशालाओं के पितामह प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक #डॉ_शान्ति_स्वरूप_भटनागर जी को उनकी जयंती पर हार्दिक श्रद्धांजलि !

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#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व 🇮🇳🌹🙏

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था

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Nutan Samarth Bahl | Famous Actresses| Born June 4, 1936; Died February 21, 1991| नूतन समर्थ बहल | मशहूर अभिनेत्री

 




Nutan Samarth Bahl (Born June 4, 1936; Died February 21, 1991) नूतन समर्थ बहल (जन्म- 4 जून, 1936; मृत्यु: 21 फ़रवरी, 1991) #हिन्दी #सिनेमा की सबसे प्रसिद्ध अभिनेत्रियों में से एक रही हैं। भारतीय सिनेमा जगत में नूतन को एक ऐसी अभिनेत्री के तौर पर याद किया जाता है जिन्होंने फ़िल्मों में अभिनेत्रियों के महज शोपीस के तौर पर इस्तेमाल किए जाने की परंपरागत विचार धारा को बदलकर उन्हें अलग पहचान दिलाई। सुजाता, बंदिनी, मैं तुलसी तेरे आंगन की, सीमा, #सरस्वती चंद्र, और मिलन जैसी कई फ़िल्मों में अपने उत्कृष्ट अभिनय से नूतन ने यह साबित किया कि नायिकाओं में भी अभिनय क्षमता है और अपने अभिनय की बदौलत वे दर्शकों को #सिनेमा हॉल तक लाने में सक्षम हैं।

🇮🇳 जीवन परिचय--

नूतन का जन्म 4 जून, 1936 को एक पढ़े लिखे परिवार में हुआ था। इनकी माता का नाम श्रीमती #शोभना_समर्थ और पिता का नाम श्री #कुमारसेन_समर्थ था। घर में #फ़िल्मी माहौल रहने के कारण नूतन अक्सर अपनी माँ के साथ शूटिंग देखने जाया करती थी। इस वजह से उनका भी रुझान #फ़िल्मों की ओर हो गया और वह भी अभिनेत्री बनने के ख्वाब देखने लगी।

🇮🇳 सिने कैरियर की शुरूआत--

नूतन ने बतौर बाल कलाकार फ़िल्म 'नल दमयंती' से अपने सिने कैरियर की शुरूआत की। इस बीच नूतन ने अखिल भारतीय सौंदर्य प्रतियोगिता में हिस्सा लिया जिसमें वह प्रथम चुनी गई लेकिन बॉलीवुड के किसी निर्माता का ध्यान उनकी ओर नहीं गया। बाद में अपनी #माँ और उनके मित्र मोतीलाल की सिफारिश की वजह से नूतन को वर्ष 1950 में प्रदर्शित फ़िल्म 'हमारी बेटी' में अभिनय करने का मौका मिला। इस फ़िल्म का निर्देशन उनकी माँ शोभना समर्थ ने किया। इसके बाद नूतन ने 'हमलोग', 'शीशम', 'नगीना' और 'शवाब' जैसी कुछ फ़िल्मों में अभिनय किया लेकिन इन फ़िल्मों से वह कुछ ख़ास पहचान नहीं बना सकी।

🇮🇳 'सीमा' से मिली पहचान--

वर्ष 1955 में प्रदर्शित फ़िल्म 'सीमा' से नूतन ने विद्रोहिणी नायिका के सशक्त किरदार को रूपहले पर्दे पर साकार किया। इस फ़िल्म में नूतन ने सुधार गृह में बंद कैदी की भूमिका निभायी जो चोरी के झूठे इल्जाम में जेल में अपने दिन काट रही थी। फ़िल्म 'सीमा' में #बलराज_साहनी सुधार गृह के अधिकारी की भूमिका में थे। बलराज साहनी जैसे दिग्गज कलाकार की उपस्थित में भी नूतन ने अपने सशक्त अभिनय से उन्हें कड़ी टक्कर दी। इसके साथ ही फ़िल्म में अपने दमदार अभिनय के लिये नूतन को अपने सिने कैरियर का सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म अभिनेत्री का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ।

🇮🇳 बहुआयामी प्रतिभा--

नूतन ने देवानंद के साथ 'पेइंग गेस्ट' और 'तेरे घर के सामने' में नूतन ने हल्के-फुल्के रोल कर अपनी बहुआयामी प्रतिभा का परिचय दिया। वर्ष 1958 में प्रदर्शित फ़िल्म सोने की चिडि़या के हिट होने के बाद फ़िल्म इंडस्ट्री में #नूतन के नाम के डंके बजने लगे और बाद में एक के बाद एक कठिन भूमिकाओं को निभाकर वह फ़िल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गई। वर्ष 1958 में प्रदर्शित फ़िल्म 'दिल्ली का ठग' में नूतन ने स्विमिंग कॉस्टयूम पहनकर उस समय के समाज को चौंका दिया। फ़िल्म बारिश में नूतन काफ़ी बोल्ड दृश्य दिए जिसके लिए उनकी काफ़ी आलोचना भी हुई लेकिन बाद में विमल राय की फ़िल्म 'सुजाता' एवं 'बंदिनी' में नूतन ने अत्यंत मर्मस्पर्शी अभिनय कर अपनी बोल्ड अभिनेत्री की छवि को बदल दिया। सुजाता, बंदिनी और दिल ने फिर याद किया जैसी फ़िल्मों की कामयाबी के बाद नूतन ट्रेजडी क्वीन कही जाने लगी। अब उनपर यह आरोप लगने लगा कि वह केवल दर्द भरे अभिनय कर सकती हैं लेकिन छलिया और सूरत जैसी फ़िल्मों में अपने कॉमिक अभिनय कर नूतन ने अपने आलोचकों का मुँह एक बार फिर से बंद कर दिया। वर्ष 1965 से 1969 तक नूतन ने दक्षिण भारत के निर्माताओं की फ़िल्मों के लिए काम किया। इसमें ज्यादातर सामाजिक और पारिवारिक फ़िल्में थी। इनमें गौरी, मेहरबान, खानदान, मिलन और भाई बहन जैसी #सुपरहिट फ़िल्में शामिल है।

🇮🇳 फ़िल्म 'सुजाता' और 'बंदिनी'--

विमल राय की फ़िल्म 'सुजाता' एवं 'बंदिनी' नूतन की यादगार फ़िल्में रही। वर्ष 1959 में प्रदर्शित फ़िल्म सुजाता नूतन के सिने कैरियर के लिए मील का पत्थर साबित हुई। फ़िल्म में नूतन ने अछूत कन्या के किरदार को रूपहले पर्दे पर साकार किया1 इसके साथ ही फ़िल्म में अपने दमदार अभिनय के लिये वह अपने सिने कैरियर में दूसरी बार फ़िल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित की गई। वर्ष 1963 में प्रदर्शित फ़िल्म 'बंदिनी 'भारतीय सिनेमा जगत् में अपनी संपूर्णता के लिए सदा याद की जाएगी। फ़िल्म में नूतन के अभिनय को देखकर ऐसा लगा कि केवल उनका चेहरा ही नहीं बल्कि हाथ पैर की उंगलियां भी अभिनय कर सकती है। इस फ़िल्म में अपने जीवंत अभिनय के लिये नूतन को एक बार फिर से सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्म फेयर पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। इस फ़िल्म से जुड़ा एक रोचक पहलू यह भी है फ़िल्म के निर्माण के पहले फ़िल्म अभिनेता अशोक कुमार की निर्माता विमल राय से अनबन हो गई थी और वह किसी भी कीमत पर उनके साथ काम नहीं करना चाहते थे लेकिन वह नूतन ही थी जो हर कीमत में अशोक कुमार को अपना नायक बनाना चाहती थी। नूतन के जोर देने पर अशोक कुमार ने फ़िल्म 'बंदिनी' में काम करना स्वीकार किया था।

🇮🇳 नूतन और उनके नायक--

नूतन ने अपने सिने कैरियर में उस दौर के सभी दिग्गज और नवोदित अभिनेताओं के साथ अभिनय किया। राजकपूर के साथ फ़िल्म 'अनाड़ी' में भोला-भाला प्यार हो या फिर अशोक कुमार के साथ फ़िल्म 'बंदिनी' में संजीदा अभिनय या फिर पेइंग गेस्ट में देवानंद के साथ छैल छबीला रोमांस हो नूतन हर अभिनेता के साथ उसी के रंग में रंग जाती थी। वर्ष 1968 में प्रदर्शित फ़िल्म 'सरस्वती चंद्र' की अपार सफलता के बाद नूतन #फ़िल्म_इंडस्ट्री की नंबर वन नायिका के रूप मे स्थापित हो गई। वर्ष 1973 में फ़िल्म 'सौदागार' में अमिताभ बच्चन जैसे नवोदित अभिनेता के साथ काम करके नूतन ने एक बार फिर से अपना अविस्मरणीय अभिनय किया। अस्सी के दशक में नूतन ने चरित्र भूमिकाएँ निभानी शुरू कर दी और कई फ़िल्मों में माँ के किरदार को रुपहले पर्दे पर साकार किया। इन फ़िल्मों में 'मेरी जंग', 'नाम' और 'कर्मा' जैसी ख़ास तौर पर उल्लेखनीय है। फ़िल्म 'मेरी जंग' के लिए अपने सशक्त अभिनय के लिए नूतन सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के पुरस्कार से सम्मानित की गई। फ़िल्म 'कर्मा' में नूतन ने अभिनय सम्राट #दिलीप_कुमार के साथ काम किया। इस फ़िल्म में नूतन पर फ़िल्माया यह गाना दिल दिया है जाँ भी देंगे ऐ वतन तेरे लिए.. श्रोताओं के बीच काफ़ी लोकप्रिय हुआ।

🇮🇳 सम्मान और पुरस्कार--

नूतन की प्रतिभा केवल अभिनय तक ही नहीं सीमित थी वह गीत और ग़ज़ल लिखने में भी काफ़ी दिलचस्पी लिया करती थीं। हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में बतौर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री सर्वाधिक फ़िल्म फेयर पुरस्कार प्राप्त करने का कीर्तिमान नूतन के नाम दर्ज है। नूतन को अपने सिने कैरियर में पाँच बार (सुजाता, बंदिनी, मैं तुलसी तेरे आँगन की, सीमा, मिलन) फ़िल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। नूतन को वर्ष 1974 में भारत सरकार द्वारा पद्म श्री से सम्मानित किया गया।

🇮🇳 निधन--

लगभग चार दशक तक अपने सशक्त अभिनय से दर्शकों के बीच ख़ास पहचान बनाने वाली यह महान् अभिनेत्री 21 फ़रवरी, 1991 को इस दुनिया से अलविदा कह गई।

साभार: bharatdiscovery.org

सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए सर्वाधिक पाँच बार (सुजाता, बंदिनी, मैं तुलसी तेरे आँगन की, सीमा, मिलन) फ़िल्म फेयर पुरस्कार एवं #पद्मश्री से सम्मानित; हिन्दी सिनेमा की #सुप्रसिद्ध अभिनेत्री #नूतन जी की पुण्यतिथि पर उन्हें सिनेप्रेमियों की ओर से हार्दिक श्रद्धांजलि !

🇮🇳💐🙏

#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व 🇮🇳🌹🙏

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था

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20 फ़रवरी 2024

World Day of Social Justice | 20 February | विश्व सामाजिक न्याय दिवस




🇮🇳 कानून को #न्यायालय की चार दीवारी से बाहर आना होगा। जो व्यक्ति अशिक्षा, आर्थिक अभाव या किसी भी अन्य कारणों से न्यायालय तक नहीं पहुँच पाता है, उसे भी #न्याय मिले इस बात को सभी को मिलकर सुनिश्चित करना है। 🇮🇳

🇮🇳 #विश्व_सामाजिक_न्याय_दिवस  #World_Social_Justice_Day #20 February विश्व में हर वर्ष 20 फरवरी को मनाया जाता है।

🇮🇳 यह दिवस विभिन्न सामाजिक मुद्दों, जैसे– बहिष्कार, बेरोजगारी तथा गरीबी से निपटने के प्रयासों को बढ़ावा देने के लिए मनाया जाता है।

🇮🇳 इसके तहत वैश्विक सामाजिक न्याय विकास सम्मेलन आयोजित कराने तथा 24वें महासभा सत्र का आह्वान करने की घोषणा की गयी। इस अवसर पर यह घोषणा की गयी कि 20 फरवरी को प्रत्येक वर्ष विश्व न्याय दिवस मनाया जायेगा। प्रत्येक वर्ष विभिन्न कार्यों एवं क्रियाकलापों का आयोजन किया जायेगा। संयुक्त राष्ट्र ने कहा कि- इस दिवस पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय को गरीबी उन्मूलन के लिए कार्य करना चाहिए। सभी स्थानों पर लोगों के लिए सभ्य काम एवं रोजगार की उपलब्धता सुनिश्चित की जानी चाहिए तभी सामाजिक न्याय संभव है।


🇮🇳 इस अवसर पर विभिन्न संगठनों, जैसे- संयुक्त राष्ट्र एवं अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा लोगों से सामाजिक न्याय हेतु अपील जारी की जाती है।

🇮🇳 सामाजिक न्याय का अर्थ है, लिंग, आयु, धर्म, अक्षमता तथा संस्कृति की भावना को भूलकर समान समाज की स्थापना करना। संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 2007 में इस दिवस की स्थापना की गयी।

🇮🇳 सन 2009 से इस दिवस को पूरे विश्व में सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों के माध्यम से मनाया जाता है। रोटी, कपड़ा, मकान, सुरक्षा, चिकित्सा, अशिक्षा, गरीबी, बहिष्कार और बेरोजगारी जैसे मुद्दों से निपटने के प्रयासों को बढ़ावा देने की आवश्यकता को पहचानने के लिए विश्व सामाजिक न्याय दिवस मनाने की शुरूआत की गयी है।

🇮🇳 सी.एम.एस.(#Centers for #Medicare & #Medicaid #Services ) विगत 55 वर्षों से लगातार विश्व के दो अरब से अधिक बच्चों के सुरक्षित भविष्य हेतु #विश्व_एकता व #विश्व_शान्ति का बिगुल बजा रहा है, परन्तु यू.एन.ओ. के ऑफिसियल एन.जी.ओ. का दर्जा मिलने के बाद विश्व पटल पर इसकी प्रतिध्वनि और जोरदार ढंग से सुनाई देगी। सी.एम.एस. की सम्पूर्ण शिक्षा पद्धति का मूल यही है कि सभी को सामाजिक न्याय सहजता से मिल सके, मानवाधिकारों का संरक्षण हो, भावी पीढ़ी को सम्पूर्ण मानव जाति की सेवा के लिए तैयार किया जा सके, यही कारण है सर्वधर्म समभाव, विश्व मानवता की सेवा, विश्व बन्धुत्व व विश्व एकता के सद्प्रयास इस विद्यालय को एक अनूठा रंग प्रदान करते हैं, जिसकी मिसाल शायद ही विश्व में कहीं और मिल सके। 

🇮🇳 कानून को न्यायालय की चार दीवारी से बाहर आना होगा। जो व्यक्ति अशिक्षा, आर्थिक अभाव या किसी भी अन्य कारणों से न्यायालय तक नहीं पहुँच पाता है, उसे भी न्याय मिले इस बात को सभी को मिलकर सुनिश्चित करना है।

साभार: indiaolddays.com

आप सभी को #विश्व_सामाजिक_न्याय_दिवस के अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएँ !

🇮🇳🌹🙏

साभार: चन्द्र कांत  (Chandra Kant) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभूमि सेवा संस्था

#World_Day_of_Social_Justice   #20_February  #social #justice #court

Makar Sankranti मकर संक्रांति

  #मकर_संक्रांति, #Makar_Sankranti, #Importance_of_Makar_Sankranti मकर संक्रांति' का त्यौहार जनवरी यानि पौष के महीने में मनाया जाता है। ...